सरित प्रवाह, अक्तूबर (द्वितीय) 2013

आप की संपादकीय टिप्पणी ‘कश्मीर पर बयानबाजी’ बहुत अच्छी लगी. वास्तव में जितने भी उच्चकोटि के अधिकारी हैं उन्हें हमेशा मर्यादा के अंतर्गत रह कर ही बातें करनी चाहिए और आर्म्ड फोर्सेज के अधिकारियों का तो यह नैतिक दायित्व बनता है कि वे ऐसी कोई बात न कहें जिस से देश की प्रतिष्ठा प्रभावित हो. मगर पूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह की तो जैसे बात ही अलग है.

जम्मूकश्मीर निसंदेह एक बहुत ही संवेदनशील राज्य है. यह मुसलिम बाहुल्य राज्य है. भारत काफी पैसा खर्च करने के बावजूद वहां की जनता को पूरी तरह से भरोसा नहीं दे पाया कि उस का जीवन भारत में ज्यादा सुखी रहेगा. कठमुल्ले कश्मीरियों को कश्मीर के पाकिस्तान में विलय किए जाने के लिए उकसाते रहते हैं और पाकिस्तान अंगरेजों द्वारा नियुक्त रैडक्लिफ आयोग की रिपोर्ट के सिद्धांत के तहत कश्मीर पर अपना हक मानता है.

पूर्व सेनाध्यक्ष अवकाशप्राप्त करने के बाद अब विवादित मुद्दों पर बयानबाजी कर रहे हैं. कभी कुछ कहते हैं कभी कुछ. वे भाजपा का दामन पकड़ कर नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा कर रहे हैं जबकि उन्हें सरकार के प्रति वफादार होना चाहिए.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद, (उ.प्र.)

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‘कश्मीर पर बयानबाजी’ संपादकीय में अवकाशप्राप्त सेनाध्यक्ष की उचित आलोचना की गई है. पूर्व सेनाध्यक्ष अपने सेवाकाल में भी तरहतरह की बयानबाजी से नेताओं की तरह हमेशा चर्चा में बने रहे हैं. इस से उन की रुचि राजनीति में झलकी है जो आखिरकार एक राजनीतिक पार्टी के मंच पर आने से उजागर हो गई. उन की उम्र का विवाद भी एक साधारण बात थी जिसे गंभीर मसला बना कर विपक्षी पार्टी ने अपने अखबारों द्वारा सत्तापक्ष की महीनों फजीहत की थी. वरना यदि उन की जन्मतिथि किसी वजह से गलत लिखी गई थी तो विभाग को उचित सुबूत दे कर वह सुधरवाई जा सकती थी. ऐसा सरकारी कर्मचारी करवाते भी रहे हैं.

उन का यह बयान भी कि आजादी के बाद से भारतीय सेना कश्मीर के नेताओं को पैसे दे कर शांति बनाए रखना चाहती है, ठीक नहीं. यह पूर्व के सारे सेनाध्यक्षों का अपमान है. राज्य के मुख्यमंत्री ने सुबूत मांगा जो आज तक नहीं दिया गया. यह भारतीय सेना का राजनीतिकरण करने का प्रयास है जो देश के लिए घातक है.

माताचरण पासी, वाराणसी (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘अदालत और जनप्रतिनिधि’ में आप ने यह आरोप तो अदालतों पर बड़ी ही सरलता से लगा दिया कि ‘जब अदालतें स्वयं ही न्याय करने में 10-20 साल तक लगा देती हैं तो फिर नेताओं से नैतिकता की मांग कैसे कर सकती हैं,’ परंतु आप ने ऐसा कोई उपाय नहीं सुझाया कि ‘किस आधार पर अदालतें चाहें तो 4-5 महीनों में अपना फैसला सुना सकती हैं. सच पूछो तो अदालतों की इस में जरा सी भी कमी या दुर्भावना नहीं, बल्कि इस के लिए अगर कोई उत्तरदायी है तो वह है देश की कानूनी व न्यायिक प्रक्रिया.

