Best Hindi Story : मेरी यात्राएं मेरे लिए ऊर्जा के समान हैं. उदासी को पीछे छोड़ खुद को खोजने की कोशिश में निकल पड़ती हूं अकेली, अनजान रास्तों पर.
यों तो मैं ने कई यात्राएं कीं लेकिन मेरी यह यात्रा अन्य से बहुत अलग थी. यात्राएं मेरे लिए हील करने का सफल व आसान उपचार हैं. जब भी मु झे अवसाद घेरने लगता है, मैं यात्राओं पर निकल जाती हूं.
यात्राओं से मु झे एक अलग ही स्तर की ऊर्जा मिलती है. कभीकभी आत्ममंथन करने पर मैं समझ नहीं पाती, क्या मैं परेशानियों, पीड़ाओं या स्वयं से डर कर यात्राओं के अंक में छिप जाना चाहती हूं या यात्राओं के माध्यम से दूर ऐसी जगह निकल जाना चाहती हूं जहां मु झे कोई न पहचाने, पीड़ा मु झे छू तक न पाए, अवसाद के काले बादल मु झ पर बरस न पाएं? लेकिन हमेशा निरुत्तर ही रह जाती हूं.
यह यात्रा भी कुछ ऐसी ही थी. जीवन में कुछ अच्छा नहीं चल रहा था. प्रेम राह भटके बादल की तरह आया और कुछ बूंदें बरसा, मेरे तृप्त जीवन को अतृप्त कर न जाने कहां अदृश्य हो गया. अभी पीड़ा कम भी न हुई थी कि सब से नजदीकी इंसान ने पीठ पर जबरदस्त वार कर घायल कर दिया.
प्रेम का दावा करने वालों के प्रेम का भयावह चेहरा देख आहत हुई. समाज द्वारा स्त्रियों पर लांछन लगाए जाते हैं लेकिन यहां तो उस के द्वारा लगाए गए, जो मेरे प्रति सम्मान की बात करता था. वह बहुत दुखद वक्त था मेरे लिए. मैं कुछ सम झ नहीं पा रही थी. मु झे कोई अपना नहीं दिख रहा था. मैं चिल्लाना चाहती थी, चीखचीख कर रोना चाहती थी, किसी के सीने से लग जाना चाहती थी.
तब, तब मु झे यात्रा याद आई. मैं खुशी की तलाश में निकल जाना चाहती थी या इन सब परिस्थितियों से कायरों की तरह निकल कर भाग जाना चाहती थी, नहीं जानती. कभीकभी जीवन के संघर्ष में कायर बन जाने में कोई बुराई नहीं. इस तरह मेरी सोलो ट्रिप और पहली हवाई यात्रा की पृष्ठभूमि तैयार हुई.
बेटे और बेटी ने मेरे लिए ग्वालियर का हवाई टिकट बुक कर दिया और मेरी झोली में खुशी का टुकड़ा डाल मेरे साथ ट्रिप की रूपरेखा तैयार करने लगे. मैं उन का यह सान्निध्य सम झ रही थी. वे इन सब बातों से जता देना चाहते थे कि मैं अकेली नहीं हूं और वे मु झ से बहुत प्रेम करते हैं जो कि मैं अच्छे से जानती थी.
तीसरे दिन मैं अपनी उड़ान भरने के लिए घर से निकल पड़ी. यात्रा की खुशी और पहली बार हवाई यात्रा के उत्साह के सम्मुख जो कुछ हुआ था उस की पीड़ा गौण हो गई. अचानक मानो मेरे पंख उग आए हों और मैं उड़ने लगी. सारी औपचारिकताएं मैं ने पहली हवाई यात्रा होने के बावजूद पूरे आत्मविश्वास के साथ पूरी कीं और अपने टर्मिनल पर समय से पहले पहुंच गई.
मेरे मनमस्तिष्क में अनेक विचार समंदर की लहरों के समान हिलोरें मार रहे थे. उन का आवागमन निरंतर चल रहा था. मैं किसी एक को धप्पा कह पकड़ लेना चाहती थी.
