Government of India : केंद्र सरकार अकसर राज्यों की सरकारों के कामों में अड़ंगा डालने के लिए विधानसभाओं से पारित उन के विधेयकों को राज्यपालों के जरिए लटकाती है. यह मामला तब गरमा गया जब सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों को विपक्षी सरकारों के विधेयक पर फैसले देने की समयसीमा तय कर दी. अब प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछ कर इस मुद्दे को और गहरा कर दिया है. क्या यह केवल कानूनी विवाद है या यह विवाद संविधान की राजनीतिक व्यवस्था को नया रूप देगा?
प्रदेश सरकारों यानी मुख्यमंत्रियों और केंद्र की संस्तुति पर वहां नियुक्त किए गए राज्यपाल के अधिकारों को ले कर टकराव लंबे समय से चलता आ रहा है. केंद्र सरकार और राज्य सरकारें अलगअलग पार्टियों की होती हैं तो यह टकराव अधिक होता है. ऐसे में राज्यपाल कई बार प्रदेश सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों को पास करने में देरी करते हैं. मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच टकराव के दूसरे तमाम कारण भी होते हैं.
कहीं पर विधानसभा में सदन बुलाने का मुद्दा होता है तो कहीं पर सरकार के बहुमत से अल्पमत में आ जाने का मसला भी उठ जाता है तो कहीं हालात के तहत दलबदल कानून के लागू करने में राज्यपाल की पक्षपाती भूमिका होती है. यह टकराव कई बार बेहद खतरनाक मोड़ पर पहुंच जाता है जबकि कई बार थोड़ी तनातनी के बाद मसला शांत हो जाता है.
राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच टकराव का हालिया मसला तमिलनाडु से जुड़ा है. तमिलनाडु में डीएमके और कांग्रेस की मिलीजुली सरकार है. एम के स्टालिन वहां के मुख्यमंत्री हैं. वहां के राज्यपाल आर एन रवि राज्य सरकार द्वारा विधानसभा से पास कराए गए 10 विधेयकों पर लंबे समय से कोई फैसला नहीं कर रहे थे. मद्र्रास हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में मामला पहुंचा.
विवाद वाला फैसला
तमिलनाडु सरकार ने इसे पौकेट वीटो (अनिश्चितकाल तक विधेयक रोकना) का दुरुपयोग माना और सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला दिया जिस ने भाजपा सरकार को सकते में डाल दिया कि उस के नियुक्त राज्यपालों की विपक्षी पार्टियों की सरकारों पर धौंस नहीं चलेगी.
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जे बी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की दो सदस्यीय पीठ ने 8 अप्रैल को दिए अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि विधानसभा द्वारा पारित किसी विधेयक को 3 महीने के अंदर अनुमोदित नहीं किया गया तो राज्यपाल या राष्ट्रपति को इस के पीछे का उचित तर्क बताना होगा. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में संविधान के अनुच्छेद 142 का हवाला दे कर कहा कि उस के पास राष्ट्रपति के पास पड़े विधेयकों को लागू करने का अधिकार है और 10 विधेयक कानून बन गए.
कोर्ट ने आदेश दिया कि अनुच्छेद 200 के तहत विधानसभा से पारित हुए विधेयकों को राज्यपाल को प्राप्त होने के बाद उचित समय में निर्णय लेना होगा. उन्हें या तो स्वीकृति देनी होगी या फिर पुनर्विचार के लिए वापस भेजना होगा या एक अंतिम कदम में राष्ट्रपति को भेजना होगा.
यदि विधानसभा राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास रखे या लौटाए विधेयक को दोबारा पारित करती है तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर स्वीकृति देनी होगी. इसी तरह अनुच्छेद 201 के तहत यह फैसला भी दिया गया कि राज्यपाल यदि विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं तो राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर निर्णय लेना होगा.
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि, ‘संविधान के गणतांत्रिक ढांचे के अनुसार राज्यपाल के पास कोई ‘वीटो पावर’ नहीं है और वे विधेयकों को अनिश्चित समय तक रोके नहीं रख सकते. उन को समय सीमा के भीतर अपना फैसला देना होगा. वरना यह विधेयक स्वत: कानून मान लिए जाएंगे.’
बता दें कि संविधान का अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को पूर्ण न्याय करने का अधिकार देता है. इस के तहत सुप्रीम कोर्ट किसी भी मामले में पूर्ण न्याय दिलाने के लिए ऐसा फैसला या निर्देश दे सकता है जो पूरे भारत में लागू होगा.
