Indian Politics: बिहार विधानसभा चुनाव जैसेजैसे वक्त गुजरता जा रहा है वैसेवैसे उबाऊ भी होते जा रहे हैं उन का रोमांच झाग की तरह साबित हो रहा है तो इस की एक बड़ी वजह गठबंधन वाली राजनीति भी है जिस में विपरीत विचारधारा वाले दल भी दूध में पानी की तरह मिल गए लगते हैं लेकिन हकीकत में वे इमल्शन हो गए हैं जिन के घटक कभी भी अलग हो जाते हैं और कभी भी घुल मिल जाते हैं.
इमल्सिफिकेशन वह प्रक्रिया है जिस में दो अमिश्रणीय तरल पदार्थ जैसे तेल और पानी को मिला कर एक मिश्रण जिसे इमल्शन कहा जाता है बनाते हैं. यह मिश्रण तब तक स्थिर रहता है जब तक एक इमाल्सिफायर मौजूद हो जो दोनों तरल पदार्थों को एक दूसरे में फैलने और अलग न होने में मदद करता है.
गठबंधनीय राजनीति का हाल भी कुछ ऐसा ही है जिस में दो या उस से ज्यादा दल मिल कर एक इमल्शन यानी गठबंधन बनाते हैं जो तभी तक स्थिर रहता है जब तक कुर्सी या सत्ता नाम का इमाल्सिफायर मौजूद हो. जो दोनों दलों को एक दूसरे में विलय होने और अलग न होने देने में मदद करता है.
एमल्सिफायर एक ऐसा पदार्थ होता है जो तेल और पानी के बीच की सतह के तनाव को कम करता है. इस के अणुओं का एक हिस्सा पानी के प्रति आकर्षित होता है जिसे हाइड्रोफिलिक कहते हैं और दूसरा जिसे हाइड्रोफोबिक कहते हैं तेल के प्रति आकर्षित होता है जिस से दोनों तरल पदार्थ जुड़े रहते हैं.
गठबंधन बनाम इमल्सिफिकेशन
इस रासायनिक क्रिया की एक और दिलचस्प बात यह भी है कि इमल्शन अस्थाई होता है और समय के साथ तेल व पानी अलग हो जाते हैं. इमाल्सिफायर इस अलगाव को रोकता है जिस से मिश्रण स्थिर रहता है. बिहार की राजनीति और विधानसभा चुनाव की केमेस्ट्री के मद्देनजर देखें तो हो यही राजनैतिक क्रिया रही है जिसे दोनों गठबंधनों से सहज समझा जा सकता है. एनडीए में चार दल भाजपा, जदयू, हम और एलजेपी हैं. पिछले चुनाव में एलजेपी ने अपने दम पर चुनाव लड़ा था. अब वह वापस एनडीए में है. तब एनडीए को बहुमत से महज 3 ही ज्यादा यानी 125 सीटें मिली थी.
तब महागठबंधन को 110 सीट मिलीं थीं 8 सीटें इधरउधर बंट गई थी. इस इमल्शन के घटक थे आरजेडी, कांग्रेस और तमाम वामदल जिन्होंने 16 सीट जीतकर सभी को चौंका दिया था इन में से भी 12 सीट अकेले सीपीआई माले के खाते में गई थीं.
अब इस चुनाव में समीकरणथोड़े बदले हैं. पिछले चुनाव में 4 सीट जीतने वाली विकासशील इंसान पार्टी ( वीआईपी ) एनडीए का साथ छोड़ कर महागठबंधन के साथ लड़ रहा है.
यानी साफ है कि गठबंधनों में शामिल दलों का कोई इमान धरम नहीं होता. सभी का मकसद स्वार्थ और मंजिल कुर्सी होती है जिस के लिए वे अपने उसूल बेच भी देते हैं और गांठ में पैसा हो तो दूसरे के खरीद भी लेते हैं. ऐसे में इन से जनता के भले की उम्मीद करना एक बेकार की बात है. बतौर उदहारण या मिसाल देखें तो एनडीए में एलजेपी के चिराग पासवान और हम के जीतन राम माझी की मूल विचारधारा दलित हिमायती और मनुवाद विरोधी रही है. इस के बाद भी वे बनियों और ब्राह्मणों की कही जाने वाली भाजपा की गोद में क्यों बैठे हैं. जाहिर है सत्ता के लिए.
उधर भाजपा के हाल भी जुदा नहीं उसे कुर्सी हासिल करने के लिए दलित वोटों की दरकार रहती है इसलिए वह इन दोनों की मुहताज रहती है.
