देहधर्म और पूरे परिवार के सुनहरे भविष्य के बीच दोराहे पर खड़ी थी बसंती. क्या उस का धड़कता दिल पराए बीज को अपनी धरती में सिंचित कर के फसल बेगानों को सौंप देने का निर्णय ले पाया?
‘‘बस, यों समझो कि मकान जो खाली पड़ा था, तुम ने किराए पर उठा दिया है,’’ डाक्टर उसे समझा रही थी, लेकिन उस की समझ से कहीं ऊपर की थीं डाक्टर की बातें, सो वह हैरानी से डाक्टर का चेहरा देखने लगी थी.
‘‘और तुम्हें मिल जाएगा 3 या 4 लाख रुपया. क्यों, ठीक है न इतनी रकम?’’
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वह टकटकी लगाए देखती रही, कुछ कहना चाहती थी पर कह न सकी, केवल होंठ फड़फड़ा कर रह गए.
‘‘हां, बोलो, कम लगता है? चलो, पूरे 5 लाख रुपए दिलवा दूंगी, बस. आओ, अब जरा तुम्हारा चैकअप कर लूं.’’
खिलाखिला चेहरा और कसी देहयष्टि. और क्या चाहिए था डा. रेणु को. उसे उम्मीद के मुताबिक सफलता दिखाई देने लगी.
अस्पताल से घर तक का रास्ता तकरीबन 1 घंटे का रहा होगा. पर यह फासला उस के कदमों ने कब और कैसे नाप लिया, पता ही न चला. वह तो रास्तेभर सपने ही देखती आई. सपना, कि पक्का घर हो जहां आंधीतूफानवर्षा में घोंसले में दुबके चूजों की तरह उस का दिल कांपे न. सपना, कि जब बेटी सयानी हो तो अच्छे घरवर के अनुरूप उस का हाथ तंग न रहे. सपना, कि उस के मर्द का भी कोई स्थायी रोजगार हो, दिहाड़ी का क्या ठिकाना? कभी हां, कभी ना के बीच दिखाई देते कमानेखाने के लाले न पड़ें.