8 जून, 2014 की दोपहर 3 बजे हम मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले की सुहागपुर तहसील के तहत आने वाले गांव कूकरा में थे. आसमान से आग इतनी भीषण बरस रही थी कि पक्षी तो पक्षी, कोई मवेशी भी जमीन पर नहीं दिख रहा था. गांव था या है, इस का यह मतलब नहीं कि वहां सालों पुराने घने छायादार बरगद या पीपल के पेड़ थे, अमराई थी, आसपास लहलहाते खेत थे, कोई कुआं या पनघट था या कुछ नएपुराने कच्चे मकान और छोटीमोटी सरकारी इमारतें थीं, गलियां थीं, घरों के बाहर लगाई गई मौसमी सब्जियों के पेड़ या बेलें थीं. इस कूकरा गांव का मतलब था 2 एकड़ सपाट बंजर जमीन, जिस में बंजारों की तरह तकरीबन 40 परिवारों के 200 सदस्य ला कर छोड़ दिए गए थे. इस तारीख तक 4-6 कच्चे मकान ही बल्लियों के सहारे आकार लेते दिख रहे थे वरना तो सभी गांववासी तपती जमीन पर बैठे जैसेतैसे सिर पर छांव का इंतजाम कर सूनी आंखों से आग उगलते आसमान की तरफ बारबार नजर उठा कर देख रहे थे कि कब इस की तपिश कम हो और वे अपना काम शुरू करें.

काम यानी घर बनाना शुरू करें, चारों तरफ घरगृहस्थी का सामान, कच्चे चूल्हे, खपरैल, बिस्तर, बरतनभांडे पड़े थे जिन के इर्दगिर्द घर की मालकिनें और उन की गोदी में छोटेछोटे बच्चे बैठे थे. अधिकांश पुरुष या तो जंगल की तरफ चले गए थे या फिर 12 किलोमीटर दूर तहसील मुख्यालय पर मालूम करने गए थे कि उन का क्या हो रहा है. कुछ बुजुर्ग चंद कदमों की दूरी पर बबूल के एक पेड़ की छांव के नीचे बैठे, जाने क्याक्या सोच रहे थे. जैसे ही हमारी गाड़ी इस गांव के बाहर कच्ची सड़क पर रुकी, थोड़ी हलचल मची, बच्चे हल्ला मचाते दूर आ कर खड़े हो गए. महिलाओं ने उत्सुकतावश दूर से देखा, फिर घूंघट करने का उपक्रम करने लगीं. बूढ़ों ने भी हमारी तरफ कदम बढ़ाए. एक 18-20 साल का युवक, जो उस वक्त शायद अज्ञात खतरों से रखवाली के लिए रुक गया था, प्रमुखता से आगे आया. तय है कि अगवानी के लिए नहीं बल्कि बाकियों की तरह यह जिज्ञासा लिए कि हम कौन हैं और क्यों आए हैं. ऐसा होता है विस्थापन हम ने परिचय दिया तो उस युवक, जिस का नाम निर्भय सिंह मर्सकोले था, ने एक खटिया मंगवा कर बिछवा दी.

बातचीत में उस ने बताया, ‘‘अब से कुछ दिन पहले जब नए प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी पद की शपथ ले रहे थे तब गांव कूकरा के वासियों को वन विभाग ने यहां ला कर छोड़ दिया और कहा कि अब यही तुम्हारा गांव है, यहां रहो और कमाओखाओ. वह कहता है कि हम सभी गौंड आदिवासी हैं.’’ नए कूकरा में इस दिन तक पीने का पानी तक नहीं था, दूसरी बुनियादी सहूलियतों की तो बात करना ही बेकार है. कोई 200 मीटर दूर कच्ची सड़क के नीचे एक टैंकर खड़ा था. निर्भय ने बताया, ‘‘इस का पानी धूप में इतना गरम हो गया है कि इसे पीया नहीं जा सकता. लिहाजा, अभी जो 8-10 कुल मटके हैं उन में डालडाल कर ठंडा कर पी रहे हैं पर इस पानी को पीने से कई लोग बीमार हो गए हैं, खासतौर से बच्चे, जो यहां आने के बाद उलटीदस्त के शिकार हो चले हैं. आसपास इलाज की कोई सुविधा नहीं है. ‘‘सुबहशाम दूर जंगल में जा कर औरतें लकडि़यां बीन लाती हैं, उन्हीं को जला कर हम खाना बना रहे हैं. शौच के लिए भी पानी की बोतल या लोटा ले कर जाना पड़ता है. बिजली न होने से रात को परेशानियां और बढ़ जाती हैं.’’