देश की सब से बड़ी कोर्ट ने अपने इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए 30 जनवरी को हुए चंडीगढ़ मेयर चुनाव के नतीजों को पलट दिया था. सुप्रीम कोर्ट की 3 जजों की बैंच ने तब कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अदालत अपने अधिकार क्षेत्र में पूर्ण न्याय करने के लिए प्रतिबद्ध है.
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने उठाए सवाल
भाजपा ने सुप्रीम कोर्ट से विवाद उत्पन्न करने के लिए उपराष्ट्रपति को आगे किया जो अपने कट्टरपन को पहले ही बहुत से बयानों से साबित कर चुके हैं. देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने संविधान के अनुच्छेद 142 को ले कर कहा, ‘अदालतें राष्ट्रपति को कैसे आदेश दे सकती हैं? संविधान के आर्टिकल 142 का मतलब यह नहीं होता कि आप राष्ट्रपति को भी आदेश दे सकते हैं. भारत के राष्ट्रपति का पद काफी ऊंचा है. राष्ट्रपति संविधान की रक्षा, संरक्षण और उसे बचाने की शपथ लेते हैं. यह शपथ केवल राष्ट्रपति और राज्यपाल लेते हैं.’
जगदीप धनखड़ ने आगे कहा, ‘तो हमारे पास ऐसे जज हैं जो अब कानून बनाएंगे, कार्यपालिका का काम करेंगे और एक सुपर संसद की तरह भी काम करेंगे और कोई जिम्मेदारी नहीं लेंगे क्योंकि इस देश का कानून उन पर लागू तो होता नहीं.’
उपराष्ट्रपति महोदय ने यह भी कहा, ‘संविधान के अनुच्छेद 145 (3) के तहत न्यायपालिका के पास सिर्फ संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है. इस के लिए 5 या इस से ज्यादा जजों की जरूरत होती है. जिन जजों ने जिस तरह से राष्ट्रपति को आदेश जारी किया, उस से लगता है कि जैसे यही देश का कानून हों. वे संविधान की ताकतों को भूल गए हैं. अनुच्छेद 145(3) को देखें, जजों का कोई समूह किसी मामले पर ऐसे फैसले कैसे दे सकता है, खासकर तब जब ऐसे मामलों पर विचार के लिए कम से कम 5 जजों की जरूरत होती है.’
धनखड़ का तर्क बेतुका है. सुप्रीम कोर्ट राज्यों के बीच और राज्यों व केंद्र के बीच किसी संवैधानिक प्रश्न का न्यायिक उत्तर देने के लिए बनी है और यह अधिकार राष्ट्रपति के पास नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट संविधान की व्याख्या कर के राष्ट्रपति को भी कोई आदेश दे सकती है और देती रहती है क्योंकि केंद्र सरकार सभी काम राष्ट्रपति के नाम पर करती है और जब मामलों में यूनियन औफ इंडिया एक पार्टी होती है तो केंद्र सरकार राष्ट्रपति का ही प्रतिनिधित्व करती है.
प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट आमनेसामने
अनुच्छेद 142 के प्रयोग को ले कर पूरे देश में एक बहस छिड़ गई है कि राष्ट्रपति यानी प्रधानमंत्री के प्रतिनिधि और सुप्रीम कोर्ट में अधिक ताकतवर कौन है? संवैधानिक ताकतें किस के पास अधिक हैं? साधारण तौर पर स्कूलों की किताबों में यही बताया गया है कि राष्ट्रपति सब से अधिक ताकतवर होता है.
इन किताबों को पढ़लिख कर बड़े हुए लोग इस बात को जानना चाहते हैं कि सब से बड़ा कौन है? सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों का विश्लेषण कर के यह बताने का काम किया है कि सुप्रीम कोर्ट सब से अधिक ताकतवर होता है. राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को मानना होगा.
भाजपा सरकार ने देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को आगे कर के 15 मई को सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे हैं. इन को प्रैसिडैंशियल रेफरैंस यानी संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत भेजा गया है. इस के मूल में तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के बीच विधेयकों को ले कर जारी खींचतान पर सुप्रीम कोर्ट का एक महत्त्वपूर्ण फैसला है.
यह बात और है कि राष्ट्रपति के पत्र में इस मसले का कोई जिक्र नहीं किया गया है. तमिलनाडु सरकार के पक्ष में दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला संविधान से जुड़ा मसला है, ऐसे में मूल सवाल यह है कि 2 जजों की बैंच क्या इस तरह का फैसला दे भी सकती है?
