जेटली का बातों का जाल
अगर बातों से देश का विकास हो सकता है तो 2022 तक देश में रामराज आ जाएगा. अब आचार्य अरुण जेटली ने कह दिया है तो होगा ही. उन्होंने कह डाला है कि 24 घंटे बिजली, साफ पानी, शौचालय, हरेक को घर, हरेक को नौकरी, सड़कें, सारे गांवों में बिजली, स्वास्थ्य–सब मिल जाएगा. ऐसा लग रहा है कि पिछले सभी वित्तमंत्रियों ने इन सब सुविधाओं को नौर्थ ब्लौक में छिपा रखा था, जेटलीजी ने उस के दरवाजे खोल दिए हैं. बातों से चुनाव जीते जाते हैं, देश का विकास नहीं होता. देश का विकास तो जनता करती है अपनी मेहनत से, उत्पादकता से, विकास से. वित्त मंत्री से अपेक्षा होती है कि वे सरकार चलाने के लिए इस तरह कर वसूलें कि जनता का उत्साह बना रहे और वह पैसा देती भी रहे. अब तक सभी वित्त मंत्री लगता है जनता के हाथ में पैसा दान में छोड़ते रहे हैं और अरुण जेटली ने भी वही किया है.
उन्होंने व्यक्तिगत आयकर में मामूली हेरफेर किया है. 2-4 हजार का लाभ कई अमीरों को दिया है और 10-20 हजार ज्यादा अमीरों से लिया है. यह बेमतलब की कवायद है. इस से ज्यादा उन्होंने सेवा कर बढ़ा कर झटक लिया है. कहने को वित्त मंत्री ने बताया है कि 4,44,200 रुपए की छूट दी है पर यह तब है जब 50 हजार रुपए फंड में जमा किए जाएं, 2 लाख रुपए का ब्याज मकान के कर्जे पर दिया जाए, 25 हजार रुपए का जीवन बीमा हो, 19,200 रुपए यात्राभत्ता मिलता हो. यह गणित किसी को भी समझ में आ जाएगा कि जिस की आय 40 हजार रुपए मासिक के आसपास हो, वह ऐसा मकान ले ही नहीं सकता कि जिस पर ब्याज 2 लाख रुपए देना हो और ऊपर से 25 हजार रुपए का बीमा हो यानी 20 हजार रुपए महीने की देनदारी.
करों के बिना देश नहीं चलता पर कर एकत्र करना कला है और यह देश ने कभी नहीं सीखी. यहां कर एकत्र करने वाले मंत्री से ले कर चपरासी तक रंगदारों की तरह से चूसने की कोशिश करते हैं और तभी पूरी अर्थव्यवस्था कालेधन पर चल रही है. जो कर दिया जा रहा है वह मन मार कर ही दिया जा रहा है.
बजट और आमजन
वित्त मंत्रियों से यह अपेक्षा कम ही की जाती है कि वे ऐसा बजट बना सकते हैं जिस से देश तालियां बजाए क्योंकि हर बजट का काम तो सरकार के लिए कर वसूलना होता है. सरकारी खर्च हमेशा बढ़ता ही है. अगर कोई वित्त मंत्री 2-4 चीजों पर करों में छूट दे दे तो लोग वाहवाह करते हैं पर जल्दी ही व्यापारी उन्हीं चीजों के दाम बढ़ा कर लोगों की हंसी छीन लेते हैं. अगर कोई खड़ूस वित्त मंत्री ज्यादा टैक्स बढ़ा दे तो लोग बिना हिसाब का काम ज्यादा शुरू कर देते हैं. रही बातें बड़ीबड़ी योजनाओं, सड़कों, अस्पतालों, स्कूलों, कालेजों, जहाजों, हवाई अड्डों की, तो ये खयालीपुलाव हैं जो कब पूरे होंगे, उस का न तो पता किया जा सकता है, न उन में जनता की रुचि होती है. उन में तो रुचि केवल बड़े कौर्पोरेट घरानों को होती है जो उन के सहारे अपने धंधे के सपने बुनने लगते हैं.
बजट में किसी नई सोच वाली सरकार की कोई छाप नहीं है, पुरानी बातों को दोहराया गया है, पुराने प्रोजैक्टों को नया नाम दिया गया है. ये वे काम हैं जिन की घोषणा सरकार 28 फरवरी को करे या कभी भी, कोई फर्क नहीं पड़ता. आम आदमी को अरुण जेटली के बजट से यही पता चलता है कि भाजपा सरकार के सारे चुनावी वादे 14 मई, 2014 को पूरे हो चुके हैं जब नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल ने शपथ ली. अब तो सरकार भैया यों ही चलेगी.
