भारतीय जनता पार्टी चाहे जितना कहती रहे कि उस का उद्देश्य देश को विकास के रास्ते पर ले जाना है, सुशासन देना है, देश को भ्रष्टाचारमुक्त करना है, स्वच्छ करना है, आम आदमी जानता है कि धर्म के व्यापार की कड़वी गोली पर ये बातें सिर्फ चीनी की रंगीन परतें हैं. जैसे ही पेट में जाएंगी, परतें घुल जाएंगी और धर्म का व्यापार चालू हो जाएगा. नरेंद्र मोदी सरकार से जनता में आशा की किरण फूटी थी कि वह भ्रष्ट परिवारवाद से लिपटी, निकम्मी, अहंकारी कांगे्रस और टूटतीजुड़ती समाजवादी पार्टियों से देशवासियों को मुक्ति दिलाएगी पर 8 माह ही में भाजपा ने जो रंग दिखाना शुरू किया वह यह साफ करने लगा कि गोली की कीमत क्या है. वादे तो होते ही झूठे हैं, जनता न उन के नाम पर वोट देती है और न उन्हें न निभाने या न पूरे करने पर वादा करने वालों को सजा देती है क्योंकि जो चीज हाथ में है नहीं, उस के न मिलने पर गम नहीं होता. गम तब होता है कि जो हाथ में है, वह छिन जाए. नरेंद्र मोदी के राज में भाजपा के कुछ लोग उस शांति को छीनने पर उतारू हो गए थे जो हाथ में थी.
भारतीय जनता पार्टी की भगवा ब्रिगेड 8 माह में मुखर हो गई. वह कभी लव जेहाद, कभी घर वापसी, कभी हिंदू राष्ट्र, कभी वेलैंटाइन डे पर जबरन विवाह, कभी हिंदू औरतों को 4 या 6 या 10 बच्चे जनने का निर्देश, कभी रामजादों और ह××मजादों की बात, कभी अलीगढ़ विश्वविद्यालय के आंतरिक मामलों में दखल, कभी शहरों के नाम बदलने वगैरह की बातें करने लगी. और नरेंद्र मोदी के मुंह पर ताला तो केवल विदेशी राष्ट्रपतियों या देशी उद्योगपतियों के सामने ही खुलता था, पार्टी को बिगाड़ने वालों के आगे नहीं. नरेंद्र मोदी से देशवासियों का मोहभंग होने का असर झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों में दिख गया था और सरकारें कम बहुमत पर ही बन पाई थीं, पर चूंकि जैसे भी हो बन गईं तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपने गले में कमलों का हार पहनते रहे थे. दिल्ली में उन को चुनौती दी अरविंद केजरीवाल ने. छोटे कद के, 56 इंच से कहीं कम छाती वाले, सीधे, सरल, कम बोलने वाले अरविंद ने गलीगली छान मारी. वह चाय वाला तो न था पर वह स्कूटर रिकशावालों, गलियों में रहने वालों, मैट्रो में चलने वालों का दोस्त था. उस का छिपा संदेश था ही नहीं क्योंकि जो अंबानी और अदानी को खुलेआम बेईमान कहता रहे वह बेईमानी कैसे कर सकता है. उस के पास छोटी गाड़ी, दिल्ली के निकट गाजियाबाद में मध्यवर्ग के लोगों की कालोनी में छोटा फ्लैट, कोई लागलपेट नहीं पर जज्बा भरपूर था. उस ने रातदिन एक कर दिया. पहले से ही ऐंटीकरप्शन मूवमैंट में वह नाम कमा चुका था. 49 दिनों तक दिल्ली का मुख्यमंत्री भी रहा था, उसे सत्ता की गलियों की पहचान हो चुकी थी. उसे कांगे्रस और भाजपा दोनों के काम करने के ढंग मालूम थे. उस ने न धर्म और जाति की बात की, उस ने स्वर्ग बनाने का वादा नहीं किया, उस ने अस्मिता, संस्कृति का रोना नहीं रोया. वह दिल्ली में बसे विभिन्न प्रदेशों से आए लोगों को बांट कर नहीं चला. उस ने सब को दिल्ली का हकदार माना. सिर्फ छोटीछोटी चीजों का वादा किया. ऐसे वादे जिन्हें निभाना कठिन हो सकता है पर असंभव नहीं.
भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली के चुनावों में जनता के उस भय को नहीं पहचाना जो उस की भगवा ब्रिगेड पैदा कर रही थी. लोगों को उतना मूर्ख नहीं समझना चाहिए कि वे पाकिस्तान में हो रहे धार्मिक आतंक के बारे में अनजान रहें. वे जानते हैं अफगानिस्तान में औरतों का क्या हाल है. उन्हें मालूम है कि इराक, ईरान, लीबिया, मिस्र, सीरिया, नाइजीरिया में धर्म के नाम पर औरतें कैसी कीमत चुका रही हैं. वे इस बात को दोहराते नहीं देखना चाह रहे थे. वे दिल्ली के त्रिलोकपुरी दंगे और चर्चों की तोड़फोड़ में गुजरात के दंगों की छवि देख रहे थे. अरविंद केजरीवाल ने धर्म के जहरीले सांपों की टोकरी को खोले बिना जता दिया कि चुनना किसे है, शांति को या कट्टरवाद को. उस ने भारतीय जनता पार्टी पर धर्म को ले कर हमला नहीं किया पर यह साफ था कि उस का उद्देश्य जनता को सीधा, सरल शासन देना है, किसी भगवाई या कौर्पोरेट के हवाले करना नहीं.
कांगे्रस के साफ हो जाने का लाभ उसे मिला और जिन लोगों ने मई में नरेंद्र मोदी को वोट दिए थे उन में से एकचौथाई ने तो अपना आदर्श बदल लिया और बाकी एकजुट हो गए राजनीति को एक नई शक्ल देने में, जो पुश्तैनी राजनीति को उखाड़ फेंके. 70 में से 67 सीटें दिला कर दिल्ली की जनता ने जता दिया है कि हिंदू बने रहने से ज्यादा जरूरी एक सभ्य, शांतिप्रिय और सक्रिय नागरिक बनना है. सारे अनुमानों को धराशायी करते हुए आम आदमी पार्टी के अदने से कार्यकर्ताओं ने अपने मिशन को जो सफलता दिलाई है वह अद्भुत है. बिना दंगेफसाद के, बिना झगड़े के, केवल कर्मठता और सही तमन्ना से जो काम सफेद टोपियों और लहराती झाड़ ुओं ने किया उस की गूंज देशभर में फैलेगी और विश्व भी इस से अछूता न रह पाएगा.
दुनियाभर की जनता धार्मिक कठमुल्लाओं से भी परेशान है, कौर्पोरेट शोषण से भी. हर जगह युवाओं के आंदोलन हो रहे हैं. अमेरिका में औक्युपाई वाल स्ट्रीट चल रहा है. हौंगकौंग में वास्तविक लोकतंत्र के लिए अंबै्रला क्रांति है. पेरिस में 40 लाख लोग धार्मिक हत्याओं का विरोध करने के लिए सड़कों पर उतर आए. दिल्ली ने भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा में भारी बहुमत का उत्तर विधानसभा में 70 में से केवल 3 सीटें दे कर दे दिया. भारतीय जनता पार्टी क्या इस से सबक सीखेगी? शायद नहीं, क्योंकि उस की भगवा ब्रिगेड अपनेआप को ईश्वर का अंतहीन, अनाशवान एजेंट मानती है. उस के लिए अरविंद केजरीवाल तो केवल क्षणभंगुर है. भारतीय जनता पार्टी चाहे हिंदू महासभा और बलराज मधोक की जनसंघ की तरह सिमट कर शून्य रह जाए, भगवाधारी नहीं बदलेंगे. भक्तों के पैसे पर फलतेफूलते भगवाई स्वामियों ने हर रंग देखे हैं, वे सफेद टोपी के मटमैला होने का इंतजार करेंगे. 2004 में हारे थे लेकिन वे 2014 में जीत गए. अब अरविंद केजरीवाल के लिए यह भी चुनौती है कि वह उन के जाल और जंजाल से अपने को मुक्त रखे.