राजनीति में धर्म और संप्रदायवाद की सत्ता भले ही कोई नई बात न हो लेकिन दशकों तक कम्युनिस्टों की सियासत के गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में इन दिनों सियासी बाजार में यह मुद्दा गरम है कि ज्यादातर पार्टियों में उच्चवर्णों के नेताओं का कब्जा है. वर्ग संघर्ष के आदर्शों वाली पार्टी के नेता के इन विद्रोही तेवरों से सियासत का ऊंट किस करवट बैठेगा, जानने के लिए पढि़ए यह विश्लेषणात्मक लेख.

पश्चिम बंगाल में 34 वर्ष कम्युनिस्ट पार्टियों का शासन रहा हो या उस से पहले कांगे्रस का, पहली नजर में बिहार, उत्तर प्रदेश की तरह वहां जातिवाद का कभी बोलबाला नहीं रहा. लेकिन कुछ दिनों पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी माकपा के एक वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री अब्दुल रज्जाक मोल्ला ने पार्टी में उच्चवर्ण और ब्राह्मणवाद के खिलाफ मुंह खोला.

वर्गसंघर्ष के आदर्श पर चलने का दावा करने वाली माकपा के एक वरिष्ठ सदस्य द्वारा की गई इस टिप्पणी ने राज्य के राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है. पिछले दशक में कोलकाता में बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा की मुखिया की मायावती ने माकपा पर निशाना साधते हुए पार्टी को मनुवादी करार दिया था और राज्य के दलित व पिछड़ों को एकजुट होने का आह्वान किया था. पर तब मायावती के आह्वान को अधिक तूल नहीं दिया गया था. राज्य में बसपा का कोई पुख्ता अस्तित्व भी नहीं है.

वहीं भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा अपनी हिंदूवादी विचारधारा के कारण इस प्रगतिशील राज्य में अपने पांव नहीं जमा पाई है. अब तक यही धु्रवसत्य माना जा रहा था कि बंगाल की राजनीति में जातिवादी समीकरण का कोई अस्तित्व है ही नहीं लेकिन रज्जाक मोल्ला के आरोप के बाद राज्य की राजनीति में खलबली मच गई है.

इस बारे में माकपा में सब से पहले वाममोरचा के शासनकाल में शिक्षा मंत्री रहे कांति विश्वास ने यह मुद्दा उठाया था. उन्होंने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि वर्ष 1977 में वाममोरचा के सत्ता पर काबिज होने के बाद मंत्रिमंडल में अनुसूचित जाति व जनजाति को प्रतिनिधित्व नहीं मिला. इस संबंध में कांति विश्वास ने ज्योति बसु और माकपा के तत्कालीन सचिव प्रमोद दासगुप्ता से बात भी की थी. नतीजतन, उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था.

उच्चवर्ग के कब्जे में पार्टियां

रज्जाक मोल्ला का कहना है कि राज्य में माकपा पूरी तरह से ब्राह्मण और कायस्थ जैसे उच्चवर्ग के कब्जे में है जबकि पार्टी के लिए खूनपसीना बहाने वाले अन्य वर्गों के नेताओंकार्यकर्ताओं की पार्टी में कोई खास पूछ नहीं है. पार्टी को नए सिरे से पूरी मजबूती के साथ खड़ा होना है और अपनी खोई जमीन को वापस पाना है तो पार्टी की कमान दलित और अल्पसंख्यक के हाथों में देनी होगी.

रज्जाक मोल्ला ने माकपा में लंबे अरसे से उच्चवर्णों की चली आ रही राजनीति को कठघरे में खड़ा किया है. सरसरी तौर पर राज्य की 3 प्रमुख पार्टियों माकपा, तृणमूल कांग्रेस और भाजपा में देखा जाए तो कमोबेश हर पार्टी में ब्राह्मण और उच्चवर्ण का बोलबाला है. इस संबंध में रज्जाक मोल्ला से बात करने पर उन्होंने पंचायत वोट के दौरान बड़ी संख्या में पार्टी कार्यकर्ताओं की हत्या का हवाला देते हुए कहा कि वोट के दौरान माकपा के 52 कार्यकर्ताओं की हत्या हुई और उन में से 50 प्रतिशत से भी अधिक अल्पसंख्यक समुदाय के कार्यकर्ता हैं, बाकी अनुसूचित जाति और जनजाति के हैं. पंचायत वोट की बलि चढ़े कार्यकर्ताओं में एक भी उच्चवर्ण का नहीं है.

कहते हैं कि वर्ष 1977 में पार्टी के सत्ता में आने से पहले से ही पार्टी के इन कार्यकर्ताओं ने बड़ा संघर्ष किया और अब भी पार्टी को जिंदा रखने की लड़ाई में अल्पसंख्यक और दलित कार्यकर्ता अपने प्राणों का बलिदान कर रहे हैं. लेकिन पार्टी के महंत बन बैठे हैं ब्राह्मण और कायस्थ जैसे उच्चवर्ण के नेता.

