पुराना फलसफा है कि अरे, वह ऐसा कैसे कर सकती है, वह तो औरत जात ठहरी. औरतों की आजादी, उन की मरजी, उन के अपने हक की बात कहने पर सदियों से पहरा रहा है. जब भी कोई महिला अपनी आजादी की बात करती है तो समाज के उस वर्ग में हलचल मच जाती है जो महिलाओं को आज भी अपनी मरजी के अनुसार चलाना चाहता है, उन पर अपना रूढि़वादी व सामंतवादी रवैया बनाए रखना चाहता है. कुछ ऐसी ही हलचल एक पत्रिका के लिए होमी अदजानिया निर्देशित वीडियो ‘माई चौइस’ के रिलीज होते ही पूरे देश में मची. इस वीडियो में बौलीवुड अभिनेत्री दीपिका पादुकोण का वौयसओवर है.
इस वीडियो में दीपिका अपनी जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने की आजादी का संदेश देती दिखाई दी हैं. वे कहती हैं :
‘‘मैं शादी करूं या न करूं, मेरी मरजी.
शादी से पहले सैक्स करूं या शादी के बाद भी किसी से रिश्ता रखूं, मेरा मन.
किसी पुरुष से प्यार करूं या महिला से या फिर दोनों से, मेरी मरजी.
मुझ से जुड़े सारे फैसले मेरे हैं, यह मेरा हक है.’’
ब्लैक ऐंड व्हाइट कलर में शूट किया गया यह वीडियो नारी सशक्तीकरण की राह में दीपिका की ओर से एक जबरदस्त कदम माना जा रहा है. इस वीडियो ने देशभर में तहलका मचाया. कुछ लोग इस के पक्ष में बोले तो कइयों ने इस के खिलाफ झंडा उठा लिया. कहने को हम आजाद हैं पर इस देश की महिलाएं आज भी सामाजिक, कानूनी बंदिशों की बेडि़यों में जकड़ी हुई हैं और आजादी के लिए छटपटा रही हैं. जहां एक ओर दीपिका का यह वीडियो माई चौइस मेरी मरजी की बात करता है वहीं देश की अधिकतर महिलाएं जो बद से बदतर जिंदगी गुजार रही हैं, उन के पास कोई चौइस नहीं है. पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी में एक 16 साल की लड़की से उस के पिता, भाई और चाचा 2 साल तक बलात्कार करते रहे. इस बीच वह 2 बार प्रैग्नैंट भी हुई. जब मदद की आस में अपनी मां को बुलाया तो मां ने कहा, ‘वे तुम्हारे बाप, चाचा और भाई हैं, कोई गैर नहीं.’
जिन 2 सालों के दरम्यान यह मासूम इस हैवानियत से गुजर रही थी, शायद उसी दरम्यान सोशल मीडिया के धुरंधर महिला स्वतंत्रता, नारी सशक्तीकरण और दीपिका के ‘माई चौइस’ वीडियोनुमा विज्ञापन बनाने में व्यस्त रहे होंगे. बिना इस बात की परवा किए कि सताई जा रही औरतें जिन कालकोठरियों में सड़ रही हैं, वहां न तो यूट्यूब पहुंचता है न ‘माई चौइस’ का जुमला. और हां, जैसा कि अंगरेजी में कहावत है, ‘स्लेव्स हैव नो चौइस’ की तर्ज पर दीपिका की तरह सब के पास अपनी चौइस का विकल्प नहीं है. पुरुष प्रधान समाज और पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देते महिला सुधारवादी संगठन, फिल्मकार होमी अदजानिया जैसे निर्देशक, आधुनिक महिला लेखिकाएं, अभिनेत्रियां और एंटरप्रेन्योर शायद यह भूल जाते हैं कि नारी स्वतंत्रता या समानता में रुकावट के लिए सिर्फ आदमी या औरत जिम्मेदार नहीं, बल्कि सालों पुरानी धर्मजनित शिक्षा, प्रचलित कुरीतियां, सामंतवाद और जातिवादी व्यवस्था है. वरना जलपाईगुड़ी के मामले में अगर घर के पुरुष बलात्कार कर रहे थे तो उस की मां उन्हें समर्थन दे कर उस का दोहरा मानसिक व शारीरिक बलात्कार कर रही थी. इसलिए बजाय पुरुष बनाम महिला की बहस के, समस्या की जड़ पर गौर फरमाया जाए और न सिर्फ गौर बल्कि उसे जड़ समेत उखाड़ा जाए वरना ‘माई चौइस’ का जुमला सिवा फिल्मी फैंटेसी के और कुछ हो ही नहीं सकता.