बिहार के लिहाज से देखें तो इस समीकरण के तहत होता यह है कि चिराग पासवान और जीतनराम माझी के दलित वोट उसे मिल जाते हैं और इन दोनों को सवर्ण वोट उन्हें मिल जाते हैं. जद यू को अपने कोर वोट कुर्मी समुदाय के अलावा छुटपुट वोट मुसलमानों और दलितों के भी मिलते रहते हैं. उसे भी अपनी सीटों पर भाजपा के सवर्ण वोटों का टेका मिल जाता है, एवज में कुर्मी वोट थोक में भाजपा को मिल जाते हैं. इस चुनाव में ऐसा होगा ऐसा लग नहीं रहा क्योंकि मुसलमानों, दलितों और अति पिछड़े समुदायों का मोहभंग नीतिश कुमार से हुआ है. इस से घाटा दोनों दलों का ही होगा.
महागठबंधन इस पैमाने पर कुछ बेहतर स्थिति में है क्योंकि कांग्रेस और आरजेडी का वोट बेंक लगभग एक सा है. यादव, मुसलमान और दलित वोटों की उसे आस है. एक हकीकत यह भी है कि आरजेडी का वोट बैंक कभी कांग्रेस का ही हुआ करता था. वामपंथी दलों को अति पिछड़ों और महादलितों के वोट मिलते रहे हैं जिन्हें कांग्रेस से ज्यादा परहेज नहीं जिस का और आरजेडी का वोट उसे मिलने का ही नतीजा था कि वह 2020 में उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन ये दल कर पाए थे.
मूल स्वभाव के साइड इफैक्ट्स
इमल्सिफिकेशन में तेल और पानी यों ही नहीं मिल जाते हैं. इस के लिए तेल और पानी को जोर से हिलाया और फेंटा जाता है जिस से इन दोनों में से किसी एक की बूंदें दूसरे में फैल जाती हैं. लेकिन इन दोनों के गुणधर्म नहीं बदलते मतलब गठबंधनो में शामिल दलों का मूल स्वभाव कायम रहता है. जैसे भाजपा का हिंदुत्व का एजेंडा मनुवाद और मंदिर नीति दलित दलों के साथ चुनाव लड़ने से खत्म नहीं हो जाते हां इन पर बिहार में वह ज्यादा ढिंढोरा नहीं पीटती. इसी तरह जीतनराम माझी और चिराग पासवान भाजपा की इन नीतियों से इत्तफाक न रखते हुए भी महज सत्ता के लिए भाजपा के पिछलग्गू बने रहते हैं.
इन दोनों नेताओं में एक बड़ा फर्क यह है कि चिराग धीरेधीरे भाजपा की संगत के चलते पूजापाठ और सार्वजनिक रूप से कर्मकांड करने लगे हैं. लेकिन कभी वे मनुवाद का समर्थन कर पाएंगे ऐसा लगता नहीं क्योंकि एलजेपी की बुनियाद ही मनुवाद और कर्मकांडों के विरोध की रही है जो कि पार्टी के संस्थापक चिराग के पिता रामविलास पासवान ने राखी थी, अगर चिराग इस से भागेंगे तो उन का वोटर उन से भागने लगेगा.
पिछले चुनाव में ऐसा हुआ भी था जब उन की पार्टी एक सीट पर सिमट गई थी जब कि उस ने 117 पर अपने उम्मीदवार उतारे थे.
जीतनराम माझी खुलेआम भाजपा राम मंदिर और मनुवाद की खिलाफत करते रहे हैं. लेकिन ऐसा वे तभी करते हैं जब सत्ता से बाहर होते हैं. चुनाव आते ही वे चोला बदल लेते हैं जो नरेंद्र मोदी उन्हें मनुवाद के पालक पोषक लगते हैं वे चुनाव आते ही यानी इमल्सिफिकेशन की प्रक्रिया शुरू होते ही उन के सर्वमान्य और पूज्यनीय नेता हो जाते हैं.
इस बार वे 15 सीट मांग रहे थे लेकिन भाजपा ने उन्हें 6 ही दीं. इस पर उन के तेवर उग्र नहीं हुए उलटे ढीले पड़ गए क्योंकि दो सीटों से उन के परिवारजन लड़ रहे हैं. जनता और दलित हितों के मुकाबले उन्हें परिवार का हित दिख रहा है सो उन्होंने नरेन्द्र मोदी में आस्था व्यक्त कर दी. जिस से अपने वोटर को यह समझाया जा सके कि हम ने भाजपा के गुणधर्म यानी उस की विचारधारा नहीं अपना ली है.
