Couple Goal: पति और पत्नी का रिश्ता निहायत ही लोकतांत्रिक होता है जिस में किसी एक की भी मनमानी रिश्ते में खटास घोल सकती है और उसे तोड़ भी सकती है. अब वह दौर गया जब पत्नियां पति की मनमानी को खामोशी से हजम कर लिया करती थीं. शिक्षित, जागरूक और आत्मनिर्भर होने के चलते वे पति की मनमानियां ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं.

पति की मनमानियों को पत्नियां कब तक बर्दाश्त करें? इस सवाल का सीधा सा और सटीक जवाब तो यह है कि तब तक कि जब तक सब्र जवाब न दे जाए और जीना मुहाल न हो जाए लेकिन इस के बाद क्या? इस सवाल का भी सीधा और सटीक जवाब यह है कि जब सब्र जवाब देने लगे और पति लाख कोशिशों के बाद भी मनमानी से बाज न आए तो तलाक ही इकलौता रास्ता बचता है पर यह आखिरी विकल्प उसी हालत में कहा जा सकता है जब यह तय या साबित हो जाए कि क्या वाकई मनमानी नाकाबिले बर्दाश्त थी और क्या पति को समझने-बुझने के सारे तौर-तरीके आजमाए जा चुके थे.

कुछ उदाहरणों से यह बात समझें कि मनमाने पति को कब तक बर्दाश्त करें, जिस से यह समस्या हल हो सकती है.

अब से कुछ दिनों पहले आगरा का एक दिलचस्प मामला देशभर में सुर्खियों में रहा था. एक महिला ने इस आधार पर तलाक चाहा था कि उसका पति नहाता नहीं है, जिस से उस के शरीर से काफी गंदी बदबू आती है. इस शादी को महज 40 दिन ही हुए थे कि महिला ने आगरा के परिवार परामर्श केंद्र में शिकायत की. उस का रोना यह था कि पति महीने में केवल एक या दो बार ही नहाता है जिस से उस में से असहनीय दुर्गंध आती है. जवाब में पति ने यह नहीं कहा कि वह रोज नहाता है बल्कि यह सफाई दी कि वह रोज शरीर पर गंगाजल छिड़कता है जिस से उस की शुद्धि हो जाती है. इस के बाद भी पत्नी के कहने पर वह एक महीने में 6 बार नहाया है.

मामला अभी अदालत में चल रहा है और उस का फैसला जो भी आए लेकिन यह सच है कि गंदे व मैले-कुचैले पति के साथ जिंदगी काटना किसी भी पत्नी के लिए आसान नहीं, खासतौर से उस वक्त जब वह इस बारे में सुनने और समझने को तैयार ही न हो. आगरा वाले पति ने परिवार परामर्श केंद्र के अधिकारियों की समझाइश पर यह वादा किया था कि वह रोज नहाएगा लेकिन पत्नी ने उस के वादे पर एतबार नहीं किया.

यह ठीक है कि पति की मनमानी का यह मामला लगभग अपवाद था लेकिन इस में भी कोई शक नहीं कि बड़े पैमाने पर पत्नियां पतियों की जिन मनमानियों से परेशान रहती हैं उन में से गंदगी की हिस्सेदारी भी कम नहीं, मसलन कई पति वाकई हफ्तों तक नहीं नहाते, दाढ़ी नहीं बनाते, बगलों के, प्राइवेट पार्ट के आसपास के बाल नहीं हटाते और कई दिनों तक कपड़े नहीं बदलते. इस से पत्नियां तंग आ जाती हैं लेकिन सभी तलाक के लिए अदालत का दरवाजा नहीं खटखटातीं बल्कि अधिकतर पति को सुधारने की कोशिश करती हैं, अपनी घर-गृहस्थी बनाए रखने के लिए उसे साफसफाई के लिए प्रेरित करती हैं.