हालांकि ऐसे प्रयास गलत नहीं हैं लेकिन अगर ये संदेश ग्लैमरस जमीन से हट कर वास्तविकता के धरातल पर उन लोगों तक भी पहुंचें, जिन्हें इन की जरूरत है तो शायद ‘माई चौइस’ के मतलब सही समझ आएं. बहरहाल, दीपिका के इस वीडियो से बहस के अंगार को हवा जरूर मिल गई है. दीपिका का यह वीडियो, जितना सोचा गया था उस से कहीं ज्यादा हंगामा कर गया. इस के बड़ी मजेदार प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं. इस का असर इस बात से समझा जा सकता है कि दीपिका के ‘माई चौइस’ वीडियो आने के 1 दिन बाद ही पुरुषों का ‘माई चौइस’ वीडियो भी बाजार में आ गया. इस में दीपिका के बहाने तमाम आजादीपसंद लड़कियों को निशाना बनाते हुए लड़कियों की जम कर खिल्ली उड़ाई गई. कुतर्कों के साथ कहा गया कि महिलाओं की चौइस हो सकती है तो पुरुषों की क्यों नहीं? कुछ लोगों ने तो आपत्तिजनक कमैंट्स भी किए. अभिनेता कमाल आर खान ने भी महिलाओं के प्रति आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल किया.
फिगर को ले कर उठे सवाल
दीपिका की जिस बात को महिलाओं का सब से ज्यादा समर्थन मिला वह थी, ‘मेरा साइज जीरो हो या साइज 15, इट्स माई चौइस.’ और ऐसा हो भी क्यों न, फिगर मेंटेन के लिए लड़कियों को कितने जतन करने पड़ते हैं यह पुरुष क्या जानें. महिलाओं का शरीर समाज के सांचे के मुताबिक नहीं ढला है और इस के लिए उस को मजाक, हीनभावना, बेइज्जती न जाने क्याक्या सहना पड़ता है. शादी करनी हो, इस के लिए भी लड़की का फिगर अच्छा होना जरूरी है. मोटी लड़की को कोई पसंद नहीं करता. कोई लड़का उसे अपनी गर्लफ्रैंड नहीं बनाना चाहता. प्रैग्नैंसी में एक महिला का शरीर किस कदर बदलता है, यह वही जान सकती है. पुरुष उस पीड़ा को नहीं समझ सकते.
सैक्स आउटसाइड मैरिज
सैक्स पर बात करना भारतीय समाज में खतरे से खाली नहीं है. फिर दीपिका ने तो सैक्स आउटसाइड मैरिज यानी शादी के बाद पति के अलावा किसी और से भी मरजी से सैक्स का मामला उठाया है. इस पर सब से तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं. पुरुष ही नहीं, महिलाओं की ओर से भी इस पर सवाल उठाए गए. कमाल आर खान ने तो दीपिका और ‘माई चौइस’ डायरैक्टर होमी अदजानिया की व्यक्तिगत जिंदगी पर भी आपत्तिजनक बातें कीं और कहा कि अगर आप की शादी के बाद आप का पार्टनर किसी और से सैक्स करे तो आप को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए. वैसे बता दें कि शादी के बाद पत्नी से जबरदस्ती करने पर पति पर रेप का आरोप भी लग सकता है, इसलिए चाहे शादी के पहले प्रेम संबंध हों या शादी के बाद, साथी की इच्छा भी महत्त्वपूर्ण होती है. शादी के बाद पति के अलावा किसी और से सैक्स करने के कानूनी ही नहीं, नैतिक पहलू भी हैं जिन्हें ज्यादातर समाजों में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता. इस सवाल पर सब से ज्यादा बहस की जरूरत है.