राज्यपाल प्रदेश में राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होता है. ऐसे में अब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को संविधान की दृष्टि से स्पष्टता की आवश्यकता वाला बताया है और सवाल पूछे हैं, जो संविधान के अनुच्छेदों 200, 201, 361, 143, 142, 145(3) और 131 से जुड़े हैं.
संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट ने डीम्ड असैंट का नया प्रावधान बना दिया है. इस के तहत कोई भी विधेयक एक निश्चित समय सीमा के भीतर राष्ट्रपति और राज्यपालों को पास करना जरूरी हो गया है. यह राज्यों की विधायिका के अधिकारों पर बहुत बड़ा हमला था जो गृह व कानून मंत्रालयों के माध्यम से कराया गया था. पहले इन 14 सवालों को जाननासमझना जरूरी है.
राष्ट्रपति के 14 सवाल
1. जब राज्यपाल के पास कोई विधेयक आता है तो उन के सामने कौनकौन से संवैधानिक विकल्प होते हैं?
2. क्या राज्यपाल फैसला लेते समय मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं?
3. क्या राज्यपाल के निर्णय को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है?
4. क्या संविधान का अनुच्छेद 361 राज्यपाल के निर्णयों पर न्यायिक समीक्षा को पूरी तरह रोक सकता है?
5. यदि संविधान में राज्यपाल के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की गई है तो क्या कोर्ट कोई समय सीमा तय कर सकता है?
6. क्या राष्ट्रपति के निर्णय को भी कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है?
7. क्या राष्ट्रपति के फैसलों पर भी कोर्ट समय सीमा तय कर सकता है?
8. क्या राष्ट्रपति के लिए सर्वोच्च न्यायालय से राय लेना अनिवार्य है?
9. क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसलों पर कानून लागू होने से पहले ही कोर्ट सुनवाई कर सकता है?
10. क्या सुप्रीम कोर्ट आर्टिकल 142 का उपयोग कर के राष्ट्रपति या राज्यपाल के निर्णयों को बदल सकता है?
11. क्या राज्य विधानसभा से पारित कानून राज्यपाल की स्वीकृति के बिना लागू हो सकता है?
12. क्या संविधान की व्याख्या से जुड़े मामलों को सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की पीठ को भेजना अनिवार्य है?
13. क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसे निर्देश या आदेश दे सकता है जो संविधान या मौजूदा कानूनों से मेल न खाता हो?
14. क्या केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच विवाद केवल सुप्रीम कोर्ट ही सुलझ सकता है?
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 सवालों पर औपचारिक राय मांगी. यह एक बड़ा कदम है. अनुच्छेद 143(1) का उपयोग केवल तब किया जाता है जब सार्वजनिक महत्त्व का कोई गंभीर संवैधानिक सवाल उठता है. इस से पहले 2012 में प्रणब मुखर्जी, 2005-2006 में एपीजे अब्दुल कलाम, 1993 में शंकर दयाल शर्मा, 1998 में आर वेंकटरमण, 1964 में जाकिर हुसैन और 1950 में राजेंद्र प्रसाद इस अधिकार का इस्तेमाल कर चुके हैं.
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के सवाल दरअसल सुप्रीम कोर्ट के तमिलनाडु सरकार के विधेयकों पर दिए गए ऐतिहासिक फैसले से उत्पन्न बहस का हिस्सा हैं. राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संवैधानिक मूल्यों और व्यवस्थाओं के विपरीत और संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण करार दिया है. जबकि यह अतिक्रमण राज्यपाल राज्य सरकारों के अधिकारों पर कर रहे थे.
बहरहाल राष्ट्रपति के सवालों के जवाब देने के लिए सुप्रीम कोर्ट को कम से कम 5 जजों की संवैधानिक बैंच का गठन करना होगा.
क्या हैं अनुच्छेद 200 और 201
राष्ट्रपति और राज्यपालों को संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत विधेयकों पर स्वीकृति, पुनर्विचार या रोकने की औपचारिक स्वतंत्रता मिली हुई है. विधेयक मिलने के बाद स्वीकृति के लिए कोई समय सीमा संविधान में नहीं निर्धारित की गई है. सरकार के अनुसार डीम्ड असैंट संविधान में अनुपस्थित है और इसे लागू करना संवैधानिक ढांचे में नई शर्त जोड़ने जैसा है, जो केवल संसद के माध्यम से संशोधन द्वारा संभव है. डीम्ड असैंट असल में केंद्र सरकार की तानाशाही रोकती है और राज्यों की विधानसभाओं को पंगु होने से बचाती है.