लेकिन भोपाल की 23 वर्षीया आरती (बदला नाम) इस में कामयाब नहीं हो पाई तो आगरा वाली पत्नी की तरह अदालत जा पहुंची. यह दिलचस्प मामला अप्रैल 2021 का है. आरती की शिकायत थी कि अरविंद (बदला नाम) सप्ताह-भर नहाता नहीं और न ही शेव करता. शरीर से बदबू उठती है तो वह खूब सा परफ्यूम छिड़क लेता है.

मामला राज्य महिला आयोग भी पहुंचा था जहां आयोग ने अरविंद को हिदायत दी थी कि वह 2 महीने में अपनी ये गंदी आदतें सुधारे और साफ-सफाई से रहना शुरू करे लेकिन जिस ने अपनी 25 साला जिंदगी में अपने घर वालों और दोस्तों की न सुनी हो वह भला कैसे आयोग के निर्देशों पर अमल करता.

भोपाल फैमिली कोर्ट के जज आर एन चंडोक ने आरती की परेशानी समझते पति-पत्नी को 6 महीने अलग-अलग रहने का हुक्म, जिसे कानून की भाषा में कूलिंग पीरियड कहते हैं, सुनाते इस के बाद तलाक की डिग्री पारित करने की बात कही. दरअसल, यह आरती और अरविंद को सलाह और सहूलियत दोनों थे कि वे हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 13 (बी) के तहत परस्पर सहमति से तलाक ले लें और ऐसा ही हुआ भी कि अदालत ने इस आदत को पत्नी के प्रति मानसिक क्रूरता माना लेकिन सुधार की पहल के तहत कोर्ट ने अरविंद को सुधरने का मौका भी दिया था.

क्रूरता है गंदगी

हालांकि साफ-सफाई सीधे-सीधे तलाक का आधार कानूनन नहीं होती लेकिन अगर यह पत्नी का जीना दूभर कर दे तो इसे मानसिक क्रूरता की श्रेणी में गिना जा सकता है क्योंकि इस से पत्नी मानसिक व भावनात्मक रूप से प्रभावित होती है. इस पर हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 13 (1) (आई-ए) के तहत पति-पत्नी एक-दूसरे पर मुकदमा दायर कर सकते हैं. इस में गंदगी से रहने के अलावा गाली-गलौच, बार-बार बेइज्जत करना, मानसिक तनाव देना, आत्मसम्मान व प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाना और अनदेखी करना आदि शामिल हैं, यानी वे कृत्य जो सीधे-सीधे हिंसा और शारीरिक क्रूरता की श्रेणी में न आते हों जैसे मारपीट, दहेज के लिए शारीरिक प्रताड़ना व घरेलू हिंसा वगैरह. इन के लिए अलग से भी कई कानून हैं.

गंदगी सहित दूसरे छोटे-मोटे घरेलू विवाद, जिसमें पति अपनी मरजी और जिद के चलते पत्नी की एक नहीं सुनता, से भारत ही क्या पूरी दुनिया के कपल्स की बड़ी समस्या है. खासतौर से पत्नी के लिए जो पति की मनमानी सिर्फ इसलिए बरदाश्त करती रहती है कि घर न टूटे और बच्चे अगर हों तो उन्हें अलगाव का तनाव व दर्द न झेलना पड़े.

धार्मिक मनमानी

42 वर्षीया शुचि एक प्राइमरी स्कूल में टीचर हैं. अब से कोई 14 साल पहले उन की शादी सौरभ से हुई थी जो उन्हीं की तरह सरकारी स्कूल में टीचर थे. सौरभ व उस के घर वाले अच्छे थे और शुचि जल्द ही ससुराल में घुलमिल गई थी. उसे वहां कोई तकलीफ नहीं थी लेकिन शादी के कोई डेढ़ साल बाद सौरभ के कोई कुलगुरु घर आए तो परिवार में उत्सव सा माहौल था. शुचि ने सौरभ व सास-ससुर के मुंह से सुन रखा था कि गुरुजी बहुत पहुंचे हुए संत हैं, हिमालय पर कहीं रहते हैं और उन की उम्र 400 साल के करीब है. वे हर 100 साल में चोला यानी रूपरंग बदलते रहते हैं, पांच पीढ़ियों से उन की हमारे परिवार पर असीम कृपा और आशीर्वाद है.