गोरे रंग की दीवानगी
सांवली दीपिका जब अपनी पसंद के लड़के की बात करती हैं तो वे समाज की गोरे रंग के प्रति संकीर्ण सोच को भी दुत्कारती हैं और उस लड़के को अपनी पसंद बताती हैं जिस के मातापिता या वह लड़का खुद उस का रंग नहीं, बल्कि उस के गुण और प्रतिभा को देख कर उसे पसंद करे. गोरे रंग को ले कर भारत ही नहीं, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप, लैटिन अमेरिका और अफ्रीका जैसे देशों में भी दीवानगी देखी जाती है. हमारे सिर पर सीधे सूरज गिरने के कारण हमारा रंग काला होना स्वाभाविक है. अत्यधिक ठंडे देशों में रहने वाले गोरे रंग के लोगों को देख कर हमारे मन में हीनभावना आखिर क्यों पैदा हो जाती है? जदयू नेता शरद यादव ने संसद में गोरे रंग के प्रति भारतीयों की दीवानगी को ले कर टिप्पणी की थी और दक्षिण भारत की महिलाओं को सांवली लेकिन उन के फिगर को खूबसूरत बताया था, जिस पर विवाद भी हो गया था. हालांकि उन का तर्क सही था लेकिन उदाहरण गलत हो सकता है. इस के अलावा भारतीय जनता पार्टी नेता गिरिराज सिंह का सोनिया गांधी पर दिया गया बयान काफी हद तक नस्लभेदी था. उन्होंने कहा था-अगर राजीव गांधी नाइजीरियन महिला से शादी करते तो उन्हें इतना सम्मान और पद नहीं मिल पाता जो सोनिया को मिला. इस पर नाइजीरिया के राजदूत ने आपत्ति भी जताई थी.
आम भारतीय की सोच बहू को ढूंढ़ते वक्त दिए गए विज्ञापनों में देखी जा सकती है जिस में साफ लिखा होता है कि गोरी लड़की चाहिए. हमारी सोच का एक और नमूना टीवी पर आने वाले फेयरनैस क्रीम, फेसवाश और पाउडर के विज्ञापनों में भी झलकता है. भाजपा की ओर से दिल्ली की सीएम कैंडिडेट रहीं किरन बेदी वैसे तो महिला सशक्तीकरण की आदर्श मानी जाती हैं लेकिन वे भी फेयरनैस क्रीम का विज्ञापन कर चुकी हैं.
पुरुषों को लगी मिरची
दीपिका के इस वीडियो का असर उम्मीद से कहीं ज्यादा देखने को मिला. एक तरह से इसे नैगेटिव पब्लिसिटी ज्यादा मिली. सोशल मीडिया में लड़के अजीबोगरीब तर्क देने लगे कि हम भी अपनी मरजी कर सकते हैं. पर समाज में तो सदियों से पुरुषों की ही मरजी चली आ रही है. इस दौरान अभिनेता गोविंदा पर फिल्माया गया गाना, ‘मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मेरी मरजी…’ को खूब शेयर किया गया. इस से यह पता चलता है कि एक सामान्य बात कह देने भर से पुरुषों को कितनी मिर्ची लगती है.
पुरुषवादी सोच से लड़ाई
नारीवाद पुरुषों के खिलाफ नहीं है. यह पुरुषवादी सोच के खिलाफ खड़े होने की बात करता है. यह पुरुषवादी सोच पुरुषों में ही नहीं, महिलाओं में भी हो सकती है. उदाहरण के तौर पर हम ने भाजपा और हिंदूवादी संगठनों के नेताओं को हिंदू महिलाओं से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील करते देखा. इस में महिला नेता भी शामिल हैं. यही पुरुषवादी सोच है और यह सिर्फ जीवनशैली को अपने ढंग से अपनाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि महिलाओं को बराबर के अधिकार, उचित सम्मान दिलाने की भी लड़ाई है.
वीडियो में पुरुषों का मुद्दा
इस वीडियो में पुरुषों के हित की भी बात है. दीपिका जब कहती हैं कि उन की चौइस लड़का हो या लड़की तो वे एक तरह से पुरुषों की भी बात करती हैं. हमारे समाज में ‘गे’ और ‘लैस्बियन’ की मरजी की बात तो छोडि़ए, उन्हें जरूरी सम्मान तक नहीं दिया जाता. दीपिका जब लड़की के साथ लड़की की बात करती हैं तो उस में लड़के के साथ लड़के की भी बात छिपी होती है. इस वीडियो में इस महत्त्वपूर्ण विषय पर भी चर्चा हो रही है. एक कमजोर ही कमजोर का सहारा बनता है. समाज में न तो लड़कियों को उन की जगह मिली है और न सेम सैक्स करने वालों को. इसलिए ‘माई चौइस’ वीडियो कई पुरुषों के हक में भी खड़ा होता है. महिलाओं की स्थिति पर भाजपा नेता डा. मुरली मनोहर जोशी कहते हैं, ‘‘यह चेतनाशून्य होने की पराकाष्ठा है. हमें पता नहीं कि हम कितना बदल गए हैं. भारत में महिलाओं को मां के रूप में संबोधित करने की परंपरा रही है लेकिन अब मां कहे जाने पर आपत्ति जताई जा रही है. अब आप एक शरीर हैं. एक उत्पाद हैं.’’
