Hindi Story: मनाली सम्यक और अपने बीच किसी को नहीं आने देना चाहती थी. यहां तक कि अपना बच्चा भी. सम्यक हैरान था मनाली की इस सोच और उस रूप को देख कर.
अब और कितना इंतजार करूं, मनाली, तुम कब लौटोगी?
कब सम झोगी खुद को? कब तुम नासम झी के बीहड़ से हमारे पास वापस आओगी? थक गया हूं मैं इन
21 सालों में तुम्हे संभालतेसंभालते. कभीकभी लगता है, मैं भी तुम्हारी तरह नासम झ बन जाऊं? भूल जाऊं इस घर को, घर के हर एक पल को, प्रेम को, रिश्ते की तड़प को, तुम्हें सब भूल जाऊं और निकल जाऊं इस रेतीले तूफान को पार कर आगे किसी नि र्झर की तलाश में.
मगर ज्यों अपनी बेटी किशा को देखता हूं, देखता हूं एक मां के रूप में तुम्हें, मनाली, तो पैर मेरे खुद ही इस रेत के भंवर में धंसते जाते हैं. कैसे छोड़ जाऊं तुम दोनों को अकेला यहां. कोई चारा नहीं कि यहीं बैठ तुम्हारा इंतजार करता रहूं मैं.
सवाल खाने को दौड़ते हैं मु झे कि कब तक? आज भी तुम वहीं गई हो जहां जाना कतई सही नहीं. फिर किशा परेशान होगी, उस की पढ़ाई बाधित होगी.
‘‘पापा.’’
वह देखो, बिटिया आ गई कालेज से. अब मैं क्या जवाब दूंगा उसे, यही कि उस की मां वह सब कर रही है जिस की चिंता इस उम्र में बेटियों को ले कर मां को होती है. मैं सब जानता हूं, मगर तुम्हें रोक नहीं पा रहा. तुम ने अपनी नासम झी, जिद और ईर्ष्या में विनाशलीला रच रखी है, मनाली. इसे रोकने की कला मु झ में नहीं.
‘‘पापा, आज मां फिर गईं वहां.’’
‘‘लगता तो है, बिट्टो. मैं अब ये सब झेलने से बाज आना चाहता हूं. छोड़ दे उसे उस के हाल पर, उस के दिमाग की हालत मु झे सही नहीं लगती. वरना इतना सुखी संसार छोड़…’’
‘‘आप उदास न हो, पापा. मैं मम्मा को फिर से हमारी जिंदगी में वापस लाऊंगी, हमेशा के लिए.’’
‘‘राधा दीदी ने पास्ता बनाया है तेरे लिए. रात के डिनर में मैं ने तेरी पसंद का वेज मंचूरियन, पनीर टिक्का बनवा रखे हैं उस से.’’
डैड डार्लिंग, जी करता है आप के सिर के चांद को चूम लूं.’’
‘‘अरेअरे, कैसे गले में झूल जाती है, पगली. चल तू पास्ता ले, मैं बढि़या कौफी बनाता हूं, दोनों के लिए.’’
मनाली, अब अकेले ही जीना सीख गया हूं. बिटिया भी मु झ में ही मां को ढूंढ़ कर खुश होना सीख गई है. नियमित दिनचर्या में हम दोनों ही मशीन की तरह अभ्यस्त हैं. औफिस से घर लौटने की जल्दी रहती है मु झे.
कालेज से लौट कर किशा इस घर की दीवारों से अकेली न टकराती रहे, वक्त की सूइयां उस पर तंज न कसें, रोजरोज की तनहाईभरी बेरुखी से तंग आ कर वह गलत राह की ओर न मुड़ जाए, इसलिए मां की सी बेचैनी लिए उस का पापा औफिस से घर की ओर भाग पड़ता है. मगर, सोचो जरा मनाली, मेरे लिए कितना मुश्किलभरा होता होगा अकसर औफिस का अधूरा काम घर लाते हुए.
किशा भी अपनी पढ़ाई, प्रोजैक्ट और जिंदगी की व्यस्तताओं के बीच तुम्हें ले कर किस तनाव से गुजरती है.
