Religious Traditions : मंदिरों में दान आम लोग देते हैं, यदि उस का कुछ हिस्सा सरकार उन के ही विकास कार्यों में खर्च करती है तो गलत क्या है? हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट का इस मामले में निर्देश ब्राह्मणों पर दान के पैसों पर पूरा अधिकार देने जैसा है.
ब्राह्मण सर्व लभते सर्व तस्य हि सर्वदा
दानम् च विपुलं दत्वा स्वर्गलोके महीयते
अर्थात
ब्राह्मण सभी प्रकार के दान प्राप्त करने का अधिकारी है क्योंकि वह सदा सर्वस्व का हकदार है. उसे विपुल दान देने से दाता स्वर्गलोक में सम्मानित होता है.
(महाभारत अनुशासन पर्व, अध्याय 61, श्लोक 11)
यह बात, जो सदियों पहले महाभारत में वेद व्यास ने दोटूक कही थी, को हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने जलेबी की तरह गोलमोल घुमाफिरा कर कानूनी भाषा में बीती 10 अक्तूबर को दिए एक फैसले में कही जो 14 अक्तूबर को सार्वजनिक हुआ. इस पर किसी को कोई हैरानी नहीं हुई. जस्टिस विवेक सिंह ठाकुर व जस्टिस राकेश कैंथला की बैंच ने इस मामले (सिविल रिट पिटीशन 1834/2018) की बाबत अपने फैसले में जो कहा उस का निचोड़ है-
भक्त मंदिरों में दान देते हैं यह विश्वास करते हुए कि वे देवताओं की देखभाल, मंदिर के रखरखाव और सनातन धर्म के प्रचार के लिए उपयोग होगा. यदि सरकार इन पवित्र दानों को अपने खजाने में मिला लेती है तो यह भक्तों के विश्वास का अपमान है.
ट्रस्टी इस दान के संरक्षक हैं, मालिक नहीं. इन का दुरुपयोग आपराधिक विश्वासघात माना जाएगा.
मंदिर के फंड को राज्य की सामान्य आय की तरह नहीं देखा जा सकता. यह सरकारी योजनाओं, विज्ञापनों या अन्य गैरधार्मिक गतिविधियों के लिए नहीं दिया जा सकता.
राज्यों को मंदिरों के प्रबंधन में निष्पक्षता स्पष्ट करनी होगी लेकिन धार्मिक कार्यों के प्रचार के लिए फंड का उपयोग सही दिशा में हो. संविधान में सैक्युलर का अर्थ नास्तिकता नहीं, बल्कि सर्वधर्म समभाव है.
ऐसी और भी कई बातें अदालत ने कहीं जो गैरजरूरी और असंबद्ध थीं लेकिन शायद कोर्ट को कोई गिल्टी फील हो रही थी जो उस ने अपने फैसले को सही साबित करने या उसे वजनदार बनाने के लिए उसे भानुमती का कुनबा जोड़ना पड़ा.
यह है मामला :
हिमाचल प्रदेश के शिमला में रहने वाले जाति से कश्मीरी ब्राह्मण कश्मीर चंद शादयाल, जो पेशे से समाजसेवी हैं लेकिन धार्मिक आयोजनों में काफी सक्रिय रहते हैं, ने साल 2018 में एक जनहित याचिका कोर्ट में दाखिल की थी. उस में उन्होंने आरोप लगाए थे कि हिमाचल प्रदेश के मंदिरों, जैसे नैना देवी, ज्वालामुखी आदि में आया दान सरकारी योजनाओं, जैसे सड़क निर्माण विज्ञापन आदि में गलत तरीके से इस्तेमाल हो रहा है जो भक्तों के विश्वास का अपमान है. कश्मीर चंद ने अदालत से मांग की कि इस में पारदर्शिता बरती जाए और दान के पैसे का इस्तेमाल केवल धार्मिक कार्यों में किया जाए.