डीम्ड असैंट सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 142 के तहत लागू की गई, जो न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने की शक्ति देता है, जो इन शक्तियों के अलगअलग महत्त्व के सिद्धांत को कमजोर करता है. यहां पर कोर्ट केंद्रीय कार्यपालिका की मनमानी को रोकता है. राष्ट्रपति और राज्यपाल संघीय ढांचे में केंद्र-राज्य संतुलन बनाए रखते हैं. डीम्ड असैंट से विवादास्पद या असंवैधानिक विधेयक (राष्ट्रीय सुरक्षा या केंद्र-राज्य संबंधों को प्रभावित करने वाले) स्वत: मंजूर हो सकते हैं, जिस से संघीय संरचना अनकूल होगी क्योंकि केंद्र सरकार राज्यों को मिले अधिकारों में राज्यपाल के जरिए अड़ंगे डालने का काम बंद कर देगी.
सुप्रीम कोर्ट ने डीम्ड असैंट की व्यवस्था तो यह सोच कर की कि देश में विपक्ष की सरकारों की स्वतंत्रता और कानून बनाने का अधिकार प्रभावित न हो. सुप्रीम कोर्ट का यह पहलू अहम था कि इस तरह की कई शिकायतें आ रही हैं कि विपक्ष द्वारा शासित राज्यों के कानून बनाने के अधिकारों का हनन हो रहा है. कुछ राज्यों में जहां एनडीए सरकार नहीं है वहां कुछ जरूरी कानूनों पर राज्यपाल कुंडली मार कर बैठ गए थे. दूसरा पहलू भी है. राष्ट्रपति के पास एकमात्र यही अधिकार ऐसा होता है जिस से ताकतवर राज्य सरकारें भी डरती रही हैं. वास्तव में संविधान में राष्ट्रपति व राज्यपाल केवल औपचारिक पद हैं जिन की जरूरत किसी आपदा में आती है. भारत का राष्ट्रपति अमेरिकी राष्ट्रपति जैसा नहीं, इंगलैंड के राजा की तरह का है.
राष्ट्रपति के सवालों पर क्या बोले मुख्यमंत्री स्टालिन
राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से जो सवाल पूछे हैं उन को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने गैरजरूरी बताया है. अपने एक्स सोशल मीडिया हैंडल पर मुख्यमंत्री स्टालिन ने पूछा है कि राज्यपालों के लिए फैसला लेने की समयसीमा तय किए जाने पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए? क्या केंद्र सरकार गैरभाजपा शासित विधानसभाओं को शक्तिहीन करना चाहती है?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 2 पहलू हैं. पहला पहलू संवैधानिक है, जो सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति के बीच है और जिस पर पूरे देश की नजर है. दूसरा पहलू राजनीतिक है, जिस की बात तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन पूछ रहे हैं. इस कारण ही स्टालिन ने राष्ट्रपति की जगह पर केंद्र सरकार और भाजपा से सवाल पूछे हैं.
राज्यों में केंद्र के विपक्ष वाली सरकार होने पर इस तरह के विरोध पुराने हैं. ये कांग्रेस के समय में भी खूब होते थे. केंद्र सरकार राज्यपाल के जरिए राज्यों में अपना प्रभाव बनाना चाहती है. ऐसे में बहुत सारे मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच टकराव होता रहा है.
अनुच्छेद 356 के प्रयोग से भंग की जाती रही सरकारें
अनुच्छेद 356 का प्रयोग कर केंद्र सरकार बहुत पहले से राज्य सरकारों को बरखास्त करती रही है. अनुच्छेद 356 के तहत किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता या संविधान के उल्लंघन की स्थिति में राज्य सरकार को भंग किया जा सकता है. राष्ट्रपति राज्यपाल की सिफारिश पर एक उद्घोषणा जारी करते हैं, जिस से राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाता है. संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन करने में राज्य सरकार की विफलता, जैसे कानून और व्यवस्था बनाए रखना, पर यह कहा जा सकता है कि राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है.
राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद राज्य सरकार को निलंबित कर दिया जाता है और राज्य का प्रशासन केंद्र सरकार द्वारा सीधे नियंत्रित किया जाता है. राज्य के विधानमंडल की शक्तियां संसद को हस्तांतरित कर दी जाती हैं. राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा 2 महीने के लिए वैध होती है. इसे संसद के दोनों सदनों से अनुमोदन प्राप्त करने की आवश्यकता होती है. राष्ट्रपति शासन को राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय निरस्त किया जा सकता है.
1959 में केरल में पहली बार चुनी गई कम्युनिस्ट सरकार को अनुच्छेद 356 के तहत बरखास्त कर दिया गया था. 1977 के बाद जनता पार्टी ने उत्तर भारत की कांग्रेसी राज्य सरकारों को भंग कर दिया था. 1980 में इंदिरा गांधी के सत्ता में वापस आने के बाद उन्होंने विपक्षी दलों द्वारा शासित 9 राज्यों की सरकारों को एक ही बार में भंग कर दिया था.
अनुच्छेद 356 एक शक्तिशाली उपकरण है जो किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता की स्थिति में राज्य सरकार को भंग करने की अनुमति देता है. यह राष्ट्रपति शासन लागू करने का आधार भी है, जिस के तहत राज्य का प्रशासन केंद्र सरकार द्वारा सीधे नियंत्रित किया जाता है. यह भी राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच टकराव का कारण बनता है.
आगे का अंश बौक्स के बाद
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सवालों के तार्किक जवाब…
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राष्ट्रपति के माध्यम से उठाए गए 14 सवालों के तार्किक व जनहित के उत्तर तो ये होने चाहिए-
प्रश्न 1 का उत्तर : राज्यपाल विधेयक को तुरंत औपचारिक अनुमति दें.
प्रश्न 2 का उत्तर : राज्यपाल केवल चुनी सरकार की मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं.
प्रश्न 3 का उत्तर : अगर राज्यपाल आनाकानी करें तो न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है क्योंकि संविधान स्पष्ट कहता है, देश यूनियन औफ स्टेट्स यानी राज्यों का संघ है.
प्रश्न 4 का उत्तर : समय का सवाल ही नहीं उठना चाहिए. राज्यपाल को तो विधेयक को हाथोंहाथ अनुमति देनी ही चाहिए.
प्रश्न 5 का उत्तर : संविधान में समयसीमा तय नहीं की गई है, इस का अर्थ है कि राज्यपाल के पास कोई समय है ही नहीं विधेयक को रोकने का.
प्रश्न 6 का उत्तर : राष्ट्रपति के हर निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट में जाया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ही संविधान की व्याख्या कर सकती है.
प्रश्न 7 का उत्तर : राष्ट्रपति को विलंब करने का कोई अधिकार संविधान ने नहीं दिया है.
प्रश्न 8 का उत्तर : राष्ट्रपति विधेयक को रोकना चाहें तो उन्हें सर्वोच्च न्यायालय जाना ही होगा, उन का खुद का दिमाग काम नहीं करेगा.
प्रश्न 9 का उत्तर : कोर्ट कभी भी राज्य के आवेदन पर मामले की सुनवाई कर सकता है. राज्यपाल और राष्ट्रपति संविधान से बंधे हैं, प्रधानमंत्री की निजी राय से नहीं.
प्रश्न 10 का उत्तर : अनुच्छेद 142 के अधिकारों का विश्लेषण केवल सुप्रीम कोर्ट कर सकती है.
प्रश्न 11 का उत्तर : राज्यपाल को अनुमति देनी ही होगी, इसलिए प्रश्न 11 ही निरर्थक है.
प्रश्न 12 का उत्तर : सुप्रीम कोर्ट की कौन सी बैंच कैसे निर्णय देगी, यह तय करने का कार्य मुख्य न्यायाधीश का है राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का नहीं.
प्रश्न 13 का उत्तर : प्रश्न निरर्थक है. सुप्रीम कोर्ट केवल विधानमंडलों के बनाए कानूनों या उन कानूनों के अंतर्गत लिए गए फैसलों की संवैधानिकता की जांच करता है.
प्रश्न 14 का उत्तर : केंद्र सरकार, उस के प्रधानमंत्री और राज्य सरकार के विवाद केवल सुप्रीम कोर्ट ही सुलझ सकता है, संसद या राष्ट्रपति नहीं.
