एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति कीप्रक्रिया को बदल दिया गया है. कानून बदलने की कवायद के बाद अब सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति न्यायिक नियुक्ति कमीशन के जिम्मे होगी. इस के पहले सुप्रीम कोर्ट के जजों की कोलेजियम सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति करती थी. कोलेजियम में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के अलावा सुप्रीम कोर्ट के ही 4 वरिष्ठ जज इस के सदस्य होते हैं. कोलेजियम की यह व्यवस्था तकरीबन 2 दशक से हमारे देश में लागू थी.
कोलेजियम सिस्टम देश के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के बाद बना था. 1993 में सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट औन रिकौर्ड्स बनाम यूनियन औफ इंडिया के केस में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 124(2) और 217(1) की व्याख्या की थी. संविधान की इन धाराओं में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया का उल्लेख है.
सुप्रीम कोर्ट के उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस वर्मा की अगुआई वाली पीठ के फैसले की व्याख्या से साफ है कि उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय को तरजीह मिले. उस वक्त कोलेजियम सिस्टम के समर्थन में एक तर्क यह भी दिया गया था कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों को न्यायिक प्रक्रिया की जानकारी रखने वालों के बारे में बेहतर जानकारी होती है, लिहाजा नियुक्ति में उन की राय को अहमियत मिलनी चाहिए. सब से अहम तर्क यह दिया गया था कि इस से न्यायपालिका को राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त रखा जाए जोकि संविधान की मूल आत्मा में निहित है. बहुत संभव है कि कोलेजियम सिस्टम की वकालत करने वालों के जेहन में तब इंदिरा गांधी का मशहूर कथन ‘वी वांट अ कमिटेड ज्यूडिशियरी’ रहा होगा.
80 के दशक में इंदिरा गांधी की इस इच्छा का उन के राजनीतिक चेलों ने जम कर सम्मान किया था. उस वक्त के कानून मंत्री लगातार इंदिरा गांधी की बात दोहराते रहते थे और जानकारों का कहना है कि उसी हिसाब से काम भी करते थे. कमोबेश कोलेजियम सिस्टम जजों की नियुक्ति में नेताओं की दखलंदाजी रोकने में काफी हद तक कामयाब भी रहा था. हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू लगातार एक के बाद एक खुलासा कर रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों में राजनीतिक दखलंदाजी और हाई कोर्ट के भ्रष्टाचार को देश के म?ुख्य न्यायाधीश रोक नहीं पाए. उन्होंने देश के 3 पूर्व मुख्य न्यायाधीशों पर आरोप लगाए. हालांकि काटजू जिन हालात का बयान कर रहे हैं उन में नाटकीयता का पुट भी है और उन के खुलासे की टाइमिंग के चलते भी वे सवालों के घेरे में हैं.
पूर्व कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज अपने कई टैलीविजन इंटरव्यू में जस्टिस काटजू की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति की बाबत उस वक्त के चीफ जस्टिस रहे वाई के सब्बरवाल से बात करने को कह कर कुछ इशारा करते रहे हैं. यानी काटजू के आरोपों के अलावा भी कोलेजियम सिस्टम पर जजों के चुनाव को ले कर सवाल खड़े होते रहे हैं. दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे ए पी शाह को सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति न दिए जाने के कोलेजियम के फैसले पर प्रश्नचिह्न लगा था. जस्टिस शाह की छवि बेदाग थी और यह माना जा रहा था कि उन को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया जाएगा. लेकिन मीडिया में ऐसी खबरें आईं कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली कोलेजियम के एक सदस्य जस्टिस शाह की प्रोन्नति के खिलाफ थे, इस वजह से उन का सुप्रीम कोर्ट का जज बनना संभव नहीं हो सका.
समयसमय पर जजों के ऊपर भ्रष्टाचार के इल्जाम लगते रहे हैं. कलकत्ता हाईकोर्ट के जज सौमित्र मोहन पर आरोप लगे थे, कर्नाटक के चीफ जस्टिस पी डी दिनाकरन पर भी इस तरह के आरोप लगे थे. दोनों के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया चली थी.