अभिव्यक्ति की लड़ाई
दीपिका की तरह अभिव्यक्ति की कुछ ऐसी ही लड़ाई कनाडा के टोरंटो शहर में रहने वाली भारतीय मूल की रूपी कौर ने भी लड़ी. यह लड़ाई रूपी ने इंस्टाग्राम में एक तसवीर पोस्ट कर के लड़ी. तसवीर में वे लेटी हुई थीं और उन के कपड़ों पर लगे खून से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे माहवारी यानी पीरियड से गुजर रही हैं. रूपी की इस तसवीर को इंस्टाग्राम ने कम्युनिटी गाइडलाइन के खिलाफ बताते हुए हटा दिया. लेकिन रूपी कौर ने इंस्टाग्राम के इस फैसले को चुनौती दी और लिखा कि न तो यह तसवीर किसी ग्रुप की भावना को ठेस पहुंचाती है और न ही पौर्नोग्राफी को बढ़ावा देती है. यह कोई स्पैम भी नहीं है, यह मेरी खुद की तसवीर है. उन्होंने तसवीर को दोबारा पोस्ट किया. आखिर इंस्टाग्राम को रूपी कौर से माफी मांगनी पड़ी और माना कि यह तसवीर किसी गाइडलाइन का विरोध नहीं करती. इंस्टाग्राम के खिलाफ अभिव्यक्ति की लड़ाई लड़ने वाली रूपी कौर के इस साहसिक कदम के बाद दुनियाभर में इस पर बहस शुरू हो गई है कि आखिर कब तक माहवारी जैसी प्राकृतिक चीज को अपवित्र माना जाएगा.
एक सच यह भी
औरतों को जागरूक करने की दिशा में काम करने वाले महिला संगठनों में भी औरतें हैं तो वहीं लुटेरी दुलहनों की शक्ल में ठगी का जाल बुनने वाली भी औरतें ही हैं. मौडलिंग व ग्लैमरस फील्ड में बदन की नुमाइश कर विवाहेतर संबंधों को अपना हक व अधिकार समझने वाली भी औरत है तो वहीं पति को सात जन्मों तक सिर्फ उसी को अपना सबकुछ मानने वाली भी औरत ही है. औरत वह भी है जो आज भू्रण हत्या में अपने पति के साथ सहभागिता निभाती है और औरत का एक रूप ऐसा भी है जो नीना गुप्ता की तरह बिना ब्याह के अपनी बेटी को न सिर्फ जन्म देने का तथाकथित समाज विरोधी फैसला करती है बल्कि उसे समाज में इज्जतदार छवि भी देती है. ऐसे ही गांव, कसबे, शहर की औरतों के मिजाज, सामाजिक व्यवस्था व मानसिकता में भेद है तो वहीं आर्थिक आधार पर भी औरतों में असमानता है. घर की मालकिन और उसी घर में झाड़ूपोंछा करने वाली औरतों में भी समानता का अलग गणित काम करता है.
लिहाजा, इन तमाम शक्लों को लिए हुए नारी समाज के लिए पहले यह तय करना होगा कि नारी स्वतंत्रता व समानता के अधिकार के माने वास्तविकता में आखिर हैं क्या? कानूनी या सामाजिक व राजनीतिक आधार पर महिलाओं की स्वतंत्रता का इंसाफ नहीं किया जा सकता. जिस तरह एक सफल उपभोक्ता कंपनी अपने विज्ञापन के जरिए टारगेट कस्टमर या औडियंस का चुनाव कर उचित सुविधा या प्रोडक्ट जरूरतमंद तक पहुंचा कर अपना ध्येय सफल बनाती है, वैसे ही किस समाज व तबके की महिला किस तरह की स्वतंत्रता चाहती है, इस का निर्धारण किए बिना माई चौइस को सब की चौइस कहना अतार्किक व अनैतिक होगा.
