Emotional Struggle :
लेखक – इंजीनियर अजय कुमार बियानी, इंदौर – हम जिस समाज में जी रहे हैं, वहाँ रिश्तों की चमक धीरे-धीरे उम्मीदों की धुंध में खोती जा रही है। हर रिश्ता अब किसी न किसी “तुला” पर तोला जा रहा है — कोई वेतन की, कोई प्रतिष्ठा की, कोई रूप-रंग की, तो कोई जाति और पद की। प्रेम, सादगी और अपनापन जैसे शब्द अब किसी पुराने ग्रंथ की शोभा बनकर रह गए हैं। यही तो वह “अपेक्षाओं का अंधकार” है, जो आज हर घर में, हर माँ-बाप की सोच में और हर शादी-ब्याह के रिश्ते में धीरे-धीरे फैल चुका है।
कभी विवाह जीवन के दो आत्माओं का मिलन माना जाता था। आज वह एक डील बन गया है — “कितना कमाता है?”, “कौन सी कंपनी में है?”, “फ्लैट है या नहीं?”, “कार कौन-सी है?”। इन सवालों के जवाब ही अब तय करते हैं कि रिश्ता बनेगा या नहीं। मानो इंसान नहीं, निवेश चुना जा रहा हो।
समाज का यह चेहरा देखकर मन पूछता है — क्या अब गुण, संस्कार, और चरित्र का मूल्य समाप्त हो गया है? क्या अब सच्चा इंसान केवल तब तक योग्य है जब तक उसकी सैलरी स्लिप चमकदार हो?
शादी के लिए वर-वधू नहीं, अब “प्रोजेक्ट” देखे जाते हैं। माता-पिता “बजट” तय करते हैं, फिर “मार्केट सर्वे” शुरू होता है। रिश्तेदार “सुझाव समिति” बन जाते हैं — कोई कहता है “इतनी पढ़ाई की है तो दामाद आईएएस से कम न हो”, कोई कहता है “लड़की गोरी हो, लंबी हो, संस्कारी भी हो पर मॉडर्न दिखे”। नतीजा यह कि खोज इंसान की नहीं, आदर्श पैकेज की होती है।
ऐसे में, रिश्ते का सार — प्यार, समझ और साथ — पीछे छूट जाता है। जो बचता है, वह है दिखावे की परत और तुलना का विष।
आज “साँवला रंग” दोष है, “खेती” अपराध है, “ईमानदारी” कमजोरी है। बेटी वालों के लिए दामाद अब “हीरा” होना चाहिए, भले बेटी में कितनी भी खामियाँ क्यों न हों। और बेटे वालों के लिए बहू “आधुनिक” हो लेकिन “संस्कार” भी न छूटे — यानी दोनों दुनियाओं का मिश्रण, जो शायद अब किसी प्रयोगशाला में भी न बने।
कुंडली, जाति, धर्म, नौकरी, पैकेज — सब कुछ परखने के बाद भी जब रिश्ता नहीं टिकता, तब लोग कहते हैं — “क़िस्मत खराब थी।” नहीं, क़िस्मत नहीं, दृष्टि खराब थी। जब इंसान को इंसान नहीं, उसकी हैसियत से मापा जाएगा, तो रिश्ते टूटेंगे ही।
आज की पीढ़ी आत्मनिर्भर है, शिक्षित है, और निर्णय लेने में सक्षम भी। लेकिन इसी स्वतंत्रता ने रिश्तों में एक नया “संघर्ष” पैदा कर दिया है। अब प्रेम भी “प्रैक्टिकल” हो गया है — अगर नौकरी स्थायी नहीं, तो रिश्ता भी अस्थायी। भावनाओं की जगह “फाइनेंशियल सिक्योरिटी” ने ले ली है।
कभी-कभी लगता है कि हम तकनीकी रूप से आगे बढ़े हैं, पर भावनात्मक रूप से बहुत पीछे रह गए हैं। पहले माँ-बाप कहते थे — “लड़का अच्छा इंसान होना चाहिए।” अब वही कहते हैं — “अच्छा इंसान बाद में, पहले अच्छा पैकेज।” यही तो अपेक्षाओं का अंधकार है — जहाँ रिश्ते नहीं, लाभ गिने जाते हैं।
यह अंधकार सिर्फ विवाह तक सीमित नहीं रहा। यह अब हर रिश्ते में झलकता है — दोस्ती में, पड़ोस में, यहाँ तक कि परिवार में भी। भाई-भाई में संपत्ति का हिसाब, मित्रता में स्वार्थ की गणना, और बच्चों में माता-पिता की “रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट” सोच। जब हर भावना को अपेक्षाओं की रोशनी में देखा जाएगा, तो सच्चाई का अंधेरा गहराएगा ही।
समाज में बदलाव की ज़रूरत है, लेकिन उससे पहले दृष्टिकोण में बदलाव की। विवाह कोई सौदा नहीं — यह जीवन की साझेदारी है। जब हम रिश्ते को प्रेम, आदर और समझ से जोड़ते हैं, तभी वह टिकता है। लेकिन जब उसे प्रतिष्ठा, पद और पैसों से बाँधते हैं, तो वह टूट जाता है।
माँ-बाप को यह समझना होगा कि उनकी बेटी कोई “संपत्ति” नहीं है जिसे सर्वोच्च बोली लगाने वाले को सौंपना है, और बेटा कोई “इन्वेस्टमेंट” नहीं है जिससे सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ेगी। दोनों ही भावनाएँ हैं, दोनों ही इंसान हैं — और दोनों की खुशियों का आधार प्रेम और समानता होना चाहिए, न कि आर्थिक गणित।
जब तक समाज “कितना कमाता है” के बजाय “कैसा इंसान है” पूछना नहीं सीखेगा, तब तक यह अंधकार दूर नहीं होगा। जब तक हम “कितना सुंदर है” की जगह “कितना सच्चा है” देखना नहीं शुरू करेंगे, तब तक रिश्ते असफल रहेंगे।
जीवन का असली सौंदर्य सरलता में है, और रिश्तों का आधार विश्वास में। हर रिश्ता तभी खिलता है जब उसमें अपेक्षाएँ कम और अपनापन अधिक होता है।
कभी एक पल ठहरिए — अपने आस-पास देखिए। कितने रिश्ते केवल “शर्तों” के कारण खत्म हुए हैं, और कितने केवल “सच्चाई” के कारण बचे हैं। उत्तर आपके भीतर है।
रिश्ते को मत जोड़ो प्रतिष्ठा और पैसों से,
शादी इंसान से करो, न कि उसकी हैसियत से।
यदि हम यह समझ जाएँ कि हर व्यक्ति अपनी जगह पूर्ण है, तो शायद यह “अपेक्षाओं का अंधकार” भी धीरे-धीरे मिट जाएगा — और रिश्तों की रोशनी फिर से उजियारा फैलाएगी। Emotional Struggle :





