धर्म के तथाकथित पैरोकारों की धार्मिक भावनाएं इतनी खोखली और बचकानी हैं कि आएदिन फिल्मों से आहत हो कर कच्चे घड़े की तरह फूट जाती हैं. संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘…राम-लीला’ को ले कर हिंदू संगठनों ने बवाल दरअसल धार्मिक भावनाओं के चलते नहीं बल्कि धर्म के धंधे पर चोट पहुंचने की वजह से किया. धर्म की खाने वाले खौफजदा हैं कि कहीं राम के नाम पर चल रही उन की दुकानदारी ठप न हो जाए. क्या है पूरा मामला, बता रहे हैं जगदीश पंवार.
संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘गोलियों की रासलीला राम-लीला’ को ले कर कई याचिकाएं दायर की गई हैं. देश के कई हिस्सों में फिल्म का प्रदर्शन नहीं होने दिया गया. गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश के कई शहरों में हिंदू संगठनों ने फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग की तो कहीं नाम बदलने की. विरोधस्वरूप पोस्टर फाड़ डाले गए, तोड़फोड़ की गई. निर्माताओं के पुतले जलाए गए. उत्तर प्रदेश के बरेली, रामपुर में हिंदू युवा वाहिनी ने फिल्म के पोस्टर जला डाले. सैंसर बोर्ड के खिलाफ नारेबाजी की और पोस्टर फाड़ दिए. पंजाब के होशियारपुर में भगवान परशुराम सेना और हिंदू संघ ने सीजेएम कोर्ट में शिकायत दर्ज कर फिल्म पर प्रतिबंध की मांग की.
गुजरात में क्षत्रिय समुदाय ने फिल्म पर आपत्ति जताते हुए प्रदर्शन किए. समुदाय का आरोप है कि निर्माताओं ने हिंदू धर्म का अनादर किया है. फिल्म में दिखाए गए कुछ दृश्य गुजरात के 2 समुदायों, ‘दरबार’ और ‘रेबारी’ के बीच संघर्ष का कारण बन सकते हैं. समुदाय का कहना है कि उस ने भंसाली से आग्रह किया था कि वे फिल्म रिलीज होने से पहले उन दोनों समुदायों के नाम बदल दें.
इस पर भंसाली ने गुजरात के अखबारों में विज्ञापन दे कर क्षत्रिय समाज से माफी मांगी और दोनों समुदायों के नाम ‘दरबार’ और ‘रेबारी’ को बदल कर ‘सानेदो’ और ‘रजाडी’ कर दिया.
बौंबे हाईकोर्ट में भी याचिका दायर कर फिल्म पर कई आरोप लगाए गए. महाराष्ट्र रामलीला मंडल ने याचिका में फिल्म का नाम बदलने की मांग की थी. याचिका में कहा गया कि फिल्म में पूरी तरह से अश्लीलता, फूहड़ता व सैक्स दिखाया गया है. पूरी फिल्म में भगवान राम का चरित्रहनन किया गया है. इस पर बौंबे हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति वी एम कानडे व न्यायमूर्ति एम एस सोनक की खंडपीठ ने संजय लीला भंसाली को फिल्म की अश्लीलता व उस के मुख्य किरदार के जरिए राम के चरित्रहनन व याचिका में लगाए गए आरोपों का जवाब देने को कहा.
अदालत ने सैंसर बोर्ड को भी स्पष्ट करने का निर्देश दिया कि क्या उस ने फिल्म को सर्टिफिकेट जारी करते समय उन सभी दिशानिर्देशों पर विचार किया था जो प्रमाणपत्र देने से पहले जरूरी हैं?
याचिकाओं का सहारा
मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय में भी 2 याचिकाएं दायर की गईं और कहा गया कि ‘रामलीला’ शब्द हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं से जुड़ा हुआ है और यह फिल्म भारत के सांस्कारित मूल्यों व हिंंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली है.