यह समाजसेवी पूरी दस्तावेजी तैयारी के साथ कोर्ट पहुंचा था. उस ने नैना देवी, ज्वालामुखी और चामुंडा आदि मंदिरों के फंड्स के उपयोग पर आरटीआई दाखिल कर जानकारी हासिल कर ली थी कि इन में आए दान के पैसों में से काफी पैसे सरकारी योजनाओं पर खर्च किए गए थे. सरकारी विभागों ने इस की पुष्टि की थी. इन में हिंदू रिलीजियस इंस्टिट्यूशन डिपार्टमैंट (हिंदू धार्मिक संस्थान विभाग) प्रमुख है. अदालत में पेश दस्तावेजों से उजागर हुआ कि 2018 से पहले ही दान के करोड़ों रुपयों का इस्तेमाल गैरधार्मिक कार्यों में हुआ है.
7 अगस्त, 2018 को प्रारंभिक सुनवाई करते अदालत ने सभी डिप्टी कमिश्नरों को निर्देश दिया कि वे पिछले 5 सालों के फंड उपयोग का ब्योरा बजरिए हलफनामा पेश करें. इस से पहले एफिडेविट कश्मीर चंद ने भी पेश किया था जिस में व्यक्तिगत शिकायतों, भक्तों के बयान और फंड्स के बेजा इस्तेमाल की जानकारी थी. उस में उन्होंने हिमाचल प्रदेश हिंदू पब्लिक रिलीजियस इंस्टिट्यूशंस एक्ट 1984 की धाराओं 13, 19, 20 और 48 का उल्लंघन किया जाना बताया था. खासतौर से धारा 48 का उल्लंघन जो यह कहती है कि फंड का पैसा केवल धार्मिक कार्यों में इस्तेमाल किया जाए. धारा 20, जो लेखाजोखा से संबंधित है, का भी पालन नहीं होना पाया गया.
डिप्टी कमिश्नरों ने फंड्स का जो ब्योरा पेश किया उस में अदालत ने पारदर्शिता की कमी पाई और अपना फैसला आवेदक के पक्ष में सुनाया. हिमाचल प्रदेश हिंदू पब्लिक रिलीजियस इंस्टिट्यूशंस एक्ट 1984 की धारा 13 कहती है कि ट्रस्टी केवल संरक्षक हैं, मालिक नहीं लेकिन ट्रस्टी और पुजारी दान का व्यक्तिगत उपयोग कर रहे थे या फिर बेजा और गैरजरूरी खर्च कर रहे थे. साबित यह भी हुआ कि सरकार मंदिर फंड्स का इस्तेमाल सामान्य राजस्व की तरह कर रही थी जो संविधान के धार्मिक स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता वाले अनुच्छेद 25-26 का उल्लंघन है
बेतहाशा आमदनी :
मुकदमे के दौरान यह भी उजागर हुआ कि नैनादेवी और ज्वालामुखी मंदिरों की साल 2024 में आय 200 करोड़ रुपयों से भी ज्यादा है और मंदिरों के पास 2 क्विंटल सोना और 45 किलो चांदी भी संपत्ति की शक्ल में हैं. यानी, ‘दुकान’ खासी चलती हुई है जिस के पैसों को ले कर खींचतान मची हुई थी. यह खींचतान खत्म नहीं हो गई है बल्कि हुआ यह है कि अब दान, दक्षिणा, चढ़ावे के पैसे का इस्तेमाल सिर्फ धार्मिक कार्यों और धर्मार्थ में होगा.