मैं सोचने लगी, आत्मनिर्भर और खुद कमाने वाली कितनी महिलाएं यों किसी यात्रा पर निकल सकती हैं? सोलो तो छोडि़ए, वे अपने दोस्तों के ग्रुप में भी नहीं निकल पातीं. उन के लिए घर की दहलीज पार करना चांद पर पहुंचने जितना ही कठिन है. उन्हें कभी फैमिली से इतर कोई विचार ही नहीं आता होगा. घर, औफिस और बच्चे, इस से आगे उन्हें सोचने ही नहीं दिया जाता जबकि मर्द घर और बच्चों से बिलकुल निश्ंिचत हो कर दोस्तों के साथ हैंगआउट, पार्टी और ट्रिप करते ही रहते हैं.
घरगृहस्थी की थकानभरी जिंदगी व औफिस की परेशानियों से पुरुष अपने दोस्तों के साथ मिल कर, 2 कश साथ में सिगरेट के खींच कर व छोटेमोटे गेटटुगेदर कर खुद को रिफ्रैश कर लेते हैं. लेकिन महिलाओं के कितने दोस्त होते हैं? यदि वर्किंग है तो औफिस में कुछ औफिशियल बातें शेयर कर लीं, बस.
सब से अधिक तो घरेलू सहायिकाएं हैं जो बेजान सी उठ कर पहले खुद के घर के उबाऊ घरेलू काम खत्म करती हैं और फिर चल देती हैं अन्य घरों में उबाऊथकाऊ काम करने जिस में कोई ऊर्जा नहीं, प्रमोशन का चांस नहीं, कोई छुट्टी नहीं, टीए- डीए कुछ नहीं, केवल यांत्रिक जीवन.
कुछ पुरुष हम से बोलते हैं कि अपनी दशा सुधारने के लिए औरतों को खुद क्रांति करनी होगी जबकि मेरे अनुसार उन की क्रांति की राह में सब से बड़ी बाधा विवाह संस्था व परिवार है. कुछ औरतों द्वारा इस का बहिष्कार करने के कारण यही तथाकथित प्रगतिशील पुरुष त्राहिमाम करने लगे हैं. यदि अन्य महिलाएं ऐसा करेंगी तब क्या ये प्रगतिशील पुरुष उन के सहयोगी बनेंगे? किसी ने कहा था कि जब तक विवाह संस्था जीवित है तब तक महिलाएं आजाद नहीं हो पाएंगी. यदि आप मंथन करेंगे तो पाएंगे कि कुछ न कर पाने की असमर्थता का मूल कारण परिवार ही होता है.
मैं अभी इन लहरों के उतारचढ़ाव में बह ही रही थी कि मेरे फोन की रिंग ने समंदर की इन गहराइयों से मु झे बाहर खींच लिया. मैं ने फोन देखा और बिना किसी भाव के फोन काट दिया. मैं जिस से भाग रही थी वह फोन के माध्यम से मेरे पीछेपीछे हवाई अड्डे आ पहुंचा था और मैं उसे अपनी यात्रा का अतिक्रमण नहीं करने देना चाहती थी, इसीलिए फोन को फ्लाइट मोड पर डाल दिया.
तभी चैक-इन की घोषणा हुई और मैं इतने वेग से भागी मानो वे मु झे छोड़ जाएंगे. पलक झपकते ही मैं अपनी विंडो सीट पर थी, ऊर्जा से भरी और सभी परेशानियों को उसी टर्मिनल पर छोड़ कर. प्लेन धीरेधीरे रेंगने लगा और मेरी धड़कन बढ़ने लगी. कई तरह के नकारात्मक और सकारात्मक विचार मेरे दिमाग में डूबने और तैरने लगे लेकिन मैं खुश थी, बहुत खुश.
