Iran-Israel War : इजराइल व ईरान के बीच फिलहाल युद्धविराम हो गया है मगर कब तक यह विराम रहेगा, कहा नहीं जा सकता क्योंकि इस की मूल वजह सदियों से चले आ रहे धार्मिक विवाद हैं जो सुलझाए नहीं सुलझ रहे. युद्ध की आग सुलगाने और बुझाने में डोनाल्ड ट्रंप की भूमिका रही है. उन्होंने उन आशंकाओं को हवा दी जो दुनिया को एक और विश्व युद्ध के मुहाने पर खड़ा कर सकती थीं.

इजराइल व ईरान के बीच चली जंग में जिस बात की आशंका थी, वह सच हो गई है. कहने को दोनों देशों के बीच सीजफायर हो गया है मगर इस युद्ध ने पूरी दुनिया को चिंता में डाल दिया. दुनिया का बाप बन कर सब के फैसले कराने की झक पालने वाला अमेरिका आखिर दो बिल्लियों की लड़ाई में कूद ही पड़ा. ईरान के 3 परमाणु केंद्रों- फोर्डो, नतांज और इस्फहान पर हमला कर उस ने इस बात का ढिंढोरा पीटना शुरू कर दिया कि उस ने ईरान को बड़ा नुकसान पहुंचाया है, मगर उस के इस कदम ने पूरी दुनिया के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है, यह उसे नजर नहीं आ रहा. क्या ईरान इतना कमजोर है कि वह अमेरिकी हमले से डर कर चुप हो जाए. नहीं. कतर में अमेरिकी एयरबेस को तबाह कर उस ने जवाब दे दिया. ईरान ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि उस के न्यूक्लियर प्रोग्राम पर हमला हुआ तो वह अमेरिका के रीजन टारगेट्स को निशाना बनाएगा और उस ने यह कर दिखाया भी.

इस हमले के बाद अमेरिका में ट्रंप के खिलाफ ही आवाज बुलंद होने लगी है. ट्रंप को भी शायद इस बात का एहसास हो गया कि ईरान को कमतर समझ कर गलती हो गई है. लिहाजा, अब उन्होंने दबाव डाला और ईरान व इजराइल को सीजफायर करने के लिए मनवाया. हालांकि, यह सीजफायर कमजोर लग रहा है. ईरान-इजरायल युद्ध में अपनी टांग फंसा कर और अब वापस खींच कर ट्रंप दोनों देशों के बीच शांति बहाली कर पाएंगे, उन का ऐसा सोचना हास्यास्पद है.

दरअसल वे ऐसा सोच नहीं रहे, वे तो अपने ही देश में अपने खिलाफ उठ खड़ी हुई आवाजों से डर गए हैं और उन्हें डर है कि अगर ईरान पर बमबारी के बाद अमेरिका में कोई आतंकी हमला हुआ तो उन का राजनीतिक कैरियर रसातल में चला जाएगा. ईरान व इजराइल तो लड़ते ही रहेंगे क्योंकि उन की लड़ाई धर्म द्वारा पैदा की गई नफरत और जमीन कब्जाने की है जो कभी थमेगी, कभी चालू हो जाएगी.

पुराना है संघर्ष

इजराइल का ईरान और फिलिस्तीन से संघर्ष कोई नया नहीं है, परंतु हाल के वर्षों में यह टकराव बहुत गंभीर हो गया है. यह लगातार जटिल, खतरनाक और वैश्विक रूप से प्रभावशाली होता जा रहा है. बीते कई दशकों से इजराइल खुद को एक यहूदी राष्ट्र के रूप में मजबूत करना चाहता है. वह लगातार अपनी जमीन, अपनी शक्ति और अपनी जनसंख्या बढ़ाने की कोशिश में है और इसीलिए उस ने फिलिस्तीनियों को उन की जमीन से खदेड़ कर, उन की औरतों-बच्चों को बमों व गोलियों से उड़ा कर अपना दायरा बढ़ाने में जुटा है.

बीते ढाई सालों से वह हमास को खत्म करने का बहाना ले कर गाजा पट्टी पर बम बरसा रहा है. जिस में आम फिलिस्तीनी नागरिक मारे जा रहे हैं. इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध में मौतों का अनुपात भयावह है.