किसान, सरकार और भाजपा
आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल के हाथों दिल्ली में बुरी तरह हारने के बाद ऐसा लग रहा है कि भाजपा नेता व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बादशाहत मुगलई दिनों की हो गई है. अध्यादेशों को कानूनों में बदलवाने के लिए भारतीय जनता पार्टी को मुंह में जिस तरह लोहे के चने डालने पड़े हैं, वह अप्रत्याशित है. भूमि अधिग्रहण कानून पर विपक्षी इतने मुखर हो जाएंगे और अपने भी आंखें दिखाने लगेंगे, इस की आशा न थी. रोचक बात यह है कि जिस भूमि अधिग्रहण कानून को बचाने के लिए सारे भाजपा विरोधी एकमत हो गए हैं, वह जब बना था तो शायद ही किसी ने सोनिया गांधी की तारीफ की थी. भूमि अधिग्रहण कानून 1947 के बाद से किसानों को लूटने का सब से खौफनाक हथियार रहा है. देशभर में फैले शहर असल में किसानों को मुट्ठीभर रेत का मुआवजा दे कर उन से हथियाई गई जमीनों पर उगे हैं. जिन की वे जमीनें थीं, वे आज भी दरदर भटक रहे हैं.
ऐसा अनाचार और ज्यादा न हो, इस के लिए न जाने किस प्रेरणा से सोनिया गांधी ने यह कानून बनवाया था. पर तब कांगे्रसी ही इस से नाखुश थे. राज्य सरकारें भी उसे नहीं चाहती थीं पर सोनिया गांधी अपनी जिद पर अड़ी रहीं. अब पता चल रहा है कि यह कानून किस तरह का क्रांतिकारी था कि सभी हमदर्दों को इस में थोड़ाबहुत परिवर्तन भी स्वीकार्य नहीं है. यह अगले चुनावों में भाजपा के गले की फांस बन सकता है. किसान की जमीन उस की इच्छा के बिना जबरन ले कर किसी और काम में लगाई जाए, यह मूलभूत तौर पर गलत है. सिवा सड़कों, रेलों, नहरों के यह इजाजत किसी को नहीं होनी चाहिए. अगर भवन या कालोनी निर्माणकर्ताओं को जरूरत है तो वे किसानों से जमीनें खरीदें, जैसे वे और दूसरे सामान खरीदते हैं. किसान की जमीन का दाम जबरन कोई और तय करे, यह कैसे हो सकता है?
हां, भारतीय जनता पार्टी के लिए इस कानून में बदलाव किया जाना आवश्यक है क्योंकि उसे चुनावों में अमीरों का जो समर्थन मिला था, उस के पीछे इस ढील का वादा था. आज पैसा बनाने का सब से सरल तरीका सरकारी जमीन का अलौट कराना और उस पर मकान, उद्योग, मौल, सिनेमा, होटल बनाना है. जमीन अगर सीधे किसानों से खरीदनी पड़े तो बहुत ज्यादा परेशानियां होती हैं. यह गनीमत है कि भारतीय जनता पार्टी को लगभग शुरू में ही कड़वा घूंट पीना पड़ रहा है और अब उस की सरकार द्वारा केवल अमीरों को लाभ पहुंचाने वाले फैसले शायद कम ही लिए जाएंगे. देश का विकास अमीरों को और अमीर बना कर ही नहीं, गरीबों को भी अमीर बना कर करना होगा और इस के लिए किसानों को अपनी जमीन पर मनचाहा काम करने की छूट देनी होगी, उन की जमीनों को हथियाना नहीं होगा.
कालाधन और कानून
नए बजट पर बोलते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सरकार विदेशों में रखे कालेधन पर एक कानून तैयार कर रही है जिस के तहत नागरिक अपना पैसा वापस ला कर कर चुका दे वरना उन पर मुकदमा चला कर 10 साल की कैद हो सकती है. यह अव्यावहारिक है, यह साफ है. नरेंद्र मोदी 15 दिनों में 15 लाख रुपए लाने की बातें कर रहे थे और अब 9 माह के बाद भी कानून पर बस विचार हो रहा है. और यह कानून होगा भी क्या? अगर विदेशों में रखे कालेधन के बारे में पता करना आसान होता तो पिछली सरकारें क्यों चुप रहतीं? हर आयकर कार्यालय में फाइलें भरी होतीं कि किन नागरिकों को पकड़ना है. अगर कांगे्रस सरकार की मिलीभगत थी तो क्या भाजपा सरकार को 9 माह में भी एक को भी पकड़ने का मौका नहीं मिला? ऐसे में नया कानून क्या करेगा?