सवालों के घेरे में
आजाद भारत के न्यायिक इतिहास में ये3 ही मौके हैं जब किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई थी. पहले जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया चली, तब कांगे्रस के सांसदों के सदन से वाक आउट करने के बाद महाभियोग का प्रस्ताव गिर गया था. पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट की जस्टिस निर्मल यादव पर भी घूस लेने के आरोप में अब भी केस चल रहा है. जब उन पर आरोप लगे थे तो कोलेजियम ने उन्हें लंबी छुट्टी पर भेज दिया था और जब मामला शांत हुआ तो उन का तबादला पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट से उत्तरांचल हाई कोर्ट में कर दिया गया.
इसी तरह जनवरी 2007 में गुजरात हाई कोर्ट के जस्टिस पी बी मजुमदार ने अपने ही साथी जस्टिस बी जे सेठना पर बदतमीजी का आरोप लगाया थातो जस्टिस बी जे सेठना का तबादला सिक्किम और पी बी मजुमदार का तबादला राजस्थान कर दिया गया था. हालांकि तब न्यायमूर्ति सेठना ने सिक्किम जाने से इनकार करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. पर इस से यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि कोलेजियम सिस्टम लागू होने के पहले हमारी न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं थी. कई ऐसे उदाहरण हैं जब सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों ने न्याय के उच्च मानदंडों की रक्षा की.
सब से बड़ा उदाहरण तो इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा का है, जिन्होंने 12 जून, 1975 को अपने ऐतिहासिक फैसले में इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को रद्द करते हुए अगले 6 वर्षों तक किसी भी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था. बाद में जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो जस्टिस कृष्णा अय्यर ने जस्टिस जगमोहन लाल के फैसले पर रोक लगा दी लेकिन उन्होंने भी इंदिरा गांधी को संसद में मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया था. ये दोनों फैसले देश में इमरजैंसी का आधार बने.
उस वक्त इंदिरा गांधी के वकील रहे वी एन खरे बाद में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने थे. अब अगर हम इतिहास से निकल कर वर्तमान में आएं तो यूपीए के दूसरे दौर के शासनकाल में तमाम घोटालों पर सुप्रीम कोर्ट के रवैए से सरकार
परेशान रही. यहां भी अदालत का रुख यूपीए सरकार की रुखसती की कई वजहों में से एक वजह बनी.
कहना न होगा कि आजादी के बाद से हमारे देश की न्यायपालिका कमोबेश कार्यपालिका और विधायिका के दबाव से आजाद रही है और न्याय के उच्चतम मानदंडों की स्थापना की है. लेकिन सब से बड़ा सवाल यह है कि कोलेजियम सिस्टम खत्म करने से क्या होगा. नियुक्ति की सिर्फ प्रक्रिया बदलेगी. क्या इस से सिस्टम में बदलाव हो पाएगा? इस बात की क्या गारंटी है कि न्यायिक नियुक्ति कमीशन से जिन न्यायाधीशों की नियुक्ति होगी वे बिलकुल बेदाग रहेंगे?
नए बिल के मुताबिक, अब हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति 6 सदस्यीय न्यायिक नियुक्ति कमीशन करेगा. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के ही 2 वरिष्ठ जज, कानून मंत्री और 2 मशहूर नागरिक इस कमीशन के सदस्य होंगे.
क्या है नया बिल
नए बिल के मुताबिक, कमीशन में 2 मशहूर नागरिकों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में सब से बड़े दल के नेता की 3 सदस्यीय कमेटी करेगी. अगर 6 सदस्यीय कमीशन के 2 सदस्य किसी भी उम्मीदवार के चयन से सहमत नहीं हैं तो उन का नाम राष्ट्रपति के पास नहीं भेजा जाएगा. नियुक्ति के लिए कम से कम 5 सदस्यों की सहमति आवश्यक की गई है. एक कानून को हटा कर दूसरे कानून को लागू कर सरकार जजों की नियुक्ति में अपना दखल कायम करने में कामयाब अवश्य हो गई है लेकिन इस से किसी भी तरह की व्यवस्था परिवर्तन की अपेक्षा बेमानी है. हमारे देश के रहनुमा हमेशा से कानूनों को बदल कर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं, व्यवस्था परिवर्तन की उन की मंशा रही ही नहीं है.