धार्मिक काम यानी पूजापाठ, यज्ञ, हवन, प्रसाद, मूर्ति, अनुष्ठान वगैरह में पैसे खर्च किए जाएंगे, इस के अलावा मंदिर को और भव्यता भी दान के पैसे से दी जाएगी. कुछ सुविधाएं भी दी जाएंगी, मसलन मंदिर में धर्मशाला आदि बनवाना जिस से भक्त मंदिर में व सस्ते में रुकें और ज्यादा से ज्यादा दान दें. इस तरह कुछ सालों में ही मंदिर की आमदनी दोगुनीचौगुनी हो जाएगी और ज्यादा भक्त आकर्षित होंगे जिस से पैसा और ज्यादा आएगा. अब यह किसी ने नहीं सोचा कि जब बहुत ज्यादा पैसा हो जाएगा तब उस का क्या होगा. क्या मुगलों की तरह लुटेरों के लिए यह इकट्ठा किया जाता है या अंगरेजों के लिए जिन्होंने मंदिरों का पैसा भी लूटा और हमें गुलाम बना कर भी रखा.
अब यह बिजनैस नहीं तो और क्या है. देशभर के भक्त नैना देवी, ज्वालामुखी और चामुंडा जैसे मंदिरों में आ कर अपनी मेहनत की कमाई दान में देते हैं. एवज में उन्हें क्या मिलता है, मोक्ष का झूठा आश्वासन, दुखदर्द दूर हो जाने का झांसा जिस का उद्भव धर्मग्रंथों में वर्णित किस्सेकहानियां होते हैं.
हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने सीधेसीधे इस ठगी के धंधे को नजरअंदाज करते दान का पैसा पंडेपुजारियों के हाथों में बने रहने देने का फैसला सुना दिया है जिस से सिवा ब्राह्मणों के किसी और का भला नहीं होने वाला. किसी भी मंदिर ट्रस्ट का मुखिया अभी भी कमिश्नर, डिप्टी कमिश्नर या एसडीएम ही होगा लेकिन उस का काम मंदिर की प्रशासनिक व्यवस्था संभालना भर होगा. पैसों का हिसाबकिताब सारे ट्रस्टी मिल कर तय करेंगे कि कहां कितना खर्च किया जाए कि जिस से आय और बढ़े.
मंदिरों के ट्रस्टों के अधिकतर सदस्य ब्राह्मण पंडेपुजारी ही होते हैं. एकाध सत्तारूढ़ दल का विधायक, सांसद या धाकड़ नेता होता है जिस का शीश इन पंडों के आगे झुका ही रहता है. यानी, पैसा अब पूरी तरह पंडों के कब्जे में रहेगा जिस का मनमाना खर्च वे करेंगे और ट्रस्ट के मुखिया की हैसियत से सरकारी अधिकारी की जिम्मेदारी केवल ट्रांसपेरैंसी की रहेगी.
वैसे भी, उस के पास ढेरों सरकारी काम होते हैं, इसलिए मंदिरों के फंड और झं झटों से उसे कोई सरोकार नहीं होता. उसे तो, बस, बैलेंसशीट पर दस्तखत भर करना होता है. अब पंडेपुजारी जो चाहें सो करें उन की मरजी. अगर कोई अफसर ज्यादा दखल देगा तो या तो उसे भी अपने साथ मिला लिया जाएगा या फिर न मानने पर उस की बदली करा दी जाएगी.
खूब होते हैं घपले-घोटाले :
कश्मीर चंद बनाम हिमाचल प्रदेश स्टेट मुकदमे में इस बात का जिक्र किया भी गया है कि सरकारी अधिकारी और ट्रस्टी मिल कर घालमेल कर रहे थे. अब नहीं करेंगे, इस की कोई गारंटी नहीं. हां, इतना जरूर होगा कि दान का पैसा सरकारी खजाने में अब नहीं जाएगा. अभी तक भी थोड़ा ही आता था जिसे कल्याणकारी या जनहित योजनाओं में सरकार लगा लेती थी तो कोई गुनाह नहीं कर देती थी. सड़क अगर उस ने बनवाई तो वह सभी के लिए फायदे की बात थी जिस से अवागमन सुलभ होता है. यही बात दूसरे उन कामों पर लागू होती है जो सार्वजनिक हित के होते हैं.
