Indian Music Director : पंचम दा उर्फ आर डी बर्मन म्यूजिक इंडस्ट्री का ऐसा नाम है जो मिटाए नहीं मिट सकता. उन्होंने अपने दौर में म्यूजिक फ्यूजन में जो कमाल कर दिखाया वह मिसाल बन गया. आज भी नए संगीतकार उस रचनात्मकता को छू लेना अपनी सफलता मान लेते हैं.
27 जून, 1939 को कोलकाता में जन्मे मशहूर संगीतकार व गायक राहुल देव बर्मन की यह 86वीं जयंती है. 4 जनवरी, 1994 की सुबह उन का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था पर आर डी बर्मन उर्फ पंचम दा आज भी हर पीढ़ी के संगीतप्रेमी के दिलों में जिंदा हैं. पंचम दा एक नाम है, मगर उन की कई पहचान हैं. कोई उन्हें फिल्म संगीत में क्रांति लाने वाला बताता है तो कुछ लोग उन्हें फ्यूजन संगीत की शुरुआत करने का श्रेय देते हैं.
एक तबका राहुल देव बर्मन को भारतीय संगीत को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाने वाला मानता है. 60 और 70 के दशक में जन्मे लोग संगीतकार के रूप में उन की एक अलग पहचान थी. कुछ लोग उन्हें एक ऐसे साहित्यिक चोरी करने वाले के रूप में भी देखते हैं जिस ने उन के ज्यादातर हिट नंबरों की नकल की है. फिर चाहे वह फिल्म ‘शोले’ का गीत ‘महबूबा महबूबा’ हो, जिस में पंचम दा ने रमेश सिप्पी के कहने पर पारंपरिक साइप्रस गीत ‘से यू लव मी…’ (डेमिस रूसो द्वारा रचित और उन्हीं द्वारा गाया गया) की धुन का उपयोग किया था.
विदेशी गानों से प्रेरित बर्मन के गानों के अन्य उदाहरण हैं- ‘भूत बंगला’ का ‘आओ ट्विस्ट करें…’ (चबी चेकर का ‘लेट्स ट्विस्ट अगेन’), ‘तुम से मिल के…’ (लियो सेयर का ‘व्हेन आई नीड यू’), ‘जिंदगी मिल के बिताएंगे…’ (पोल अंका का ‘द लौन्गेस्ट डे’), ‘जहां तेरी ये नजर है…’ (फारसी कलाकार जिया अताबी का ‘हेले माली’) और ‘दिलबर मेरे…’ (एलेक्जेंड्रा का ‘जिगुनरजंगे’) आदि.
संगीत की समझ रखने वाले इसे उन की किसी भी धुन की चोरी नहीं मानते, बल्कि प्रेरणा मानते हैं. पंचम दा के साथ 14 साल तक बांसुरी बजा चुके बांसुरीवादक पंडित रोनू मजूमदार कहते हैं, ‘‘पंचम दा ने कभी चोरी नहीं की. वे प्रेरणा लेते थे और बेहतर धुन या गाना बना कर दिखाया. मैं ने कई मौलिक गीतों को सुना है और पाया कि उन से बेहतर रचना तो पंचम दा ने की.’’
कुछ लोग कहते हैं कि राहुल देव बर्मन उर्फ पंचम दा हिंदी सिनेमा के ऐसे फनकार थे जिन्होंने संगीत की परिभाषा को बदल कर रख दिया था. उच्च कोटि के संगीतकार के तौर पर उन्होंने इंडस्ट्री में अहम योगदान दिया था. कुछ लोग उन्हें ‘संगीत का बाइबिल’ कहा करते थे.
