निर्भया बलात्कार कांड पर बनी डौक्यूमैंट्री ‘इंडियाज डौटर’ को ले कर हल्ला मचा है. सरकार के इस डौक्यूमैंट्री फिल्म पर प्रतिबंध लगा देने के बाद देश में बहस छिड़ गई. एक पक्ष प्रतिबंध के पक्ष में है तो दूसरा इस का विरोध कर रहा है. विरोध करने वालों की संख्या बहुत कम है. पूरी संसद फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के लिए एकजुट हो गई. सबकुछ ऐसा लगा मानो मूर्खों का झुंड उठा, संस्कृति खतरे में पड़ गई, राष्ट्रीय गौरव संकट में आ गया, बिना देखे, बिना जाने और बिना सोचेसमझे बैन लगा दिया गया. सरकारी अमला इस तरह जुट गया मानो सरकार का चीरहरण हो रहा है. और तो और मीडिया के एक बड़े हिस्से द्वारा भी भारत की गंदगी, गरीबी की तरह इस डौक्यूमैंट्री को उसी तरह का रंग दे कर फिरंगियों को कोसा जा रहा है.

दरअसल, डौक्यूमैंट्री में निर्र्भया बलात्कार मामले के अभियुक्त मुकेश सिंह और उस के 2 वकीलों के इंटरव्यू जब अखबारों में छपे तो हंगामा उठ खड़ा हुआ. डौक्यूमैंट्री को प्रतिबंधित करने की मांग उठी. डौक्यूमैंट्री के निर्मातानिर्देशक लेस्ली उडविन के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई. दिल्ली पुलिस द्वारा आईपीसी के सैक्शन 504 (महिला के सम्मान को ठेस पहुंचाना) और सैक्शन 509 (शांति व्यवस्था भंग करना) के हवाले दिए गए और दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट से बैन का आदेश ले लिया गया. लिहाजा, भारत में इसे नहीं दिखाया जा सका.

सरकार ने बीबीसी के मैनेजिंग डायरैक्टर के नाम एक पत्र लिख कर डौक्यूमैंट्री का प्रसारण रोकने का अनुरोध किया था लेकिन बीबीसी ने सरकार के आदेश को धता बताते हुए भारत के बाहर लंदन में इसे प्रसारित कर दिया. बीबीसी का कहना था कि लोगों की रुचि को देखते हुए इस सशक्त फिल्म को निर्धारित समय से पहले ही प्रसारित किया गया है. डौक्यूमैंट्री हमारे संपादकीय गाइडलाइन के अनुरूप है और इस संवेदनशील मुद्दे को पूरी जिम्मेदारी के साथ पेश करती है. बीबीसी ने यह भी कहा कि यह डौक्यूमैंट्री पीडि़ता के परिवार के लोगों के पूरे सहयोग और समर्थन से बनाई गई है. यह जघन्य अपराध को ठीक से समझने में मदद करती है. दरअसल, डौक्यूमैंट्री में मुकेश सिंह ने कहा है कि इस घटना के लिए निर्र्भया खुद ही जिम्मेदार थी. उसे बलात्कार का विरोध नहीं करना चाहिए था. उसे चुप रहना चाहिए था. विरोध करने पर उसे बुरी तरह मारा गया. उस का कना था कि हमारे यहां लड़के और लड़कियां बराबर नहीं हैं. लड़कों से ज्यादा लड़कियां जिम्मेदार हैं. लड़कियों का मतलब है वे घर का कामकाज संभालें, यह नहीं कि वे जहांतहां घूमें. डिस्को में जाएं और गलत कपड़े पहनें.

बचाव पक्ष के वकील ए के सिंह ने कहा था, ‘‘अगर मेरी बेटी शादी से पहले सैक्स संबंध बनाती है और रात को अपने बौयफ्रैंड के साथ घूमती है तो मैं उसे जिंदा जला दूंगा.’’ एक दूसरे वकील एम एल शर्मा ने कहा, ‘‘हमारी संस्कृति सब से अच्छी है. हमारी संस्कृति में औरत के लिए कोई जगह नहीं है. हमारे समाज में हम लड़कियों को रात को साढे़ आठ बजे के बाद किसी भी हाल में घर से बाहर नहीं जाने देते. लड़कियां भारतीय संस्कृति को त्याग रही हैं. वे फिल्मी संस्कृति से प्रभावित हो रही हैं.’’ लगभग 1 घंटे की डौक्यूमैंट्री में पीडि़ता के परिवार, वकील, बलात्कार कानून पर बनी जस्टिस जे एस वर्मा कमेटी, पूर्व जस्टिस लीला सेठ और गोपाल सुब्रह्मण्यम के इंटरव्यू दिखाए गए हैं. उस पुलिस अधिकारी ने भी अपना पक्ष रखा है जिस ने पहली बार निर्भया और उस के दोस्त को वारदात के ठीक बाद नग्न अवस्था में देखा था.

