बलात्कार के बढ़ते मामलों की रिपोर्टों के साथसाथ आरोप सिद्ध न होने पर छूटने वाले बेचारे पुरुषों की गिनती भी बढ़ती जा रही है. बलात्कार के बहुत से मामले ऐसे आ रहे हैं जिन में महिला महीनों व सालों तक यौन संबंध रखने के बाद शिकायत करती है कि उस से विवाह का वादा कर के या उसे कोई धमकी दे कर साथ सोने को उकसाया गया था. अदालतें आमतौर पर इस तरह के मामलों में पेश की गई गवाही से संतुष्ट नहीं होतीं. अगर स्त्रीपुरुष दोनों सहमति से संबंध बनाएं तो उसे गुनाह नहीं कहा जा सकता. और यदि न धोखा हो, न ही जोरजबरदस्ती तो यौन संबंध को बलात्कार नहीं कहा जा सकता. काफी मामलों में तो शुरू में शिकायत करने वाली महिला ही मुकर जाती है कि उस के साथ बलात्कार हुआ. और वह स्वीकार कर लेती है कि संबंध सहमति के आधार पर बने थे. अब एक अदालत ने रोचक सवाल खड़ा किया है कि ऐसे पुरुष, जिस पर बलात्कार का आरोप सिद्ध न हुआ हो, को पीडि़त पक्ष कहा जाए या नहीं. आखिर उस ने महिला की गलत शिकायत के कारण महीनों जेल में गुजारे होंगे, समाज का अपमान सहा होगा, उस की नौकरी या व्यवसाय पर फर्क पड़ा होगा और भारी पैसा खर्चा हो गया होगा. ऐसे में इस तरह के पुरुष को पीडि़त न कहा जाए तो किसे कहा जाए?

बलात्कार के बहुत से मामले ऐसे ही होते हैं जहां महिला बदले की भावना से आरोप लगाती है भले ही उन दोनों में सहमति से यौन संबंध बने हों. जो वास्तविक अपराध के मामले होते हैं उन में तो बलात्कारी व पीडि़ता एकदूसरे को जानते ही नहीं और बलात्कारी चोरों की तरह इज्जत पर हमला करता है. मुसीबत वहां है जहां दोनों एकदूसरे को जानते ही नहीं, चाहते भी हैं. बलात्कार रबड़ की एक ऐसी रस्सी बन गई है जिसे ज्यादा खींचोगे तो पुरुष और सभी, पुराने जमाने की तरह अलगथलग रहने को मजबूर हो जाएंगे. अगर दोस्ती की स्वतंत्रता देनी ही है तो यौन स्वतंत्रता भी देनी होगी और बलात्कार की परिभाषा भी बदलनी होगी कि यह केवल जबरदस्ती वाले मामलों में ही होता है और इस का झूठा आरोप पुरुष को पीडि़त बना कर उसे उलटा शिकायत करने का हक देगा.

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