कुछ लोग तो पंचम दा को वैज्ञानिक मानते थे. कोई कुछ भी कहे पर सब से बड़ा सच तो यह भी है कि पंचम दा ने अकेले ही हिंदुस्तानी शास्त्रीय और पश्चिमी धुनों के बीच की खाई को पाटने में कामयाबी हासिल की. उन्होंने दोनों की बेहतरीन धुनों को मिला कर अनूठी कृतियां बनाईं. यही वजह है कि पंचम दा के देहांत के 31 वर्षों बाद भी हर उम्र के लोग उन के गीत गुनगुनाते हुए मिल जाते हैं.
कैसे पड़ा ‘पंचम दा’ नाम
राहुल देव बर्मन के पिता सचिन देव बर्मन हिंदी फिल्मों के मशहूर गायक व संगीतकार और मां मीरा देवी मशहूर गीतकार थीं. शुरू में, उन की नानी ने उन्हें टुब्लू नाम दिया था, हालांकि बाद में उन्हें पंचम नाम से जाना जाने लगा. कुछ कहानियों के अनुसार, उन्हें पंचम नाम इसलिए दिया गया क्योंकि बचपन में जब भी वे रोते थे तो यह संगीत संकेतन के सी मेजर स्केल पर 5वें स्वर (पा), जी नोट में सुनाई देता था.
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में पंचम 5वें स्केल डिग्री का नाम है. (षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यमा, पंचम, धैवत, निशाद). एक अन्य सिद्धांत कहता है कि बच्चे का नाम पंचम इसलिए रखा गया क्योंकि वह पांच अलगअलग स्वरों में रो सकता था. एक और संस्करण यह है कि जब अनुभवी भारतीय अभिनेता अशोक कुमार ने नवजात राहुल को बारबार पा शब्दांश का उच्चारण करते देखा तो उन्होंने लड़के का नाम पंचम रख दिया.
बर्मन ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पश्चिम बंगाल में कोलकाता के बल्लीगंज सरकारी हाईस्कूल से प्राप्त की पर हाईस्कूल में फेल हो गए तो पिता ने उन्हें मुंबई बुला लिया. महज 9 वर्ष की उम्र में आर डी बर्मन ने अपना पहला गीत ‘ऐ मेरी टोपी पलट के आ…’ की धुन बनाई, जिसे उन के पिता ने 1956 में रिलीज फिल्म ‘फंटूश’ में इस्तेमाल किया था. ‘सिर जो तेरा चकराए…’ गीत की धुन भी उन्होंने एक बच्चे के रूप में तैयार की थी. उन के पिता ने इसे 1957 में रिलीज हुई गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ के साउंडट्रैक में शामिल किया. यही नहीं, उन्होंने 1958 में फिल्म ‘सोलहवां साल’ में देव आनंद के गीत ‘है अपना दिल तो आवारा,..’ के लिए हारमोनिका बजाया था.
पंचम दा ने अपने पिता सचिन देव बर्मन के साथ कई फिल्में कीं. कई फिल्मों की धुनें, मुखड़ा व अंतरा बनाने के बावजूद पंचम दा को सहायक संगीतकार का ही क्रैडिट मिला. इन फिल्मों में ‘चलती का नाम गाड़ी’ (1958), ‘कागज के फूल’ (1959), ‘तेरे घर के सामने’ (1963), ‘बंदिनी’ (1963), ‘जिद्दी’ (1964), ‘गाइड’ (1965) और ‘तीन देवियां’ (1965) शामिल हैं. बर्मन ने अपने पिता की हिट रचना ‘है अपना दिल तो आवारा…’ के लिए माउथ और्गन भी बजाया, जिसे फिल्म ‘सोलहवां साल’ में दिखाया गया था और हेमंत मुखोपाध्याय ने इस गाने को गाया था.
1959 में पंचम दा को बतौर संगीतकार पहली फिल्म गुरुदत्त के सहायक निरंजन द्वारा निर्देशित फिल्म ‘राज’ मिली थी, जोकि कभी पूरी नहीं हुई. गुरुदत्त और वहीदा रहमान अभिनीत इस फिल्म के गीत शैलेंद्र ने लिखे थे. आर डी बर्मन ने फिल्म के लिए 2 गाने रिकौर्ड किए, इस से पहले कि यह बंद हो जाए. पहला गाना गीता दत्त और आशा भोंसले ने गाया था और दूसरे गाने को शमशाद बेगम ने.