आजादी के अलगअलग माने
किसी महिला के लिए आजादी का मतलब कम कपडे़ पहनना व नाइट पार्टी में घूमना हो सकता है तो किसी के लिए बुरके से नजात पाना. कोई घर से निकल कर सिर्फ स्कूल तक पहुंचने को आजादी मानती है तो कोई मौडलिंग की दुनिया में नाम कमाने को आजादी की परिभाषा मानती है. कई महिलाएं तो पुरुषों की सेवा को ही आजादी का नाम देती हैं तो कई आजादी को अपने बदन से जोड़ती हैं. एक मजदूर औरत के लिए स्वतंत्रता के माने किसी से शादी हो जाए, में निहित है तो किसी को शादी की जंजीर से आजाद होने में भी फ्रीडम का फील आता है. जाहिर है, माई चौइस के इतने वर्जन हैं कि कोई भी भ्रमित हो जाए. इसलिए किनारे पर बैठ कर गहराई का अंदाजा लगाने के बजाय पानी में उतरना निहायत जरूरी है.
गुलामी का इतिहास
यह अंदाजा लगाना तो मुश्किल है कि महिलाओं की आजादी और समानता का अधिकार छिनना कब शुरू हुआ होगा लेकिन एक बात मोटेतौर पर समझ आती है कि पौराणिक व धार्मिक ग्रंथों ने हमेशा औरतों को नीचा, पुरुष की संपत्ति व दोयम दरजे की वस्तु के सांकेतिक इशारे किए हैं. इन ग्रंथों को अतार्किक आधार मान कर सामंतवाद व जातिवादी व्यवस्था का उद्भव हुआ और उसी दौरान नारी को दास संपत्ति व भोग्या मानने की मानसिकता का चलन शुरू हुआ. जैसे एक कमजोर तबके, समाज या पुरुष वर्ग को शूद्र की श्रेणी में डाल कर निम्नवर्गीय काम करने पर मजबूर कर उसे गुलामों सरीखा जीवन जीने पर बाध्य किया गया, ठीक वैसे ही नारी को भी कमजोरों की तरह पुरुष की सेवा के लिए उन के नीतिग्रंथों में ऐसे सिद्धांत नियमित कर दिए कि तुम्हारा उद्धार पुरुष ही कर सकता है, वही तुम्हारा सबकुछ है. इन तमाम घटनाक्रमों के दौरान उन के मन में हीनता की ग्रंथि गहरी जड़ें जमाती गई. एक स्थिति ऐसी भी आई कि पुरुष तो पुरुष, महिलाएं ही दूसरी व अपने से कमजोर व असहाय महिलाओं को प्रताडि़त करने की परंपरा विकसित करती गईं.
घर में सासबहू की गृहकलह नीति, ननददेवरानी के झगड़े और पुरुषों के दिलों व उन की संपत्ति व घरों पर राज करने की प्रतिस्पर्धा ने औरत को औरतों का दुश्मन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लिहाजा, इस स्थिति पर आ कर महिलाओं को किस से, कैसे व कब आजाद होना है, तय कर लेना चाहिए. 14वीं व 15वीं शताब्दी में तुलसीदास नारी को ताड़ना का अधिकारी मानते थे. 18वीं सदी में सुधारवादी आंदोलनों के दौरान भी प्रताड़ना का सिलसिला जारी रहा. और अगर आज भी ‘माई चौइस’ वीडियो को ले कर इतना हंगामा मचा है तो स्पष्ट है कि ताड़ना की अधिकारी महिला आज भी जस की तस है.
महिलाएं खुद पहल करें
सरकार के नीतिनिर्धारकों के कानून बना देने, कमेटियां बैठा देने या आंदोलनों से बदलाव आना होता तो कब का आ गया होता. सचाई तो यह है कि महिलाएं अपनी आजादी के लिए खुद पहल करें. किसी के कंधों पर सवार हो कर अगर वे गंभीर मसले भी उठाएंगी तो उन के असर दूरगामी नहीं होंगे. दीपिका पादुकोण, रेने वर्मा, रूपी कौर की आवाज हर उस महिला की आवाज है जो महिलाओं के प्रति समाज में पसरे गैरबराबरी के रवैए से खफा है और अपने जीवन के तमाम फैसले करने की आजादी चाहती है. दीपिका का माई चौइस का तीर भले ही अंधेरे में चला हो लेकिन अगर इसे एक जागरूक पहल के तौर पर लिया जाए तो महिलाएं आंखों पर पट्टी बांध कर भी अपनी आजादी व समानता का तीर देश, दुनिया व समाज पर टारगेट कर उन्हें भेद सकती हैं.
-गीतांजलि, ललिता गोयल, राजेश कुमार