पुराने कूकरा से क्यों हटाया गया, इस सवाल का जवाब देते निर्भय ने बताया, ‘‘हमें वन विभाग के लगातार नोटिस मिल रहे थे कि यह विशेष क्षेत्र है, लिहाजा हम गांव खाली कर दें. अकसर वन विभाग के कर्मचारी आ कर हम लोगों को धौंस दिया करते थे कि यहां से हटो, वरना हमें जबरदस्ती करनी पड़ेगी. कूकरा से सटे गांव नांदेर के लोगों को भी हटा कर दूसरी जगह ले जा कर छोड़ दिया गया है. ‘‘हमें समझ नहीं आ रहा था कि हम क्या करें. गांव के अधिकांश लोग अनपढ़ हैं. एक वकील से बात की तो उस ने जिताने का भरोसा दिलाया. सभी गांव वालों ने चंदा कर उस की फीस की रकम जुटाई. उस के बाद मामले का क्या हुआ अभी तक अतापता नहीं. अचानक 28 मई को वन विभाग वाले आए और हमें खदेड़ना शुरू कर दिया.’’ ये बातें बतातेबताते निर्भय के चेहरे पर निराशा और आक्रोश के मिलेजुले भाव आ जाते हैं. पास बैठे एक बुजुर्ग धन्नालाल मर्सकोले ने बताया, ‘‘जबरदस्ती से बचने के लिए हमें मजबूरी में राजी होना पड़ा. ट्रक और ट्रैक्टर में सामान लदवा कर हमें यहां ला कर छोड़ दिया गया. हमारे मवेशी वहीं रह गए. उन्हें लाने की कोई पहल या इंतजाम विभाग के लोग नहीं कर रहे. हम से कोरे कागजों पर अंगूठे व दस्तखत ले लिए गए.’’ धन्नालाल चारों तरफ नजर डाल कर कहते हैं, ‘‘हम पीढि़यों से वहां रह रहे थे, कभी सोचा न था कि यों बेघर हो जाएंगे.’’

धन्नालाल सहित सभी बेघरों को दुख इस बात का है कि उन्हें जंगल में ला कर पटक दिया गया और अब कोई सुध नहीं ले रहा. यह वक्त था जब देशभर में ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ की धुन बज रही थी जबकि कूकरा गांव के लोग बुरे दिनों से जूझते अपने अस्तित्व, बसाहट और पहचान की लड़ाई से दोचार हो रहे थे जो आज भी जारी है और न जाने कब तक चलेगी. खाट से कुछ दूर बैठी एक गृहिणी को उस की लगभग 8 वर्षीय बेटी रीना बारबार अपनी मां का पल्लू खींच पूछ रही थी कि क्या ये हमें वापस अपने गांव ले जाएंगे? रीना का बालमन कितने गहरे अवसाद में था, सहज समझा जा सकता है. अपनी खिचड़ी दाढ़ी पर हाथ फेरते धन्नालाल ने अपनी बात, जो असल में व्यथा थी, इस तरह दार्शनिक अंदाज में बयां की कि शाम को चिडि़या वापस आई तो न पेड़ था न घोंसला, इसलिए वह बेचैनी से फड़फड़ाती फिर रही है. ऐसी ही हालत हमारी है. हम तो कभी भी ऊपर जा सकते हैं, अब अपनी मिट्टी में ही दफन होने की ख्वाहिश भी खत्म हो गई. लेकिन बच्चों का क्या होगा, यह सोचसोच कलेजा कांप जाता है.