स्वतंत्र संगीत निर्देशक के रूप में बर्मन की पहली फिल्म ‘छोटे नवाब’ 1961 में रिलीज हुई थी. इस फिल्म से जुड़ने का भी अजीब किस्सा है. हिंदी फिल्मों के तत्कालीन लोकप्रिय हास्य अभिनेता महमूद ने फिल्म ‘छोटे नवाब’ का निर्माण करने का जब फैसला किया तो वे संगीतकार के रूप में सचिन देव बर्मन को लेना चाहते थे. महमूद अपना यह प्रस्ताव ले कर जब सचिन देव बर्मन के स्टूडियो पहुंचे तो वहीं राहुल देव बर्मन तबला बजा रहे थे. महमूद ने फिल्म ‘छोटे नवाब’ में संगीत देने के लिए सचिन देव बर्मन से बात की तो सचिन देव बर्मन ने इनकार कर दिया.
महमूद ने उसी वक्त वहां पर तबला बजा रहे राहुल देव बर्मन को ‘छोटे नवाब’ के लिए संगीत निर्देशक के रूप में साइन कर लिया. बाद में बर्मन ने महमूद के साथ घनिष्ठ संबंध विकसित किए और महमूद की फिल्म ‘भूत बंगला’ में पंचम दा ने कैमियो भी किया यानी कि बतौर अभिनेता छोटी भूमिका भी निभाई. इस के बाद महमूद की फिल्म ‘प्यार का मौसम’ में भी छोटा किरदार निभाया.
पंचम दा ने उस दौर में यादगार व कर्णप्रिय गीत बनाए जब गानों की प्रोग्रामिंग में कंप्यूटर की मदद नहीं ली जाती थी, यानी, उस वक्त ‘की बोर्ड’ नहीं हुआ करता था.
राहुल देव बर्मन को बतौर संगीतकार पहचान दिलाने का श्रेय 1966 में बनी फिल्म ‘तीसरी मंजिल’ को जाता है. मजेदार बात यह है कि इस फिल्म से पंचम दा का जुड़ना समय का खेल था. फिल्म के नायक शम्मी कपूर थे और शम्मी कपूर की हर फिल्म में संगीतकार शंकर जयकिशन ही हुआ करते थे. ‘तीसरी कसम’ के समय शंकर जयकिशन व्यस्त थे, तब युवा संगीतकार के रूप में राहुल देव बर्मन को इस फिल्म से जुड़ने का अवसर मिला था. ‘ओ हसीना जुल्फों वाली’, ‘आजा आजा मैं हूं प्यार तेरा,’ और ‘ओ मेरे सोना रे…’ जैसे गानों के साथ यह शम्मी और आर डी दोनों के कैरियर की सब से बड़ी म्यूजिकल हिट फिल्मों में से एक साबित हुई.
1971 में रिलीज फिल्म ‘अमर प्रेम’ ने राहुल देव बर्मन को संगीत का बादशाह बना दिया था. नासिर हुसैन की ज्यादातर फिल्मों को पंचम दा ने संगीत से संवारा. लेकिन पंचम दा ने सब से अधिक फिल्में निर्देशक रमेश बहल के साथ कीं, जिन की कंपनी ‘रोज मूवीज’ काफी चर्चित कंपनी रही है. पंचम दा का रमेश बहल के साथ 1970 में रिलीज हुई फिल्म ‘द ट्रेन’ से रिश्ता जुड़ा था. फिर दर्जनों फिल्मों तक जारी रहा.
फिल्म ‘चलती का नाम गाड़ी’ के बाद पंचम दा का किशोर कुमार के साथ अटूट रिश्ता बन गया और जिस फिल्म के संगीतकार पंचम दा हों, उस में गायक किशोर कुमार का होना एक अनिवार्य शर्त सी हो गई थी. उन दिनों कहा जाता था कि किशोर कुमार का पुनरुद्धार पंचम दा के संगीत निर्देशन में ही हुआ.
