Emotional Story : मांबेटी के बीच जुड़े प्यार के तार वही समझ सकता है जिस ने खुद उसे महसूस किया हो. कविता अपनी हर सांस आज मां के साथ जी लेना चाहती थी, लेकिन वक्त कहां था.

‘‘कविता जल्दी आ जा, मां की हालत बहुत खराब है. वे बोल भी नहीं पा रहीं. बस, चारों ओर बेचैनी से तुझे ढूंढ़ रही हैं.’’

जैसे ही कविता के भाई विनम्र ने कविता को फोन पर बताया, उस के हाथों से फोन गिर गया. उधर भाई फोन पर हैलोहैलो बोले जा रहा था पर कविता को तो कुछ होश नहीं. वह लगभग गिरने ही वाली थी कि बड़ी मुश्किल से दीवार के सहारे खुद को संभाल धम्म से सोफे पर बैठ गई. आंखों से अश्रुधारा गालों पर उस नदी की तरह बहने लगी जैसे बारिश में नदी अपने रौद्र रूप में बहती है. मन तो उस का कब का मां के पास पहुंच चुका था परंतु तन, तन से तो अब भी वह यहीं थी, मां से दूर. वह बेचैन हो रही कि कैसे फटाफट मां के पास जाऊं, एक बार उन्हें अपने गले से लगा लूं, अपनी आंखों में भर लूं.
‘‘कविता, क्या हुआ, सामान पैक करो, हमें तुरंत निकलना होगा,’’ कविता के पति अशोक हड़बड़ी में कमरे में प्रवेश करते हुए बोले पर कविता यहां हो तब न. जब अशोक ने उसे झिंझोड़ा तो वह वर्तमान में आई और अशोक के गले लग कर रो पड़ी, ‘‘अशोक, मां, मुझे मां के पास ले चलो.’’
‘‘हां कविता, चिंता मत करो. तुम खुद को संभालो. हम चल रहे हैं. हिम्मत रखो. सफर बहुत लंबा है.’’
और अशोक ने बड़ी मुश्किल से कविता व खुद के कपड़े बैग में रखे. नीचे गाड़ी खड़ी थी, अशोक और कविता गाड़ी में आ कर बैठ गए. 14-15 घंटे का सफर है, कैसे कटेगा यह सफर, कहीं सफर के खत्म होने से पहले ही मां… कविता के मन में बुरे खयाल आने लगे.
नहीं मां, प्लीज, तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकतीं. आप तो हमेशा से धैर्य की मूर्ति रही हैं. मां को अशोक बहुत पसंद थे. बस, इस बात का मलाल था कि कविता शादी कर इतनी दूर दूसरे शहर में चली जाएगी कि देखने को आंखें तरस जाएंगी. कभीकभी वे कविता से कहतीं भी, ‘बेटा डर लगता है कहीं ये आंखें तुझे देखे बिना ही न बंद हो जाएं.’
कविता इस बात पर मां से रूठ जाती तो मां उसे मनाते हुए कहती, ‘अरे बेटा, मौत से कह दूंगी मेरी लाडो को देखे बिना मैं न जाने वाली.’
कविता डर गई, कहीं उस की मां का डर सही न हो जाए. वह घबरा कर मन ही मन बोली, मां, आप तो हमेशा अपना वादा निभाती थीं. बस, आज भी
निभा देना.
कविता खयालों में मां से बात कर रही थी. बचपन में मैं किसी काम में कितनी देर लगा दूं, तू आराम से मेरा इंतजार करती. कभी तुझे गुस्सा करते नहीं देखा. आज भी याद है मुझे जब तुम मुझे रोटी बनाना सिखा रही थीं, कभी मैं आड़ी बनाती कभी तिरछी और कभीकभी तो भारत का नक्शा पर तू ने कभी भी अपना धैर्य नहीं खोया. उतने ही प्यार और धैर्य से मुझे रोटी गोल बनाना सिखाया.

तू इतने प्यार से मेरी चोटी बनाती और मु?ो पसंद नहीं आती, मैं हर बार तेरी बनाई चोटी खोल देती पर तू अपना धीरज न खोती और उतने ही प्यार से दोबारा से चोटी बनाती. पता नहीं कहां से इतना धीरज था. मैं तो छोटीछोटी बातों में बच्चों पर ?ां?ाला जाती हूं. मां, तू तो बहुत धीरज वाली है. जीवन के हर मोड़ पर, हर पल मेरा साथ दिया, मेरा इंतजार किया. फिर आज भी तुझे धैर्य रखना पड़ेगा.

‘‘मां, मैं आ रही हूं, नहीं, तू ऐसे नहीं जा सकती, नहीं मां, नहीं.’’
खयालों में गुम कविता के मुंह से निकला तो अशोक ने कविता से पूछा, ‘‘क्या हुआ, क्या बोल रही हो?’’

कविता खयालों से बाहर आई. अशोक ने उस के आंसू पोंछ उसे पानी पिलाया. तभी उस के मोबाइल पर भाई का फोन आया. कविता का दिल बहुत घबरा रहा था, क्यों आया फोन, कहीं कुछ… नहीं, नहीं.
‘‘अरे कविता, फोन उठाओ न,’’ अशोक ने कहा तो कविता ने कातर नजरों से अशोक को देखा. अशोक उस की मनोदशा समझ गया. अशोक ने फोन उठाया, उधर से भाई की आवाज आई, ‘‘क्या हुआ जीजाजी, निकल गए आप लोग?’’
‘‘हां विनम्र, हम निकल गए, मां कैसी हैं?’’
‘‘वैसी ही हैं. बस, कविता का इंतजार कर रही हैं.’’