एसीएलईडी (सशस्त्र संघर्ष स्थान और घटना डेटा) के अनुसार, 7 अक्तूबर, 2023 से अब तक फिलिस्तीन पर इजरायली हमलों में 57,000 से अधिक फिलिस्तीनी नागरिक मारे जा चुके हैं, जिन में बूढ़ों, बच्चों, महिलाओं और युवाओं के साथ ही 180 पत्रकार और मीडियाकर्मी, 120 शिक्षाविद और 224 से अधिक मानवीय सहायता कार्यकर्ता हलाक हुए हैं जबकि हमास के हमलों में कोई 1,726 इजराइली नागरिक ही मारे गए हैं. यह अनुपात 33:1 का है. यानी, एक इजरायली पर 33 फिलिस्तीनी मारे गए हैं. सोशल मीडिया पर खून से लथपथ मासूम बच्चे, बच्चों की लाशों पर रोतीबिलखती मांएं, बमों से ढहती इमारतों के मलबे में दब कर दम तोड़ते आम लोग और इजराइल द्वारा किए जा रहे इस नरसंहार पर दुनिया के तमाम देशों की चुप्पी दुनिया में इंसानियत और संवेदना की मरती हुई तसवीर सामने लाती है.

यहूदी और ईसाई का टकराव

इजराइल न सिर्फ अपने देश की सीमाएं बढ़ाना चाहता है बल्कि संघर्ष की एक वजह यरूशलम पर आधिपत्य स्थापित करना भी है, क्योंकि यह यहूदी, ईसाई और इसलाम तीनों का धार्मिक स्थल है. इजराइल इसे अपनी राजधानी बनाना चाहता है. पहले यरूशलम को ले कर लड़ाई और नफरत यहूदियों और ईसाईयों के बीच थी. यहूदियों के प्रति घृणा ईसाई इतिहास में एक प्रमुख विषय रहा है. ईसाईयों ने यहूदियों को शैतान बताया क्योंकि यहूदियों के धार्मिक नेताओं और भीड़ के दबाव में ही रोमन गवर्नर पोंटियस पिलातुस ने ईसा मसीह को सलीब पर चढ़ाया था. इसलिए ईसाई यहूदियों के प्रति नफरत का भाव रखते हैं.

ईसाईयों के मन में यहूदीविरोधी भावना का एकमात्र कारण धार्मिक ही नहीं था, बल्कि यह राजनीतिक और आर्थिक कारकों से भी प्रेरित था. यहूदियों को उन के आर्थिक रूप से सफल होने के कारण ईसाई उन से ईर्ष्या करते थे. गोरी चमड़ी वाला ईसाई खुद को ऊंची नस्ल का मनुष्य मानता है. यहूदियों के प्रति ईसाइयों की नफरत का सब से बड़ा उदाहरण नाजी जरमनी में हुआ नरसंहार है.

नाजी शासन ने यहूदियों को नस्लीय रूप से हीन माना और उन्हें मारने का फैसला किया. नाजी नेता एडोल्फ हिटलर ने यहूदियों को बड़ी संख्या में गैस चैंबर में डाल कर मौत की नींद सुला दिया. नाजियों ने तकरीबन 60 लाख यहूदियों की हत्या की, जिन में 15 लाख बच्चे थे. यहूदियों को जड़ से मिटाने के अपने मकसद को हिटलर ने इतने प्रभावी ढंग से अंजाम दिया कि दुनिया की एकतिहाई यहूदी आबादी खत्म हो गई. हिटलर खुद को ऊंची नस्ल का जरमन ईसाई मानता था और उस की नजर में यहूदी इंसान कहलाने के लायक भी न थे.

तो शुरू में यहूदियों और ईसाईयों के बीच नफरत और हिंसा का दौर रहा मगर कालांतर में यह संघर्ष और नफरत खिसक कर यहूदियों और मुसलमानों के बीच पहुंच गई. आज यहूदियों की लड़ाई मुसलमानों से ज्यादा है और बीते कई दशकों से जारी इस संघर्ष व नरसंहार की जड़ में सिर्फ धर्म है जिस ने इंसान के भीतर की इंसानियत को खत्म कर दिया है.

इजराइल कब और कैसे अस्तित्व में आया

प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन ने फिलिस्तीन के नाम से जाने जाने वाले क्षेत्र पर नियंत्रण कर लिया था, जो मध्यपूर्व के उस हिस्से पर शासन करने वाले ओटोमन साम्राज्य की हार के बाद मिला था. वहां अरब बहुसंख्यक और यहूदी अल्पसंख्यक थे. अन्य जातीय समूह भी वहां रहते थे. यहूदी और अरब आबादी के बीच तनाव तब और गहरा हुआ जब ब्रिटेन ने यहूदी लोगों के लिए फिलिस्तीन में एक ‘राष्ट्रीय घर’ की स्थापना पर सिद्धांत रूप से सहमति व्यक्त की. इस घटना को ‘बाल्फोर घोषणा’ के रूप में जाना जाता है.