पंचम दा के संगीत की खासियत
आर डी बर्मन के संगीत की अपनी खासियत रही है. पहली खासियत यह रही कि उन्होंने अपने संगीत में पश्चिमी वाद्ययंत्रों का जम कर प्रयोग किया. उन्होंने सैक्सोफोन, तुरही, इलैक्ट्रिक गिटार और ड्रम जैसे पाश्चात्य वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल किया, जिस से उन की रचनाओं में एक नई, ताजा और समकालीन ध्वनि आई तो वहीं उन के संगीत की कोई एक शैली नहीं है. उन्होंने रौक, फंक और डिस्को जैसी शैलियों को भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ मिला कर एक नया और आकर्षक मिश्रित संगीत बनाया.
उन की गिनती प्रयोगशील संगीतकार के रूप में होती है क्योंकि उन्होंने कई प्रयोग किए. उन का मानना था कि एक शास्त्रीय गायक के ही समकक्ष कमर्शियल गायक होता है. इसी को साबित करने के लिए 1981 में उन्होंने फिल्म ‘कुदरत’ के गीत ‘हमें तुम से प्यार कितना…’ का आधा हिस्सा किशोर कुमार से और आधा हिस्सा शास्त्रीय गायिका परवीन सुल्ताना से गंवा कर हंगामा बरपा दिया था.
पंचम दा ऐसे संगीतकार थे जिन्होंने वाद्ययंत्रों और अभिनव व्यवस्थाओं को शामिल कर के संगीत में निडरता से क्षितिज की खोज की. उन्होंने संगीत रचने के लिए विभिन्न प्रकार की ध्वनियों का उपयोग किया, जैसे कि गिलास, सैंडपेपर आदि. जी हां, जब कानों में गिलास के टकराने की आवाज सुनाई देती है तो ‘यादों की बारात’ फिल्म का गाना ‘चुरा लिया है तुम ने…’ याद आता है. इस गाने की संगीत धुन तैयार करने के लिए पंचम दा ने गिलास का इस्तेमाल किया था. इसी तरह फिल्म ‘जमाने को दिखाना है’ के गीत ‘होगा तुम से प्यारा कौन…’ में ट्रेन की आवाज लाने के लिए आर डी बर्मन ने सैंडपेपर का इस्तेमाल किया था. सैंडपेपर को आपस में रगड़ने से रेलगाड़ी की आवाज निकलती है.
फिल्म ‘खुशबू’ के गीत ‘ओ मांझी रे…’ में तो उन्हें गांव वाला फील लाने के लिए आटाचक्की से आने वाली आवाज चाहिए थी. इस के लिए पंचम दा ने सोडावाटर की 2 बोतलें मंगवाईं. इन में से वे एकएक कर के हर बोतल से थोड़ा सा सोडा खाली करते और उस में हवा फूंकते. जिस से ‘थुप ठुक, थुप ठुक’ की आवाज निकलती थी. पंचम दा ने इसी तरह का प्रयोग ‘शोले’ फिल्म में भी किया. इस फिल्म के ‘महबूबा महबूबा…’ गाने में भी आधी भरी बोतल में फूंक मार कर गाने का बैकग्राउंड म्यूजिक तैयार किया गया. इस के अलावा ‘किताब’ फिल्म के एक गाने में पंचम दा ने अनोखा जुगाड़ बिठाया.
गुलजार साहब का लिखा गाना ‘मास्टरजी की चिट्ठी आई…’ बच्चों पर फिल्माया जाना था. अब बच्चे गाना गाते हुए स्कूल बैंच को ही पीटेंगे. इस को ध्यान में रखते हुए पंचम दा ने अपने और्केस्ट्रा मंग स्कूल बैंच को बजवाया. म्यूजिक में इस तरह के अनोखे प्रयोगों की वजह से पंचम दा को संगीत का वैज्ञानिक कहा जाने लगा.
