भारतीय राजनीति इन दिनों वर्चस्व की लड़ाई में मशगूल है. फिर वह तृणमूल कांग्रेस हो या मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी हो या नईनवेली आम आदमी पार्टी. जहां तक कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी का सवाल है, इन दोनों पार्टियों में नेतृत्व को ले कर समयसमय पर विरोध और उठापटक के साथ वर्चस्व के लिए सत्ता संघर्ष का अपना इतिहास रहा है. आम आदमी पार्टी को इस में अपवाद माना जा रहा था लेकिन पिछले कुछ दिनों में पार्टी में जो ड्रामा हुआ उस से साफ जाहिर है कि वर्चस्व की लड़ाई में यह पार्टी भी अब अछूती नहीं रही. जबजब पार्टी के दूसरी कतार के नेताओं ने शीर्ष पर आने की कवायद शुरू की है तो ऐसे नेताओं को उन की औकात बताने में पार्टी ने कतई देरी नहीं की.
आजादी से पहले जवाहरलाल नेहरू बनाम सुभाष चंद्र बोस और बाद में नेहरू बनाम सरदार वल्लभभाई पटेल का सत्ता संघर्ष जगजाहिर है. कहा जाता है महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद सी राजगोपालाचारी, सुचेता कृपलानी जैसे कई दिग्गज नेताओं को दरकिनार कर नेहरू ने पार्टी में अपना वर्चस्व कायम किया. नेहरू के बाद इंदिरा गांधी बनाम मोराजी देसाई ऐंड कंपनी के बीच वर्चस्व की लड़ाई इतिहास के पन्नों में दर्ज है. इंदिरा गांधी की इस बात के लिए बड़ी आलोचना भी हुई कि उन्होंने कांग्रेसी नेताओं की एक पूरी पीढ़ी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. इस के अलावा अर्जुन सिंह या शरद पवार बनाम नरसिम्हाराव, प्रकाश करात बनाम सीताराम येचुरी, उद्धव बनाम राज ठाकरे के बीच वर्चस्व की लड़ाई की मिसालें भारतीय राजनीति में हैं.
‘आप’ में तूतू मैंमैं
अब जहां तक आम आदमी पार्टी का सवाल है तो यह पार्टी शुरू से ही व्यक्ति केंद्रित पार्टी रही है. दिल्ली विधानसभा में इतनी बड़ी जीत मिलने से पहले यही कहा जा रहा था कि आम आदमी पार्टी अरविंद केजरीवाल को केंद्र में रख कर अचानक पैदा हुए बहुत सारे नेताओं की असंगठित भीड़ है, जिस का न कोई सिद्धांत है और न कोई विचारधारा. आप के जन्मकाल से जुड़े रहे लोहियावादी योगेंद्र यादव और कानूनी दांवपेच में माहिर प्रशांत भूषण जैसे नेताओं का मानना है कि पार्टी भ्रष्टाचार मुक्त भारत का लक्ष्य ले कर चली थी, तो अब केवल दिल्ली ही भ्रष्टाचार मुक्त क्यों? जबकि पूरे देश की जनता भष्टाचार से मुक्ति की आस लगाए बैठी है.
चूंकि दिल्ली की जनता ने वोट अरविंद केजरीवाल को ही दिया है, इस आधार पर केजरीवाल और उन के समर्थक, योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की हैसियत को तूल देने को तैयार नहीं हैं. अरविंद दिल्ली पर निष्कंटक राज करना चाहते हैं, इसीलिए योगेंद्र और प्रशांत की चिकचिक उन्हें बरदाश्त नहीं. अरविंद समर्थक ‘आप’ नेताओं को लगने लगा कि पार्टी से इन की छुट्टी कर देने से अरविंद केजरीवाल का रास्ता सुगम हो जाएगा और इसीलिए इन दोनों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
‘आप’ की तुलना असम गण परिषद से भी की जा सकती है, जो छात्र आंदोलन से पैदा हुई पार्टी है. इस में प्रफुल्ल कुमार महंत और भृगु फुकन एक ही कतार के नेता हुआ करते थे. लेकिन जब प्रफुल्ल कुमार महंत मुख्यमंत्री बने और भृगु फुकन राज्य के गृहमंत्री बने तो दोनों के बीच पहले और दूसरे नंबर के बीच अहं का टकराव शुरू हुआ. नतीजतन, पार्टी और पार्टी के नेता तितरबितर हो गए. नूतन असम गण परिषद और असम गण परिषद (प्रोग्रैसिव) के नाम पर असम गण परिषद बिखर कर रह गया. आज स्थिति यह है कि इन का कोई खास नामलेवा भी नहीं रहा.