उदाहरण नैना देवी मंदिर का लें तो वह म झोले किस्म का मंदिर है जिस के पास साल 2022 तक 11.47 करोड़ रुपए नकद थे, 58.97 करोड़ रुपए की फिक्स्ड डिपौजिट थी. इस के अलावा 180 किलो सोना (कीमत 140 करोड़ रुपए से भी ज्यादा) और 7,292 किलो चांदी (कीमत 1,240 करोड़ रुपए से भी ज्यादा) थी. नैना देवी मंदिर में सोने के मुकाबले चांदी ज्यादा होने की दास्तां भी कम दिलचस्प नहीं.
माना जाता है कि जब शंकरजी सती को ले कर भाग रहे थे तब सती माता की आंखें इस जगह गिरी थीं. इसलिए, इस मंदिर में जो चांदी की आंखें दान करता है उस की आंखों की बीमारियां ठीक होती हैं. मंदिर के बाहर इफरात से चांदी की आंखें दुकानों पर बिकती हैं जिन की कीमत 500 से ले कर 5 हजार रुपए तक होती है. ये आंखें मंदिर के गर्भगृह में चढ़ाई जाती हैं. पैसे वाले भक्त तो सोने की आंखें दान करते हैं.
अब कोर्ट को इस अंधविश्वास से कोई सरोकार नहीं कि यह दान आस्था या विश्वास के चलते कम बल्कि डर और अंधविश्वास की वजह से ज्यादा आता है. अगर ‘सिल्वर आई’ दान करने से आंखों के रोग ठीक होते तो देश में नेत्र रोग विशेषज्ञों की जरूरत ही नहीं रह जाती. कम से कम हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर और शिमला में तो आई स्पैशलिस्ट न होता लेकिन वहां भी इफरात से हैं तो इस का सीधा सा मतलब है कि यह खालिस ठगी है.
वर्ष 2025 आतेआते दानदक्षिणा का आंकड़ा कितना बड़ा, इस के आंकड़े अभी सार्वजनिक नहीं किए गए हैं लेकिन जनवरी 2026 तक हो जाएंगे क्योंकि हाईकोर्ट ने अपने फैसले में सख्त लहजे में यह भी कहा है कि सरकार उस के आदेशों का पालन 3 महीने के अंदर करे वरना इसे अदालत की अवमानना मान कार्रवाई की जाएगी. नैना देवी मंदिर में सालभर में औसतन कोई 20 लाख श्रद्धालु जाते हैं. दोनों नवरात्र के दिनों में तो वहां पैर रखने को भी जगह नहीं मिलती.
दूसरे मंदिरों की तरह इस मंदिर में भी जगहजगह दानपेटियां रखी हैं जिन के तालों की चाबियां पंडेपुजारियों के पास होती हैं. दूसरे मंदिरों की ही तरह यहां भी पंडे अपना आसन जमाए बैठे रहते हैं जो मंत्र बुदबुदाने से ले कर माथे पर तिलक लगाने तक की फीस लेते हैं. मंदिरों के बारे में किसी ने गलत नहीं कहा कि इन से दानपेटियां हटा दी जाएं तो यहां से पुजारी खुदबखुद गायब हो जाएंगे.
नैना देवी मंदिर श्री नैना देवी श्राइन बोर्ड से संचालित होता है. मंदिर के मुख्य पुजारी को लगभग एक लाख रुपए सैलरी मिलने का अंदाजा है जबकि जूनियर पुजारियों को 20 से 50 हजार रुपए महीना पगार मिलती है. इन्हें दान के पैसे से ही आवास, चिकित्सा और यात्रा जैसे भत्ते भी मिलते हैं. इस के बाद भी पुजारी पैसों के लिए रोते झींकते रहते हैं. अब इन की आमदनी सैलरी, भत्ते वगैरह हाईकोर्ट के आदेश के मुताबिक मंदिर की वैबसाइट पर डाले जाएंगे तब पता चलेगा कि दान के पैसों का कितना बड़ा हिस्सा उन पंडेपुजारियों को पालनेपोसने पर खर्च होता है जो करतेधरते कुछ नहीं. घोषित रूप से नैना देवी मंदिर में गीतम प्रजाति के ब्राह्मण पूजापाठ कराते हैं. ब्राह्मणों को ही दान देने के निर्देशों में से एक निर्देश मनुस्मृति का यह भी है-
ब्राह्मणाय प्रयच्छेत सर्व धर्माय कल्पितम
अर्थात जो भी वस्तु धर्म के लिए दी जाती है वह ब्राह्मण को दे देनी चाहिए.
