कर्नाटक के शिक्षामंत्री की जहालत की इंतहा देखिए कि जनाब सर्कुलर जारी कर स्कूलों के पाठ्यक्रम में गीता पढ़ाने को अनिवार्य करना चाहते हैं. जिस गीता में धनसंपत्ति के नाम पर दो परिवारों की आपसी कलह और मारकाट के अलावा कुछ भी नहीं है उस से भला छात्रों को क्या शिक्षा हासिल होगी? हां, बच्चों में धर्म व जाति का भेदभाव, संप्रदायवाद और लड़नेमारने की प्रवृत्ति जरूर पनपेगी. पेश है सुरेंद्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात’ का एक विश्लेषण.
भारतीय जनता पार्टी के राज में कर्नाटक के शिक्षामंत्री ने एक परिपत्र यानी सर्कुलर जारी किया था कि स्कूलों में छात्रों को प्रतिदिन 1 घंटा गीता अवश्य पढ़ाई जाए. मंत्री ने कहा था कि यदि कोई इस ग्रंथ के पढ़ाने का विरोध करता है और इस का आदर नहीं करता तो उस के लिए देश में कोई जगह नहीं है अर्थात गीता का आदर करो या देश छोड़ दो.
यह समाचार दैनिक भास्कर के जालंधर के 21 जुलाई, 2011 अंक में प्रकाशित हुआ था. इस से पहले भी एक अन्य राज्य में इसी तरह गीता के अध्यापन के थोपे जाने का समाचार आया था.
संविधानविरोधी
प्रथम दृष्ट्या सर्कुलर और मंत्री का धमकीभरा बयान दोनों संविधानविरोधी थे क्योंकि इस देश में मंत्री हो या संतरी, सब संविधान की शपथ लेते हैं. संविधान में किसी ग्रंथ के आदर करने की न बाध्यता है न उसे पढ़नेपढ़ाने की अनिवार्यता. ध्यान रहे, प्राचीन ग्रंथों में, जिन में धर्मग्रंथ भी शामिल हैं, अनेक ऐसी बातें हैं जो मौजूदा कानून और संविधान द्वारा प्रतिबंधित घोषित की गई हैं. संविधान के अनुच्छेद 13 में कहा गया है :
(1) इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले भारत के राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त सभी विधियां (=अध्यादेश, आदेश, उपविधियां, नियम, विनियम, अधिसूचनाएं, रूढि़यां व प्रथाएं) उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस तक वे इस भाग के उपबंधों के विपरीत हैं.
(2) राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग (=मूल अधिकार) द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी.
ऐसे में उक्त ग्रंथों की अपनी ही स्थिति संकटापन्न हो जाती है, जब तक उन के आदेश संविधानसम्मत सिद्ध नहीं हो जाते.
एक मान्य ग्रंथ नहीं
हिंदू धर्म में कोई एक गं्रथ सर्वमान्य नहीं है, क्योंकि यहां ग्रंथों की बहुतायत है. कोई वेदों को मानता है, कोई पुराणों को, कोई तुलसी के रामचरितमानस को मानता है तो कोई श्रीमद्भगवद्गीता को.
ऐसे में यदि कोई शिक्षामंत्री रामचरित- मानस को मानने वाला हुआ तो वह उसे लागू करने की जिद कर सकता है और यदि कोई शिक्षामंत्री हनुमान का भक्त हुआ तो वह हनुमान चालीसा थोपने की कोशिश कर सकता है.
यदि सभी शिक्षामंत्री अपनीअपनी पसंद के धर्मग्रंथ स्कूलों में पढ़ाने को अनिवार्य कर देंगे तो छात्र बाकी सब विषयों को पढ़ने के लिए समय ही नहीं निकाल पाएंगे और बड़े हो कर वे सिर्फ पुजारी, कथावाचक या पंडापुरोहित ही बन पाएंगे, न कि वैज्ञानिक, डाक्टर, वकील, इंजीनियर आदि, और देश पिछड़ जाएगा. हो सकता है भारतीय जनता पार्टी की सरकारों का यह किया लक्ष्य हो पर यह संवैधानिक तो नहीं है.