कुछ ही देर में हम बादलों के बीच में थे. जो बादल धरती से दिखाई देते थे, मैं आज उन के बीच थी. मन करता किसी तरह स्पर्श कर लूं, जोकि असंभव था. एकाएक कालिदास की मेघदूतम स्मृतिपटल में घूमने लगी. मन कल्पनाओं के बादल में उड़ने लगा, क्या ये बादल भी किसी का प्रेमसंदेश ले कर उड़ रहे हैं? क्या ये मेरे दूत बनेंगे? क्या ये मेरे कहने पर उसे प्रेमवर्षा में भिगो कर सराबोर करेंगे? मैं अधेड़ उम्र में एक षोडशी की भांति खुद से ही शरमा गई और खुद को संभालने की कोशिश करने लगी. किसी ने सच ही कहा है कि ‘प्रेम वही जो प्रौढ़ावस्था में किशोरावस्था ला दे.’ अब उस के स्मृतिमेघ मु झ पर मूसलाधार बरसने लगे और मैं बाहर उन बादलों को देखदेख न जाने कब तक उस वर्षा में भीगती रही.
ये श्वेत मेघ हिम से ढके हिमालय के शिखर जान पड़ते थे. मानो चहुंओर बर्फ ने संपूर्ण हिमालय को अपने अंक में समेट लिया हो. कहींकहीं पर बादलों के बीच में नीला आकाश यों नजर आता था जैसे हिमखंडों के बीच नीले निर्मल पानी का सरोवर.
मैं इन बादलों में विचरण कर ही रही थी कि नीचे छोटेछोटे घर, खेतखलिहान व बारीक धागे की डोर सी नदी नजर आने लगी और इस तरह प्लेन के साथसाथ मेरी कल्पनाओं की भी लैंडिंग हो गई.
एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही दिल्ली की ही तरह गरमी बहुत अधिक थी, गरमी से बुरा हाल था. मैं जल्द से जल्द किसी होटल में पहुंच फ्रैश हो कर घूमने निकल जाना चाहती थी. एयरपोर्ट के बाहर टैक्सी पंक्तियों में खड़ी थीं. मैं ने उन पंक्तियों को पार किया और सहूलियत के अनुसार एक औटो ले लिया और उसे उचित दर के होटल में ले चलने को कहा.
थोड़ी देर में हम एक होटल के बाहर थे. मैं ने औटो का किराया दे कर औटो वाले को फारिग कर दिया. बैग और सूटकेस घसीटते मैं होटल के अंदर पहुंची. रिसैप्शन पर बैठे आदमी से रूम के बारे में पूछा. उस ने मु झे घूरा, पूछा, ‘‘अकेली हो?’’ मैं ने भी लापरवाही और विश्वास के साथ जवाब दिया, ‘‘हां, क्यों?’’ उस ने क्यों का जवाब दिए बिना बेरुखी से 1,500 रुपए बताए और कड़ी आवाज में बोला, ‘‘तीसरी मंजिल है और हां, लिफ्ट नहीं है.’’ मानो वह रूम न देना चाहता हो और साथ ही, चाहता हो कि मैं खुद ही मना कर दूं.
मैं चाहती तो उस से मोलभाव कर किराया कम करवा सकती थी लेकिन मु झे नीरस, रूखे और खड़ूस लोग बिलकुल नहीं पसंद. मैं ने मन ही मन निर्णय लिया कि यहां रूम 500 रुपए में भी मिल जाए तो भी मैं लेने वाली नहीं. मैं होटल से निकल कर चिलचिलाती धूप में दूसरा होटल खोजने निकल पड़ी. कुछ आगे जा कर एक होटल मिला जो बहुत सही लगा. सो, दोचार सीढि़यां चढ़ी ही थी कि अंदर से एक कर्मचारी तुरंत आया और मेरे हाथ से बैग ले लिया व दूसरे ने गेट खोल दिया.
रिसैप्शन पर बैठे व्यक्ति ने मुझ से वही सवाल दागा, ‘‘आप अकेली हैं?’’ अब मैं थोड़ा चिढ़ गई और बिना जवाब दिए उस पर सवाल का पलटवार करते हुए पूछा, ‘‘क्यों, क्या ग्वालियर में औरतों के अकेले आने पर बैन है?’’ वह हंसने लगा और रूम का किराया वही 1,500 रुपए बताया.