‘आप’ के केंद्र में भले ही अरविंद केजरीवाल हों लेकिन भारतीय राजनीति में इसे स्थान दिलाने में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान जुड़े सिविल सोसाइटी का अवदान कुछ कम नहीं रहा है. ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ नामक संगठन से खड़ी हुई ‘आप’ में योगेंद्र्र यादव और प्रशांत भूषण सिविल सोसाइटी के नुमाइंदे जैसे अन्य कई नेता भी अरविंद केजरीवाल के समानांतर कतार में थे. मनभेदमतभेद के बावजूद पार्टी ने चुनाव लड़ा और भाजपा के रणनीतिकारों को जबरदस्त पटखनी दी.
ममतामुकुल के बीच तनातनी
तृणमूल कांग्रेस पार्टी में वर्चस्व के मुद्दे पर ममता बनर्जी व मुकुल राय एकदूसरे के आमनेसामने हैं. लोकसभा चुनाव के बाद मुकुल पार्टी में नंबर 2 की हैसियत से आगे बढ़ कर अपनेआप को पार्टी का रणनीतिकार मान कर सर्वेसर्वा बनने के लिए जोड़तोड़ में लगे हुए थे. मुगालता यह हो चला था कि उन के बिना पार्टी एक कदम नहीं चल सकेगी. मुकुल राय, कबीर सुमन प्रकरण भूल गए और पार्टी गठन करने का श्रेय लेते हुए यहां तक कह डाला कि पार्टी के असली संस्थापक वे खुद हैं. ममता ने बहुत बाद में पार्टी की सदस्यता ली. ममता पर भला यह धौंस कैसे चलती. ममता बनर्जी ने पार्टी से मुकुल राय का पत्ता ही साफ कर दिया और दूसरे नंबर के नेता के रूप में अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी का अभिषेक कर दिया. सब से पहले ममता ने अभिषेक बनर्जी को पार्टी में शामिल किया. फिर लोकसभा चुनाव में डायमंड हार्बर से पार्टी का टिकट दिया. अभिषेक को जीत दिलाने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं का बड़ा हिस्सा पूरी तरह से मैदान में उतारा गया. अभिषेक की जीत से मुकुल राय समेत उन के समर्थकों, तृणमूल के अन्य नेताओं में खलबली मच गई थी.
मुकुल सहित पार्टी के और कुछ नेताओं, जो खुद को अलगअलग स्तर पर दूसरी कतार के नेता मान कर चल रहे थे, को अभिषेक बनर्जी से खतरा नजर आने लगा. बगावत का कीड़ा हिलोरे मारने लगा. ममता बनर्जी पर परिवारतंत्र चलाने का आरोप लगाया जाने लगा. इस बीच, सारदा मामले में सीबीआई में मुकुल की पेशी ने ममता और मुकुल के बीच अविश्वास को और अधिक हवा दी. मुकुल की मंशा भांप कर ममता ने इशारे ही इशारे में धमकाते हुए संदेश भी दिया कि बाघ का नाखून कैसे उखाड़ा जाता है, वे बखूबी जानती हैं पर मुकुल बाज नहीं आए. जाहिर है ममता ने जैसा कहा वैसा कर के दिखाया. पार्टी के तमाम पदों से उन्हें हटा दिया गया और तमाम पद उन्हें दे दिए गए हैं, जो तब तक मुकुल के मातहत थे. फिलहाल मुकुल राज्यसभा से पार्टी के सांसद हैं.