यहूदियों का इस भूमि से ऐतिहासिक संबंध था, लेकिन फिलिस्तीनी अरबों का भी इस पर सदियों पुराना दावा था. लिहाजा, फिलिस्तीनी अरबों ने ब्रिटेन के इस कदम का विरोध किया.

1920 और 1940 के बीच यूरोप में उत्पीड़न से बचने के लिए यहूदियों ने अपनी संख्या में वृद्धि की. होलोकास्ट के दौरान लगभग 6 मिलियन यहूदियों की हत्या ने सुरक्षित आश्रय की मांग को और तीव्रता से उठाना शुरू किया. 1947 तक यहूदियों की जनसंख्या 6,30,000 तक पहुंच गई, जो कुल जनसंख्या का लगभग 30 फीसदी थी.

1947 में, यहूदियों और अरबों के बीच बढ़ती हिंसा की पृष्ठभूमि में – और ब्रिटिश शासन के खिलाफ – संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने फिलिस्तीन को अलगअलग यहूदी और अरब राज्यों में विभाजित करने के लिए मतदान किया और यरूशलम को एक अंतर्राष्ट्रीय शहर बनाने की राय रखी. मगर किसी भी अरब देश ने इस का समर्थन नहीं किया. उन का तर्क था कि इस योजना से यहूदियों को ज्यादा जमीन मिलेगी, भले ही उन की आबादी कम हो.

विरोध के बावजूद फिलिस्तीन में यहूदी नेताओं ने ब्रिटिश शासन समाप्त होने से कुछ घंटे पहले इजराइल नामक एक स्वतंत्र राज्य की घोषणा कर दी. उस के अगले वर्ष संयुक्त राष्ट्र ने इजराइल को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता भी दे दी. उस समय फिलिस्तीन और ईरान सहित 13 देशों ने इस का विरोध किया था. बावजूद इस के, इजराइल के रूप में एक नए राष्ट्र की आधारशिला रखी जा चुकी थी.

14 मई, 1948 को इजराइल ने खुद को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता दी. इस से नाराज फिलिस्तीन ने अरब देशों के साथ मिल कर इजराइल पर आक्रमण कर दिया. लेकिन उसे इस युद्ध में हार का सामना करना पड़ा. हार के बाद 1949 में फिलिस्तीन 3 हिस्सों बंट गया. साथ ही, 7 लाख फिलिस्तीनी विस्थापित हुए. तब से आज तक इजराइल फिलिस्तीन से शिया मुसलमानों को मारने और खदेड़ने में लगा हुआ है, जो ईरान सहित तमाम शिया बाहुल्य देशों को नागवार गुजर रहा है.

1949 में जब युद्धविराम के साथ लड़ाई समाप्त हुई थी, तब तक अधिकांश क्षेत्र पर इजराइल का नियंत्रण हो चुका था. समझते के तहत मिस्र ने गाजा पट्टी पर, जोर्डन ने पश्चिमी तट और पूर्वी यरूशलम पर तथा इजराइल ने पश्चिमी यरूशलम पर कब्जा कर लिया था. लगभग 7,50,000 फिलिस्तीनी अपने घरों से भाग गए या उन्हें वहां से चले जाने के लिए मजबूर किया गया. जो बचे वे इजराइल की जमीन पर शरणार्थी बन गए. इस घटना को अरबी में नक्बा (विपत्ति) के नाम से जाना जाता है.

1967 का मध्यपूर्व युद्ध 6 दिवसीय युद्ध के रूप में जाना जाता है. उस ने मध्यपूर्व में सीमाओं को बदल दिया और फिलिस्तीनियों के लिए इस के बड़े परिणाम हुए. इस युद्ध में इजराइल ने मिस्र, सीरिया और जोर्डन के साथ युद्ध किया. इस की शुरुआत तब हुई जब मिस्र और सीरिया के हमले के डर से इजराइल ने मिस्र की वायुसेना पर हमला कर दिया. जब तक लड़ाई समाप्त हुई, तब तक इजराइल ने मिस्र से सिनाई प्रायद्वीप और गाजा, सीरिया से गोलान हाइट्स के अधिकांश भाग तथा जोर्डन से पूर्वी यरूशलम छीन कर पश्चिमी तट पर कब्जा कर लिया. पश्चिमी तट, गाजा और पूर्वी यरूशलम में लगभग 10 लाख फिलिस्तीनी इजराइल के नियंत्रण में आ गए.