अब तो हमारा अपने ‘बड़ा देव’ से भी भरोसा उठ गया है. राहत पर लूटखसोट अगले दिन दलित संघ की अगुआई में कुछ विस्थापित सुहागपुर तहसील पहुंचे और तहसीलदार स्वाति तिवारी को बदहाली के बाबत ज्ञापन दिया. हैरत और तरस की बात इन तहसीलदार साहिबा का यह कहना रहा कि उन्हें तो मालूम ही नहीं कि इन का विस्थापन या पुनर्वास हुआ है. उन के पास तो कोई अधिकृत या अनाधिकृत खबर ही किसी विभाग या दूसरे माध्यम से नहीं आई. दरअसल, खबर इसलिए नहीं आई कि यह वन विभाग के मुलाजिमों और दलालों की मिलीभगत थी. एक संपन्न किसान की परती जमीन पर उन्हें बसा दिया गया और बिक्री के अनुबंध कर लिए गए. सभी परिवारों को बता दिया गया कि वे अपनीअपनी सहूलियत और समझौते के मुताबिक भूखंड काट लें जो उन्होंने काट लिए. दलित संघ के अध्यक्ष डा. गोपाल नारायण आप्टे बताते हैं, ‘‘न तो इन सभी लोगों के बैंक खाते खोले गए न ही इन्हें स्पष्ट बताया गया कि इन्हें कितना पैसा विभाग देगा.’’ पूछने पर निर्भय ने बताया, ‘‘हमें 10-10 लाख रुपए देने का वादा किया गया है. खातों में कुछ रुपया आया था जिस में से सामान की ढुलाई के पैसे तुरंत हम से ले लिए गए और कहा जा रहा है कि इस जमीन के दाम भी इसी राहत राशि से चुकाने हैं.’’ खुद को स्मार्ट प्रदर्शित कर रहे इस युवक ने मन ही मन हिसाबकिताब लगाते बात आगे बढ़ाई कि फिर तो हमारे पास कुछ नहीं बचना, हमारी जमीन तो वहीं रह गई, अगर मजदूरी न मिली तो फाके करने की नौबत आ जाएगी. इस 2 एकड़ बंजर जमीन की कीमत 8 लाख रुपए भी नहीं है लेकिन विस्थापितों से किए अनुबंध पर अमल हुआ तो भूमि स्वामी को तकरीबन 40 लाख रुपया मिलेगा. इस से लगता है विस्थापन विशेष क्षेत्र के संरक्षण के लिए नहीं, बल्कि व्यक्ति विशेष के फायदे और कमीशन के लिए हड़बड़ाहट में एक साजिश के तहत किया गया.

यानी रोजगार देना तो दूर की बात है, वन विभाग, सरकार और दलाल इन की राहत राशि पर छीनाझपटी में जुटे हैं, जिस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा. सुहागपुर के विधायक ठाकुर दास नागवंशी से इस प्रतिनिधि ने जब इस बारे में पूछा तो वे मासूमियत से बोले, ‘‘मुझे कुछ मालूम ही नहीं, देखूंगा.’’ लेकिन विधायकजी के मुंहलगे और खुद को चालाक यानी समझदार प्रदर्शित कर रहे एक युवा ने फुसफुसा कर बताया, ‘‘विधायकजी पहले एक दुकान में काम करते थे. भाजपा को इस सुरक्षित सीट से कोई उम्मीदवार नहीं मिल पाया था, इसलिए इन्हें खड़ा कर दिया गया. शिवराज लहर में ये जीत गए हैं. अब सीख जाएंगे कामकाज करना.’’ पुनर्वास के नाम पर इस तरह के छल और ज्यादतियां नई बात नहीं. मिसाल ढेरों हैं. मध्य प्रदेश को लें तो 60 के दशक में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विंध्याचल इलाके के सिंगरौली क्षेत्र में रिहंद बांध बनाने के लिए वहां के लोगों से हट जाने की गुजारिश करते हुए कहा था, ‘आप लोग अभी हट जाएं, हम आप को स्विट्जरलैंड जैसी जगह यहीं बना कर देंगे.’

स्विट्रजरलैंड तो दूर की बात है सिंगरौली के विस्थापितों को कहीं जगह नहीं मिली, मुआवजा भी सालों बाद नाममात्र का मिला था. आज उन की तीसरी पीढ़ी यहांवहां मेहनतमजदूरी कर बसर कर रही है. यही हाल कूकरा के लोगों का होना दिख रहा है और मुमकिन ही नहीं तय है कि यही हाल सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों का होगा. उन में दहशत है. विस्थापन, निमाड़ इलाके के लोगों की नियति बनता जा रहा है. मेधा पाटकर सरीखी तेजतर्रार समाजसेवी लड़लड़ कर हारती नजर आ रही हैं. दहशत में निमाड़ विस्थापन और पुनर्वास की क्रूरता का कूकरा बहुत छोटा संस्करण है. केंद्र सरकार के 12 जून के एक फैसले के चलते अब इस तरह की त्रासदी निमाड़ इलाके के 193 गांवों के 50 हजार परिवारों यानी ढाई लाख लोगों को भुगतनी पड़ेगी. केंद्र सरकार और नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण यानी एनसीए ने गुजरात के केवडि़या स्थित सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई 121.012 मीटर से बढ़ा कर 138.68 मीटर करने की इजाजत दे दी है. इस बांध की ऊंचाई बढ़ाने का मसौदा 8 साल से लंबित पड़ा था जिसे प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने फुरती दिखाते हुए एक पखवाड़े में निबटा दिया.

