दम लगा के हईशा
शादी में जहां 2 दिल मिलते हैं वहां 2 दिमागों का मिलन भी जरूरी होता है. पति और पत्नी यदि दिमागी स्तर पर एकदूसरे के अनुकूल हों तो सबकुछ बढि़या हो जाता है. जीवन की गाड़ी सरपट दौड़ने लगती है. और अगर शादी बेमेल हो, लड़के और लड़की की शिक्षा के स्तर में अंतर हो, दोनों की शारीरिक रचना बेमेल हो या शादी बिना मरजी से की गई हो तो पति और पत्नी दोनों को कुंठा घेर लेती है. इस का खमियाजा पत्नी को ज्यादा भुगतना पड़ता है. दोनों के परिवार वालों पर जो बीतती है उसे तो वही जानते हैं. यह फिल्म उन मातापिताओं पर भी कटाक्ष करती है जो अपने बेटेबेटी की शादी लालचवश बेमेल कराते हैं, साथ ही यह भी बताती है कि पतिपत्नी के रिश्ते में प्यार का होना जरूरी है. यह फिल्म पतिपत्नी को इस बात का एहसास भी कराती है कि शादी का मतलब साथ सोना ही नहीं, एकदूसरे का सम्मान करना भी होता है.
इस फिल्म की खूबी इस की कहानी है, जिसे इस के निम्न मध्यवर्गीय किरदारों ने जीवंत कर दिया है. कहानी हरिद्वार में बसे 2 परिवारों की है. प्रेम प्रकाश तिवारी उर्फ लप्पू (आयुष्मान खुराना) अपने पिता की औडियो कैसेट की दुकान में पिता का हाथ बंटाता है. वह गायक कुमार सानू का फैन है. उस का किसी काम में मन नहीं लगता. सुबह वह गंगा किनारे लगने वाली शाखा में योगा करने जाता है. पढ़ालिखा वह है नहीं, 3-3 बार अंगरेजी की परीक्षा में फेल हो चुका है. उस के घर वाले उस के लिए लड़की देखने जाते हैं. जब वह भारी डीलडौल वाली लड़की संध्या (भूमि पेंढणेकर) को देखता है तो उसे जोर का झटका लगता है. संध्या बीएड तक पढ़ीलिखी है. पूछने पर प्रेम की बूआ प्रेम को भी पढ़ालिखा बताती है. प्रेम के लाख मना करने के बावजूद उस के पिता उस की शादी संध्या से करा देते हैं. शादी के बाद प्रेम संध्या के सामने खुद को असहज पाता है. संध्या उसे रिझाने की कोशिश करती है तो वह खीज उठता है. वह संध्या से सैक्स भी नहीं कर पाता. एक दिन एक दोस्त की शादी की पार्टी में शराब पी कर वह अपने दोस्तों के सामने संध्या को मोटी सांड कहता है तो संध्या उसे थप्पड़ मारती है और अपने मायके लौट जाती है. वह अपने मांबाप के मना करने के बावजूद तलाक का मुकदमा दर्ज कराती है. अदालत दोनों को 6 महीने साथ रहने के बाद फिर पेश होने के लिए कहती है.
अब संध्या ससुराल लौट कर वैवाहिक जीवन में तालमेल बैठाने की कोशिश करती है. वह टीचर की नौकरी के लिए सेलैक्ट हो जाती है. इसी दौरान शहर में दम लगा के हईशा प्रतियोगिता का आयोजन होता है. इस प्रतियोगिता में प्रतियोगी पतिपत्नियों को हिस्सा लेना है. प्रेम और संध्या भी इस प्रतियोगिता में भाग लेते हैं. पति को पत्नी को पीठ पर उठा कर बाधा दौड़ पूरी करनी है. प्रेम अपनी भारीभरकम बीवी को पीठ पर उठा कर दौड़ता है और प्रतियोगिता जीत जाता है. इसी जीत के साथ प्रेम और संध्या का रिश्ता मजबूत बन जाता है. फिल्म की इस कहानी में दिखाया गया कि टूटते हुए रिश्तों में अगर दम लगाया जाए तो वे रिश्ते फिर से जुड़ जाते हैं. निर्देशक ने खुद की लिखी कहानी को बहुत सूक्ष्मता से फिल्माया है. उस ने छोटी से छोटी बात को भी नजरअंदाज नहीं किया है. अब तक फिल्मों में हम हरिद्वार शहर में गंगा नदी और उस के आसपास के इलाकों को ही देखते आए हैं.इस फिल्म में निर्देशक ने हरिद्वार की तंग गलियां, वहां रहने वाले लोग, छोटीछोटी दुकानों में काम करते लोग, उन के सोनेउठने, खानेपीने के तौरतरीकों को विस्तार से दिखाया है. घर की छत पर अंगीठी पर चाय बनाना और पूरे परिवार का मिलबैठ कर पीना देख अच्छा लगता है. निर्देशक ने फिल्म की कहानी को 80-90 के दशक जैसा फिल्माया है, जहां हरिद्वार जैसे शहर में युवक अपने पिता की मरजी का पालन करते हैं. पिता शादीशुदा बेटे पर चप्पल से पीटने की कोशिश करता है. दूसरी ओर प्रेम का एक दोस्त अपने पिता के कहने पर दुकान पर ब्रापैंटीज बेचता है और महिलाओं से कहता है, ‘बहनजी, यह लीजिए 36 बी…’ निर्देशक ने जो कुछ अपनी इस फिल्म में दिखाया है उस सब में कहीं कोई मिलावट या नकलीपन नहीं है.