1989 में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री बने थे तो उन का एक जुमला बेहद मशहूर था. किसी भी समस्या पर जब उन से बात की जाती थी तो उन का एक रटारटाया जवाब होता था कि एक समिति बना दी गई है जो मामले के हर पहलू पर विचार करने के बाद अपनी रिपोर्ट पेश करेगी. रिपोर्ट के सुझावों पर सचिवों की समिति विचार करेगी और आवश्यक हुआ तो कानून में बदलाव किया जाएगा. यह वक्तव्य देश की व्यवस्था पर बेहद सटीक टिप्पणी है. विश्वनाथ प्रताप सिंह भले ही ये बातें 89-90 में कहा करते थे लेकिन तब से ले कर अब तक कई प्रधानमंत्री बदल गए, लेकिन यह मानसिकता और व्यवस्था नहीं बदली. कई प्रदेशों में सरकारें बदल गईं, कई मंत्रालयों में मंत्री बदल गए, मंत्रालय के कामकाज में आमूलचूल बदलाव आ गया लेकिन कानून बनाने की मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. अंगरेजों के जमाने में बनाए गए कानूनों की गहन समीक्षा कभी नहीं हुई.
बदलते वक्त के साथ जहां लोकदबाव बढ़ा वहां कुछ बदलाव कर दिए गए या फिर जब ज्यादा दबाव बना तो आमूलचूल बदलाव कर दिए गए. इस तरह की कार्यशैली से अदालतों का काम काफी बढ़ गया. कानून की खामियों और नएनए कानूनों के अस्तित्व में आने और फिर उन को संविधान के आईने में अदालतों में चुनौतियां दी जाने लगीं.
कानूनी मकड़जाल
दरअसल, सरकारों को पहले से हालात को भांपते हुए उन के मद्देनजर कानून बनाने चाहिए. लेकिन हमारी सरकारें पहले समस्या खड़ी होने देती हैं फिर उसे कानूनी पचड़े में डाल कर और उलझा देती हैं. ऐसी स्थिति में जनता या फिर पीडि़त को अदालत की शरण में जाने के अलावा कोई विकल्प नजर नहीं आता. इस का बेहतरीन उदाहरण दिल्ली में चलने वाला ई-रिकशा है. बैटरी से चलने वाला ई-रिकशा विदेशों से आयात हो कर धड़ल्ले से राजधानी की सड़कों पर चलने लगा.
दिल्ली और आसपास के इलाकों में चलने वाले इन ई-रिकशों की संख्या जब काफी बढ़ गई तो एक शख्स अदालत की शरण में चला गया और इन पर पाबंदी की मांग की. दिल्ली की सड़कों पर बेरोकटोक चल रहे इन ई-रिकशों को ले कर सरकार की कोई नीति नहीं थी. किस कानून के तहत ये बैटरीचालित रिकशा चल रहे थे, इस की कोई जानकारी नहीं थी. ये ई-रिकशा किसी संस्था से रजिस्टर्ड नहीं थे, लिहाजा जब विरोध शुरू हुआ तो भाजपा के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में ई-रिकशा को वैधता प्रदान करने का वादा कर डाला.
दरअसल, ई-रिकशा के बारे में परिवहन मंत्रालय द्वारा एक कैबिनेट नोट तैयार किया गया था जिस के मुताबिक ई-रिकशा को मोटर व्हीकल ऐक्ट के दायरे से बाहर रखने की बात कही गई थी. लेकिन यहां भी बगैर सोचेसमझे जल्दबाजी में कदम उठाया जाने लगा. सरकार मोटर व्हीकल ऐक्ट में बदलाव कर के ई-रिकशा चालकों को रेट्रोस्पैक्टिव इफैक्ट (भूतलक्षी प्रभाव) से फायदा पहुंचाने की कोशिश में लगी थी जबकि यह संभव ही नहीं है. अब मामले के फंस जाने के बाद एक बार फिर से कानून बनाने की पहल होने लगी. अब इस का नुकसान आम आदमी, जो अब तक ई-रिकशा में 10 रुपए में सफर करता था, को उठाना होगा. उसे अब 20 रुपए देने होंगे. कानूनी बाध्यताओं के चलते ई-रिकशा को कई विभागों से क्लियरैंस लेनी होगी. लिहाजा, उस खर्च का बोझ परोक्ष रूप से जनता को ही भुगतना होगा.