(अध्याय 3 श्लोक 116-118)
और
शूद्राय तु न दद्यात ब्राह्मणाय दद्यात
अर्थात शूद्र को दान नहीं देना चाहिए, ब्राह्मण को देना चाहिए.
(अध्याय 4, श्लोक 226-232)
सदुपयोग क्यों नहीं ?
दूसरे ब्रैंडेड मंदिरों के मुकाबले नैना देवी मंदिर का पैसा और सोनाचांदी, जमीनजायदाद भले ही कम हो लेकिन बहुत कम भी नहीं है. इस पैसे से क्याक्या नहीं किया जा सकता जो पड़ापड़ा सड़ रहा है. इस पैसे को किसी ने मेहनत से नहीं कमाया है और न ही यह किसी दैवीय चमत्कार की देन है बल्कि यह भक्तों की मेहनत का पैसा है जिसे निष्क्रिय रखना क्या उन का अपमान और दुरुपयोग नहीं. इस से स्कूल, कालेज, अस्पताल वगैरह खोले जाएं तो कईयों का भला होगा और सभी को कुछ न कुछ मिलेगा लेकिन चूंकि मामला धर्म और भगवान का है इसलिए अच्छेअच्छे तर्कवादियों के मुंह सिल जाते हैं. दौर हिंदूवादियों का है जिस में मंदिर तबीयत से फलफूल रहे हैं जिन से रोजगार ब्राह्मणों को मिल रहा है जो पंडेपुजारी की हैसियत से देश की तरह मंदिरों को भी अपने हिसाब से हांक रहे हैं.
कश्मीर चंद शादयाल अगर वाकई सच्चे समाजसेवी होते तो दान के पैसों से बनी सड़क पर उन्हें खुशी और फख्र होना चाहिए था न कि कोर्ट जाने की हद तक किलपना चाहिए था. उन्हें तो यह मांग करनी चाहिए थी कि मंदिरों में फालतू पड़े पैसे से प्रदेश में सड़कों का जाल बिछा देना चाहिए या गरीबपिछड़ी बस्तियों में बच्चों के स्कूल खुलवा देना चाहिए, गरीबों की सेहत के मद्देनजर अस्पताल बनवा देना चाहिए.
लेकिन नहीं, धर्म से इतर कोई कश्मीर चंद नहीं सोचना चाहता जिन की देश में इन दिनों भरमार है. ये लोग चाहते हैं कि पैसा सिर्फ ब्राह्मण के पास रहे क्योंकि वह धर्मसंस्कृति वगैरह का जानकार व रक्षक है. वह दान के पैसे का स्वाभाविक उत्तराधिकारी है फिर भले ही चंद मंत्रों और पूजापाठ के अलावा उसे कुछ और न आता हो. कुल जमा, वह जन्मना श्रेष्ठ है, इसलिए मेहनत कर पेट भरना उस की शान के खिलाफ है. अब तो हाईकोर्ट ने भी उन से इत्तफाक रख दिया है. सो, कोई क्या कर लेगा.
तो फिर सरकार से लेते क्यों हैं ?