तुम हमें कभी सम झने की कोशिश
ही नहीं करतीं मनाली. कितनी
परतों के हम बापबेटी ने मुखौटे डाल रखे हैं अपनेअपने किरदारों पर ताकि तुम्हारे दिए दर्द एकदूसरे को नजर न आएं.
शादी के बाद तुम्हें सारे सुख दूंगा, इसी वादे के साथ मैं ने तुम्हें दिल के सिंहासन पर बैठाया. यह आलीशान 6 कमरों वाला डुप्लैक्स बनवाया कि तुम एक रानी की तरह रह सको, हिरणी की तरह कुलांचें भरो, बुलबुल की तरह मेरी जिंदगी के बगीचे में गीत गाओ और फिर वसंत का अनुराग जब चरम पर आया तो हमारी बेटी किशा का आना हमारी जिंदगी में सपनीला संगीत सा गूंज उठा.
तुम इतनी घबरा क्यों गईं, मनाली. जैसे खेलतेखेलते अचानक डर कर भागने लगी, क्यों किशा को आते देख इतनी विचलित हो गईं, मनाली?
‘‘पापा, मम्मा आ गईं. वही आदमी अपनी कार में मम्मा को छोड़ गया. पापा, पापा सो गए क्या?’’
मैं मुखौटा लगाए था. क्या कहूं उस से. अपनी पीड़ा उसे दिखा कर खुद कितना लज्जित होऊं. पुरुष का, पति का, पिता का, कब कौन सा मुखौटा लगाता हूं, उतारता हूं, हिसाब नहीं रख पाता, मनाली.
और ये नन्ही 20 साल की किशा भी तो. क्या यह नहीं सम झी कि मैं जानबू झ कर नींद का लिहाफ ओढ़े था? वह चली गई थी. मैं सोने की कोशिश में था कि सुबह औफिस जाऊं तो तुम्हारी विलासिता के लिए संसाधन जुटें.
48 की उम्र में मेरे सिर के उड़े बालों को मेरा आईना मेरा उड़ा हुआ चैन कहता है. ठीक ही तो है. वीरान लंबी रातें मेरे कानों में सिसकियां भरती रहती हैं और मैं इधरउधर करवट लेते, बस, तुम से ही बातें करता रहता हूं. ये जो मैं ने इतना बड़ा घर बनवाया- सोचा तो नहीं था कि बिस्तर मेरा यों खाली पड़ा रहेगा तुम्हारे बिना. मैं ने तो भरोसे का स्पेस पैदा करना चाहा, तुम ने उस स्पेस को दूरी बना डाला.
तुम तो ऐसी नहीं थीं, मनाली. मैं तो तुम्हारा सबकुछ था.
बारबार मु झे वे दिन याद आते हैं जब तुम 19 साल की कालेज में फर्स्ट ईयर की स्टूडैंट थीं. तुम्हारे कालेज के 25वें वार्षिकोत्सव में उन पूर्व छात्रों को भी बुलाया गया था जिन्होंने पिछले 5 सालों में कालेज से निकल कर जिंदगी में खास मुकाम पाया था. हालांकि मैं उस कालेज से 4 साल पहले ही निकल चुका था लेकिन इस साल बैंकिंग सैक्टर में ऊंचे पद पर चयन के बाद एक अच्छी सी छुट्टी बिताने के मूड में था. ऐसे में जब अपने पुराने कालेज के उत्सव में बुलावा आया तो ‘एक ब्रेक हो जाए’ की सोच पर मैं वहां पहुंचा.
उस शाम एक चुलबुली, स्मार्ट और खूबसूरत खिलती सी कली को देख मैं मुग्ध सा होने लगा. मैं मंत्रमुग्ध सा तुम्हें देखता रहा था, मनाली. उस फंक्शन में तुम्हारी डांस की अदायगी और संगीत की प्रस्तुति कैसी रही, वैसे, यह जानने की टोह लिए तुम भी तो मेरी आंखों में बारबार झांक लेती थीं.
मंच पर तुम्हारी प्रस्तुति के वक्त या आसपास तुम्हारे आनेजाने के वक्त, कुरसी की पहली कतार में बैठा मैं तुम्हें अपनी अनुभूतियों में लगातार सोखता रहा.