अदालतों का काम कानून की व्याख्या करना है लेकिन बेवजह बनने वाले कानूनों और फिर उस की व्याख्या को ले कर अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है. 2013 में उस वक्त के कानून मंत्री ने संसद में जानकारी दी थी कि पूरे देश में 3 करोड़ से ज्यादा मुकदमे विभिन्न अदालतों में लंबित हैं.
इन दिनों एक और मसले पर सरकार कानून में बदलाव और कुछ नए कानून बनाने की तैयारी में है. वे हैं 1948 के फैक्टरी ऐक्ट में बदलाव, 1961 के अप्रैंटिस ऐक्ट और 1988 के श्रम कानून. एक कानून को संशोधित करने के नाम पर उस में
नई धाराएं जोड़ी जाएंगी. जैसे 66 साल पहले के फैक्टरी कानून में बदलाव के नाम पर उस धारा को हटाने का प्रस्ताव है जिस में मजदूरों के लिए साफ शौचालय नहीं होने पर फैक्टरी मालिकों पर जुर्माने का प्रावधान है.
सरकार का तर्क है कि इस तरह के छोटेछोटे मसलों को कानून के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए. श्रम कानून के इस बदलाव को निश्चित तौर पर अदालतों में चुनौती दी जाएगी और फिर तारीख दर तारीख पड़ेंगी. अदालत का जो वक्त जन समस्याओं को सुलझाने में लगना चाहिए वह कीमती वक्त इन कानूनों के मकड़जाल को साफ करने में बीतेगा.
दरअसल, असली समस्या वहीं से शुरू होती है जहां से सरकार हर मसले का कानूनी हल ढूंढ़ने में लग जाती है. दिल्ली के निर्भया गैंगरेप कांड के बाद बलात्कार के खिलाफ जनाक्रोश को दबाने के लिए भी सरकार ने बलात्कार कानून में बदलाव कर आक्रोश को थामने की कोशिश की.
बलात्कार की बढ़ती घटनाओं की सामाजिक वजहों की पड़ताल करने और उस के आधार पर नीति बनाने की कोशिश नहीं की गई. बलात्कार के खिलाफ कडे़ कानून बना देने से न तो अपराध रुका और न ही उस में कोई कमी आई. कड़े कानून से अपराध रुकने की अपेक्षा करना उचित नहीं है लेकिन उस में कमी की अपेक्षा तो की ही जा सकती है.
कानून के भरोसे
पुलिस के आंकडे़ इस बात के गवाह हैं कि बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून बना देने से अपराध में कमी नहीं आई है. सामाजिक वजहों के अलावा हमें न्यायिक व्यवस्था दुरुस्त करने की आवश्यकता है. अदालती प्रक्रिया इतनी लंबी चलती है कि पीडि़त की न्याय की आस दम तोड़ देती है. हर मसले को कानून बना कर हल करने की प्रवृत्ति के कई नुकसान भी हैं.
निर्भया गैंगरेप केस में ही कानून तो बन गया लेकिन इस केस में आरोपी के नाबालिग होने की वजह से जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट में बदलाव की मांग उठने लगी. इस मांग के जोर पकड़ने से सरकार ने जुवेनाइलऐक्ट में बदलाव करने का मसौदा तैयारकर लिया. लेकिन बच्चों और किशोरों को ले कर 2 कानून पहले से हैं. बाल श्रम कानून और जुवेनाइल ऐक्ट में बाल श्रमिकों की व्याख्या अलगअलग है. बाल श्रम कानून के मुताबिक 14 साल के ऊपर के बच्चों से श्रम करवाया जा सकता है. वहीं, जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट के मुताबिक, 18 साल से कम के किशोर या बच्चों से काम नहीं करवाया जा सकता, यहां तक कि घरेलू नौकर के तौर पर भी नहीं.