इस से पहले माओवादी समर्थक के रूप में जाने जाने वाले गायकपत्रकार कबीर सुमन न केवल लोकसभा में पार्टी के सांसद थे बल्कि लोकसभा चुनाव में रिकौर्ड वोटों से उन्होंने जीत दर्ज की थी. लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद ममता द्वारा माओवादियों पर की गई कार्यवाही से, खासतौर पर माओवादी कमांडर किशनजी की धोखे से हत्या के बाद कबीर सुमन के बागी तेवर अपनाने पर पार्टी ने उन से इसी तरह किनारा कर लिया था. लेकिन मुकुल प्रकरण से सिंगूर भूमि अधिग्रहण आंदोलन से उभरे नेता शुभेंदु अधिकारी, जो खुद भी बागी तेवर दिखा रहे थे, मुकुल की दुर्गति देख कर फिलहाल अपने खोल में सिमट गए हैं.
बहरहाल, मुकुल राय को मौका मिल ही गया. पार्टी फंड को ले कर प्रवर्तन निदेशालय तृणमूल से बारबार ब्योरा मांग रही है. पार्टी फंड में जोड़तोड़ का काम अब तक मुकुल राय ही करते रहे हैं. गौरतलब है कि ऐसी कुछ कंपनियों से चंदे का ब्योरा दिया गया है, जिस की सालाना आय महज 5 हजार रुपए है. लेकिन अब चूंकि पार्टी की हर जिम्मेदारी से फारिग हैं मुकुल, इसीलिए प्रवर्तन निदेशालय से निबटने से भी उन्होंने अपना पल्ला झाड़ लिया है. फिलहाल पार्टी का चंदा तृणमूल के गले की फांस बना हुआ है. चर्चा थी कि मुकुल पार्टी से अगर निष्कासित नहीं किए गए तो वे खुद तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर भाजपा या अन्य किसी पार्टी में शामिल हो जाएंगे. लेकिन हाल ही में भाजपा के बंगाल प्रभारी सिद्धार्थनाथ सिंह ने ऐसी चर्चा पर विराम लगाते हुए साफ कर दिया कि जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं उन को पार्टी में शामिल करने का सवाल ही नहीं उठता. लेकिन इस पर भी, ममता की इस समय सब से बड़ी चिंता यह है कि मुकुल राय तृणमूल कांग्रेस व ममता बनर्जी को किस तरह और कितना बड़ा झटका दे सकते हैं.
भाजपा में हाशिए पर बुजुर्ग नेता
2014 में लोकसभा चुनाव से बहुत पहले भाजपा में खासी उठापठक चली. भाजपा लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ चेहरे को दरकिनार कर के पार्टी नई पीढ़ी के नरेंद्र्र मोदी, अमित शाह, राजनाथ सिंह की तिकड़ी के साथ आई. लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल करने के बाद बेंगलुरु में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में साफ कर दिया गया कि अगले 2 दशकों तक भाजपा में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का वर्चस्व रहने वाला है. वैसे बेंगलुरु में नई पीढ़ी के बीच भी वर्चस्व की लड़ाई एक बार फिर सामने आई. अरुण जेटली का दो फ्रंट पर संघर्ष चल रहा था. एक तरफ सुषमा स्वराज थीं तो दूसरी तरफ राजनाथ सिंह. लोकसभा चुनाव के बाद सुषमा स्वराज को विदेश और अरुण जेटली को वित्त मंत्रालय दे कर दोनों का अहं शांत कर दिया गया. उधर, 2009 से ही अध्यक्ष राजनाथ सिंह और महासचिव अरुण जेटली के बीच पार्टी में अपनीअपनी साख को ले कर तनातनी शुरू हो चुकी थी. लेकिन अब पार्टी में तीसरे नंबर के लिए संघर्ष चल रहा था. राजनाथ और सुषमा स्वराज को पीछे पछाड़ कर अरुण जेटली आगे निकल गए. बेंगलुरु कार्यकारिणी की बैठक में मंच पर अरुण जेटली को स्थान दे कर पार्टी ने इस चर्चा पर विराम लगा दिया. जहां तक पार्टी में तीसरे नंबर का सवाल है तो एक समय ऐसा था जब पार्टी में केवल 2 चेहरे थे. अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी. बाद में मुरली मनोहर जोशी को पार्टी का अध्यक्ष बना कर उन्हें तीसरे नंबर का स्थान दिया गया पर अब वे हाशिए पर धकेल दिए गए हैं. वैसे 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी और गोविंदाचार्य के बीच भी रस्साकशी तब खुल कर सामने आई जब गोविंदाचार्य ने बयान दे डाला कि वाजपेयी तो पार्टी का मुखौटा मात्र हैं. हालांकि इस बयान की कीमत गोविंदाचार्य को चुकानी पड़ी और उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता नापना पड़ा.