रात के 10 बजे गए थे.
तुम अपनी कालेज बस में होस्टल लौटने वाली थीं. मैं ने यह मौका गंवाना उचित न सम झा. जैसेतैसे मैं ने अपनी िझ झक तोड़ी और तुम्हारे पास पहुंचा. जैसे ग्लेशियर पिघल कर मेरा रोमरोम बहा ले जा रहा था. नजदीक से तुम्हें देखा. खूबसूरती की पारिजात पुष्प थीं तुम. सांचे में ढली, निखरी, कौतुक और यौवन से भरपूर, आंखों में हिरणी सी चंचलता, होंठों पर शरारतभरी मुसकान देख मु झे लगा कि मैं इस बहुमूल्य हीरे को गोद में उठा कर कहीं भाग पड़ूं.
मैं ने अपनी धड़कनों को काबू में रखने की भरपूर कोशिश करते हुए कहा, ‘नाम बताओगी?’
‘मु झे क्या पता?’
‘क्यों, अपना नाम नहीं पता?’
‘हां, मेरा नाम मु झे पता है, आप किस का नाम पूछ रहे हैं, यह तो नहीं पता न मु झे.’ और वह खिलखिलाना तुम्हारा. मेरा मन अमृत से सराबोर हो गया था.
‘ओहो,बहुत नटखट हो. तुम्हारा नाम?’
‘मनाली. और आप? सम्यक श्रेष्ठ?’
‘सम्यक प्रसाद, श्रेष्ठ नहीं.’
‘क्यों, सर तो बारबार अनाउंस कर रहे थे हमारे कालेज के श्रेष्ठ विद्यार्थी रहे सम्यक आदिआदि.’
और फिर तुम्हारा वह खिलखिलाना. अब तो लग रहा था चुलबुली दुष्ट पुडि़या को अपने पौकेट में भर कर दौड़ जाऊं, उसे बिस्तर पर डाल कर उसे खूब चूमूं और पूछूं कि क्यों, और करेगी शैतानी? फिर वह कुछ और शरारत करे इस से पहले मैं उस के होंठों को अपने होंठों में कस लूं.
इतना कुछ सोचता हुआ मैं शांत, झेंपता सा खड़ा, इतना ही कह पाया, ‘अपना मोबाइल नंबर दोगी?’
तुम ने जल्द अपना मोबाइल नंबर दिया और बस पर चढ़ गईं. फर्स्ट ईयर की स्टूडैंट थीं, गर्ल्स होस्टल में अत्यधिक अनुशासन था. सम झता था मैं कि तुम से मिलना आसान नहीं. दिन बीतते गए, तुम उतावली होती गईं.
यद्यपि हमारी व्यक्तिगत मुलाकातें कम ही होतीं लेकिन फोन के माध्यम से हम लगातार करीब आते रहे. नौकरी के सिलसिले में इंदौर में था मैं. वहां रह कर तुम्हारे शरारती अंदाज, चुलबुलेपन और बचपने को बहुत मिस करता. मैं भोपाल अपने घर आता तो था, लेकिन तुम्हारा होस्टल के नियम तोड़ मु झ से छिप कर मिलना मु झे गवारा न होता और तुम छटपटा जातीं.
अपने घर में बड़ा भाई होने की वजह से छोटी बहन की शादी का जिम्मा भी मु झ पर ही था पर तुम सम झना कहां चाहती थीं, मनाली. बारबार तुम्हारा बेचैन हो जाना मेरे धीरज को भी कम कर जाता. मेरी बहन को अभी शादी की जल्दी नहीं थी जबकि तुम हमारे मिलन को ले कर मु झ पर लगातार दबाव बनाती रहीं.