शुचि खुद आस्तिक और आस्थावान थी लेकिन इस हद तक नहीं कि कुछ भी उलटासुलटा सच मान ले. घर में किसी की भावना को ठेस न पहुंचे, इसलिए उस ने ज्यादा तर्क-कुतर्क गुरुजी की बाबत नहीं किए और घर वालों के साथ उन के स्वागत-सत्कार की तैयारियों में जुट गई. दिक्कत तब खड़ी हो गई जब पूरे परिवार ने गुरुजी के पांव छुए पर शुचि ने नहीं छुए क्योंकि उस का मन गंवारा नहीं कर रहा था. सास और सौरभ ने कई बार इशारा किया लेकिन शुचि ने पैर नहीं छुए तो बाद में सौरभ बिफर पड़ा कि पैर तो तुम्हें गुरुजी के छूने पड़ेंगे, वे हमारे भगवान हैं, पूजनीय हैं वगैरह-वगैरह.

गुरुजी तो चले गए लेकिन सौरभ और शुचि को बिना मांगे कलह का आशीर्वाद दे गए. नाराज सौरभ ने शुचि से बातचीत करना लगभग बंद कर दिया और बात-बात में उस पर ताने कसने लगा. सास-ससुर भी खफा थे, इसलिए बेटे को कुछ नहीं बोले. शुचि ने समझदार पत्नी की तरह कई बार सौरभ से माफी मांगते हुए कहा कि मैं आपके पैर छू सकती हूं, ससुर जी के तो हर तीज-त्योहार पर छूती ही हूं क्योंकि वे पिता तुल्य हैं. उन के प्रति मेरे मन में स्वाभाविक आदर-सम्मान है लेकिन किसी गुरुजी के पैर मैं नहीं छू सकती.

पर सौरभ ने अपना रवैया नहीं बदला तो शुचि दुखी मन से मायके आ गई और पेरेंट्स को सब कुछ सच-सच बता दिया. उन्होंने बेटी का साथ दिया इस उम्मीद के साथ कि आज नहीं तो कल बात बन जाएगी लेकिन 2 साल बीतने के बाद भी बात नहीं बनी तो शुचि ने वकील के जरिए तलाक का नोटिस भिजवा दिया. जवाब में सास-ससुर खुद आए और शुचि सहित उसके मां-बाप से बात की. शुचि ने वही बातें दोहराईं जो वह सौरभ से कह चुकी थी.

कुछ दिनों की मीटिंग्स के बाद हालांकि बात बन गई लेकिन शुचि अपनी इस जिद पर कायम रही कि वह किसी गुरुजी-शुरुजी के पैर नहीं छुएगी. ‘‘शादी के बाद का लंबा वक्त मैं ने उन गुरुजी के चलते तनाव में गुजारा,’’ शुचि बताती है, ‘‘इस घटना को अब 12 साल हो चुके हैं. हम पति-पत्नी के संबंध सहज होने में लंबा वक्त लग गया. अब सबकुछ ठीक है पर इस दौरान मैं ने महसूस किया है कि पत्नी को पति की बेजा मनमानी के सामने सिर नहीं झकाना चाहिए लेकिन इस के लिए जरूरी है कि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो और स्वाभिमानी हो.’’

धार्मिक मनमानियों के ज्यादातर मामलों में पत्नियां पति के सामने घुटने टेक देती हैं और जिंदगी-भर गिल्ट और घुटन से भरी रहती

हैं लेकिन आत्मसम्मानी और स्वाभिमानी पत्नियां कोर्ट जाने में नहीं हिचकतीं. ऐसे ही एक मामले (अरुण के आर बनाम अरुणिमा टी एस) में केरल हाईकोर्ट की जस्टिस देवन रामचंद्रन और जस्टिस एम बी स्नेहलता की बेंच ने पत्नी के पक्ष में फैसला सुनाते तलाक की डिक्री इसी साल 25 मार्च को पारित की थी.