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क्या यह न्यायिक व्यवस्था पर दबाव बनाने का प्रयास है
राष्ट्रपति के सवाल कोई साधारण कानूनी तकनीकी बिंदु नहीं हैं. ये 3 प्रमुख स्तंभों- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के संतुलन से जुड़े हैं. इन सवालों से पता चलता है कि भारतीय जनता पार्टी संविधान की भावना को खोखला करना चाह रही है. इस बहस के बीच हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति से जुड़े सवाल भी उठेंगे. कुछ सवाल कोर्ट में भले न उठ सकें लेकिन जनता के बीच जरूर उठेंगे.
भाजपा को उम्मीद है कि कुछ जज अवश्य केंद्र सरकार की तरफदारी करेंगे और अदालतों के निर्णय उस के पक्ष में होंगे और राज्यपालों की धौंस फिर चलने लगेगी.
केंद्र की मौजूदा मोदी सरकार संविधान के मूल ढांचे पर बहस शुरू करना चाहती है. उस के नेता इस बात को ले कर बहुत मुखर हैं. संविधान का वह मूल ढांचा जिस के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में आदेश दिया था कि इसे बदला नहीं जा सकता. उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और पूर्व कानून मंत्री किरेन रिजिजू तर्क दे रहे हैं कि संविधान के पृष्ठों में मूल ढांचा नाम की कोई चीज नहीं है, सबकुछ बदला जा सकता है. वे कह रहे हैं कि चुनी हुई विधायिका ही सर्वोच्च है, इसलिए संविधान में कुछ भी बदलने के लिए आप को बस दोतिहाई संसदीय बहुमत की जरूरत है.
कौलेजियम सिस्टम
सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच जजों की नियुक्ति में कौलेजियम सिस्टम को ले कर मतभेद बने हुए हैं. भाजपा सरकार कौलेजियम सिस्टम की भूमिका पर लगातार सवाल उठाती रही है जिस में न्यायाधीशों की नियुक्ति, तबादले, भ्रष्टाचार, भाईभतीजावाद और गलत फैसलों को आधार बनाया जाता है. इस को आधार बना कर यह धारणा बनाई जाती है कि कौलेजियम सिस्टम सही नहीं है. उस की जगह पर जजों की नियुक्ति का काम एनजेएसी यानी राष्ट्रपति न्यायिक नियुक्ति आयोग को दे देना चाहिए.
समयसमय पर यह धारणा बनाने का काम होता है कि अगर कौलेजियम सिस्टम खत्म हो जाए तो न्याय व्यवस्था में सब सही हो जाएगा. कौलेजियम सिस्टम में नौकरशाही और नेताओं की सीधी भूमिका नहीं होती है, क्योंकि न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण का निर्णय न्यायाधीशों द्वारा ही किया जाता है. इस का विरोध करने वाले आरोप लगाते हैं कि कौलेजियम सिस्टम का भी संविधान में कहीं भी उल्लेख नहीं है. यह सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुआ है.
कौलेजियम सिस्टम के विरोध करने वाले चाहते हैं कि एनजेएसी यानी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को लागू किया जाए. इस के जरिए ही जजों की नियुक्ति हो. इस आयोग में प्रधानमंत्री ही अपने मनचाहों को नियुक्त करेंगे और अदालतें एक बार फिर सरकार की एक विभाग बन कर रह जाएंगी.
केंद्र सरकार ने 99वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने का प्रस्ताव रखा था. सर्वोच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया था. यह असल में न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खतरा था. इस के बाद न्यायपालिका और सरकार के बीच खींचतान चलने लगी. नरेंद्र मोदी सरकार के दौरान यह काम खूब हो रहा है.
यह बात सच है कि भारतीय जनता पार्टी पूरे संविधान को ही बदलने की इच्छा रखती है पर उतनी ताकत वह रखती नहीं है. वह कुछकुछ काम ऐसा करना चाहती है जिस से उस का प्रभाव दिखता रहे. अगर भाजपा सरकार नैशनल ज्युडिशियल अपौइंटमैंट्स कमीशन को लागू करने को तय कर लेती तो वह कर सकती थी. 2014 और 2019 के दोनों चुनावों में उसे बहुमत हासिल हुआ था. दूसरी तरफ यह बात भी पूरी तरह से सच है कि भाजपा लगातार कोर्ट की व्यवस्था पर सवाल करती रहती है. देश की राष्ट्रपति ने जो 14 सवाल सुप्रीम कोर्ट के सामने रखे हैं वे इसी कड़ी से जुड़े हुए हैं.