आखिर में पिताजी और मां के आज्ञाकारी पुत्र ने घर में अपनी मजबूरी बता ही दी. दरअसल, बहन अभी पीएचडी करना चाह रही थी, उसे आगे कई प्रतियोगी परीक्षाएं भी देनी थीं. पारंपरिक परिवार में बड़ा भाई होने के नाते विवाहयोग्य बहन का ब्याह किए बिना खुद की शादी करने की सोचना मुश्किल था. बेटे को विजातीय लड़की से प्रेम है और स्वयं आगे बढ़ कर खुद की शादी की बात कर रहा है, जबकि छोटी बहन विवाहयोग्य है. परिवार की मर्यादा को मैं ने ठेस पहुंचाई तो मातापिता दोनों ने ही मु झ से बोलचाल बंद कर दी.
उधर स्नातक का तीसरा वर्ष शुरू होते ही तुम्हारे घरवाले तुम्हारे लिए योग्य वर की तलाश में लग गए. शायद उन्हें तुम्हारे प्रेम में होने की भनक लग गई थी. खबर सुनाई तुम ने तो मैं बेचैन हो गया था. मगर एक ब्राह्मण कन्या को चाहने मात्र से अपनी पत्नी कैसे बना लूं, जबकि समाज ने जाति के कट्टर कानूनों के कांटे बिछा रखे थे मेरी राह पर. तुम्हारे फाइनल रिजल्ट के बाद तुम्हारे साथ तुम्हारे घर लखनऊ गया था, मनाली. नौकरी में ऊंचा पद, महीने की मोटी तनख्वाह, रहने को उम्दा फ्लैट पूरी जानकारी के बाद तुम्हारे घरवालों के जातिकार्ड कुछ हद तक अपना असर खोने लगे. तुम्हारी मां को मेरी स्मार्ट पर्सनैलिटी भी खूब जंच गई थी. बाद में, एक लंबी बातचीत की प्रणाली से हम एक हो गए.
22 साल की लड़की को जब मैं घर लाया तब मैं 28 का था. तुम पलपल जिद ठानतीं, शौक पालतीं, रोतींठुमकतीं, अपनी मरजी से जीना चाहतीं, मैं तुम्हारे नखरों को अपने प्यार से खूब सिर चढ़ाता. इन सब के बीच बैंक की ओर से अच्छी कालोनी में दिए गए फ्लैट को मैं एक सुकूनभरे घर की शक्ल देने में जुटा रहा.
तुम अपने परिवार की इकलौती बेटी, नाजनखरे में पलीं, मैं अपने घर
का बड़ा, घर के प्रति जिम्मेदारी मु झ में ग्लानि की भावना भरती लेकिन तुम्हें पाने का सुख मु झे सबकुछ भूल कर रहने को बाध्य करता.
बहन की शादी पक्की हुई तो खबर मिलते ही मु झे जाना पड़ा. तुम से शादी में आने को कितना मनुहार किया था मैं ने. तुम मेरे घरवालों से कुछ चिढ़ी सी थीं, न आईं. सोचा था, शादी के खुशगवार माहौल में तुम्हें उन के बीच ले जा कर रख दूंगा तो तुम्हारी प्यारी सूरत और भोली व नटखट अदा पर मां वारी जाएंगी लेकिन तुम ने यह होने न दिया. बहन की शादी की रस्म निभाते हुए तुम्हें ले कर पहली बार मन में एक कचोट सी हुई.
इतने प्यार और सम्मान के बाद भी तुम ने मेरी गुजारिश न मानी.
रात के 10 बज रहे थे, ब्याह का अनुष्ठान चल ही रहा था कि गाइनीकोलौजिस्ट डा. अनुजा का इंदौर से फोन आ गया.
तुम वहां एबौर्शन के लिए गई थीं. डाक्टर ने पति की रजामंदी चाही तो तुम ने कहा कि उन्हें कोई आपत्ति नहीं?
इतना बड़ा झूठ तुम ने उस दिन क्यों बोला था, मनाली? मैं तो जानता भी नहीं था कि तुम मेरे प्यार की निशानी अपने गर्भ में पाल रही हो. वह तो भला हो डा. अनुजा का जिन्होंने तुम से फौर्म भरवा कर उस में मेरा नंबर भी लिखवा लिया था और दूसरे दिन तुम्हें आने को कह कर मु झे नंबर मिला लिया था. प्रेम से सींची नई कोंपल को तुम मसल देना चाह रही थीं, आखिर क्यों?