इस पर न्यायालय ने भंसाली को निर्देश दिया कि रामलीला टाइटल के बिना प्रदर्शित करने का आदेश पूरे देश में लागू है. अदालत ने कहा था कि यदि निर्माता यह शब्द हटाना नहीं चाहते तो फिल्म 22 नवंबर तक प्रदर्शित न करें.
प्रभु समाज धार्मिक रामलीला कमेटी सहित कई याचिकाओं की सुनवाई के बाद अदालत के आदेश पर फिल्म का नाम ‘गोलियों की रासलीला राम-लीला’ कर दिया गया. फिल्म 15 नवंबर को रिलीज हुई थी. फिल्म का नाम शुरू में ‘रामलीला’ था.
एक अन्य याचिका में कहा गया कि भंसाली ने जानबूझ कर अपनी फिल्म को बिना किसी आवश्यकता के ऐसा नाम दिया है जिस से हिंदुओं की भावना अपमानित हो रही है. इसलिए यह धारा 295ए, आईपीसी के अंतर्गत दंडनीय अपराध होने के कारण इस फिल्म को सैंसर बोर्ड द्वारा सिनेमेटोग्राफर एक्ट की धारा 5बी में दिया गया प्रसारण प्रमाणपत्र विधिविरुद्ध है. इस प्रमाणपत्र को निरस्त किया जाए और फिल्म के प्रसारण पर तत्काल रोक लगाई जाए.
हमारे यहां आएदिन धार्मिक भावना पर ठेस को ले कर कोई न कोई मामला चलता रहता है. कभी किसी फिल्म से धार्मिक भावना को चोट पहुंचती है तो कभी किसी पुस्तक या लेख से और कभी धर्म के अनुकूल ऐसी कोई बात या क्रिया करने से. पुलिस और अदालतों में शिकायतें दर्ज कराई जाती हैं. शिकायत होते ही पुलिस और अदालत तुरंत कार्यवाही शुरू कर देती हैं.
पिछले दिनों ‘ओ माई गौड’ फिल्म से भी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची थी. लगभग उसी समय ‘स्टूडैंट औफ द ईयर’ के एक गाने में राधा को सैक्सी बताए जाने पर कुछ लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हुईं.
थोपी जाती है धार्मिक भावना
प्रचलित मान्यताओं और कानून के दायरे में धार्मिक भावनाएं इस प्रकार मानी गई हैं: ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करना हमें बचपन से ही सिखाया गया है. सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है. ईश्वर की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, ऐसी बातें हमें बारबार सुनाई जाती हैं. धार्मिक किताबों, अपने संतों, गुरुओं के द्वारा धर्म के बारे में जो पढ़ा, सुना, जाना है, उस को सच मान कर हम विश्वास करते हैं. उस पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाना चाहते. धर्म के रीतिरिवाजों का पालन करना जैसे व्रत, उपवास, पूजा, अर्चना, कथा, प्रवचन, भजन सुनना और उत्सव मनाया जाता है. धर्मस्थलों में जाना, तीर्थयात्राएं करना, दानदक्षिणा देना धर्म के प्रति हमारी आस्था का अनिवार्य अंग है. पाप, पुण्य पर भरोसा करना सिखाया गया है. जन्म से मृत्यु और बाद तक धर्म के संस्कारों को निभाते जाना पड़ता है.
हम धर्म, ईश्वर को न मानने वाले को धर्म का दुश्मन व मानवता के विरोध वाला मानते हैं. जातिव्यवस्था को ईश्वर की देन मान कर उस का पालन करते हैं. धर्मस्थल या घर पर नियमित पूजापाठ, प्रार्थना, आशीर्वाद, हवनयज्ञ करना हमारे जीवन की दिनचर्या में शामिल हैं. मंदिर का निर्माण, मूर्ति की स्थापना करना धर्म की वृद्धि और पुण्य का काम माना जाता है.