दरअसल, जब सरकार के विधि मंत्रालय ने ही अदालतों के न्यायिक अधिकारों को सीमित कर रखा है तो फिर अदालतें उसी के तहत ही तो फैसले करेंगी. ‘दोषी बेशक बच जाए मगर किसी निर्दोष को सजा न हो’ के बहाने आरोपियों/अपराधियों को इतनी छूट मिली है कि वे कभी इस बहाने तो कभी उस बहाने यानी मानवाधिकारों के नाम पर अदालतों से तारीख पर तारीख लेते रहते हैं. इस के बावजूद यह मानना अनुचित तनिक भी न होगा कि भ्रष्ट तत्त्वों या प्रशासन में सुधार लाने या फिर पथभ्रष्टों को राह दिखाने के लिए अदालती हथौड़ा अत्यावश्यक हथियार है.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (दिल्ली)

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सरित प्रवाह के तहत प्रकाशित ‘अदालत और जनप्रतिनिधि’ व ‘कश्मीर पर बयानबाजी’ में आप के विचार समाज को झकझोरने व राजनीतिज्ञों की पोल खोलने वाले लगे.

देश के राजनीतिज्ञों को आज न तो आजादी के रणबांकुरों की शहादत का खयाल है न ही देश की मिट्टी से प्यार. उन का मकसद है बस, राज करो और लोगों को अंधेरे में रख कर धर्म, जाति व संप्रदाय के नाम पर भड़का कर उन के बीच संकीर्णता की दीवार खड़ी करो.

लेख ‘अर्थव्यवस्था की दुर्दशा करती सामाजिक व्यवस्था’ काबिलेतारीफ है. सच देखा जाए तो अंधविश्वास में जकड़े हुए हम सब भारतीयों में पंडेपुजारियों ने इतना भय भर दिया है कि उन को पूजे बिना हमारा जीवन बेकार है. ये हट्टेकट्टे पुजारी कुछ ही वर्षों में काफी संपत्ति अर्जित कर के ऐश की जिंदगी गुजार रहे हैं जबकि आम आदमी को आज भी आसानी से दो जून की रोटी नसीब नहीं है.

प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

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देशप्रेमी आज भी हैं

लेख ‘डा. नरेंद्र दाभोलकर : सुला दिया गया लोगों को जगाने वाला’ पढ़ कर लगा कि डा. दाभोलकर ने अपने जीवनकाल में समाज के लिए जो कुछ भी किया, देश उसे सदा याद रखेगा. मुझे ऐसा लगता था कि आज के समय में सच्चे और ईमानदार देशप्रेमियों का अकाल पड़ गया है. मैं यह भी सोचता था कि हम स्वामी विवेकानंद, सरदार वल्लभभाई पटेल, कबीर जैसे मार्गदर्शकों के जन्मदिवस तो मनाते हैं परंतु उन के बताए रास्ते पर कब चल कर दिखाएंगे? डा. दाभोलकर ने यह कर के दिखा दिया.

अच्छे लोगों के दुश्मन अधिक और मित्र कम बनते हैं. हरियाणा के आईएएस अफसर डा. अशोक खेमका को भी सपोर्ट कम और परेशानियों का सामना अधिक करना पड़ रहा है. जबकि आसाराम को कुकर्म करने के बावजूद भक्तों का सपोर्ट कहीं ज्यादा मिल रहा है, सजा मिलतेमिलते तो 22वीं सदी आ जाएगी.

ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)

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मन आहत करती कहानी

मैं 1974 से सरिता की नियमित पाठिका हूं. इस में छपी कहानियों ने जीवनसंघर्ष में कई बार मार्गदर्शन व प्रेरणा दी है. साहित्य जहां एक ओर समाज का दर्पण होता है वहीं समाज को आदर्श दिशा भी प्रदान करता है, लेकिन अक्तूबर (द्वितीय) अंक में ‘नया जमाना’ शीर्षक से छपी कहानी पढ़ कर बहुत निराशा हुई.