1967 में छह दिवसीय युद्ध के दौरान इजराइली सैन्य कमांडर पूर्वी यरूशलम पहुंचे और इन क्षेत्रों पर इजराइल का कब्जा आज तक कायम है.

ईरान व इजराइल में टकराव क्यों

ईरान, जोकि इजराइल की मंशा को बखूबी समझता है, ने हमेशा इसलामवादी व शिया लेबनानी दलों को अपना समर्थन और उन्हें इजराइली व अमेरिकी लक्ष्यों पर हमला करने के लिए वैचारिक प्रशिक्षण, सैन्य प्रशिक्षण और उपकरण प्रदान किए. यही नहीं, उस ने उन्हें एक एकल राजनीतिक और सैन्य संगठन, हिजबुल्लाह में एकीकृत करने में भी मदद की. इजराइल इस वजह से भी ईरान से दुश्मनी रखने लगा. अपने मंसूबे पूरे करने की राह में इजराइल ईरान को बड़ी बाधा के रूप में देखता है.

शिया इसलामी सिद्धांतों द्वारा शासित ईरान और मुख्यतया यहूदी राज्य इजराइल, धार्मिक एवं वैचारिक मतभेदों के कारण तो दुश्मन हैं ही, इजराइल ईरान के परमाणु कार्यक्रम को अपने लिए एक गंभीर खतरा मानता है और उसे भय है कि ईरान के परमाणु हथियारों के विकास से उस का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है. ईरान परमाणु समझते (संयुक्त व्यापक कार्ययोजना) का इजराइल कट्टर आलोचक रहा है और उस ने ईरान की परमाणु प्रगति को बाधित करने के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह से कई कोशिशें की हैं.

पिछले साल के आखिर में जब इजराइल ने ईरान के सब से मजबूत सहयोगी हिजबुल्लाह को कमजोर कर दिया. उस के बाद यह साफ हो गया कि अब ईरान जल्द से जल्द परमाणु हथियार बनाने की कोशिश करेगा. इस आशंका को ले कर इजराइल ईरान पर और ज्यादा आक्रामक हो गया. इजराइल और ईरान के बीच अब तक का सब से बुरा संघर्ष उस समय शुरू हुआ जब इजराइली सेना ने यह कहते हुए ईरान पर हमला बोला कि तेहरान परमाणु हथियार बनाने के बेहद करीब है. इजराइल ने इस मिशन को औपरेशन राइजिंग लौयन नाम दिया.

इजराइल ने ईरान पर कई बार हमले बोले और अब तक ईरान के 600 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं. खुद को दुनिया समझने का भरम पालने वाला अमेरिका भी इस युद्ध में कूद पड़ा. दरअसल ईरान व इजराइल जंग में नेतन्याहू ने बड़बोले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को फंसा दिया था.

डोनाल्ड ट्रंप को यह समझ में नहीं आया कि ईरान की जंग में घुस तो गए मगर बाहर कैसे और किन हालात में निकलेंगे? इजराइल तो ईरान पर हमला कभी भी रोक सकता है लेकिन अमेरिका के सामने मजबूरी यह आ गई कि वह ईरान के परमाणु कार्यक्रम और वहां के नेतृत्व को खत्म किए बिना युद्ध खत्म नहीं कर पाएगा.

अब चूंकि ये दोनों काम नहीं हो पाए और सीजफायर की घोषणा हो गई तो समझा जा सकता है कि युद्ध के कारण खत्म नहीं हुए. युद्ध भले टला हो पर हालात नहीं टले. मगर सोचने वाली बात यह है कि यदि अमेरिका परमाणु कार्यक्रम और नेतृत्व को खत्म कर भी देता तो क्या हमेशा के लिए समस्या का अंत हो जाता, या इस से ईरान के भीतर परमाणु हथियार पाने की लालसा और बढ़ जाती? ईरान के परमाणु कार्यक्रम और वहां के नेतृत्व तक पहुंचना अमेरिका के लिए आसान नहीं. जानकारों की मानें तो ईरान ने अपने परमाणु संसाधन फार्द के जिन पहाड़ों के नीचे छिपा रखे हैं वहां अमेरिका का कोई बम मार नहीं कर सकता. यानी, अमेरिका को अपने सैनिक भी ईरान की सरजमीं पर उतारने होंगे.