भाजपा में सत्ता संघर्ष की और भी मिसालें हैं. गुजरात में 2001 में आए भुज भूकंप के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल और नरेंद्र मोदी की तनातनी जगजाहिर है. इस में केशुभाई पटेल को नरेंद्र मोदी के हाथों मात खानी पड़ी. शंकर सिंह वाघेला भी भाजपा में एक ऐसा ही नाम है, जिन्हें पार्टी में नरेंद्र मोदी का बढ़ता कद रास नहीं आ रहा था. तब भाजपा से अलग हो कर उन्होंने राष्ट्रीय जनता पार्टी का गठन किया. बाद में कांग्रेस में जा शामिल हुए. अब वापस भाजपा में लौटने का जुगाड़ बैठा रहे हैं.भाजपा की साध्वी नेत्री उमा भारती को रामजन्म भूमि आंदोलन के दौरान फायर ब्रैंड की पदवी क्या मिल गई, पार्टी में उन्हें अपने वर्चस्व का मुगालता हो गया. 2004 में भाजपा की उच्चाधिकार समिति की बैठक में खुलेआम लालकृष्ण आडवा णी को खूब खरीखोटी सुनाईं और दनदनाती हुई भरी सभा से बाहर निकल गई थीं. ऐसे में भला आडवाणी बरदाश्त क्यों करते. जल्द ही पार्टी ने उमा को बाहर का रास्ता दिखा दिया. वर्षों बाहर रहने के बाद उमा फिर भाजपा में आईं.
कांग्रेस में जोरआजमाइश
कांग्रेस की बात करें तो समयसमय पर कई नेताओं ने जोर आजमाइश की. राजीव गांधी की हत्या के बाद शरद पवार और अर्जुन सिंह को पटखनी दे कर नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने. सत्ता संघर्ष को तब जा कर विराम लगा जब शरद पवार को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बना दिया गया और रूठे अर्जुन सिंह ने खुद ही पार्टी छोड़ दी. पर नरसिम्हा राव को कुरसी की ऐसी लत लग गई कि वे अपनेआप को सर्वेसर्वा समझने लगे. तब नेहरू परिवार के एकनिष्ठ नेताओं के बीच सोनिया गांधी को लाने की सुगबुगाहट शुरू हो गई. नतीजतन, धीरेधीरे नरसिम्हा राव में असुरक्षा की भावना घर करती गई. पार्टी में अपनी साख बनाए रखने के लिए नरसिम्हा राव ने हवाला और झारखंड मुक्ति मोरचे के सांसदों को खरीदने का तिकड़म शुरू किया. इसी बीच, बाबरी मसजिद कांड, सैंट किड्स कांड, लक्खूभाई पाठक कांड ने उन की छवि एक ऐसे नेता की बना दी जो अपनी कुरसी बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है.
उधर, 1994 में नरसिम्हा राव से मतभेद के कारण अर्जुन सिंह, माधवराव सिंधिया, नारायण दत्त तिवारी, शरद पवार, पी ए संगमा, नटवर सिंह, पी चिदंबरम जैसे नेता भी पार्टी से अलग हो गए. इस दौरान राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, कांग्रेस तिवारी, मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस, इंदिरा कांग्रेस नाम से कई अलग पार्टियां भी बनीं. 1996 का चुनाव कांग्रेस हार गई. अब कमान संभालने आए सीताराम केसरी. सीताराम केसरी पार्टी में अपना वर्चस्व बनाने में लग गए. उन की महत्त्वाकांक्षा जोर मारने लगी. तब सोनिया गांधी ने कमान संभाली.