मेरे दिमाग में सभी पढ़े हुए यात्रा वृत्तांत घूमने लगे. हमें कम से कम खर्चीली यात्रा करनी चाहिए. यदि सभी सुविधाएं चाहिए तो यात्रा का क्या मजा. मेरा ध्यान सिर्फ सुरक्षा पर केंद्रित था. मैं ने उस से मोलभाव करना शुरू किया तो अंत में वह 1,000 रुपए पर मान गया. इस दौरान उस ने बताया कि प्रतियोगी परीक्षा के कारण रूम मिलना मुश्किल है.
यह समस्या मैं अपनी नैनीताल की यात्रा के दौरान भुगत चुकी थी. मैं ने सुरक्षा की दृष्टि से रूम और होटल का मुआयना किया और चैकइन कर लिया. उन्होंने मु झे होटल का नंबर दिया कि कभी बाहर कोई प्रौब्लम हो तो इस नंबर पर कौल करना, अपने होटल का नाम याद रखना वगैरहगैरह. मानो उन पर मैं एक जिम्मेदारी की भांति लद गई हूं, मानो उन के कंधों पर टनों भार रख दिया गया हो.
दुनिया कुछ पाशविक मर्दों के कारण असुरक्षित हुई और कैद महिलाएं हुईं या उन्हें एक जिम्मेदारी के रूप में स्थापित कर दिया गया. मानो वे मानवी न हो कर मात्र एक जिम्मेदारी हैं. बस, किसी भी तरह से निभ जाए. मैं अपना बैग उठा कर अपने रूम में जा ही रही थी कि एक कर्मचारी ने मु झ से बैग ले लिया और रूम में ले गया. जो भी हो, इस होटल का स्टाफ मिलनसार तो था. अब तक 2 बज चुके थे और मैं धूप में ही घूमने निकल पड़ी.
मैं किसी यात्रा पर निकलती हूं तो उस पर पूरा शोध कर के निकलती हूं. मैं ने निश्चय किया था कि अन्य जगहों पर घूम पाऊं या नहीं, गोपाचल पर्वत जरूर जाना है. गोपाचल पर्वत पर 7वीं से 15वीं शताब्दी के मध्य प्रकृति की गोद में पर्वतों के शीर्ष पर चट्टानों को काट कर मूर्तियां बनाई गई हैं. यह स्मारक बनने से पहले यहां घास के मैदान हुआ करते थे जहां ग्वाले गाय चराने आते थे. माना जाता है कि संभवतया इसीलिए इस का नाम गोपाचल पर्वत पड़ा. यहां पहुंचने का रास्ता बाद में कभी बने जैन मंदिर के पास से गुजरता है.
मैं औटो से वहां पहुंची. मु झे देख मंदिर का एक व्यक्ति आया और उस ने मु झे बताया कि गोपाचल मंदिर 5 बजे खुलेगा, अभी बंद है. मेरे होमवर्क के अनुसार, मंदिर बंद नहीं होना चाहिए था. मु झे उस के बोलने के तरीके में कुछ पूर्वाग्रह टाइप भी लग रहा था. मैं कहीं न कहीं उस के टालने का मूल कारण सम झ रही थी. उसे शायद मेरे पाश्चात्य पोशाक से परेशानी थी. फिर मु झे लगा मैं शायद ज्यादा सोच रही हूं, सो, अपने जूते पहन निकल गई वहां से. वापस होटल जाती तो थकान से नींद आ जाती और मेरा आज का दिन व्यर्थ हो जाता.
मैं ने चिडि़याघर जाने का निश्चय किया क्योंकि फोर्ट थोड़ा दूर था और बंद होने का समय हो रहा था. धूप बहुत थी. आसपास पानी की दुकानें नहीं थीं. बोतल का पानी खत्म हो चुका था. लेकिन मेरे घुमक्कड़ मन ने हार न मानी.
नीचे उतर कर कुछ दूर पैदल चल मेन रोड पर आ गई. वहां से शेयरिंग औटो रिकशा में बैठी जिस में कुछ लड़कियां थीं. मैं ने उन से बातचीत शुरू कर दी और वहां के बारे में पूछा. वे बहुत मिलनसार प्यारी लड़कियां थीं. उन्होंने बड़े उत्साह से वहां के पर्यटन स्थलों के बारे में बताया. अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच कर उन्होंने विदा ली और रिकशे वाले ने रिकशा चिडि़याघर की ओर मोड़ लिया.