दिसंबर 2012 में दिल्ली के बहुचर्चित निर्भया बलात्कार मामले पर बीबीसी द्वारा बनाई गई यह डौक्यूमैंट्री 8 मार्च को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ पर प्रसारित होनी थी पर डौक्यूमैंट्री को बिना देखे ही सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया. असल में 2 साल पहले लेस्ली उडविन ने सरकार से अपराधी मुकेश का इंटरव्यू लेने की इजाजत मांगी थी और उन्हें इजाजत मिल गई थी. फिल्म बनने में 2 साल का वक्त लगा. डौक्यूमैंट्री फिल्म का लक्ष्य एक लड़की के साथ बर्बर तरीके से बलात्कार व हत्या की घटना के कारणों और संवेदना को उजागर करना था. लेस्ली उडविन ने कहा था कि वह निर्भया मामले के बाद हुए प्रोटैस्ट से प्रभावित हो कर भारत आई थी. 16 दिसंबर, 2012 को हुई इस घटना ने देश को हिला कर रख दिया था. इस बर्बरतापूर्वक हिंसा और मौत की घटना से देशभर में गुस्सा भर गया था. दिल्ली समेत कई शहरों के लोग सड़कों पर झंडे, बैनर, पोस्टर, नारों के साथ उतर आए थे. इस कृत्य के खिलाफ संघर्ष देखने लायक था. लगा था कि किसी बड़े राजनीतिक सामाजिक बदलाव के लिए जमीन तैयार हो चुकी है.

घटना के बाद उठे बवंडर के फलस्वरूप महिला सुरक्षा को ले कर कानून में संशोधन हुए, निर्भया फंड बना. मगर बदली नहीं तो वह थी महिलाओं के प्रति रूढि़वादी सामाजिक सोच. इस घटना के बाद हुए बदलावों के बावजूद देश में बलात्कार की घटनाओं में कमी नहीं आई. समझ में नहीं आ रहा है कि सरकार ने फिल्म पर बैन क्यों लगा दिया? एक डौक्यूमैंट्री से भारत की बदनामी कैसे हो रही है? देश के गौरव पर चोट कैसे लग सकती है? अपराधी मुकेश सिंह और वकीलों के बयान उस पुरुष मानसिकता को व्यक्त करते हैं जिसे हम आएदिन देखतेसुनते हैं. ये बातें तो तुलसीदास से ले कर शंकराचार्य, साधुसंत और भाजपा व संघ के कई नेता तक अकसर दोहराते आए हैं.

चाणक्य कहता है, ‘पुरुष की कही गई हर बात स्त्री के लिए मान्य है, उसे मानना ही उस का धर्म है’.

तुलसीदास ने कहा है : ‘ढोर, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’.

आदि शंकराचार्य ने कहा था, ‘स्त्री नरक का द्वार है’.

बलात्कारी आसाराम ने कहा था, ‘लड़की को उन लड़कों को पहले भाई कह देना चाहिए था. तब उस के साथ बलात्कार नहीं होता. लेकिन ताली एक हाथ से नहीं बजती. लड़की दोषी होती है.’ स्वामी प्रभुपाद ने कहा था, ‘ऐसा नहीं है कि औरतें जबरन यौन संबंध नहीं चाहतीं. वे अपनी इच्छा से कई बार ऐसा चाहती हैं. दिखावे के लिए अनिच्छा जाहिर करने की उन की मानसिकता होती है.’ भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था, ‘अगर औरत द्वारा नैतिकता की सीमा लांघी जाती है तो बलात्कार जैसी घटनाएं होती हैं.’ एक अन्य नामी व्यक्ति ने कहा था कि ‘अगर बलात्कारी न माने तो औरत को समर्पण कर देना चाहिए और उसे भी एंजौय करना चाहिए.’ यही प्राचीन सोच वाली संस्कृति स्त्री के शोषण, अत्याचार और बलात्कार की जिम्मेदार है. क्या सरकार इसी संस्कृति को बचाए रखना चाहती है. औरत के बारे में हर धर्म में इसी तरह की बातें कही गई हैं.