नए कानून में भी पहले तो पता करना होगा कि किस का पैसा है. यदि पैसा ज्यादा है तो भारतीय नागरिक विदेशी बन कर निकल सकता है. जो विदेश में पैसे रख सकता है, भारत में कामधंधे करेगा, नागरिक कहीं का बन भी जाएगा. नागरिकता तो आसानी से खरीदी जा सकती है. किसी इक्केदुक्के को पकड़ भी लिया तो भी दर्जनों अफसरों को मिल कर सुबूत जुटाने होंगे. वकील रखने होंगे, कागज तैयार करने होंगे. इस दौरान जहां पैसा रखा होगा वहां की विदेशी यात्रा पर अफसर जाएंगे. जितना पैसा हाथ लगेगा उस सेज्यादा हर मामले में अफसरों पर, कागजों पर, यात्राओं में, होटलों पर खर्च होगा और यह हर मामले में अलग होगा. वे सरकार से सुप्रीम कोर्ट तक लड़ेंगे. तब जा कर कहीं गिरफ्तारी होगी. हां, अगर सख्ती के नाम पर पहले कैद, सजा और फिर मुकदमा वाला तानाशाही कानूनी फंदा तैयार करने की मंशा हो तो बात दूसरी है. वह न दलील, न वकील वाली बात होगी, सिर्फ मनमानी होगी.
वैसे भी करों से बचाया गया पैसा विदेश में कौन रखेगा? व्यापारी और उद्योगपति तो हरगिज नहीं क्योंकि उन्हें देश में पैसा चाहिए. यह तो नेता और अफसरों का काम है या तस्करों का. उन्हें पकड़ना आसान नहीं क्योंकि उन की पहुंच होती है और उन की धमकियां भी कारगर होती हैं. अफसर उन्हें छूते नहीं. और फिर नरेंद्र मोदी ऐसे अफसर कहां से पैदा करेेंगे जो ईमानदारी से काम करेंगे. साक्षी महाराज और निरंजन ज्योति वाले फालतू के बच्चे हो भी जाएं और वे उन के सद्व्यवहार आसारामी, नित्यानंदी आश्रमों से निकल कर आए तो भी 30 वर्ष लगेंगे.
यह कानून बनाना होता तो अब तक बन जाता पर इसे बनाना मर्ज का इलाज नहीं. सरकारी आदेश से सूर्य पश्चिम से उगना तो शुरू नहीं कर देगा. सरकारी प्रचार से देश तो स्वच्छ नहीं हो गया. कालाधन खत्म करने का कानून बना देंगे, यह तो हर वित्त मंत्री कहता रहा है.
‘आप’ में विवाद
आम आदमी पार्टी यानी आप में उभरे आंतरिक विवाद पर आम आदमी की चिंता स्वाभाविक है. अलग तरह की राजनीति का वादा कर के जीती आम आदमी पार्टी के नेता भी और पार्टियों की तरह अहं और आत्ममुगालता के शिकार हों और अपने गुस्से को सार्वजनिक करें, यह आमजन को आसानी से नहीं पचेगा. असहमति वैसे लोकतंत्र की निशानी है. लोकतंत्र में हर विचार के लोग होते हैं, फिर भी वे एक मंच पर बैठते हैं और तभी सरकारें चलती हैं. इसी तरह हर दल में हर विचार के लोग होते हैं और वे अपने तमाम गुणों से पार्टी को बनाते हैं, उसे ऊंचा उठाते हैं. यह बात दूसरी है कि अकसर कुछ लोग पार्टी को बिगाड़ते हैं पर उन की भी जरूरत होती है क्योंकि जो अडि़यल होते हैं वे भी इस स्तर पर, जब नीतियों पर अपनी छाप छोड़ सकें, पहुंचने के पहले पार्टी के लिए बहुत योगदान देते हैं. आम आदमी पार्टी के मतभेद स्वाभाविक हैं क्योंकि यह बराबरी के स्तर वाले लागों की बनाई पार्टी है जिस में अब सत्ता और प्रभाव का बंटवारा होने पर कद घटनेबढ़ने लगे हैं. अब तक विवाद महत्त्व के नहीं थे क्योंकि सारे महल हवाई थे पर अब हकीकत में, चाहे दिल्ली में ही सही, प्रभाव का इस्तेमाल होने लगा है. अब पार्टी में लिए गए निर्णयों का असर हरेक की सोच पर पड़ने लगा है.
अरविंद केजरीवाल के लिए यह चुनौती है कि वे रूठों को कैसे मनाएं. जिस तरह से उन्होंने रूठे अन्ना हजारे को मनाया और भूमि अधिग्रहण कानून पर धरने में उन का साथ दे कर पुरानी नाराजगी दूर कर दी वैसे ही वे शायद इन लोगों को भी मना लें जो आम आदमी पार्टी के निर्माताओं में से हैं और उन के बिना पार्टी लड़खड़ा सकती है. वैसे, किरण बेदी जैसे कई नामों की नाराजगी के बावजूद आम आदमी पार्टी चली और अच्छी चली. फिर भी अच्छा रहता कि ये मतभेद 2-4 साल और छिपे रहते. ये पार्टी के विरोधियों को सुकून देते हैं और आम समर्थक के मन में संशय पैदा करते हैं. केजरीवाल को साबित करना है कि उन के सीधेपन का मतलब यह नहीं कि वे इस तरह के विवादों को हल नहीं कर पाएंगे.