मैं बहन के विदा होते ही तुरंत इंदौर के लिए निकल पड़ा. सभी से इतना ही कहा कि तुम्हारी तबीयत खराब हो गई है.
उस दिन भी डाक्टर ने तुम्हें किसी बहाने से लौटा दिया था, ताकि मैं आ कर भलाबुरा सम झ लूं.
डाक्टर से जानकारी मिली कि तुम अच्छेभले बच्चे की मां बनने वाली हो. 5वें महीने का गर्भ अब शुरू होने ही वाला है. मैं तो खुशी से चौगुना हो गया था लेकिन पल में तुम्हारी बात सोच मैं फूटे गुब्बारे की तरह मायूस भी हो गया.
बिना किसी ठोस कारण के जो मां बच्चे की पहली हलचल को मसल देना चाहती है, क्या उसे बच्चे से कभी प्रेम हो पाएगा?
मैं परेशान था बहुत लेकिन मैं ने धीरज नहीं खोया. तुम्हें रात को पुचकारते हुए पूछा कि तुम ने ऐसा कदम क्यों उठाया तो तुम झल्ला उठीं.
‘मैं अभी बच्चे का नखरा नहीं उठा सकती. बच्चे पालना मेरे वश की
बात नहीं.’
‘मैं पाल दूंगा, उसे मारने का सोच भी कैसे लिया?’
‘बच्चा मेरे पेट में है, मेरा हक है.’
‘मनाली, मैं तुम्हें न कानून बताना चाहता हूं, न सामाजिक न्याय और रीतिनीति की बातें. इतना तो कहना बनता ही है कि मेरे प्यार की निशानी का तुम्हारी जिंदगी में कोई मोल न ठहरा. यह बच्चा हमारे रिश्ते को कितना मजबूत करेगा, यह तुम सम झ नहीं पाईं?’
‘ये हम दोनों के रिश्ते के बीच मुसीबत बन कर आ रहा है.’
‘क्या कहती हो तुम?’ मैं चीख उठा था. अपने बच्चे के बारे में ऐसी मनहूस बातें मैं दोबारा सुनना नहीं चाहता. तुम मां हो या?’
मेरी अनकही बातों का मर्म सम झ तुम मु झ से दूर हट गईं. फिर कहा, ‘देखा, इसी की वजह से इतना कलह है. मैं स्तब्ध था. यह कैसी लड़की से पाला पड़ा है मु झे.’
मैंने सम झाने की नाकाम कोशिश की.
‘मनाली, 23 की हो तुम. बच्चा स्वस्थ है और तुम भी. मैं भी इस स्थिति में हूं कि बच्चे को अच्छी परवरिश दे पाऊं. तो फिर, क्यों न लाएं इस बच्चे को?’
‘अभीअभी तो हमारी शादी हुई है.
3 साल कितनी तड़पी हूं तुम्हें पाने के लिए. अभी तो मेरे सारे सपने, सारे शौक अधूरे हैं. बच्चा आ गया तो मैं जिम्मेदारी से बंध जाऊंगी. तुम मु झ पर अपना कानून थोपोगे. यह नहीं खाना, यहां नहीं जाना आदि. नहीं, मैं अभी बच्चा नहीं चाहती.’’
बड़ा बेबस सा मैं तुम्हारे हर नखरे उठाने की गारंटी देते हुए आखिर एक शर्त पर राजी कर ही लिया तुम्हें कि बच्चे पालने की जिम्मेदारी मैं उठा लूंगा.
अब तो हर पल हर सपना मेरा तुम्हारे पेट के इर्दगिर्द ही इकट्ठा हो गया था पर तुम तो जैसे एक मशीन बन गई थीं बच्चे के लिए. कई बार तुम्हारी बेतुकी बातें मु झे हैरान कर देतीं. याद है, तुम्हें मेला घुमाने ले गया था. वहां झूले देख कर तुम मचल उठीं. मैं ने मना किया तो बच्चे को कोसने लगीं. बाहरी खानों पर कुछ पाबंदी लगाई मैं ने तो बच्चे का दोष. प्रतिपल तुम्हें जब भी एहतियात के लिए कहता, तुम बच्चे को कोसने लगतीं. मैं अंदर तक आहत था. बच्चे के आने की सोच मैं घबरा जाता.