जहां तक ईरान में अमेरिकी सैनिक भेजने की बात है तो यह समझ लीजिए कि ईरान का बड़ा इलाका पहाड़ों से पटा हुआ है. जहां पर जंग करना अमेरिका के लिए बहुत खूनखराबा ले कर आएगा और यह डोनाल्ड ट्रंप के उन वादों के खिलाफ होगा जो उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में किया था कि अमेरिका अब दूसरों की जंग में नहीं पड़ेगा क्योंकि अमेरिका अब अपने सैनिकों की लाशें उठाने के लिए तैयार नहीं है.

ट्रंप ने बिना सोचविचार किए ईरान पर बम वर्षा की. उस के बाद से अमेरिका के भीतर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भद्द पिटने लगी. सवाल उठे कि आखिर कोई राष्ट्रपति अपने देश की अन्य पौलिटिकल पार्टियों से रायमशवरा किए बगैर एकतरफा फैसला ले कर देश को युद्ध जैसी परिणामकारी स्थिति में कैसे झोंक सकता है?

अमेरिका के डैमोक्रेटिक पार्टी के नेता चक शूमर ने आशंका जताई थी कि अमेरिका द्वारा ईरान में 3 प्रमुख परमाणु केंद्रों पर बमबारी करने के बाद व्यापक, लंबे और अधिक विनाशकारी युद्ध का खतरा बढ़ गया है. शूमर युद्ध शक्ति अधिनियम लागू करने की बात करते हैं जिस के तहत विदेश कार्रवाई शुरू करने या इसे बढ़ाने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति की क्षमता को सीमित किया जा सकता है. जाहिर है, दूसरों के फटे में टांग अड़ाने और बातबात पर उछलने की ट्रंप की आदतों से अमेरिकी परेशान ही नहीं हो रहे बल्कि अब उन्हें ट्रंप के फैसलों से देश और देशवासियों पर गहरा खतरा मंडराता हुआ भी नजर आ रहा है.

अमेरिका की विपक्षी पार्टी का मानना है कि अमेरिका को युद्ध जैसी स्थिति में डालने की एकतरफा अनुमति राष्ट्रपति ट्रंप को नहीं दी जा सकती. ईरान के आतंक, परमाणु महत्त्वाकांक्षाओं और क्षेत्रीय आक्रामकता के क्रूर अभियान का सामना करने के लिए ताकत, संकल्प और रणनीतिक स्पष्टता की जरूरत है. ट्रंप ने संसद की अनुमति के बिना एकतरफा तौर से अमेरिकी सेना की तैनाती कर के न सिर्फ संविधान की अनदेखी की बल्कि अमेरिकी लोगों के जीवन और दुनिया के कई देशों को खतरे में डाल दिया था.

आमतौर पर अमेरिका ने अपने इतिहास में युद्ध के समय, जमीन और हालात खुद तय किए. यह पहला मौका था कि जब किसी देश ने उस को जरा सा उकसा कर जबरन युद्ध में घसीट लिया. भारत व पाकिस्तान जंग में सीजफायर करवाने की बड़ीबड़ी बातें करने वाले ट्रंप इतने उत्तेजित कैसे हो गए कि सीजफायर करवाने से पहले खुद फायर करने लगे.

डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिकी राष्ट्रपति बने आज ठीक 6 महीने हो गए हैं. लेकिन, इन 6 महीनों में पूरी दुनिया ने अमेरिकी राष्ट्रपति की जबरदस्त भद पिटती देखी है. पहले दौर की टैरिफ वार लगभग बेनतीजा रही. यूक्रेन व रूस युद्ध रुकवाने को ले कर ट्रंप के सारे दावे धरे रह गए. यूरोपीय यूनियन में ट्रंप की साख दो कौड़ी की हो कर रह गई. भारत व पाकिस्तान के बीच सीजफायर करवाने का जश्न ट्रंप को भारी पड़ गया और अब इजराइल व ईरान वार, जोकि ट्रंप की समझ से बाहर निकल गया, में भी बीच में पड़ कर व सीजफायर की घोषणा कर वे अपनी व अमेरिका की भद पिटवा रहे हैं.

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