इस मामले में शादी 23 अक्टूबर, 2016 को हुई थी. पति निहायत ही धार्मिक व्यक्ति था. पत्नी की शिकायत के मुताबिक वह अंधविश्वासी था और नियमित मंदिर व आश्रम जाता था और पत्नी को भी ऐसा करने को मजबूर करता था जो शुचि की तरह केरल की इस पत्नी को भी गवारा न था. पेशे से आयुर्वेद इस डाक्टर पत्नी ने तलाक के अपने वाद-पत्र में दूसरे कुछ आरोपों के साथ यह उल्लेख भी किया था कि पति बच्चा भी पैदा नहीं करना चाहता और पारिवारिक जीवन में भी उदासीन है. उस ने 2019 में तलाक की अर्जी दी जिस पर फैमिली कोर्ट ने माना कि यह मानसिक क्रूरता है, इसलिए तलाक की डिक्री दी जाती है.

क्या था आदेश?

पति इस आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट गया लेकिन उसे कोई राहत वहां से भी नहीं मिली. केरल हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेश को यथावत रखते यह टिप्पणी की कि आत्मिक या धार्मिक मान्यताओं को जबरन थोपना मानसिक क्रूरता है. एक वैवाहिक संबंध किसी साथी को दूसरे की व्यक्तिगत धार्मिक मान्यताओं को जबरन स्वीकार करने का अधिकार नहीं देता.

लेकिन अगर कोई इसे न केवल स्वीकृति देता बल्कि थोपता भी है तो वह धर्म है जिस का एक और नाम और काम स्त्री शोषण रखा जा सकता है. पौराणिक ग्रंथ इस तरह के किस्से-कहानियों से भरे पडेत हैं कि पति जैसा भी हो, हर हाल में पत्नी को उस से निभाना चाहिए वरना उसे पाप लगेगा, वह विधवा हो जाएगी वगैरह-वगैरह. सनातनियों का संविधान ‘मनुस्मृति’ तो ऐसी बेहूदी बातों के बारे में कुछ यों कहता है-

पति चाहे झूठा हो, कठोर हो, लालची हो, बीमार हो, नपुंसक हो या निहसंतान हो स्त्री को फिर भी उसे त्यागना नहीं चाहिए. (अध्याय 5, श्लोक 151)

ऐसे ढेरों आदेशों को पुख्ता करती हुई कहानियों की भी भरमार है कि पत्नियां पतियों की मनमानी सहती रहीं लेकिन उसे छोड़ कर सुकून की जिंदगी जीने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं. एक कहानी की मानें तो पत्नी को पति से सहवास करने का आग्रह करने का भी अधिकार नहीं था. यह कहानी कश्यप ऋषि और दिति की है. दिति चाहती थी कि वह ऐसे बेटों की मां बने जो देवताओं के राजा इंद्र को हरा पाएं. एक शाम उस ने कश्यप से सहवास का आग्रह किया तो उन्होंने यह कहते इनकार कर दिया कि यह संध्याकाल है, देवताओं के पूजा-पाठ का समय है. अगर इस वक्त हम सहवास करेंगे तो तुम्हारे गर्भ से असुर टाइप के पुत्र पैदा होंगे.

दिति का मन उसी वक्त सहवास करने का कर रहा था, इसलिए वह भी जिद पर अड़ गई (बकौल कहानी की सीख, यह इच्छा नहीं बल्कि कामवासना, क्रोध और असंयम था जो औरतों को शोभा नहीं देता) लिहाजा कश्यप ऋषि तैयार हो गए लेकिन उनके इस संसर्ग से पैदा हुए 2 राक्षस जिन के नाम हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप पड़े. इस कहानी का सीधा सा मैसेज यह है कि पत्नी इच्छा होने पर अगर पति से सहवास के लिए कहेगी तो संतान अपराधी किस्म की पैदा होगी. इतना ही नहीं, अगर पत्नी किसी गैर मर्द को नजर उठा कर देख भी ले तो पति तिलमिला कर उसे श्राप दे देते थे जिस से दूसरी औरतें जमीन में नजरें गड़ाए चलें. परशुराम का नाम अब हर कोई जानता है क्योंकि उन की जयंती बड़ी धूमधाम से मनाई जाने लगी है. इन्हीं परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि थे और मां रेणुका थीं जिन के पतिव्रत और पति सेवा की मिसाल दी जाती थी कि वे कच्ची मिट्टी का घड़ा बनाती हैं तो वह गिर कर टूटता नहीं.