मेरी नन्ही परी किशा आ चुकी थी. साल कुछ बीत चुके थे. अब वह स्कूल जाने लगी थी. डाइपर से स्कूल ड्रैस तक का सफर निभाते हुए मैं पूरी तरह ‘मां’ बन चुका था.
बच्ची के साथ जितना वक्त मु झे देना पड़ता उतना वक्त तुम मु झ से कटीकटी रहतीं.
टीनऐज की बच्ची को मां की जरूरत थी, मनाली. मेरे अनुरोध पर तुम उसे कुछ मदद तो कर देतीं लेकिन मां के रूप में तुम ने उसे सिर्फ खी झ, ईर्ष्या और अवसाद ही दिए. किशा भी अब तक सम झ चुकी थी कि तुम प्रतिद्वंद्वी बन कर हरपल उस के अस्तित्व को चुनौती दे रही थीं. सच कहूं तो अगर मैं अपने विशुद्ध स्नेह से उसे न सींचता, वह मानसिक रूप से बीमार हो जाती.
करवट ले कर सोने की कोशिश में छटपटाता सा मैं बिस्तर पर उठ बैठा. सोचा, पानी पी आऊं. 2 साल से तुम ने अपना कमरा भी मु झ से अलग कर लिया था. बेटी के प्रति मेरा जुड़ाव तुम्हें इतना नागवार गुजरा कि किशा के आने के बाद से ही तुम ने मु झ से कोफ्तभरे रिश्ते बना लिए.
रात के 12 बज रहे थे. बेटी के कमरे में झांका तो वह लैपटौप पर कुछ कर रही थी. मैं गया तो उस ने मु झे पास बुला लिया.
‘‘बेटा, सोईं नहीं?’’ मैं ने पूछा.
‘‘कैसे सोऊं, पापा. जब तक आप दोनों को फिर से एक न कर दूं?’’
‘‘यह अब क्या संभव होगा?’’
‘‘सब संभव कर दूंगी. यह देखिए, पापा.’’
‘‘यह तो वीडियो है, मनाली मंच पर गाना गा रही है. यह उस के पास वही आदमी है जिस के साथ मनाली आजकल खूब घूमफिर रही है.’’
‘‘हां, अर्णव आचार्य. संगीत नृत्य अकादमी का हैड.’’
‘‘कितनी बेशर्मी से मनाली के साथ डांस कर रहा है.’’
‘‘पापा, शांत हो जाइए, सब सही होने की दिशा में है. मेरे साथ पढ़ती है अरुणा. उसे गाने में दिलचस्पी थी. मैं ने सु झाया था कि वह इस आचार्य की अकादमी जौइन कर ले, उन के काफी प्रोग्राम होते हैं, उसे लाइमलाइट मिलेगा.
‘‘उस ने वहां जौइन किया तो मैं ने मां के साथ उसे फेसबुक फ्रैंड होने की सलाह दी. उस ने मानी मेरी बात और उसी ने सारे वीडियोऔडियो मु झे भेजे हैं. मम्मा हम दोनों को तो अपने साथ रखेंगी नहीं. उन का भला तो हमें ही देखना है न, पापा.’’
‘‘कुछ सीखे, करे वह, यह तो मैं हमेशा ही चाहता रहा लेकिन उस ने अर्थ का अनर्थ कर दिया.’’
‘‘आप को सम झती हूं, पापा. मगर मम्मा कुछ सीखनेकरने को बाहर नहीं जाती, वह बाहर हमें सबक सिखाने, खुद की ईर्ष्या की आग का इलाज ढूंढ़ने जाती है, वह हमें जला कर खुद शांति पाना चाहती है. और अब, मां के दिमागी फितूर को भांप कर मौके का फायदा उठाना चाह रहा है अर्णव आचार्य.
