अमेरिका में समलैंगिक विवाह को सुप्रीम कोर्ट से अनुमति यों ही नहीं मिल गई. उस के पीछे अमेरिका की बदलती सोच है. अमेरिका कहने को तो सदा ही नए विचारों का स्वागत करता रहा है पर वहां पुरातनपंथियों की कमी न थी जो चर्च की महत्ता, अमेरिका की धौंस के अधिकार, गर्भपात पर पाबंदी, समलैंगिकों को सामाजिक नासूर व अपराधी मानना जैसी विचारधाराओं पर विश्वास रखते थे. यह अमेरिका की पूंजीवादी व्यवस्था का परिणाम रहा है और अमेरिकी सोचते रहे हैं कि उन के देश की प्रगति पूंजीवाद के कारण हुई है. पिछले 15 सालों से अमेरिका की सोच में फर्क आ रहा है. सामाजिक व आर्थिक मुद्दों पर अमेरिका अब अति पूंजीवादी नीति का समर्थन करने में कतराने लगा है. अमेरिका में गेप्राइड उत्सव, समलैंगिक विवाह, लिव इन रिलेशनशिप, अंतर्रंगीय विवाह, विदेशियों को जगह देने के बारे में कट्टरता कम हो रही है. अति पूंजीवाद के खिलाफ बात हो रही है. औक्युपाई वाल स्ट्रीट जैसा आंदोलन सफल हो रहा है.

अमेरिका में एक सर्वे के अनुसार, कट्टरपंथियों की गिनती 39 प्रतिशत से घट कर 31 प्रतिशत रह गई है और उदारपंथी वामपंथियों की संख्या पूरी जनता के 21 प्रतिशत से बढ़ कर 32 प्रतिशत हो गई है. यह बदलाव महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अब अमेरिका की नीतियों का बदलाव दिखने लगा है. अमेरिका ने अपनी आर्थिक प्रगति की नींव को एक तरह से इंगलैंड की कट्टरता के विरुद्ध उदार चेहरे के तौर पर पेश किया था. अमेरिका ने व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को संविधान का हिस्सा बनाया. अश्वेतों को गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए उस ने एक गृहयुद्ध लड़ा. अमेरिका ने यूरोप में घृणा से देखे जाने वाले यहूदियों को बराबर की जगह दी. जब मार्क्सवाद ने यूरोप में कदम जमाने शुरू किए और तानाशाही ताकतों ने फिर से शासन संभालना शुरू किया, तब लोकतंत्र को बनाए रखने के साथसाथ अमेरिका कम्युनिस्ट विरोधी होते हुए कट्टरपंथी भी बनने लगा था. जब दुनिया के दूसरे देशों में स्वतंत्रताएं मिलने लगीं तो अमेरिका का संवैधानिक ढांचा, वोट के जरिए शासकों को चुना जाना, न्यायपालिका व प्रैस की स्वतंत्रता के  ज्यादा माने नहीं रहे और कई मामलों में पिछली सदी के अंतिम दशकों में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन, रौनाल्ड रीगन, जौर्ज बुश आदि की छत्रछाया में कट्टरपंथी फलेफूले.

वर्ष 2008 के स्टौक मार्केट गुब्बारे के फूटने के बाद अमेरिका को एहसास हुआ कि पूंजीवाद बेलगाम हो रहा है और उदारपंथियों को सक्रिय होना जरूरी है वरना 1 प्रतिशत लोग 99 प्रतिशत पर राज ही नहीं करेंगे, उन्हें लूट भी लेंगे. भारत में कट्टरपंथियों को हमेशा जगह मिलती रही है. इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ और समाजवाद के नारों के बावजूद कट्टरपंथी समाज को यथावत रखने के पक्ष में थीं. बाद में मंडल आयोग के आने के कारण राजनीति में आए नेताओं ने एक कट्टरपंथी सोच को दूसरी कट्टरपंथी सोच से बदला था. मूलभूत सोच अभी वही ही है. दहेज, कन्याभू्रण हत्या, किसानों की जमीन हथियाना, विचारों पर धार्मिक संस्थाओं के अंकुश का समर्थन, औनर किलिंग, बढ़ता जमीन संघर्ष उसी कट्टरपंथी सोच का नतीजा है. पिछड़े, दबेकुचले, गरीबों के मसीहा कम्युनिस्ट, ममता बनर्जी, लालू प्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव एक कट्टर सोच को दूसरी कट्टर सोच से हटाने मात्र का नाटक कर रहे थे और इसीलिए आज अति कट्टरपंथी हावी हो रहे हैं. यह असल में विस्फोटक स्थिति है. देश की प्रगति खुले विचारों की जमीन पर हो सकती है. पथरीली जमीन पर पेड़ नहीं उगते. अमेरिका एक राह दिखा रहा है. दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र क्या सर्वशक्तिमान लोकतंत्र से कुछ सीखेगा?

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