पौलिटिकल इम्ल्सीफिकेशन कोलाइडल केमेस्ट्री के वास्तविक इमल्सिफिकेशन की तरह ही अस्थाई होता है. यह पूरे देश सहित कई बार बिहार से भी साबित होता रहा है. 2015 के चुनाव में जद यू, आरजेडी और कांग्रेस एक छतरी के नीचे खड़े भाजपाई बारिश का मुकाबला करने यों ही मजबूर नहीं हो गए थे. उस वक्त में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता सर चढ़कर बोल रही थी जिस से देश में ममता बनर्जी के बाद कोई चिढ़ा हुआ था तो वे नीतिश कुमार थे जो मोदी को पानी पी पीकर कोसते रहते थे.
आरजेडी और कांग्रेस के सहयोग से उन्होंने मोदी की लोकप्रियता के रथ को थाम लिया था. तब इस ग्रांड एलाइंस को 177 सीटें मिली थीं.
इस के बाद नीतिश भी मोदी के मुरीद होते चले गए और अपनी सहूलियत और खुदगर्जी के मुताबिक इधरउधर होते रहे. इस से उन की विश्वसनीयता इतनी घटी कि 2020 के चुनाव में जद यू 43 सीटों पर सिमट गई और भाजपा छलांग लगा कर 74 पर पहुंच गई.
इस की एक वजह यह भी थी कि कुछ नहीं बल्कि कई सीटों पर सवर्ण वोटों ने जद यू को वोट नहीं किया दूसरी तरफ जद यू के वोटर ने ईमानदारी से भाजपा को वोट किया अब जद यू का वोटर इस चुनाव में इस का बदला निकाले तो बात कतई हैरानी की नहीं होगी.
उबल नहीं रही जनता
भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियां है जब कि उन की सहयोगी पार्टियां क्षेत्रीय पार्टियां हैं जिन के मुखिया मूलतः वोट शिफ्टिंग का काम करते हैं और उस का कमीशन इन से वसूलते हैं. सौदेबाजी और सियासी माहौल के मुताबिक यह कमीशन कम ज्यादा होता रहता है. इस इमल्सिफिकेशन में हैरत और दिलचस्पी की एक बड़ी बात या सवाल जिस का जवाब अच्छेअच्छे सियासी पंडितों और विश्लेषकों के पास नहीं वह यह है कि आखिर दलित तबका जो दो बड़े वोट शिफ्टर्स पासवान और माझी के पास है भाजपा को आसानी से वोट क्यों कर देता है. यह लगभग 6 फीसदी है जो भाजपा को तकरीबन 40 सीटों पर फायदा पहुंचाता है.
महागठबंधन के वोटर में इतनी ईमानदारी और कमिटमेंट दोनों नहीं दिखते. पिछला नतीजा देख कहा जा सकता है कि कांग्रेस का सवर्ण वोट जो 20 – 25 फीसदी के लगभग है उस ने आरजेडी को वोट नहीं किया क्योंकि लालू यादव भी माझी की तरह मनुवाद के घोर विरोधी हैं इसी तरह आरजेडी के पूरे यादव वोट कांग्रेस को नहीं मिलते दिखते, अगर ऐसा होता तो कांग्रेस 2020 के चुनाव में 19 सीटों पर सिमट कर नहीं रह जाती.
ऐसा इसलिए कि कहीं तेल की मात्रा ज्यादा थी तो कहीं पानी की कई बार वोटर ने इन को ढंग से परखा यानी फेंटा ही नहीं क्योंकि उस की दिलचस्पी चुनावों से खत्म हो चली थी. ऐसा ही इस बार भी होता दिख रहा है तो इस का सीधा सा मतलब है कि जनता किसी भी मुद्दे को ले कर उबल नहीं रही है न राम मंदिर पर और न ही संविधान या हिंदूमुसलिम पर ( इसे जनता ने लोकसभा का विषय मान लिया है ) हां आंशिक असर युवा बेरोजगारी और महंगाई का दिखता है लेकिन उस के चलते कितने फीसदी वोट इधरउधर लुढ़केंगे यह तो 14 नवंबर को पता चलेगा जब नतीजे घोषित हो रहे होंगे जिन से साबित यह भी होगा कि इम्लसिफिकेशन यानी गठबंधन वाली राजनीति का भविष्य क्या है. Indian Politics