कानून की इस स्थिति को ले कर बाल श्रमिकों का जम कर शोषण किया जाता है. यही हाल बच्चों के खिलाफ यौन शोषण को ले कर है. बच्चों के खिलाफ यौन हिंसा की वारदात जब ज्यादा होने लगी या फिर मीडिया की सक्रियता व अभिभावकों के ज्यादा जागरूक होने से इस तरह की खबरों से जब उस के खिलाफ एक माहौल बना तो सरकार कुंभकर्णी नींद से जागी और उस ने अभी प्रोटेक्शन औफ चाइल्ड फ्रौम सैक्सुअल औफेंस ऐक्ट यानी पाक्सो जैसा मजबूत कानून बनाया. हालांकि उस कानून में बच्चों के खिलाफ स्कूलों में यौन हिंसा होने पर स्कूल के खिलाफ मामूली कार्यवाही का प्रावधान है. अब स्कूलों की संलिप्तता या लापरवाही सामने आने के बाद फिर कानून में बदलाव की बात चल निकली है, संभव है बदलाव हो भी जाए.
सरकार को अब समस्या के कानूनी हल के फार्मूले से अलग हट कर चलना सीखना होगा. वक्त बदल रहा है, दुनिया बदल रही है, हमारे समाज का तानाबाना बदल रहा है, लोगों की मानसिकता बदल रही है, युवाओं की सोच सातवें आसमान पर जा रही है, चांद पर जाने के बाद हम अन्य ग्रहों पर तिरंगा लहराने के सपने देख रहे हैं लेकिन अपनी सामाजिक समस्याओं को सुलझाने के अपने औजारों को न तो बदलने के लिए तैयार हैं और न ही उस में संशोधन करने के लिए तैयार हैं.
बदले व्यवस्था
साम्यवादी व्यवस्था के दबाव में श्रमिकों के लिए कानून बनाना सही था, उस वक्त वह देश की जरूरत थी लेकिन अब बदली परिस्थितियों में सरकार को रैफरी की भूमिका में रहना चाहिए. मालिकों और श्रमिकों को अपनी नीतियांरीतियां तय करने का हक देना चाहिए. सरकार सिर्फ रैगुलेटर की भूमिका में हो. श्रमिकों को अपने फैसले खुद लेने का अधिकार होना चाहिए और कानून यह तय नहीं करे कि फैक्टरी में शौचालयों की स्थिति कैसी रहेगी.
सरकार अगर सचमुच न्यायिक व्यवस्था में सुधार चाहती है तो ऐसे कानून बनाने होंगे जिन में न्यायालयों का फैसला अंतिम और मान्य हो. अगर कोई आम आदमी किसी सरकारी अफसर के खिलाफ है या उस के रवैये से तंग हो कर हाई कोर्ट में शिकायत दर्ज करता है तो हाई कोर्ट के फैसले को अंतिम मानना चाहिए. हाई कोर्ट से विपरीत फैसला आने के बाद अफसर के पक्ष से उस का सरकारी विभाग सुप्रीम कोर्ट चला जाता है और यह कानूनी प्रक्रिया लंबी चलती है. जब तक न्याय हो पाता है तब तक उस न्याय का अर्थ नहीं रह जाता है. अगर सिर्फ सरकारें ही अदालत में जाना बंद कर दें तो देश में मुकदमों की संख्या आधी से कम हो सकती है. सरकारी विभाग के अलावा राज्य सरकारें भी एकदूसरे के खिलाफ लंबी अदालती लड़ाइयां लड़ती हैं. इस व्यवस्था को बदलने की जरूरत है.
यह विडंबना है कि हम आधुनिक होने का दावा तो करते हैं लेकिन अपने एप्रोच में हम लकीर के फकीर हैं. कानून को बदलने से नहीं, सिस्टम को बदलने से आम जनता को फायदा होगा. यही हाल हमारी सरकारों का भी है. वे भी पुरानी लीक पर ही चलना चाहती हैं. हर चीज पर कानून बनाने और हर समस्या का कानूनी हल ढूंढ़ना इस का ही प्रतीक है, उदाहरण है. इस का नुकसान यह है कि अदालतों में लंबित मामलों का अंबार लगता जा रहा है और तारीख पर तारीख के बीच न्याय की आस लिए भटक रहे लोगों का इंतजार लंबा होता जा रहा है. 2013 में 3 करोड़ से ज्यादा केस लंबित थे और यही हाल रहा तो इस के 5 करोड़ तक पहुंचने में वक्त नहीं लगेगा. यह लोकतंत्र के लिए उचित नहीं होगा.