माकपा के पूर्व मंत्री कांति विश्वास ने भी इस सचाई को मानते हुए इसे चिंताजनक बताया है. अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी से निकल कर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का उदय हुआ. लेकिन काफी लंबे अंतराल में पार्टी की राज्य कार्यकारिणी में भले अल्पसंख्यक समुदाय को जगह मिली हो पर आदिवासी और जनजाति समुदाय को आज भी स्थान नहीं मिला है.

अल्पसंख्यक और शीर्ष दल

राज्य में माकपा की 19 सदस्यीय कार्यकारिणी में एकमात्र अल्पसंख्यक प्रतिनिधि मोहम्मद सलीम हैं. पूर्व राज्य सचिव अनिल विश्वास कायस्थ थे. बंगाल में लगभग पूरे वामशासन के दौरान विधानसभा के अध्यक्ष हसीम अब्दुल हलीम रहे. विमान बसु और ज्योति बसु कायस्थ और उन के बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य ब्राह्मण थे.

दरअसल, राज्य की राजनीति में लंबे समय तक वाममोरचे का ही शासन रहा है, जहां वर्ग संघर्ष और वर्ग शत्रु की ज्यादा चर्चा होती रही है. शायद इसीलिए राज्य राजनीति में जातिगत पैटर्न की ओर कभी किसी का ध्यान नहीं गया. इस मामले को पहली बार उठाया माकपा के नेता ने, जो अल्पसंख्यक समुदाय के हैं.

इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषक अमल सरकार का कहना है कि वाममोरचा शासन को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए ममता बनर्जी लंबे समय से संघर्ष करती रही हैं. उन्हें सफलता तब मिली जब वे राज्य की अनुसूचित जाति व जनजातियों के वोट को लक्ष्य बना कर आगे बढ़ीं. 2011 में तृणमूल कांगे्रस को मिले वोट में एक बड़ा हिस्सा अनुसूचित जाति जनजाति का है लेकिन उन की पार्टी के शीर्ष पर भी उच्चवर्ण के नेता ही काबिज हैं. प्रदेश कांगे्रस और भाजपा में भी स्थिति बहुतकुछ एक जैसी ही है. इन पार्टियों के भी शीर्ष पदों पर उच्चवर्ण का ही कब्जा है. अगर तृणमूल कांगे्रस की बात करें तो ममता बनर्जी से ले कर सुब्रत मुखर्जी, दिनेश त्रिवेदी, पार्थ चटर्जी, सौगत राय और मुकुल राय सभी ब्राह्मण और कायस्थ हैं. अल्पसंख्यक समुदाय से फिरहाद हकीम और डेरेक ओ ब्रायन हैं. तृणमूल कांगे्रस पार्टी में उच्चवर्ण का बोलबाला होने के बारे में पूछे जाने पर सौगत राय ने इसे सिरे से नकारते हुए कहा कि कोई भी पार्टी हो, नेता तैयार होने की एक प्रक्रिया होती है. लंबे संघर्ष के बाद ही नेता तैयार होते हैं.

जहां तक विभिन्न समुदाय के प्रतिनिधित्व का सवाल है तो ममता बनर्जी की अगुआई में तृणमूल कांगे्रस में अन्य किसी पार्टी की तुलना में अल्पसंख्यक समुदायों की भागीदारी कहीं अधिक है. ममता के मंत्रिमंडल में भी अल्पसंख्यक समुदाय के अलावा आदिवासी जाति, जनजाति और महिलाओं का भी प्रतिनिधित्व अन्य किसी पार्टी की तुलना में कहीं अधिक है. अब अगर प्रदेश भाजपा की बात की जाए तो पार्टी कार्यकारिणी में राहुल सिन्हा, तथागत राय, असीम सोम और शमीक भट्टाचार्य उच्चवर्ण से ही हैं.

वहीं, प्रदेश कांगे्रस में प्रदीप भट्टाचार्य, मानस भुंइया, दीपा दासमुंशी, अधीर चौधुरी ये सभी उच्चवर्ण से हैं. अब्दुल मन्नान अल्पसंख्यक समुदाय से हैं. इस संबंध में अब्दुल मन्नान का कहना है कि यह भारतीय राजनीति की नियति ही है कि देश की अधिकांश पार्टियां दलित, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्यों को अपने निजी स्वार्थ के तहत पार्टी में स्थान देती हैं. यह आज ‘ओपेन सीक्रेट’ है. पश्चिम बंगाल में भी यही चलन है. इस में हैरानी जैसी कोई बात नहीं है.

बहरहाल, देश व उस के कई राज्यों में जारी सांप्रदायिक व जातिवादी राजनीति से अछूता रहा बंगाल अब शायद और अछूता न रह पाएगा. हालांकि मौजूदा मुख्यमंत्री ने विशेष आरक्षण की बात कर के मुसलिम कार्ड तो खेल ही दिया है.

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