भारत की अमूल्य धरोहर भारतीय संस्कृति ही है जो उसे अन्य देशों से अलग करती है. यह कहानी, जो पाश्चात्य संस्कृति का घिनौना रूप प्रस्तुत कर रही है, भारतीय समाज में घरघर में पढ़ी जाएगी. जहां मर्यादाओं का पालन होता है.

डा. वीना विश्नोई शर्मा, हरिद्वार (उत्तराखंड)

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अंधश्रद्धा उन्मूलन

अक्तूबर (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘डा. नरेंद्र दाभोलकर : सुला दिया गया  लोगों को जगाने वाला’ में बताया गया कि जिस शख्स ने राज्य तथा देश में फैली ‘अंधश्रद्धा’ के उन्मूलन के प्रयास में अपनी बलि दे दी उसे सच्ची श्रद्धांजलि देते हुए महाराष्ट्र सरकार ने उन के द्वारा प्रस्तावित ‘अंधश्रद्धा उन्मूलन विधेयक’ को आखिरकार कानून बना कर लागू कर ही दिया.

सवाल यह उठता है कि क्या यही विधेयक डा. दाभोलकर की शहादत से पहले पारित नहीं हो सकता था? हो सकता था, मगर तब उस का श्रेय राज्य सरकार को नहीं मिलता यानी नाम डा. दाभोलकर का होता तो फिर राज्य प्रशासकों की इस कारगुजारी को उन का श्रेय हथियाना कहा जाए या जनताजनार्दन का ध्यान भटकाना, क्योंकि डा. दाभोलकर के हत्यारे ही जब अभी तक नहीं पकड़े जा सके हैं तो ‘श्रद्धांजलि’ कैसी?

सच्ची श्रद्धांजलि तो तब मानी जाएगी जब राज्य से तंत्रमंत्र, जादूटोने एवं तथाकथित चमत्कारों से जनसाधारण को राहत मिलेगी. साथ ही, अगर विधेयक के नाम को भी ‘डा. दाभोलकर अंधश्रद्धा उन्मूलन विधेयक’ का नाम दे दिया जाए, तो मानो जनहितार्थ बलि चढ़ गए. एक निस्वार्थ इंसान का नाम देश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो जाएगा, जिस के डा. दाभोलकर हकदार भी हैं.

टीसीडी गाडेगावलिया, करोल बाग (न. दि.)

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देश की अर्थव्यवस्था में बाधक

‘अर्थव्यवस्था की दुर्दशा करती सामाजिक व्यवस्था’ लेख में किया गया तीव्र प्रहार हमारी बंद आंखों को खोलने के लिए काफी है. वास्तव में हम चकित रह जाते हैं जब एक निठल्ला व्यक्ति भीख मांगते समय हमें अपनी ब्राह्मण जाति का बोध कराता है, मानो जो अधिकार शास्त्रों में दिया गया था वह आज के संविधान में भी निहित है. सदियों तक जिस धर्म ने लोगों को नीच और गुलाम बनाए रखा, शिक्षा से वंचित रखा तथा देश और समाज के विकास कार्यों में भागीदारी नहीं दी उसी विचारधारा के लोग आज भी देश की अर्थव्यवस्था की उन्नति में बाधक सिद्ध हो रहे हैं.

आखिर ऐसी कौन सी विवशता है जिस के चलते न तो किसी शंकराचार्य ने और न ही किसी संत समाज ने देश के विकास में बाधक जातिवाद के खिलाफ कोई व्यापक जनआंदोलन नहीं चलाया. सभी राजनीतिक दल कहने को तो सर्वसमाज की उन्नति की बात करते हैं किंतु धरातल पर उन सब की सोच पोंगापंथी ही है. यथार्थवाद में विश्वास न कर कहीं न कहीं ये यथास्थितिवाद के पुराने सिद्धांत के समर्थक हैं.