यह प्रतिबंध उस संस्कृति के पक्ष में है जो स्त्री से बलात्कार को प्रेरित करती है. देश में बलात्कार संस्कृति को बचाए रखने के लिए ही सरकार ने डौक्यूमैंट्री को बैन किया है क्योंकि इस में मुकेश सिंह और उस के वकीलों ने जो कुछ कहा है वही बात भाजपा और संघ के कई नेता तथा धर्म और संस्कृति के ठेकेदार अकसर कहते रहे हैं. प्रतिबंध के पीछे यही मानसिकता काम कर रही है. इस में कांग्रेसी अपवाद नहीं हैं क्योंकि ज्यादातर कांग्रेसियों को कुरेदेंगे तो इस में कट्टरता की वही बू आएगी जो हिंदू संस्कृति के मानने वालों में से आती है. यह फिल्म हमारे समाज की स्त्री विरोधी मानसिकता की भयावह सचाई है जिस पर प्रतिबंध के जरिए परदा डालने की कोशिश की गई है. आज समाज में महिलाओं की जो बदहाली है उस के लिए यही धर्म और संस्कृति की सीख जिम्मेदार है. औरतों को सिर्फ घरेलू कामकाज तक बांध कर रखना, शिक्षा के अधिकार से वंचित रखना, अपने निजी जीवन से जुड़े निर्णय भी न लेने देना, सदैव पुरुषों के अधीन रखना, यहां तक कि उन के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के लिए खुद उन्हीं को दोषी ठहराना, इन सभी बातों की सीखें धर्म की किताबों में भरी पड़ी हैं.

हिंदू, ईसाई, इसलाम में स्त्रियों के उत्पीड़न के लिए बनाए गए रीतिरिवाज, नियमकायदे बाकायदा आज भी बदस्तूर जारी हैं. धर्म का जामा पहना कर स्त्रियों के उपभोग के नियम समाज में मान्य करार कर दिए गए. आखिर सरकार ने डौक्यूमैंट्री पर बैन इसलिए लगाया है क्योंकि सरकार डर रही है. हर धर्म और धर्म के सहारे टिकी सत्ता को उस जनता से डर रहता है कि उस की असलियत किसी भी छोटी से छोटी वजह से उजागर न हो जाए. धर्म और संस्कृति के पैरोकारों की इस प्रखर सरकार को डर है कि इस डौक्यूमैंट्री के बहाने धर्म, संस्कृति की पोल खुल जाएगी. पोल खुलेगी तो सरकारी कामकाज की भी खुलेगी.

सरकार चाहती है कि इस फिल्म को लोग उस नजर से न देख सकें जिस से हिंदू संस्कृति, परंपरा की पोल खुले. डौक्यूमैंट्री पर प्रतिबंध ने अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल खड़े किए हैं. सरकार ऐसे में ऊलजलूल और तानाशाही आदेश थोपने लगती है. ऐसी किसी चीज को बिना देखे बैन करने में केवल किसी खास राजनीतिक सोच की दरकार होती है. ऐसे अलोकतांत्रिक तानाशाही फैसले लागू करने के पीछे कोई सामाजिक, नैतिक या कानूनी जमीन की जरूरत नहीं होती. बस तानाशाही निर्णय थोपना होता है.

जनता का अधिकार

सरकार इस बैन के जरिए देश और समाज को संदेश दे रही है कि एक खास किस्म के विचार ही यहां चलेंगे. देश उन विचारों से चलेगा और जो कोई उन विचारों से अलग होगा, उसे कुचल दिया जाएगा. पर क्या इस लोकतांत्रिक देश की जनता को यह डौक्यूमैंट्री देखने का अधिकार नहीं है? लोकतंत्र मुख्यरूप से स्वतंत्र बातचीत और बहस पर आधारित होता है. बौद्धिक अधिकार के लिए सार्वजनिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार, चर्चा और बहस जरूरी है. सरकार ने बैन के जरिए नए नजरिए की गुंजाइश खत्म कर दी. समाज की सोच पर सरकार ताला जड़े रखना चाहती है. बलात्कार की समस्या विश्वभर में है. कितना ही खुला समाज हो, महिलाओं के प्रति उस का नजरिया अकसर दोयम दरजे का ही नजर आता है. औरतों का उत्पीड़न, यौन शोषण, घरेलू हिंसा और कदमकदम पर अपमान जारी है. दुनियाभर के लोगों की रुचि निर्भया मामले में थी और वे कारण जानना चाहते हैं कि  आखिर स्त्री के साथ बलात्कार के पीछे मानसिकता क्या है. क्या इस विश्वव्यापी गंभीर समस्या पर बहस नहीं होनी चाहिए?