बेहद कम लोग जानते होंगे कि पंचम दा ‘माउथ और्गन’ बहुत अच्छा बजाते थे. उन्होंने अपनी इस कला का प्रदर्शन 1958 में रिलीज हुई फिल्म ‘सोलहवां साल’ के गाने ‘है अपना दिल तो आवारा…’ में किया था. देव आनंद के साथ सफर कर रहा शख्स जो माउथ और्गन बजा रहा है, दरअसल, वह धुन पंचम दा ने दी थी.
प्रयोगशील संगीतकार पंचम दा
आर डी बर्मन एक क्रिएटिव जीनियस थे. नित नए प्रयोग करते रहते थे. एक दिन उन्होंने बियर बोटल में ब्लो करते हुए ‘फू’ की आवाज कर एक साउंड रिकौर्ड किया, जिसे फिल्म ‘शोले’ के गीत ‘महबूबा…’ में उपयोग किया गया. इस गाने की शुरुआत इसी बियर साउंड से होती है.
फिल्म ‘ कारवां’ के गीत ‘मोनिका ओ डार्लिंग पिया अब तो तू आ जा…’ के अलावा ‘गोरिया कहां तेरा देश…’, ‘दिलबर दिल से प्यारे…’ सहित कई लोकप्रिय गीत हैं. ताहिर हुसैन के लिए नासिर हुसैन ने इस फिल्म का निर्देशन किया था. संगीतकार आर डी बर्मन ने आशा भोंसले के साथ ‘मोनिका ओ डार्लिंग…’ गाया भी था.
फिल्म ‘द ग्रेट गैम्बलर’ का गीत ‘दो लफ्जों की कहानी…’ को आशा भोंसले ने गाया है. कुछ लाइनें अमिताभ बच्चन की हैं. इस गाने में एक नहीं, तीन अंतरे हैं. पहला अंतरा शुरू होने से पहले गिटार का एक स्ट्रोक सुनाई देता है. दूसरा अंतरा शुरू होने से पहले गिटार के दो स्ट्रोक और तीसरा अंतरा शुरू होने से पहले गिटार के तीन स्ट्रोक सुनाई देते हैं.
तीन गानों को मिला कर तैयार किया गया गाना ‘एक चतुर नार…’ था. इस गाने में तीन पुराने गानों का मिश्रण है. पहला गाना एक चतुर नार कर के शृंगार है, जिसे अशोक कुमार ने फिल्म ‘झुला’ में गाया था. फिर गाने में एक लाइन है, ‘देखी तेरी चतुराई’, इस लाइन की धुन विष्णु पंत द्वारा स्वरबद्ध भजन ‘वन चले रघुराई’ से प्रेरित है. एक और लाइन है, ‘ काला रे जा रे जा रे’ यह लता मंगेशकर द्वारा स्वरबद्ध गाना ‘चंदा रे जा रे जा रे…’ से प्रेरित है. इसी गाने में किशोर कुमार चिल्लाते हैं, ‘ओ टेढ़े सीधे हो जा रे…’ तो सच यह है कि पहले यह लाइन गाने का हिस्सा नहीं थी पर किशोर कुमार ने गाना गाते समय अपने मन से जोड़ दिया और पंचम दा ने इसे रख लिया.
कैरियर में उतारचढ़ाव
यों तो अपने प्रयोगशील संगीत के दम पर पंचम दा ने 3 दशकों तक बौलीवुड में धाक जमाए रखी लेकिन 90 का दशक आतेआते पंचम का संगीत थोड़ा कमजोर पड़ने लगा. उस की कई वजहें थीं. सब से बड़ी वजह अमिताभ बच्चन का उदय होना रहा. अमिताभ बच्चन अपनी फिल्मों में बहुत ही हलकाफुलका संगीत चाहते थे. पंचम दा का संगीत अमिताभ बच्चन के किरदारों के साथ मेल नहीं खा रहा था तो वहीं जतिन ललित, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल सहित कई संगीतकार उभर रहे थे. परिणामतया पंचम दा की लगातार 27 फिल्मों का गीत-संगीत असफल हो गया.