कुरान व बाइबिल
हिंदू समाज को इन धर्मगर्दों से बचना होगा. उन्हें यह नहीं समझना चाहिए कि धर्मग्रंथ की पढ़ाई अनिवार्य कर के ये राजनीतिबाज उन के बच्चों को अच्छी राह दिखा रहे हैं, क्योंकि कल को यदि कोई कुरान या बाइबिल को पसंद करने वाला मुसलमान या ईसाई शिक्षामंत्री उक्त ग्रंथों को अनिवार्य बना देगा तब यही राजनीतिबाज उस का विरोध करने को कहेंगे. तब आप किस मुंह से उस का विरोध करेंगे? धर्मग्रंथ तो धर्मग्रंथ है, वह चाहे गीता हो, कुरान हो या बाइबिल.
धर्मनिरपेक्ष देश
भारत धर्मनिरपेक्ष देश है, जहां किसी एक धर्म को या उस के किसी ग्रंथ को सरकारी तौर पर राज्य का आश्रय प्राप्त नहीं है. हां, यहां धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है सब धर्मों के प्रति समभाव. अब इस अर्थ के अनुसार स्कूलों में यदि धर्मग्रंथ पढ़ाने हों तो सब धर्मों के धर्मग्रंथों को एकसमान, समभाव से, आदर देना होगा और उन की पढ़ाई करानी होगी.
जहां गीता अनिवार्य बनाई जा रही है वहां कुरान और बाइबिल भी अनिवार्य बनाने होंगे. यह काम मदरसे, गुरुकुल, संस्कृत पाठशालाएं आदि पहले से कर ही रहे हैं. फिर स्कूलों और शिक्षामंत्रियों की जरूरत ही क्या है?
यदि आधुनिक शिक्षा देने वाले स्कूलों को भी उक्त मानसिकता को मजबूत बनाने के काम में ही लगाना है तो फिर स्कूली शिक्षा के अस्तित्व का औचित्य ही क्या रह जाता है?
पारिवारिक कलह
सब जानते हैं कि गीता का ज्ञान न तो किसी राष्ट्रीय समस्या के समाधान के लिए दिया गया ज्ञान था और न किसी दार्शनिक गुत्थी को सुलझाने के लिए, यह न सामाजिक एकता के लिए दिया गया था और न वैज्ञानिक प्रगति के लिए, बल्कि यह तो चाचा के पुत्र अर्जुन को तब दिया गया था जब वह अपने ताऊ के पुत्रों से लड़ने से विमुख हो कर बैठ गया था. इस ज्ञान से उस परिवार को दरपेश समस्या हल नहीं हुई, क्योंकि इस से अर्जुन सिर्फ मरनेमारने को फिर से तैयार हुआ था. उस ने अपने परिवार के सदस्यों, युवाओं, बड़ेबूढ़ों और दूसरे गुरुजनों का बड़ी बहादुरी से खून बहाया था. वह राजपरिवार आपस में लड़, कट कर नष्ट हो गया, जिस से इस देश की महाहानि हुई बताई जाती है.
हत्या की प्रेरणा
गीता में अर्जुन को समझाया गया है कि तुम अपने स्वजनों अर्थात पारिवारिक लोगों, गुरुजनों अर्थात बड़ेबूढ़ों आदि की हत्या निसंकोच हो कर करो, क्योंकि जब हम किसी को बाण मार कर या तलवार चला कर मौत के घाट उतारते हैं तब हम उस का सिर्फ शरीर नष्ट करते हैं. शरीर तो एक दिन वैसे भी नष्ट हो जाएगा (गीता, 2/18). असली चीज तो आत्मा है और वह शरीर के नष्ट कर दिए जाने पर भी नहीं मरती. इसलिए तुम्हें इस विषय में ज्यादा सोचविचार नहीं करना चाहिए. समझदार लोग इस बारे में चिंता नहीं किया करते (2/11).
इस तरह के उपदेशों से बच्चों की नजरों में ऐसा लगता है कि इंसान की हत्या करना एक साधारण सी बात बन जाएगी. वे ‘नैनं छिंदंति शस्त्राणि,’ (गीता 2/23), यानी इस आत्मा को कोई शस्त्र काट नहीं सकता, रटतेरटते निसंकोच हो कर अपने साथी के पेट में चाकू व छुरा घोंप सकते हैं और उस पर गोली चला सकते हैं. इस तरह हत्या करने वाले बच्चे को क्या कोई अदालत गीता का आत्मा की अमरता का तर्क मान कर निर्दोष स्वीकार कर लेगी और बरी कर देगी?