‘‘बदले की आग में जलते हुए उस ने बाहर खुशियां ढूंढ़नी चाहीं, उस ने आचार्य को सच्चा हमदर्द मान आप के प्रति अपनी भावनाओं को उस से कहती रही तो आचार्य ने उसे मूर्ख जान मोहरा बना लिया. वह कहते हैं न, पापा, सावन के अंधे को हर ओर हरा ही दिखाई देता है. एक आप को छोड़ कर सारी दुनिया मां को हरी लगने लगी थी. पर पापा, अब मम्मा के साथ कुछ भी सही नहीं है.
‘‘फेसबुक में भी वह कई बार धोखा शब्द का जिक्र कर चुकी है. खैर, कुछ तहकीकात बाकी है, आप को जल्द ही अच्छी खबर सुनाऊंगी.’’
‘‘सो जा बेटा, मु झे सब्जबाग मत दिखा.’’
‘‘आप सो जाओ, पापा. मैं सोचती
हूं कुछ.’’
मैं सोने तो चला गया लेकिन क्या सचमुच सो पाया. तुम प्रोग्राम के नाम पर आएदिन इस आचार्य के साथ बाहर चली जाती हो, अलग से घूमतीफिरती हो, क्या कभी सम झ नहीं पातीं, मनाली, कि एक 36 साल का शादीशुदा आदमी 43 साल की महिला को इतनी तवज्जुह क्यों दे रहा है. मानता हूं, तुम अब भी रम्या हो, काम्या हो, सुगठित और आर्कषक हो, लेकिन टेलैंट और सौंदर्य की कमी उस अकादमी में है भी तो नहीं.
सुबह पता चला किशा ने कालेज से
छुट्टी ली है. शायद अब वह इस समस्या को सुल झाने को प्रतिबद्ध है. किशा तुम से बात करने गई है. मेरी सारी इंद्रियां तुम्हारे कमरे में जा कर एकत्रित हो गई हैं. मैं तुम दोनों की बातों पर अपना ध्यान केंद्रित करता हूं.
‘‘मम्मा, तुम मु झे बेशक अपना न सम झो लेकिन मैं तुम्हारी बेटी हूं, इस सच को आप झुठला नहीं सकतीं. इसी सच के नाते मैं सम झ सकती हूं कि आप तकलीफ में हो.’’
‘‘कोई तकलीफ नहीं, तुम जाओ.’’
‘‘मम्मा, कल आप अपना सोने का हार बेच आईं.’’
मु झ से रहा नहीं गया, मनाली. मैं तुम्हारे कमरे के सामने आ खड़ा हुआ, दरवाजे की ओट से तुम्हारा सफेद पड़ा चेहरा आसानी से देखता रहा. तुम अब भी मानने को तैयार न थीं.
‘‘कौन सा हार? बकवास मत करो.’’
‘‘मम्मा, आप ने हार बेचा और
30 हजार रुपए अर्णव को दिए.’’
‘‘एक थप्पड़ लगाऊंगी,’’ मनाली चीख पड़ी.
‘‘औडियो सुनो मम्मा, किसी ने रिकौर्ड कर के भेजा है मु झे.
‘‘अर्णव के कंधे पर सिर रख कर आप ने हमारे प्यार के नीड़ को तोड़ने की भरपूर कोशिश की, सम झ ही नहीं पाईं कि आप को इतनी ऐयाशी करवा रहा है, होटलों में रख कर आप के पीछे इतना खर्च कर रहा है, आप को मंच दे रहा है तो सबकुछ निस्वार्थ? और आप ने अपनी कोख की बेटी से भी निस्वार्थ प्रेम नहीं किया? औडियो में आप दोनों की बात साफ है, सुनो.’’
मनाली, मेरे कानों में गरम लोहे पिघल रहे थे. आचार्य साफ कह रहा था-
‘मु झे खुश करो, शरीर से, दिल से, पैसे से वरना भुगतने को तैयार रहो.’
वह तुम से अभी 3 लाख रुपए की मांग कर रहा था. तुम्हारे गिड़गिड़ाने की आवाजें मेरे दिल पर सौसौ हथौड़े चला रही थीं.
‘‘अब भी कुछ बाकी है क्या, मम्मा?’’ किशा की तेज गंभीर आवाज सुनाई पड़ी.