पिछले दिनों ‘आप’ में जो योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के साथ हुआ, कुछ ऐसा ही कांग्रेस में सीताराम केसरी के साथ हुआ था. केसरी पर लगातार इस्तीफा देने का दबाव बनाया जा रहा था. वैसे तो केसरी चुने हुए अध्यक्ष थे, लेकिन दबाव के कारण उन्होंने इस्तीफा देने का मन बना ही लिया. पर इस्तीफा वे कांग्रेस के अधिवेशन में ही देने को अड़ गए. चूंकि इस में इस्तीफा नामंजूर होने का अंदेशा था, इसीलिए एक दिन अचानक केसरी की ओर से इस्तीफे की पेशकश की खबर अखबारों में प्रकाशित हो गई. माना जाता है ऐसा सोचीसमझी रणनीति के तहत किया गया था और बगैर अध्यक्ष की अनुमति के कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुला ली गई. बैठक में पार्टी के संविधान की धारा 19 (जे) के तहत प्रणब मुखर्जी ने पार्टी में केसरी की सेवा के लिए उन का आभार प्रकट करना शुरू किया. केसरी ने इस का विरोध किया, तब उन्हें डपट कर बिठा दिया गया. इस तरह बेइज्जत कर के सीताराम केसरी को पार्टी के अध्यक्ष पद से हटाया गया.
दक्षिण की राजनीति में टकराव
जहां तक अहंकार के टकराव का सवाल है तो इस की मिसाल दक्षिण में भी कुछ कम नहीं है. दक्षिण भारत की राजनीति के शिखर पुरुष एन टी रामाराव और एम जी रामचंद्रन के बाद इन की पार्टी में भी वर्चस्व की लड़ाई का अपना इतिहास रहा है. अरविंद केजरीवाल की तरह एन टी रामाराव और रामचंद्रन गैरराजनीतिक व्यक्तित्व थे. इसीलिए राजनीति में आए तो अपने साथ साफसुथरी छवि वाले लोगों को ले कर आए. आंध्र प्रदेश में एन टी रामाराव की बीमारी का लाभ उठा कर उन के विरोधी भास्कर राव ने और फिर उन के दामाद ने रामाराव का तख्ता पलट दिया.
गौरतलब है कि रामाराव पर शोध करने वाली छात्रा लक्ष्मी पार्वती बाद में उन की पत्नी बनी. यह बात पहले ही बेटे और दामाद को नागवार लगी थी. रामाराव के बाद लक्ष्मी पार्वती और चंद्र्रबाबू नायडू के बीच तेलुगूदेशम पार्टी की विरासत को ले कर टकराव तेज हुआ. आखिरकार, रामाराव की विरासत पर चंद्र्रबाबू का कब्जा हो गया और पार्वती को किनारे कर दिया गया. वहीं, तमिलनाडु में अन्ना मुनेत्र कषगम के एम जी रामचंद्र्रन के बाद उन की पत्नी जानकी रामचंद्रन और जे जयललिता के बीच भी सत्ता को ले कर टकराव शुरू हुआ. कहते हैं गांधीजी से प्रभावित हो कर रामचंद्रन कांग्रेस से जुड़े थे. लेकिन बाद में करुणानिधि के द्र्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) में चले गए. लेकिन जब करुणानिधि अपने बेटे एम के मुथु को आगे लाने की जोड़तोड़ करने लगे तो रामचंद्र्रन अपने को पार्टी में उपेक्षित महसूस करने लगे. तब उन्होंने पार्टी पर भ्रष्टाचार का बोलबाला होने का आरोप लगा कर पार्टी के दिग्गज नेताओं व मंत्रियों को अपनी संपत्ति का खुलासा करने को कहा. इसे पार्टी विरोधी गतिविधि मान कर रामचंद्र्रन को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
कामराज के शिक्षा सुधार और अन्नादुरई द्वारा उठाई गई सामाजिक विसंगतियों, गरीबी, भाषाई आंदोलन से प्रभावित रामचद्र्रन ने तमिल अस्मिता का मुद्दा ले कर 1972 में औल इंडिया अन्ना द्र्रविड़ मुनेत्र कषगम पार्टी का गठन किया. लेकिन रामचंद्रन के बाद उन की पत्नी जानकी रामचंद्रन और जे जयललिता के बीच उन के उत्तराधिकारी को ले कर जंग छिड़ गई. आखिरकार जानकी गुमनाम हो गईं और पार्टी की विरासत जयललिता के पास रह गई.