जातिगत ऊंचनीच
बच्चों में समानता की भावना भरने के लिए उन्हें एकसमान कपड़े व एक ही रंग की वरदी पहनाई जाती है, एक जैसे बूट पहनने को कहा जाता है और एक जैसे बैंचों पर बैठाया जाता है, ताकि बड़े हो कर वे समाज में समरसता ला सकें और देश में एकता की भावना सुदृढ़ हो सके. परंतु गीता में कहा गया है कि चातुर्वर्ण्य ईश्वर का बनाया हुआ है (गीता, 4/13). इस का अर्थ है कि सब समान नहीं हैं, सब इंसान नहीं हैं, बल्कि कुछ लोग ब्राह्मण हैं, कुछ क्षत्रिय, कुछ वैश्य और कुछ शूद्र हैं.
जब बच्चे को यह समझाया जाएगा कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ईश्वर के बनाए हैं, इसलिए इन में भेदभाव व ऊंचनीच की भावना ईश्वर की पैदा की हुई है, तब वे आपस में समानता का व्यवहार करना कैसे सीखेंगे और समाज में समरसता कैसे उत्पन्न होगी?
लैंगिक भेदभाव
बच्चों में लिंगगत भेदभाव की भावना खत्म करने और लड़केलड़की को समान समझने की भावना पैदा करने के लिए अनेक यत्न हो रहे हैं. सहशिक्षा के जरिए दोनों को एकदूसरे के निकट लाने के प्रयास हो रहे हैं. छोटे बच्चों की वरदी एकजैसी बनाई जाती है ताकि वे लिंग की अपेक्षा इंसान को पहचानें.
परंतु गीता का उपदेश है कि स्त्रियां, वैश्य जाति और शूद्र जाति के लोग पापयोनि हैं अर्थात ये पाप की पैदाइश है.
येऽपि स्यु: पापयोनय:,
स्त्रियो वैश्यास्तया शूद्रा: (9/32)
गीता की सब से प्राचीन व्याख्या शंकर की मिलती है. शंकराचार्य ने इस श्लोक की व्याख्या करते हुए सब तरह की भ्रांतियों को दूर करते हुए लिखा है: पापयोनि अर्थात पाप की पैदाइश किसे कहते हैं? इस का उत्तर है कि स्त्रियां, वैश्य जाति तथा शूद्र पापयोनि हैं-
पापयोनय: पापा योनिर्येषां ते
पापयोनय:, पापजन्मान:,
के त इत्याह स्त्रियो
वैश्यास्तया शूद्रा:
(गीता, 9/32 पर शंकरभाष्य,गीता प्रैस, गोरखपुर)
अब जब बच्चे यह सीखेंगे कि स्त्रियां और शूद्र (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लोग) पापी हैं, पाप की पैदाइश (पापयोनि व पापजन्मा) हैं, तब वे न स्त्रियों के प्रति लैंगिक भेदभाव करना छोड़ सकेंगे और न अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों व पिछड़े वर्गों के प्रति समानता का व्यवहार करना सीख पाएंगे.
यह आदर्श मार्ग है?
सवाल यह है कि क्या क्षत्रिय का कर्म या उस का धर्म हर जगह लड़नाझगड़ना व मरनामारना ही है? जब देश पर कोई शत्रु चढ़ आया हो तब तो उस का कर्म या धर्म लड़ना व मरनामारना हो सकता है परंतु क्या पारिवारिक समस्याओं का एकमात्र हल भी लड़ना व मरनामारना ही है?
स्कूल में क्षत्रिय जातियों के बच्चे क्या इस से आपस में या दूसरी जातियों के बच्चों से जराजरा सी बात पर लड़ना व मरनामारना नहीं सीखेंगे? इस से क्या बच्चों का स्वस्थ विकास हो पाएगा? क्या उन में आपराधिक प्रवृत्तियों के विस्फोट की संभावना नहीं बढ़ जाएगी?