एक दिन रेणुका ने नदी में एक गंधर्व को अपनी पत्नियों के साथ जलक्रीड़ा यानी नदी में रोमांस करते देखा तो उन का मन भी सैक्स के लिए मचल उठा जो निहायत ही स्वाभाविक बात है. इधर, अपनी कुटिया में बैठे जमदग्नि ने अपने योगबल की ताकत से देख लिया रेणुका का मन पतिव्रत से डोल रहा है जिस के चलते वह पापिन हो गई है तो वे गुस्सा हो उठे और अपने बेटों को हुक्म दिया कि वे मां का सिर कलम कर दें. बड़े बेटे ने मां की हत्या करने से मना कर दिया तो जमदग्नि ने उन्हें नपुंसक होने का श्राप दे दिया. उन के सबसे छोटे बेटे परशुराम ने मां की हत्या कर दी. इस कहानी में छिपा मैसेज समझें तो-

बिना किसी वजह के पत्नी पर शक करने का हक पति को था.

उसे घोर और कठोर सजा देने का अधिकार भी मिला हुआ था.

बेटों की नजर में उस ने मां को व्यभिचारिणी ठहरा दिया.

अपना हुक्म न मानने वाले बेटों को नामर्द बना डाला.

और सजा भी मौत की बेटे से ही दिलवाई.

घरेलू हिंसा को स्थापित करती ऐसी सैकड़ों कहानियां पत्नियों को डराने की मंशा से गढ़ी गई हैं जिस से कि वे पति की मनमानी सहते उस की गुलामी ढोती रहें वरना उन का अंजाम रेणुका और दिति जैसा होगा.

कब बर्दाश्त करें मनमानी?

पति की मनमानी अगर मामूली या स्वभावगत है तो उसे बर्दाश्त किया जा सकता है और समझाया व सुधारा भी जा सकता है. हर समझदार पत्नी की पहली कोशिश यही होनी चाहिए. छोटी-मोटी मनमानियों पर बवाल मचाना या अदालत, थाने जाना ठीक नहीं. आए-दिन ऐसे मामले मीडिया की सुर्खियां बनते रहते हैं कि पति ने आइसक्रीम या चाट खिलाने से इनकार किया तो पत्नी थाने और परिवार परामर्श केंद्र जा पहुंची. अब इस में मनमानी कौन कर रहा था पति या पत्नी, यह कतई सोचने की बात नहीं.

यह और ऐसी कई रोज-मर्राई बातें मनमानी की श्रेणी में नहीं रखी जा सकतीं जिन से पत्नी के आत्मसम्मान और स्वाभिमान को ठेस न पहुंच रही हो. अगर पति नहाने के बाद गीला टौवेल बिस्तर पर पटक देता हो और पत्नी के बार-बार कहने पर भी न माने तो कलह-विवाद या कोर्ट-थाना इस का इलाज नहीं, इलाज है टौवेल को बिस्तर पर ही पड़े रहने देना या फिर खुद उठा कर सुखाने के लिए टांग देना. मुमकिन है इस से कभी पति को अक्ल आए और न भी आए तो यह कोई रोने-झंकने वाली बात या मुद्दा नहीं.

मैला-कुचैला पति, ज्यादा धार्मिक और अंधविश्वासी पति, नशैला पति अगर न माने तो कोर्ट जाना हर्ज की बात नहीं क्योंकि बर्दाश्त करने की भी हदें होती हैं और पत्नी कब तक ऐसे पतियों के साथ निभाए. यह तो पत्नी को ही तय करना होता है कि घुटन-भरी जिंदगी से बेहतर है आजादी, जिस में किसी का कोई दबाव न हो. Couple Goal.

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