नरेंद्र मोदी की चुनावों में भारी जीत और उस के बाद भाजपा विरोधी विचारधाराओं के लोगों द्वारा स्वीकार्यता के पीछे एक कारण मोदी का शब्दों का चयन है जिस में विकास, आशा, आशावादी, कर्मठता, चुनौती शामिल हैं. एक देश और समाज का निर्माण तभी होता है जब उस के नेता समाज और देश को यह विश्वास दिला सकें कि बहुत कुछ करना संभव है. जरूरत लक्ष्य तय करने और उसे पाने की आशा रखने की है.

यह सोच भारतीय जनता पार्टी की है या नरेंद्र मोदी की, अगले 2-3 महीनों में पता चलेगा. पर यह पक्का है कि आगे बढ़ने की सोच का अभाव ही इस देश की दुर्गति का कारण रहा है. यहां सदियों से सिखाया जा रहा है कि तुम्हें मिलेगा वही जो तुम्हारे भाग्य में है. कर्म में विश्वास रखने की बातों के बावजूद इस देश को सदा अपने भविष्य के लिए तंत्रमंत्र पर रहने को कहा गया है, अपनी आशा, कर्मठता की नाव पर चलने को नहीं. कर्म का संबंध अगले जन्म में उस के फल पाने से था, यहां इसी जन्म में उस के लाभहानि गिनने से नहीं.

नरेंद्र मोदी की ये बातें और उन की करनी अगर देश को सोते से जगा सके, उसे अपने भाग्यवाद के जंजाल से मुक्त करा दे और यह विश्वास दिला दे कि इस जमीन में ऐसा कुछ नहीं है कि केवल गरीब, खाली पेट, अनपढ़, गंदे लोग ही पैदा कर सकती है तो देश में परिवर्तन अवश्य आ सकता है.

देश को परिवर्तन की जरूरत है जो अन्य राजनीतिक दल, यहां तक कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, ओडिशा में नवीन पटनायक और तमिलनाडु में जे जयललिता भी नहीं कर पा रहे हैं. वहां काम ढंग से हो रहा है, भ्रष्टाचार के गंद की बू भी बहुत ज्यादा नहीं है पर जनता को जगाने का काम वहां भी नहीं हो रहा.

हां, अगर यह परिवर्तन सपना साबित हुआ और धर्म व संस्कृति के नाम पर वर्णव्यवस्था को परोक्ष रूप से मजबूत करना शुरू किया गया, देश की विचारों की स्वतंत्रता को कुचलना शुरू हुआ, मंदिरों और आश्रमों में नीतियां तय होनी शुरू हुईं तो मराठा राजा शिवाजी के बाद पेशवाओं के राज का सा पतन दूर न होगा जिस ने अंगरेज व्यापारियों के लिए शासन करने के रास्ते खोल दिए थे.

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