आज भी आम आदमी को सब से अधिक उम्मीद कोर्ट से ही होती है. यह भी सच है कि न्यायिक व्यवस्था में जिस तरह से घुन लग गया है उस का सब से बड़ा शिकार आम आदमी होता है. आज देश में 5 करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं. एक मुकदमे में कम से कम 10 आदमी जुड़े होते हैं. ऐसे में करीब 50 करोड़ जनता कोर्टकचहरी के चक्कर लगाती रहती है. सुप्रीम कोर्ट जब विधायिका और कार्यपालिका को समयसीमा से जोड़ कर देखने का काम करती है तो लोगों की कोर्ट से भी उम्मीदें बढ़ जाती हैं.
सवाल सुधार के लिए नहीं
न्यायिक व्यवस्था के बारे में जनमानस की एक धारणा तो बहुत मजबूत बन गई है कि यहां पैसे और पावर वालों का काम जल्दी होता है पर फिर भी अंतिम आशा अदालतों से ही है. न्यायिक व्यवस्था में भी सुधार की तो जरूरत है पर राष्ट्रपति के सवालों में किसी सुधार का जिक्र नहीं है. इन का जवाब देना सुप्रीम कोर्ट के लिए सरल नहीं होगा.
इन के जवाबों से कुछ नया निकल कर आएगा, इस तरह की उम्मीद की जा रही है. जनता की यह धारणा गलत है कि देश का राष्ट्रपति सब से अधिक ताकतवर होता है. जब सबकुछ संविधान से तय होना है तो कोर्ट ही तय कर सकता है कि सीमाएं क्या हैं, कहां हैं?
क्या संविधान में बदलाव चाहता है संघ?
भारत के संविधान को ले कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस के विचारों की आलोचना होती रहती है. असल में संघ ताकत को जुटा ही इसलिए रहा है कि 1947 में बने संविधान को कमजोर बना दिया जाए. 2024 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा ने 400 पार का नारा दिया तो जनता के मन में स्वाभाविक सवाल उठ खड़ा हुआ कि भाजपा को लोकसभा में 400 से अधिक सीटें क्यों चाहिए?
भाजपा के कई नेताओं ने जवाब में कह भी दिया था संविधान संशोधन के लिए 400 से अधिक सीटें चाहिए ताकि वे मौजूदा संविधान को गंगा में बहा सकें. देश का जनमानस इस के लिए भाजपा को 400 सीटें देने को तैयार नहीं था. उस ने भाजपा को बहुमत की सरकार बनाने का मौका ही नहीं दिया. उस ने मात्र 240 सीटें दे कर केंद्र में ऐसा जनादेश दिया कि जिस से भाजपा ताकतवर न हो कर सहयोगी दलों के साथ ही सरकार बना सके.
आरक्षण को ले कर बिहार विधानसभा चुनाव के समय संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा था कि इस की समीक्षा की जरूरत है तो भाजपा बिहार का विधानसभा चुनाव हार गई.
भारत के संविधान के साथ संघ का रिश्ता काफी अलग रहा है. संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर अपनी किताब ‘बंच औफ थौट्स’ में लिखते हैं-
‘हमारा संविधान भी पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों के विभिन्न अनुच्छेदों का एक बोझिल और विषम संयोजन मात्र है. इस में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे हमारा अपना कहा जा सके. क्या इस के मार्गदर्शक सिद्धांतों में एक भी ऐसा संदर्भ है कि हमारा राष्ट्रीय मिशन क्या है और जीवन में हमारा मुख्य उद्देश्य क्या है?’
बताया जाता है कि भारत को आजादी मिलने से एक दिन पहले 14 अगस्त, 1947 को संघ के मुखपत्र ‘और्गनाइजर’ ने लिखा कि ‘भाग्य के बूते सत्ता में आए लोग भले ही तिरंगा हमारे हाथों में थमा दें लेकिन हिंदू इस का कभी सम्मान नहीं करेंगे और इसे अपनाएंगे नहीं.’
जानेमाने वकील ए जी नूरानी अपनी किताब ‘द आरएसएस अ मीनेस टू इंडिया’ में लिखते हैं कि संघ भारतीय संविधान को अस्वीकार करता है.’ अपनी बात को सही ठहराते हुए वे लिखते हैं- ‘संघ ने 1 जनवरी, 1993 को अपना श्वेतपत्र प्रकाशित किया, जिस में संविधान को ‘हिंदू विरोधी’ बताया गया. इस के मुखपृष्ठ पर 2 सवाल पूछे गए थे. पहला भारत की अखंडता, भाईचारे और सांप्रदायिक सौहार्द को नष्ट करने वाला कौन है? दूसरा, भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और अधर्म किस ने फैलाया है? इस का जवाब ‘श्वेतपत्र में वर्तमान इंडियन संविधान’ शीर्षक के तहत दिया गया था.