गैरक्षत्रिय क्यों पढ़ें
गीता का उपदेश क्षत्रिय जाति के सदस्य अर्जुन को दिया गया है, परंतु स्कूल में तो हर जाति में जन्मे बच्चे पढ़ते हैं. उन्हें गीता पढ़ाने का तो कोई औचित्य ही नहीं होगा, क्योंकि उन जातियों के न गीता में पात्र हैं और न उन के लिए गीता में कोई विशेष उपदेश है, फिर वे गीता से कौन सा कर्तव्य सीखेंगे? गीता में ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र और स्त्रियों के लिए किस कर्तव्यपालन का उपदेश है? वैश्यों व शूद्रों के बच्चे और लड़कियां गीता में जब अपने बारे में यह पढ़ेंगे कि वे सब पापयोनि हैं, पाप की पैदाइश हैं, तब क्या वे क्षत्रियों और ब्राह्मणों के बच्चों और लड़कियां लड़कों के सामने अपमानित व हीनभावनाग्रस्त नहीं होंगे? क्या उन का स्वस्थ विकास हो सकेगा? क्या वे हीनता और अपमान हासिल करने के लिए ही गीता को अनिवार्य तौर पर पढ़ें?
गीता एक प्राचीन ग्रंथ है और इस का ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व भी हो सकता है, परंतु इस का अध्ययन बच्चों के लिए अनिवार्य करना किसी भी तरह निरापद नहीं है. हां, वयस्क आदमी सावधान हो कर इसे पढ़े तो शायद कई बातें सीखे. पर बच्चे तो आखिर बच्चे हैं. उन में सयाने आदमी जैसी परिपक्वता और सजगता नहीं होती. उन के मन कोमल, कोरी स्लेट और पूर्वाग्रह व दुराग्रहमुक्त होते हैं.
इसलिए हमें अपनी सनकें बच्चों पर लादने से बचना चाहिए, भले ही हम कुछ समय के लिए राज्य विशेष के शिक्षामंत्री हों.
गीता बनाम गेम्स
मंत्रीपद अस्थायी चीज है, जबकि हिंदू समाज और भारत राष्ट्र स्थायी चीजें हैं. इसलिए सत्ता के मद में आ कर ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जो समाज और राष्ट्र के भविष्य के लिए हानिकारक व घातक हो. स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि गीता पढ़ने की अपेक्षा फुटबाल खेलना ज्यादा श्रेयस्कर है क्योंकि उस से युवा लोग शक्तिशाली बनते हैं.
(विवेकानंद समग्र ग्रंथावली (अंगरेजी), भाग 3, पृ. 242)
स्वामीजी के ये शब्द गीता की अनिवार्य पढ़ाई के संदर्भ में स्कूली छात्रों के मामले में आज पहले की अपेक्षा भी ज्यादा प्रासंगिक हैं, क्योंकि टीवी, वीडियो गेम्स आदि ने और कहींकहीं कई तरह के नशों ने भी हमारी इस नई पीढ़ी को एक तरह से पंगु बना दिया है. इसलिए स्कूली बच्चों के लिए स्वामीजी के कथन को नारे के रूप में इस तरह रखा जा सकता है : गीता नहीं, गेम्स. बड़े हो कर बच्चे जितना चाहें गीता का स्वाध्याय कर सकते हैं, परंतु अभी उन्हें मजबूर न करो.
इन मंत्री महोदय का पद आखिर छीन लिया गया. जब चुनावों के बाद सरकार बदल गई और गीता का पाठ वोटों की बाढ़ में बह गया.
छद्म धार्मिकता
गीता को स्कूली बच्चों के लिए अनिवार्य बनाना दरअसल समुदाय विशेष की वोटें ऐंठने के लिए, अपने क्षुद्र राजनीतिक उद्देश्य के लिए, छद्म धार्मिकता का प्रदर्शन मात्र है. यह स्वांग रच कर वे निवेश करते हैं ताकि मतदान के समय लोगों को भरमा कर वोटों का डिविडैंड प्राप्त कर सकें. परंतु राजनीतिबाजों के ऐसे हथकंडे देश के लिए अकसर घातक ही सिद्ध होते हैं. इसलिए हमें उन से सावधान रहना चाहिए, और याद रखना चाहिए कि गीता यदि एक धर्मग्रंथ है तो उसे न राजनीतिबाजों के हाथ का खिलौना बनने की जरूरत है और न वह अबोध स्कूली बच्चों पर अनिवार्य तौर पर थोपी जाने से ही ज्यादा प्रामाणिक व महान बनती है. इसलिए राजनीतिबाजो, गीता से खिलवाड़ बंद करो और बच्चों को गेम्स खेलने दो ताकि उन का ठीक से विकास हो सके व देश में सांप्रदायिक सद्भाव बना रहे.