एनसीए के मुताबिक, इस से गुजरात में पेयजल समस्या का समाधान हो जाएगा और बांध से पैदा होने वाली 1,450 मेगावाट बिजली को 4 राज्यों–गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बांट दिया जाएगा. इस से मध्य प्रदेश को सर्वाधिक 826 मेगावाट बिजली मिलेगी. सरकार वन्यजीवों की सुरक्षा के नाम पर विस्थापन करे या बांधों से मिलने वाली बिजली और सिंचाई के नाम पर विस्थापन करे, उस का हक है लेकिन यह कोई नहीं देखता कि पुनर्वास के मामले में क्यों वह अपनी जिम्मेदारियों से मुंह फेरे रहती है, जो बवाल की बड़ी वजह है. बहरहाल, नर्मदा बचाओ आंदोलन ने तुरंत आक्रामक पहल करते हुए आंकड़े पेश कर दिए कि बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने से तकरीबन ढाई लाख लोग प्रभावित होंगे, और इस बाबत कोई तैयारी सरकार ने नहीं की है. जल संसाधन मंत्री उमा भारती कह जरूर रही हैं कि सामाजिक न्याय मंत्रालय विस्थापितों के लिए उठाए कदमों से पूरी तरह संतुष्ट है. पर हकीकत एकदम उलट है. नर्मदा घाटी में इस बाबत कहीं कोई तैयारी नहीं दिख रही. फैसले ने हरसूद त्रासदी की याद दिला दी है जहां के हजारों विस्थापित अभी भी भटक रहे हैं. न तो उन का पुनर्वास हुआ है न ही मुआवजा मिला है. आंदोलनकारियों की मानें तो डूब में आ रहे ढाई लाख लोगों को वैकल्पिक जमीन, आजीविका और भ्रष्टाचार की जांच के चलते पुनर्वास का काम रुका हुआ है.

88 बसाहटों के कार्य घटिया हैं और 3 हजार फर्जी रजिस्ट्रियों की जांच चल रही है. एक आंदोलनकारी की मानें तो यह फैसला राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया है जो गैरकानूनी भी है. सरदार सरोवर बांध परियोजना पर विवाद और विरोध नई बातें नहीं हैं. 1993 से ही विवाद और विकास साथ चलते रहे हैं. विस्थापितों के हकों को बांध के मकसद और पुनर्वास से संबंध रखते दर्जनों मुकदमे अदालतों में चल रहे हैं. मेधा पाटकर नर्मदा बचाओ आंदोलन की अगुआई करती रही हैं. उन का साथ कई हस्तियों ने समयसमय पर दिया है. उन में समाजसेवी अन्ना हजारे, लेखिका अरुंधति राय और फिल्म अभिनेता आमिर खान भी शामिल हैं. अतीत की तरह इस परियोजना का वर्तमान भी कड़वा है और सामने है, इसलिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण है ढाई लाख लोगों के सिर पर रोजीरोटी का संकट. सब से बड़ा संकट आदिवासी बाहुल्य जिले धार के निसरपुर कसबे पर है जिस का अगला हरसूद बनना तय है. 10 हजार की आबादी वाला यह कसबा जलमग्न हो जाएगा. निसरपुर के चारों तरफ के लगभग 50 गांव भी डूब क्षेत्र में आ रहे हैं. निसरपुर की एक चूड़ी विके्रता महिला ऊषाबाई कुमारवत की मानें तो उन के सामने अंधेरा ही अंधेरा है, सबकुछ छिनने जा रहा है और हम असहाय हैं. पुनर्वास स्थल पर जा कर क्या करेंगे, क्या खाएंगे, पता नहीं. यही चिंता तकरीबन 200 कुम्हार परिवारों और 125 मछुआरे परिवारों की भी है. इन की भी नींद उड़ी हुई है. धार के अलावा बड़वानी और खरगौन जिले के डूब क्षेत्र में आ रहे गांवों के लोग भी पुनर्वास स्थल को ले कर असंतुष्ट, शंकित और नाराज हैं.