कश्मीर चंद बनाम हिमाचल प्रदेश स्टेट मुकदमे की दिलचस्प बहस में बचाव पक्ष के वकील महाधिवक्ता अनूप रत्तन ने जो दलीलें दीं उन से भले ही हाईकोर्ट ने इत्तफाक न रखा हो लेकिन उन की दलीलों में दम था कि हिंदू पब्लिक रिलीजियस इंस्टिट्यूशन एंड चैरिटेबल एंडोमैंट्स एक्ट 1984 की धाराओं 19 व 20 के तहत राज्य सरकार को मंदिरों के प्रशासनिक और वित्तीय प्रबंधन का अधिकार है. उन के मुताबिक दान में आया पैसा पब्लिक ट्रस्ट का हिस्सा है जिसे राज्य सार्वजनिक हित में उपयोग कर सकता है.
बकौल अनूप रत्तन, चिंतपूर्णी और नैना देवी मंदिरों की आय क्रमश: 100 करोड़ व 60 करोड़ रुपए का उपयोग केवल धार्मिक कार्यों तक सीमित नहीं रहना चाहिए. इसे सड़क निर्माण, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सामाजिक कल्याण योजनाओं में डायवर्ट करना उचित है.
ऐसे कई तर्कों से अदालत सहमत नहीं हुई. यह और बात है लेकिन इस सिलसिले में एक अहम बात यह भी है कि जब दान का पैसा सार्वजनिक भले की कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च नहीं किया जा सकता तो सरकारी पैसा भी क्यों धर्म, धार्मिक कार्यों और धर्मस्थलों पर खर्च किया जाए. इस बाबत न तो कोई वकील कुछ बोलता, न ही जज. ऐसे में पंडेपुजारियों के बारे में तो सोचना ही फुजूल है जिन की रोजीरोटी ही दान के पैसों से चलती है.
पिछले 11 सालों से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार मंदिरों और धरमकरम पर खुले हाथ और पूरी दरियादिली से खर्च कर रही है. इस पर किसी भक्त के पेट में मरोड़ नहीं उठती कि हम मंदिरों में भी चढ़ाएं और सरकार को टैक्स भी दें, यह कहां का इंसाफ है. हकीकत तो यह है कि भाजपा को वोट इसी शर्त पर मिलते हैं कि वह सतयुग और त्रेता युग की तरह ब्राह्मणों की परवरिश करती रहे.
राज्य सरकारें भी इस खेल में पीछे नहीं हैं. मिसाल हिमाचल प्रदेश की ही लें तो उस का इस साल का बजट कोई 52,965 करोड़ रुपए का है जिस में से लगभग 500 करोड़ रुपए धार्मिक कार्यों पर खर्च करने का प्रावधान है. इस पैसे से इफरात से धार्मिक मेले वहां आयोजित किए जा रहे हैं, धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा दिया जा रहा है और मंदिरों तक भक्तों की पहुंच आसान बनाई जा रही है. अकेले नैना देवी मंदिर के सौंदर्यीकरण और दूसरी सुविधाओं के लिए सौ करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया है. दीगर सरकारी खर्चों, जो आमतौर पर छिपे हुए और प्रशासनिक होते हैं, का तो कोई हिसाबकिताब ही नहीं.
अगर दान का पैसा धार्मिक कार्यों में ही खर्च होना है तो टैक्स का पैसा भी विकास कार्यों और जन कल्याणकारी योजनाओं में ही लगने की बाध्यता भी होनी चाहिए जिस से लाभ सभी धर्मों, वर्गों और जातियों के लोगों को हो. मंदिरों में दिए दान से तो सिर्फ ब्राह्मणों का ही भला व कल्याण होता है.
दान हि ब्राह्मणे श्रेष्ठम अन्येशान्म निष्फल स्मृतम
अर्थात ब्राह्मण को दिया गया दान श्रेष्ठ है, अन्य को दिया गया निष्फल.
(गरुड़ पुराण 2.95.35)
सनातनियों के संविधान मनुस्मृति के अलावा भी ब्राह्मणों द्वारा रचे गए तमाम धर्मग्रंथ इन निर्देशों से भरे पड़े हैं कि दान पर सिर्फ ब्राह्मणों का ही हक है, बाकियों को दिया गया दान निष्फल यानी बेकार टाइप का होता है. Religious Traditions :