राजनीति में धर्म का समावेश नहीं होना चाहिए किंतु क्या हमारे राजनेता अपने व्यक्तिगत खर्चों से तिरुपति या शिरडी नारियल फोड़ने जाते हैं? प्रजातंत्र का ऐसा विकृत रूप हो चुका है कि कोई भी नेता अथवा दल खाप पंचायतों के तुगलकी फरमान का प्रबल ढंग से विरोध करने का साहस नहीं कर पाता. मुंबई में मराठी अस्मिता के नाम पर आएदिन बिहार और उत्तर प्रदेश के कामगारों को सरेआम पीटा जाता है किंतु हमारे नेता बेशर्मी से मुंह फेर कर वोटबैंक के गुणाभाग में लिप्त रहते हैं.

इस से बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि मंदिरों में सोने का अकूत भंडार होने के बावजूद देश की अधिकांश आबादी जीविकोपार्जन के लिए त्राहित्राहि कर रही है. जिन युवाओं के कंधों पर भारत का भविष्य है, वे भी दिग्भ्रमित हैं. जब तक समाज के लोगों को दो चश्मे से देखा जाएगा, देश कभी उन्नति नहीं कर सकता.

सूर्य प्रकाश, वाराणसी (उ.प्र.)

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तनाव का कारण धर्म

सपने दिखा कर संत लोगों को लूटने का काम करते हैं और यह सदियों से चला आ रहा है. मेरा मानना है कि धर्म हमारे जीवन में तनाव का कारण है. अगर हम में मानवता, अच्छे संस्कार और सहयोग की भावना हो तो किसी पंडित की जरूरत नहीं. शादी तय करने के लिए कुंडली मिलान का कार्य मूर्खतापूर्ण है. कितने ही दंपती जन्मकुंडली मिलान के बाद हुए विवाह के बाद भी नाखुश जीवन बिताते हैं जबकि कितने ही लोगों जिन्होंने शादी के न पहले न बाद में पंडितों का चेहरा देखा, वे सुखमय जीवन जी रहे हैं.

इसी तरह टोनेटोटके, अंधविश्वास भी हमारी जिंदगी में बेवजह तनाव ला देते हैं. असलियत में धर्म, टोटके, राशि, नक्षत्र की बातें पंडितों के दिमाग की उपज हैं जो उन की आय के साधन बने हुए हैं.

संतों में जातिवाद, पूंजीवाद की भावना कूटकूट कर भरी होती है. गरीब व्यक्ति धर्म को मानने की परंपरा को त्याग दे तो मेरा मानना है 30 प्रतिशत गरीबी उस की ऐसे ही समाप्त हो जाएगी.

इसी तरह अंतिम संस्कार के लिए जो आडंबर किया जाता है, वह भी बेवजह लगता है.  किसी की सेवा करनी है तो उस के जीतेजी करो. एक सत्य घटना है. मेरे दोस्त के पिताजी का निधन हो गया. मेरे दोस्त ने अस्थि विसर्जन के लिए पास की नदी का चयन किया. तो रिश्तेदारों ने कहा कि इलाहाबाद में अस्थि विसर्जन का सही नियम है. तब मेरे दोस्त ने पैसे की असमर्थता जताई. रिश्तेदारों ने 20 हजार रुपए इकट्ठे कर सारे कर्मकांड किए.

मेरे दोस्त ने कहा कि जब पिताजी जिंदा थे तब इलाज के लिए 10 हजार रुपए के लिए तरस गए थे. तब कोई मदद के लिए नहीं आया. इसलिए धर्म को ले कर अपनेआप को तबाह करना उचित नहीं है.

प्रदीप ताम्रकार, धमधा (छत्तीसगढ़)

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