पर पंचम दा के कैरियर की शानदार पारी अभी बाकी थी पर तभी 1986 में उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा. इस मुसीबत के समय उन के सब से पुराने साथी नासिर हुसैन ने भी उन का साथ छोड़ दिया. नासिर हुसैन के बेटे मंसूर खान ने जब 1987 में फिल्म ‘कयामत से कयामत तक’ की शुरुआत की तो पंचम दा को पूरा यकीन था कि इस फिल्म का संगीत तो वही देंगे. मगर मंसूर खान ने संगीतकार के तौर पर लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को चुना. इस से उन्हें बड़ा धक्का लगा.
सुभाष घई ने अपनी फिल्म ‘राम लखन’ के एनाउंसमैंट के साथ ही संगीतकार के रूप में पंचम दा का नाम घोषित किया. मगर बिना पंचम दा को कोई सूचना दिए उन की जगह लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को ‘रामलखन’ का संगीतकार बना दिया.
इस से वे अंदर तक टूट गए. फिर वे लगातार शराब व सिगरेट में डूबे रहने लगे. कहा जाता है कि वे हर दिन शाम को अपने साथ बैठ कर दारू पीने के लिए लोगों को घूस दिया करते थे. हालात इतने बदतर हो गए थे कि हर संगीत कंपनी ने पंचम दा से दूरी बना ली थी.
पर एक बार फिर समय ने अपना रंग दिखाया और विधु विनोद चोपड़ा ने उन्हें अपनी फिल्‘1942 अ लव स्टोरी’ के संगीत निर्देशन का औफर दिया. उन्होंने इस फिल्म को बेहतरीन म्यूजिक दे कर साबित कर दिया कि उन से बेहतर संगीतकार न हुआ है, न होगा. समय की बेरहमी देखिए कि पंचम दा अपनी आखिरी कामयाबी को देखने से पहले ही दुनिया से रुखसत हो गए.
4 जनवरी, 1994 को दिल की बीमारी के चलते पंचम दा का निधन हो गया. जबकि ‘1942 अ लव स्टोरी’ 15 जुलाई, 1994 को रिलीज हुई और इस फिल्म के ‘कुछ न कहो…’, ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा…’ सहित सभी गीत सुपरडुपर हिट हुए.
कुमार सानू कहते हैं, ‘‘पंचम दा से मेरी पहली मुलाकात 1981 में हुई थी. उन के साथ कई फिल्मों में कभी एक लाइन तो कभी आधी लाइन गाने का मौका मिलता. लेकिन जब ‘1942 अ लव स्टोरी’ फिल्म का ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा…’ गाना रिकौर्ड हो रहा था. तब पंचम दा मेरे पास आ कर बोले, ‘इस गाने में बहुत सारे एकजैसे शब्द हैं. उन सभी को तुम अलगअलग तरह से गा दोगे तो यह गाना हिट हो जाएगा.’’
फिल्म ‘1942 अ लव स्टोरी’ के संगीत निर्देशन के लिए पंचम दा को 1995 का फिल्मफेयर दिया गया. इस के अलावा पंचम दा को 2 और फिल्मों ‘सनम तेरी कसम’ (1983) और ‘मासूम’ (1984) के संगीत निर्देशन के लिए फिल्मफेयर से नवाजा गया. बतौर संगीत निर्देशक पंचम दा ने 331 फिल्मों को संगीत दिया. इन में से 292 हिंदी फिल्में थीं. साल 2013 में संगीत के क्षेत्र में पंचम दा की उपलब्धि को देखते हुए भारत सरकार ने उन पर डाक टिकट जारी किया था.