सरकार ने डौक्यूमैंट्री पर प्रतिबंध नहीं लगाया है, उस ने उस तार्किक विचारधारा को उत्पन्न होने से रोकने की कोशिश की है जिस के बिना कोई भी समाज और व्यक्ति सही निर्णय नहीं ले सकता. होना तो यह चाहिए था कि डौक्यूमैंट्री का प्रदर्शन किया जाता. उस पर चर्चा की जाती कि आखिर कहां कमी है समाज में? हमारी सोच में?

कहीं पोल न खुल जाए

धर्म में किस बलात्कारी को सजा मिली? सीता को ही उलटा दोषी माना गया. अग्निपरीक्षा ही नहीं ली गई, गर्भावस्था में घर से निकाल दिया गया और उसे धरती की गोद में समा जाना पड़ा. द्रौपदी का दर्द कौन सा कम था. उसे धर्म बता कर बांट कर उपभोग करने का हुक्म दे दिया गया. अहल्या को शिला बन कर श्राप भुगतना पड़ा. इंद्र को सजा नहीं दी गई. धर्म की किताबों में देवताओं, अवतारों के दुष्कर्मों की गाथाएं भरी पड़ी हैं. औरतों के उपभोग, अत्याचार, शोषण की अनगिनत कथाएं हैं जिन्हें समाज पूरी श्रद्धा, आस्था के साथ सुनता और गौरवान्वित होता आया है.

अगर इन सब बातों की पोल खुलेगी और लोग समझदार हो जाएंगे तो धर्म का धंधा कैसे चलेगा. शंकराचार्य को कौन पूछेगा? देवीदेवताओं को कौन पूजेगा? स्त्री के साथ भेदभाव, शोषण, बलात्कार धर्मजनित बुराइयां हैं. बलात्कार होने पर या शादी से पहले यौन संबंध बना लेने पर लड़की को समाज स्वीकार नहीं करता. इसीलिए लड़की को प्रेम करने की इजाजत नहीं है, मरजी से शादी की इजाजत नहीं है. आज उच्च शिक्षित युवा पीढ़ी भी अक्षत योनि की कामना रखती है. शास्त्रों में कन्या से विवाह की बात का अर्थ ही अक्षत योनि लड़की से है. यानी शादी के लिए कौमार्य एक जरूरी मानक माना गया है.

हमारे यहां सैकड़ों लड़कियों के पत्र व फोन आते हैं जो पूछती हैं कि यदि उन का विवाहपूर्व यौन संबंध बन गया तो पति को पता तो नहीं चलेगा? पर एक भी फोन या पत्र युवक का नहीं आता कि अगर उस का विवाहपूर्व या विवाह बाद किसी पराई स्त्री से संबंध हो तो क्या पत्नी को पता चल जाएगा? भू्रण हत्या, औनर किलिंग, दहेज हत्या बाकायदा शास्त्रसम्मत धर्मकर्म के अपराध हैं. 10 बच्चे पैदा करने का फतवा, बहुविवाह, देवदासियां धर्म की ही भेंट हैं. बच्चों को पैदा होने से रोकना तो खुदा के हुक्म को न मानना करार दिया गया है. सरकार के इस फैसले से विश्वभर में भारत की और बदनामी हुई है. क्या सरकार ने कभी किसी धार्मिक सीख, धार्मिक नेता के बयान को प्रतिबंधित करने की कोशिश की है? हर धर्म सम्मेलन में सैकड़ों दकियानूसी और समाज को विभाजित करने वाली बातें कही जाती हैं. उन से क्या समाज का सिर नीचा नहीं होता?

मुकेश सिंह और उस के वकीलों के बयान शाश्वत सामाजिक यथार्थ हैं. वे बुरे लगे हैं पर एक सच को उजागर करते हैं. फिल्म निर्माता को बधाई देनी चाहिए कि निर्भया के बहाने एक बार फिर देश की सोच को हिला दिया है. इस समूचे हंगामे में वे चेहरे सामने आ गए हैं जो आज भी स्त्री को पैरों की जूती बनाए रखने के हामी हैं. इन में सरकार सब से आगे खड़ी दिखाई दी है. ऐसी सरकारों से सुधार की क्या कोई उम्मीद की जा सकती है? जब तक हम समाज की इस भयावह सचाई को स्वीकार कर उसे बदलने के लिए संघर्ष नहीं करते, तब तक बदलाव मुश्किल है.

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