फोन स्पीकर पर था, यह सुनते ही कविता बोली, ‘‘भैया, मैं आ रही हूं, तब तक मां को…’’ कहते हुए कविता की आवाज रुंध गई, उस से आगे बोला न गया और वह अशोक के सीने में मुंह छिपा कर रोने लगी.

जिस गति से गाड़ी भाग रही थी, कविता का दिमाग उस से तीव्र गति से अपनी मां की यादों में भाग रहा था. जब से पापा इस दुनिया से गए तब से कविता और उस की मां सहेली बन गईं. सोलह साल की ही तो थी कविता जब उस के पापा नहीं रहे. तब से मां को अकेले लड़ते देखा है. उन का अकेलापन, तनहाई, उदासी कविता ने महसूस की है. भले वह बोले न पर कविता से उन की आंखों की उदासी छिप नहीं पाई.

याद है उसे अशोक से उस की शादी भी आसान न थी. जब उस ने घर पर बताया कि वह अशोक से शादी करना चाहती है तो सब ने उस का विरोध किया भाईभाभी, नातेरिश्तेदार सब. कारण, एक तो अशोक दूसरी जाति का था, फिर उस वक्त उस की आर्थिक हालत भी ज्यादा अच्छी नहीं थी पर कविता जातिधर्म के बंधन को नहीं मानती थी. वह यह जानती थी कि अशोक बहुत मेहनती और अपनी धुन का पक्का है और एक दिन वह खुद को साबित कर के रहेगा पर जब कोई उस की बात नहीं मान रहा तो वह मां ही तो थीं जिन्हें न सिर्फ अपनी बेटी पर बल्कि अशोक पर भी भरोसा था. वे जानती थीं कि उन की बेटी कभी कोई गलत निर्णय नहीं लेगी. उन्हें अपने दिए संस्कारों पर ज्यादा भरोसा था या कविता पर, कहना मुश्किल था और उन्होंने सब को अपना निर्णय सुना दिया कि कविता की शादी अशोक से ही होगी.

मां अपनी बेटी के निर्णय के समर्थन में सब के सामने चट्टान की भांति खड़ी थीं पर बाहर दिखती इस चट्टान का भीतर का डर सिर्फ कविता ने देखा था. याद है शादी से पहले मां ने अपना डर अशोक के सामने जाहिर किया, ‘बेटा, इस के पिता को गए कितने बरस हो गए, तब से अकेले संभाला है सबकुछ. एक अकेली औरत के हर निर्णय को समाज न ही कभी गंभीर लेता बल्कि उसे गलत साबित करने का मौका ढूंढ़ता है. कहीं मेरे इस निर्णय को…’

मां अशोक के सामने हाथ जोड़े खड़ी थीं. कविता मां की हालत देख अपने निर्णय पर सोचने लगी कि कहीं वह कुछ गलत तो नहीं कर रही पर उस वक्त अशोक ने मां को यकीन दिलाया कि वह उस के भरोसे के लायक बन कर दिखाएगा और वह मां का ही विश्वास था जिस अशोक को कोई अपनाने को तैयार न था, आज नातेरिश्तेदारों में उस का कितना सम्मान है.

गाड़ी अपनी गति से भाग रही थी. वैसे तो लंबे सफर पर कविता को नींद आते देर नहीं लगती पर आज उस की आंखें कैसे बंद होतीं जब तक वह अपनी मां को न देख ले. अशोक ने कविता के चेहरे पर बिखरे बालों को सही किया और उस के कंधे पर हाथ रख उसे हौसला दिया.

इधर कविता अब भी अपने खयालों में ही गुम थी. शादी के बाद शुरू में तो नियमित रूप से मां के पास महीना बिता कर आती पर जैसेजैसे बच्चे बड़े हुए, जिम्मेदारी बढ़ी. मां के पास जाना कम हो गया. मां कितनी बार उलाहना देतीं, ‘तेरे पास तो अब मेरे लिए समय नहीं. तू अपने बच्चों में व्यस्त हो गई पर मैं किस के पास जाऊं?’

मां के अनुरोध करने पर 2-4 दिन बिता कर आती, कई बार लगता भी जिस मां ने हमारे लिए सारी जिंदगी गुजार दी उस के साथ रहने को दो पल, दो दिन का भी समय नहीं है पर जिम्मेदारियों के आगे वह मन मसोस कर रह जाती.

आज उस को लग रहा था, काश, मां कुछ दिन और… तो मैं उन को छोड़ूंगी नहीं. उन की सारी शिकायत दूर कर दूंगी. सही है, हमारे पास जब जो चीज होती है तब उस की कद्र नहीं होती और उस के न होने पर ही उस की कमी महसूस होती है. और फिर, बस, रह जाते हैं काश… बहुत सारे काश.

आखिर गाड़ी कविता की मां के घर के सामने रुक गई. एक अजीब सा सन्नाटा दिख रहा था. आज यहां कविता के मन में बुरे खयाल आ रहे थे. कहीं मां ने धीरज तो नहीं खो दिया? नहीं मां, तुम ऐसे नहीं जा सकतीं और कविता गाड़ी का दरवाजा खोल मां के पास भागी. अंदर मां पलंग पर लेटी हैं. कविता मां के पास जा कर उन से लिपट गई-
‘‘मां, देखो, मैं आ गई, मैं आ गई, मां.’’
मां ने धीरे से आंखें खोलीं, ‘‘आ गई बेटा, बड़ी देर लगा दी. बहुत इंतजार करवाया पर अब और धीरज नहीं
रख सकती.’’
‘‘नहीं मां, बस, कुछ देर और.’’
और दोनों मांबेटी गले लग कर रोती रहीं. कविता मन ही मन सोच रही थी, सच, मां तो मां है. आज भी उन्होंने अपनी बेटी के लिए आखिर धीरज रख ही लिया, पर कब तक?

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