एनवीए से जुड़े गांव खापरखेड़ा के देवराम कनेरा का कहना है कि पुनर्वास स्थल पर बिजली, सड़क और पानी के इंतजाम नहीं हैं. फिर दीगर सहूलियतों की तो बात करना ही बेमानी है. वे इन बातों को उठाते हैं तो उन्हें बांध विरोधी कह कर झिड़क दिया जाता है. इन लोगों की चिंता और दहशत बेवजह नहीं है. दरअसल, साल 2002 में भी विस्थापन हुआ था लेकिन मुआवजा देर से मिला और पुनर्वास स्थल भी देर से बना. नतीजतन, विस्थापित लोग मकान भी नहीं बना पाए. विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन भी नहीं दी गई. विख्यात लेखिका अरुंधति राय विस्थापन को कू्ररता करार दे चुकी हैं क्योंकि सरकार पुनर्वास का ध्यान नहीं देती. मेधा पाटकर की भी इस दलील में दम है कि सरकार इतने सालों में पुनर्वास नहीं कर पाई तो इतनी जल्दी क्या कर लेगी. उच्चतम न्यायालय ने विस्थापन का जो ऐक्शन प्लान दिया है उस पर अमल नहीं हो रहा है. अब दोबारा मैदानी और कानूनी लड़ाई लड़ने जा रही मेधा पाटकर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी कोसने लगी हैं. उन की नजर में मुख्यमंत्री संवेदनहीन हैं, चर्चा ही नहीं करते. पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कम से कम बात तो कर लेते थे. ऐसा होना चाहिए पुनर्वास ऊंचाई बढ़ाने के नए फैसले पर राजनीति शुरू हो गई है. कांग्रेस हर स्तर पर विरोध कर रही है.

कहा यह जा रहा है कि नरेंद्र मोदी इस मामले में प्रधानमंत्री की नहीं, बल्कि गुजरात के मुख्यमंत्री की तरह से पेश आए हैं. बहरहाल, इन बातों से मूल समस्या हल नहीं होने वाली जो कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति की वजह से है. विस्थापितों और विस्थापन प्रक्रिया को बाबुओं व पटवारियों के हवाले छोड़ देना फसाद की असल जड़ है, जिस की तरफ जाने क्यों आंदोलनकारियों का भी ध्यान नहीं जाता. राजनीतिक और कानूनी विरोध आसान काम है पर सरकारी अमलों से निबटना दुष्कर काम है. यही वे लोग हैं जो मनमानी करते हैं, विस्थापन के नाम पर लुटपिट रहे लोगों से भी घूस खाते हैं और फर्जीवाड़े से पैसा बनाते हैं. फर्जी रजिस्ट्री कांड का परदाफाश होना इस की गवाही देता है. पुनर्वास के नाम पर कूकरा में जो छोटे पैमाने पर हुआ वह नर्मदा घाटी में 20 सालों से बड़े पैमाने पर हो रहा है.

दिक्कत यह है कि पुनर्वास का कोई खाका सरकार के पास नहीं है. वह लोगों को उजाड़ तो देती है पर बसा नहीं पाती. विस्थापन होना चाहिए या नहीं, इस बहस से बचने का इकलौता हल है व्यवस्थित पुनर्वास. इस के तहत इन प्रावधानों पर सख्ती से अमल होना चाहिए कि सरकार सुविधायुक्त पुनर्वास स्थल विकसित कर विस्थापितों को दे, जहां तमाम बुनियादी सहूलियतें हों, जमीन के बदले जमीन दे और रोजगार की गारंटी दे. चूंकि यह काम खर्चीला और लंबा है, इसलिए तमाम सरकारें इस जिम्मेदारी से बचती हैं. तय है आंदोलन और आंदोलनकारी न होते तो विस्थापितों की और ज्यादा दुर्गति होती. एनवीए ने कमर कस ली है तो तय यह भी है कि निमाड़ में बवंडर मचेगा. एक दफा विकास की शर्त पर विस्थापन भले ही कू्ररता न मानी जाए पर पुनर्वास का न होना किसी क्रूरता से कम नहीं, इस बाबत सरकार कठघरे में है.

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