भले ही यह फिल्म आज के दौर की न हो लेकिन है बड़ी प्यारी सी. आयुष्मान खुराना ने एक बार फिर से जता दिया है कि वह एक अच्छा ऐक्टर है. संध्या के किरदार में भूमि पेंढणेकर एकदम फिट है. संजय मिश्रा का काम भी लाजवाब है. निर्देशक ने सभी किरदारों की देहभाषा, पहनावे और उन की बोलचाल में सावधानी बरती है. फिल्म का क्लाइमैक्स जोरदार है. अपने रिश्ते को अपनी पीठ पर लादे दौड़ते हुए पतिपत्नी को देख कर सुखद एहसास होता है. फिल्म के अंत में नायक और नायिका का डांस गीत खूबसूरत बन पड़ा है. अनु मलिक ने बढि़या संगीत दिया है. संवाद भी बढि़या है. फिल्म परिवार के साथ मिल कर देखने योग्य है. फिल्म देख कर लगा, लो गुजरा जमाना फिर याद आया.
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डर्टी पौलिटिक्स
पौलिटिक्स तो हमेशा से ही डर्टी रही है. बरसों से फिल्म निर्मातानिर्देशक अपनी फिल्मों में डर्टी पौलिटिक्स को दिखाते आए हैं. डर्टी पौलिटिक्स में जहां बड़ेबड़े स्कैम दिखाए जाते हैं, रिश्वतखोरी, घूसखोरी दिखाई जाती हैं, वहीं सैक्स स्कैंडल तक दिखाए जाते हैं. राजस्थान की भंवरीदेवी और राजनेता महिपाल मदेरणा की सैक्स टेप की कंट्रोवर्सी अब भले ही लोग भूल चुके हों, मगर निर्देशक के सी बोकाडि़या ने करीब 12 साल बाद लौट कर इस गड़े मुरदे को जिंदा करने की कोशिश की है. फिल्म की कहानी सत्ता में बैठे राजनीतिबाजों की सैक्स लोलुपता के साथसाथ उन के गले तक भ्रष्टाचार में लिप्त होने की है. कहानी के केंद्र में हैं जनसेवक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष दीनानाथ (ओमपुरी) और एक डांसर अनोखी देवी (मल्लिका शेरावत). 60 साल की उम्र का दीनानाथ अनोखी देवी पर फिदा हो जाता है. वह अपने दोस्त दयाल (आशुतोष राणा) की मदद से अनोखी देवी को प्रलोभन दे कर उस के साथ सैक्स करता है. अनोखी को भी लगता है कि दीनानाथ के साथ रहने में ही उस का भला है. दीनानाथ अनोखी को विधानसभा का टिकट देने का वादा कर मुकर जाता है तो अनोखी के सब्र का बांध टूट जाता है. वह दीनानाथ के साथ खुद सैक्स करते हुए सीडी बनाती है और उसे ब्लैकमेल करती है. अचानक एक दिन अनोखी देवी लापता हो जाती है. एक सोशलवर्कर मनोहर सिंह (नसीरुद्दीन शाह) अनोखी के लापता होने की जांच सीबीआई से कराने की मांग करता है. सीबीआई अफसर मिश्रा (अनुपम खेर) की जांच में साबित होता है कि एक गुंडे मुख्तार (जैकी श्रौफ) ने अनोखी की हत्या की थी और हत्या कराने वाले दीनानाथ और दयाल हैं. चूंकि मुख्तयार मारा जा चुका है, अदालत दीनानाथ और दयाल को जमानत दे देती है लेकिन मनोहर सिंह उन दोनों को मार डालता है और अदालत में समर्पण कर देता है. कहान बासी है. निर्देशन ठीकठाक है. फिल्म में घटनाएं व पात्र इतने ज्यादा हैं कि बोझिलता होने लगती है. ओमपुरी का काम काफी अच्छा है. नसीरुद्दीन शाह बुझाबुझा सा लगा. मल्लिका शेरावत ने काफी बोल्ड सीन दिए हैं. फिल्म की भाषा भी कहींकहीं आपत्तिजनक है.