ममता के अनुशासन तले तुम्हारा कद कितना छोटा हो गया था, मनाली. तुम सिर झुका कर उदास बैठी थीं. जैसे तुम वापस आना चाहती थीं लेकिन मैं तैयार नहीं था, मनाली.
‘‘अब आज से घर से निकलना बंद है, मम्मा आप का.’’
‘‘अर्णव मानेगा नहीं.’’
‘‘उसे मनाना मु झे अच्छी तरह आता है. आप, बस, घर में रहो, मम्मा. वरना, मु झे सख्ती करनी पड़ेगी.’’
किशा आज हमारे घर की बागडोर संभाल वाकई शक्तिस्वरूपा बन गई थी. औफिस तो चला गया था मैं, शाम को किशा को फोन किया तो सारे पासे पलट चुके थे.
किशा अपने 5 लड़के दोस्तों और
3 सहेलियों के साथ आचार्य के अकादमी पहुंची थी. वह भी तब जब सुबह वह वहां अकेला था. सभी ने मिल कर आचार्य के खिलाफ इकट्ठे सूबूतों को उसे दिखा कर धमकाया कि मनालीजी को दोबारा कौन्टैक्ट करने की कोशिश की तो हड्डीपसली तो तोड़ कर रखी ही जाएगी, सारी बातें पुलिस की क्राइम ब्रांच को पहुंचेंगी. पूरा अकादमी को चौपट कर
दिया जाएगा.’’
डराने वाले डरते भी कम नहीं. तीनपांच लाख रुपए के लिए कोई अपनी इज्जत और व्यापार दांव पर नहीं लगाता.
आचार्य की पूंछ सिकुड़ चुकी थी.
मैं बेहद खुश सा घर आ रहा था कि किशा का फिर फोन आ गया और उस ने बाहर कौफी शौप में तुरंत मु झ से मिलने की बात कही.
कुछ देर बाद हम कौफी शौप में बैठे बातें कर रहे थे. बल्कि किशा ही बात कर रही थी. उस ने कहा, ‘‘मेरी मम्मा ऐसी ही हैं, बेहद अपरिपक्व, वे आप से इतना प्यार करती हैं कि अपनी बेटी से भी आप को सा झा नहीं कर पातीं. गुस्सा न हो कर उसे सम झने की कोशिश करो, पापा. उन के बचपने से ही तो आप ने प्यार किया था, अब बदलाव की अपेक्षा क्यों? न बदलें, रहेंगी तो मेरी मम्मा और आप का प्यार ही न? वादा करो, आज से ठीक वैसा ही वक्त बिताओगे मम्मा के साथ जैसा मेरे जन्म से पहले बिताया करते थे. मैं अब बड़ी हो गई हूं, पापा. अब मु झे भी अपनी जिंदगी खुद सम झने दो. आप मम्मा पर ध्यान दो.’’
मनाली, मैं अभिभूत था. ये हमारी वही बच्ची थी जिसे ममता का आंचल न मिला था.
घर आया तो देखा तुम अपने बिस्तर पर उदास सोई पड़ी थीं. हम दोनों बापबेटी जा कर तुम्हारे अगलबगल सो गए. तुम अंचभित थीं. रो पड़ीं तुम. फिर कहा, ‘‘मु झे माफ कर दो तुम दोनों.’’
किशा ने मेरी ओर देखा, उस की आंखों में मेरे लिए जैसे आदेश था. मैं ने मनाली के गले में अपनी बांहें डाल कर कहा, ‘‘ये लो डाली बेडि़यां, अब कभी हिलना भी मत.’’
आंखों में पुरानी चमक लिए तुम ने मेरी ओर देखा. मैं ने तुम्हारे ललाट पर अपने होंठों की निशानी रखी. किशा ने भी तुरंत वही किया, जो मैं ने किया. फिर वह खिलखिला पड़ी. तुम भावविभोर हो किशा से लिपट गईं. कितने सब्र के बाद आज मु झे यह दृश्य दिखा था.
सांझ ढलने को थी. अंधियारा फैलने से पहले बिटिया ने बाती बन कर हमारा जग रोशन कर दिया था. Hindi Story.