धार्मिक देवी, देवताओं के बारे में ध्यान, मनन, जप, तप करना धर्म का अंग बताया गया है. अपने धर्म की श्रेष्ठता का बखान करना और अपने धर्र्म को दूसरों के धर्र्म से श्रेष्ठ बताना भी मनुष्य के धार्मिक गुणों में शामिल माना गया है.
उधर, कानून की नजरों में इन बातों के खिलाफ जाने वाला दोषी ठहराया जा सकता है. धार्मिक किताब फाड़ने या जलाने पर, मूर्ति तोड़ने या नष्ट करने पर, धर्मस्थल को नुकसान पहुंचाने, ईश्वर के बारे में धर्म से उलट कहने जैसी बातों से धार्मिक भावना आहत करने का मामला बनाया जा सकता है.
पर असल में धार्मिक भावना के नाम पर जो बातें प्रचलित हैं उन्हें अंधविश्वास नहीं बल्कि सत्य समझा जाता है. धर्म तो मानवता, कल्याण, परोपकार की बातें करता है. क्या किसी को धर्म, ईश्वर के बारे में अपनी राय व्यक्त करने से रोकना और उसे पुलिस, अदालत में घसीटना मानवता है?
धार्मिक भावना प्राकृतिक नहीं है. यह किसी में जन्मजात भी नहीं होती, जन्म के बाद थोपी जाती है. यह धर्र्म के दुकानदारों, प्रचारकों द्वारा लगातार प्रचार से थोपी हुई है. धार्मिक भावना अगर नैसर्गिक होती तो अलगअलग धर्म, अलगअलग वर्ग, अलग जाति, अलग संप्रदाय क्यों होते? धर्मयुद्ध होते ही नहीं जबकि भिन्नभिन्न धर्मों, संप्रदायों, वर्गों और जातियों में सदियों से झगड़े होते आए हैं.
धार्मिक भावना जीवन जीने के लिए भी आवश्यक नहीं है. जो किसी धर्म, ईश्वर को नहीं मानते वे भी अच्छी जिंदगी जीते हैं और ज्यादा ईमानदार, नैतिक, मानवता से प्रेम करने वाले, शांति, क्षमा, करुणा को धारण करने वाले होते हैं.
धर्म का माफियाराज
धार्मिक भावना कोरी धर्म को बचाने की कोशिश है. जैसे तानाशाह तानाशाही बचाने के लिए करते हैं. धार्मिक भावना बेची जा रही है. लोगों पर थोप कर पैसा कमाया जाता है. ऐसे में क्या यह जमींदारी, डकैती और माफियाराज नहीं है? इस में लालच, भय भी दिखाया जाता है. बदले में कुछ दिए बगैर पैसे झटक लिए जाते हैं.
धार्मिक भावना देशभक्ति से भी कमजोर है. देशभक्ति की भावना सामूहिक होती है. यह किसी राष्ट्र की सुरक्षा, संरक्षा, बचाव और प्रेम की भावना को व्यक्त करती है. जब किसी राष्ट्र पर संकट आता है तो समूचे देशवासियों की भावना अपने राष्ट्र के प्रति एक जैसी होती है और अधिक बलवती हो जाती है लेकिन धार्मिक भावना का प्रश्न जब सामने आता है तो प्रत्येक नागरिक के विचार, सोच और स्वर अलगअलग देखनेसुनने को मिलते हैं. धार्मिक भावना सामूहिक नहीं होती.
धार्मिक भावना व्यक्ति विशेष के लिए है, धर्म के माफियाओं का पैसा कमाने का जरिया है. धर्म को न मानने वाले, नौन बिलीवर्स की भी कोई भावना होती है. उन की भावना भी आहत होती है. अगर स्कूल, कालेज में धर्म विशेष की कोई अनिवार्य प्रार्थना न करना चाहे और उसे जबरदस्ती गवाया जाए तब क्या उस की भावना आहत नहीं होती?
