यह फिल्म डाक्टरी के पेशे से जुड़ी एक सच्ची घटना से प्रेरित है. डाक्टरी पेशे में आज इतने लूपहोल्स हैं कि आप को पता ही नहीं चल पाता कि डाक्टर किस तरह आप को बेवकूफ बना रहे हैं. अकसर पैसों के लालच में डाक्टर मरीज के रिश्तेदारों की जेबें नएनए तरीकों से खाली कराते रहते हैं. इलाज में लापरवाही होने और मरीज की मौत हो जाने पर कोई न कोई बहाना बना दिया जाता है कि मरीज के फेफड़े कोलैप्स हो गए या औपरेशन के बाद मरीज को दिल का दौरा पड़ा और वह मर गया. यह फिल्म कुछ इसी तरह की बातों का परदाफाश करती है और बताती है कि किस तरह पेशेवर डाक्टर मरीजों का शोषण करते हैं व उन की लापरवाही से हुई किसी मरीज की मौत पर वे कैसे परदा डालते हैं.

कहानी 8 साल के एक बच्चे अंकुर अरोड़ा (विशेष तिवारी) की है. उसे पेट दर्द होने पर एक निजी अस्पताल में भरती कराया जाता है. वरिष्ठ डा. अस्थाना (के के मेनन) बच्चे की जांच कर उस की मां नंदिता (टिस्का चोपड़ा) को बताता है कि बच्चे को अपैंडिक्स का दर्द है और उस का औपरेशन करना पड़ेगा. औपरेशन के दौरान डा. अस्थाना के साथ डा. रिया (विशाखा सिंह) और एक अन्य डाक्टर भी मौजूद रहता है. औपरेशन से ठीक पहले एक नर्स डा. अस्थाना को बताती है कि अंकुर ने कुछ घंटे पहले कुछ बिस्कुट खाए हैं. डा. अस्थाना बच्चे के पेट से खाना निकालने की बात कहता तो है पर निकालना भूल जाता है. औपरेशन हो जाता है. अंकुर को उल्टी होती है और वह कोमा में चला जाता है.

अगले दिन उस की मौत हो जाती है. डा. अस्थाना मामला दबा देता है पर एक अन्य डा. रोहन को सचाई पता चल जाती है. वह अंकुर की मां को विश्वास में ले कर डा. अस्थाना और अस्पताल पर लापरवाही का केस दायर करता है. अदालत डा. अस्थाना को कुसूरवार मान कर 3 साल की सजा सुनाती है और अस्पताल को 10 करोड़ रुपए बतौर मुआवजा मरीज को देने का फैसला सुनाती है. फिल्म का यह विषय एकदम मौजूं है लेकिन इसे फिल्मी अंदाज में पेश किया गया है. इसीलिए सबकुछ नाटकीय सा लगता है. ऐसे गंभीर विषय वाली फिल्म में रिया व रोहन के रोमांस के प्रसंग बाधा उत्पन्न करते हैं.

सुहेल लतारी निर्देशन में अपना कमाल दिखा पाने में नाकामयाब रहा है. क्लाइमैक्स में अदालत के दृश्य एकदम नाटकीय लगते हैं. 

के के मेनन जैसे कलाकार से अच्छा काम नहीं लिया जा सका है. सिर्फ टिस्का चोपड़ा ने भावपूर्ण दृश्य दिए हैं. फिल्म का गीतसंगीत पक्ष कमजोर है. छायांकन कुछ अच्छा है.  

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