यह श्वेतपत्र 6 दिसंबर, 1992 को हुए बाबरी मसजिद विध्वंस के कुछ ही दिनों बाद छपा था. संघ देश के संविधान को इंडिया का संविधान मानता है, भारत का नहीं. जब भी मौका मिलता है, संघ इस बात को साबित करने का प्रयास करता है.
अपनी किताब में ए जी नूरानी लिखते हैं कि जनवरी 1993 में संघ के प्रमुख रहे राजेंद्र सिंह ने लिखा कि संविधान में बदलाव की जरूरत है और भविष्य में इस देश के लोकाचार और प्रतिभा के अनुकूल संविधान अपनाया जाना चाहिए.
बहरहाल, राष्ट्रपति के 14 सवाल संविधान को कमजोर करने का एक कदम हैं वरना सरकार को यह स्पष्ट है कि 2014 से पहले गुजरे 60 सालों में किसी राज्यपाल ने लंबे समय तक विपक्षी दल की राज्य विधानसभा के पारित विधेयकों को नहीं रोका.
देश और समाज को जोड़ता है संविधान
असल में संविधान ही वह इकलौता फैब्रिक है जो पूरे देश और समाज को जोड़ कर रखने का काम करता है. जिस भी देश में संविधान मजबूत होता है वह राष्ट्र तरक्की करता है. अमेरिका इस का एक बड़ा उदाहरण है. अमेरिका 4 जुलाई, 1776 को स्वतंत्र हुआ. उस समय उस की हालत बेहद खराब थी. इस के बाद 1787 में उस ने अपना संविधान लिखना शुरू किया. 1789 में अमेरिका के सभी राज्यों में संविधान लागू हुआ. आज तक यह पूरे अमेरिकी राज्यों को जोड़ने का काम कर रहा है. इसी कारण अमेरिका दुनिया का सब से ताकतवर देश है.
भारत जब 1947 में आजाद हुआ तो यहां भी बहुत सारी दिक्कतें थीं. तमाम छोटेछोटे राज्य थे. भाषा, बोली और क्षेत्र के नाम पर बहुत सारे अलगाव थे. धर्म व जाति को ले कर साथ चलना और दिक्कत का काम था. धर्म के नाम पर देश विभाजित हो चुका था. ऐसे में संविधान ही अकेली ऐसी ताकत है जो देश को जोड़ कर रखने में सफल हुई. आज बड़ी सारी दिक्कतों के बाद भी संविधान की ताकत के कारण ही देश एकजुट दिखता है. इस की वजह से देश में कोई भी अलग होने की बात नहीं कर रहा है.
राष्ट्रपति ने जो 14 सवाल पूछे हैं वे संविधान को कमजोर करने वाले हैं. सुप्रीम कोर्ट असल में संविधान की रक्षा करने का काम करती है. 1975 में जब देश में इमरजैंसी लगी तो संविधान की ताकत देखने को मिली. 2 साल के बाद 1977 में लोकतंत्र की वापसी हुई. इस के बाद चुनाव में इंदिरा गांधी हार गईं. संविधान ने ही देश को बचाने का काम किया था.
देश का खजाना सरकार के पास भले ही होता है लेकिन उस की चाबी सुप्रीम कोर्ट के पास होती है. यह बात केंद्र सरकार को खटक रही है. खासतौर पर 42वें संशोधन से संविधान में जो मूल ढांचा तैयार किया गया, भारतीय जनता पार्टी उस की आलोचक रही है.
यह संशोधन 1976 में आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार द्वारा पारित किया गया था. इस संशोधन द्वारा कई महत्त्वपूर्ण बदलाव किए गए. उन में सब से प्रमुख संविधान की प्रस्तावना में संशोधन था. संविधान की प्रस्तावना में ‘संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य’ के स्थान पर ‘संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य’ जोड़ा गया. ‘राष्ट्र की एकता’ के स्थान पर ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता’ से जोड़ा गया. अब राष्ट्रपति ने जो 14 सवाल पूछे हैं वे देश को ‘एक देश एक शासक की भावना’ की तरफ ले जाने का काम करेंगे.
संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को अधिकार दिए हैं, उस की वजह यह थी कि संविधान संसद और प्रधानमंत्री को देश का राजा नहीं बनाना चाहता था.