फिल्म का गीतसंगीत पक्ष साधारण है. सिर्फ एक गीत ‘घाघरा…’ अच्छा बन पड़ा है. फिल्म का छायांकन अच्छा है. राजस्थान शहर की छटा अच्छी बन पड़ी है.
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अब तक छप्पन-2
यह फिल्म 2004 में आई ‘अब तक छप्पन’ की सीक्वल है. दोनों फिल्मों में कोई खास फर्क नहीं है. निर्देशक एजाज गुलाब ने उसी ढर्रे पर फिल्म को बनाया है. नाना पाटेकर का अभिनय. जिस तरह उस ने पिछले पार्ट में शानदार ऐक्ंिटग की थी, इस फिल्म में भी उस ने दमदार ऐंट्री दर्ज कराई है. फिल्म एक कौप द्वारा अंडरवर्ल्ड के लोगों के एक के बाद एक एनकाउंटर करने पर है. पिछली फिल्म में नाना पाटेकर ने 56 एनकाउंटर किए थे. इस फिल्म में उस ने गिनती को 56 से आगे बढ़ाया है.
कहानी अंडरवर्ल्ड के एक डौन रावले से शुरू होती है जो बैंकौक से अपने बौस रऊफ लाला (राज जुत्शी) के इशारे पर आपराधिक गतिविधियां कर रहा है. स्टेट होम मिनिस्टर जनार्दन जागीरदार (विक्रम गोखले) और मुख्यमंत्री अन्ना साहेब अपराधों को रोकने के लिए एनकाउंटर स्पैशलिस्ट साधु अगाशे (नाना पाटेकर) को वापस बुलवाते हैं. साधु अगाशे गांव में अपने बेटे के साथ रहता है. वह अपने विभाग द्वारा की गई ज्यादतियों से नाखुश है. इसीलिए वह दोबारा पुलिस फोर्स जौइन करने से इनकार कर देता है. लेकिन जब उस का बेटा उस से अपराधियों को खत्म करने के लिए पुलिस फोर्स जौइन करने का आगह करता है तो वह मान जाता है और एकएक कर अपराधियों का सफाया करने में लग जाता है. लेकिन जब उसे पता चलता है कि होम मिनिस्टर ने उसे मोहरा बनाया है और उसी ने गांधीवादी मुख्यमंत्री की हत्या जैन राउले की मार्फत कराई है तो वह उसे मार डालता है और फिर से जेल भेज दिया जाता है.
फिल्म की इस कहानी की शुरुआत काफी धीमी है. मध्यांतर के बाद भी निर्देशक फिल्म को संभाल नहीं पाया है. फिल्म में सिर्फ नाना पाटेकर द्वारा किए गए एनकाउंटर के सीन ही अच्छे बन पड़े हैं. इन दृश्यों को देख कर लगता है जैसे ये तो पहले से देखेभाले हैं. फिल्म में राजनितिबाजों और अंडरवर्ल्ड की सांठगांठ को दर्शाया गया है. इसे साबित करने के लिए खुद गृहमंत्री से कहलवाया गया है कि सिस्टम को कंट्रोल में रखने के लिए पौलिटीशियंस को अंडरवर्ल्ड और पुलिस दोनों की जरूरत पड़ती है. जो काम पुलिस नहीं कर पाती उसे अंडरवर्ल्ड से कराना पड़ता है. फिल्म के सिर्फ संवाद अच्छे हैं. नाना पाटेकर को छोड़ कर कोई भी कलाकार बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं करता. उस ने कई ऐक्शन सीन भी किए हैं.
अंडरवर्ल्ड पर फिल्म बनाने से पहले निर्देशक को अच्छीखासी रिसर्च कर लेनी चाहिए थी कि आजकल अंडरवर्ल्ड में अपराध करने के तरीकों में क्याक्या बदलाव आए हैं.