उद्धव ने राज के काटे पर
सत्ता संघर्ष का ऐसा ही वाकेया उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे का है. शिवसेना में रहते हुए राज ठाकरे चाचा बालासाहेब ठाकरे के सामने उन के बेटे उद्धव ठाकरे की नेतृत्व क्षमता को ले कर सवाल उठाते रहे. लेकिन बावजूद इस के, बालासाहेब ठाकरे ने उद्धव को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था. जबकि उद्धव, राज ठाकरे की तुलना में राजनीति में नए थे. वहीं, शिवसैनिकों का बड़ा हिस्सा राज ठाकरे में बालासाहेब की परछाईं देखा करता था. इसीलिए राज ठाकरे अपनेआप को बालासाहेब के उत्तराधिकारी के रूप में देख रहे थे. पर बालासाहेब ने राज ठाकरे को झटका दिया और उद्धव को अपनी राजनीतिक विरासत सौंप दी. तब राज ठाकरे ने बालासाहेब पर अपनी अनदेखी करने और पक्षपात करने का आरोप लगाया. बालासाहेब ठाकरे ने इसे पार्टी में बगावत के रूप में लिया. इस के बाद 2004 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में उद्धव ने राज ठाकरे को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया. आखिरकार, 2006 में राज ठाकरे शिवसेना से अलग हो गए और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया.
किस्से और भी हैं
बिहार में जीतनराम मांझी बनाम नीतीश कुमार प्रकरण वर्चस्व के लिए उठापटक की एक और ताजा मिसाल है. लोकसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड के खराब नतीजे की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे कर जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया. लेकिन नीतीश कुमार का आरोप रहा कि पार्टी में रहते हुए मांझी का झुकाव भाजपा और आरएसएस की ओर है. वहीं, मांझी ने नीतीश पर रिमोट कंट्रोल से सरकार चलाने का आरोप लगाया. दोनों के बीच जोरआजमाइश बढ़ती रही. इस प्रकरण में आखिरकार जीतनराम मांझी को किनारा करना पड़ा. ये वही नीतीश कुमार हैं, जिन्होंने कभी पार्टी के बुजुर्ग नेता व संस्थापक जौर्ज फर्नांडीस का कद छोटा किया था. माकपा के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत के बाद पार्टी के कई दिग्गज नेताओं को किनारे कर के प्रकाश करात महासचिव बने. लेकिन आज पार्टी के घटते जनाधार को ले कर पोलित ब्यूरो नेता सीताराम येचुरी और प्रकाश करात के बीच चल रहे वैचारिक मतभेद आम हैं.
इन तमाम मिसालों से साफ है कि शीर्ष नेतृत्व या पार्टी का चेहरा बने रहने के लिए जोड़तोड़ करने वाले नेता भूल जाते हैं कि व्यक्ति से बड़ी पार्टी हुआ करती है और समय से बड़ा बलवान कोई नहीं. समय के झोंके में अच्छेअच्छे बह जाते हैं. दरअसल, दुनिया में किसी भी राजनीतिक पार्टी का अस्तित्व नहीं है जो व्यक्तिकेंद्र्रित हो कर रह जाए. तमाम राजनीतिक पार्टियों में हमेशा से अंदरूनी कलह, टूटफूट, टूटनेजुड़ने का सिलसिला चलता रहता है. बावजूद इस के, मंच (पार्टी) वही रहता है और किरदार बदलते रहते हैं. वह राजनीतिक किरदार कितना सशक्त है, यह एक हद तक पार्टी के अंदर कार्यकर्ताओं और पार्टी से बाहर जनसमर्थन पर निर्भर करता है.