धर्म, ईश्वर को ले कर स्वतंत्र विचार व्यक्त करने वालों को ईशनिंदा, धार्मिक भावना आहत करने जैसे आरोपों से परेशान किया जाता है पर इस तरह के जो कानूनी प्रावधान और उन के मुताबिक निर्धारित सजाएं हैं, क्या प्राकृतिक नियमों के खिलाफ नहीं हैं? जो धर्म अपने ही धर्म की समालोचना की इजाजत नहीं देता वह उदार नहीं, तानाशाह है.
एक धर्म वाला अपने ही धर्र्म के लोगों की धार्मिक भावना को ठेस नहीं पहुंचा सकता. अपने धर्म की जो बातें उसे पसंद न हों, उन के बारे में लिखनेबोलने का हक उसे होना चाहिए. जरूरी नहीं है कि हरेक को अपने धर्म को श्रेष्ठ बताना चाहिए. आंख मींच कर सिर्फ अच्छाइयों का ही जिक्र करें, यह तो धर्र्म द्वारा इंसान पर तानाशाही थोपना हुआ. अगर वह अपने ही धर्म की कुछ ऐसी चीजें, जो इंसानियत के विरुद्ध हों, अनैतिक हों, तानाशाहपूर्ण हों, इच्छा, विचारों के खिलाफ हों, मानव के बुनियादी हक के विरुद्ध हों तो ऐसे में उसे कहने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए. लेकिन धर्म की स्थापित परंपराओं से हट कर कोई कुछ बोलता है, व्यवहार करता है या विरुद्ध जाता है तो वह कानून की नजर में दोषी बन जाता है.
धर्म की उखडती दूकान
इस फिल्म से अगर आम हिंदू की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचती है तो वे सिनेमाहाल में अपनी भावना को आहत करने क्यों जाते? फिल्म की कमाई 100 करोड़ से ऊपर पहुंच गई. लाखों हिंदुओं ने यह फिल्म देखी है. अखबारों, टैलीविजन चैनलों की समीक्षाओं में राम और लीला के चरित्र और भंसाली की सिनेमेटोग्राफी की लंबी चर्चा है पर फिल्म हिंदुओं की भावना की कहीं नहीं.
कट्टरपंथी इस बात का जवाब नहीं दे पाते कि धार्मिक भावना होती क्या है? कहां चोट लगती है? यह कैसे आहत होती है? फिल्म बनाने वाले संजय लीला भंसाली की भी कोई भावना होगी. क्या आलोचक से उन की भावना आहत नहीं हुई? जो लाखों दर्शक इस फिल्म को देख रहे हैं, क्या आलोचना से उन की कोई भावना नहीं है, जिसे चोट पहुंचाई गई?
मजे की बात यह है कि फिल्म का विरोध दर्शकों की ओर से नहीं है, हिंदुओं के कुछ स्वयंभू धार्मिक संगठनों और हिंदुओं के ठेकेदार कर रहे हैं. धार्मिक भावना के नाम पर बातबात पर शोर मचाने वालों को आखिर किस बात का खौफ है? क्या धार्मिक भावना या धर्म कोई कच्ची मिट्टी का घड़ा है जो हलकी सी चोट से बिखर जाएगा? क्या धार्मिक भावना इतनी कमजोर है कि महज फिल्म उसे ठेस पहुंचा सकती है?
दिक्कत यह है कि धर्म के व्यवसाय पर चोट पड़ रही है. राम के नाम और रामलीला से कारोबार करने वाले लोगों के धंधे पर चोट पड़ रही है. रामलीला के नाम पर कमाई कोई दूसरा क्यों करे. यह पेटैंट तो केवल धर्म के ठेकेदारों, रामलीला कमेटी वालों के पास है.
राम-लीला जैसी फिल्में लाखों लोगों द्वारा पसंद की जाती हैं, धर्म की समालोचना करने वाली किताबें, लेख आम लोगों द्वारा पसंद किए जाते हैं और सराहे जाते हैं. इस तरह की फिल्में धर्र्म के धंधेबाजों की पोलपट्टी खोलती हैं. दरअसल, आंच धर्म पर नहीं, धर्म के धंधे पर आती है.