चिडि़याघर पहुंच कर मालूम चला कि शुक्रवार को वह बंद ही रहता है. अब थोड़ी झुं झलाहट हुई. 5 बजे तक कहीं भी समय व्यतीत करना था जिस में समय का दुरुपयोग नहीं बल्कि सदुपयोग हो. रिकशे वाले ने मु झे गूजरी महल जाने की राय दी जोकि ग्वालियर किले का हिस्सा था और जिस चोटी के शीर्ष पर किला था उसी के तल में गूजरी महल भी था. मैं ने मस्तिष्क में सभी योजना बना ली, गूजरी महल देख कर गोपाचल जाऊंगी और किला भ्रमण कल करूंगी. मैं वापस रिकशे में बैठ गई और गूजरी महल पहुंच किराया दे कर टिकट लेने पहुंची.
अंदर पहुंच कर मैं गूजरी महल में रखे पुरातन मूर्तिकला और स्मारक देख अलग ही कल्पनाओं में खो गई. तभी एक युवक आ कर उन प्रतिमाओं से संबंधित जानकारी देने लगा और मैं पूर्ण ध्यान लगा सुन रही थी. दोचार प्रतिमाओं से संबंधित जानकारी देने के बाद उस ने बताया कि मु झे आगे अकेले ही सब देखना होगा या फिर उसे गाइड के रूप में नियुक्त करना होगा. यह कुछ ऐसा था जैसे किसी को पहले नशे का आदी बनाया जाए और फिर नशीले पदार्थों से कमाया जाए. खैर, मु झे सब जानने का उत्साह था, इसीलिए मैं ने हामी भर दी.
हम ने विभिन्न कालों की विभिन्न प्रकार की मूर्तियां, कलाकृतियां देखीं जिन में 5वीं सदी की नायिकाओं की अलगअलग प्रकार की केशसज्जा दिखाई गई थी. मैं देख कर विस्मित थी, कितनी अद्भुत रचनात्मकता थी उस काल में भी. उस में खूबसूरत शालभन्जिका की प्यारी सी मुसकान वाली प्रतिमा भी थी.
आज हम कई नवीन उपकरणों का प्रयोग करते हैं और तब उन्होंने सीमित उपकरणों से ये आश्चर्यचकित कर देने वाले चमत्कार कर दिए. गूजरी महल का पूरा संग्रहालय देखने के पश्चात अब हम महल देखने लगे. गाइड ने बताया कि राजा मान सिंह तोमर की 9वीं रानी मृगनयनी थी जो गूजर जाति से संबंधित होने के कारण गूजरी भी कहलाती थी.
बताया जाता है कि एक बार राजा मान सिंह तोमर शिकार के लिए जा रहे थे. रास्ते में राई गांव में 2 भैंसें आपस में लड़ रही थीं. कोई भी उन्हें हटा नहीं पा रहा था. यहां तक कि राजा के सैनिकों व योद्धाओं ने भी प्रयत्न कर छोड़ दिया. तभी भीड़ को चीरती हुई एक कन्या आई जिस के सिर पर पानी का मटका था. उस कन्या ने एक हाथ से मटका संभालते हुए अपनी बुद्धिमत्ता व साहस से उन दोनों भैंसों को अलग कर दिया. यह देख राजा अचंभित हो गए और कन्या के प्रेम में पड़ गए.
इतिहास में कई ऐसी कहानियां दफन हैं जिन में लड़कियों के साहस व बुद्धिमानी के कारण बड़ेबड़े योद्धा या राजेमहाराजे बड़ेबड़े युद्ध तो जीत गए लेकिन प्रेम में हार गए. लड़की पर आसक्त राजा ने विवाह प्रस्ताव भिजवाया जिसे उस लड़की ने 3 शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया.
पहली शर्त यह थी कि वह उन की अन्य 8 रानियों के साथ नहीं रहेगी, सो, उसे अलग से महल चाहिए, जो आज गूजरी महल के नाम से प्रसिद्ध है. दूसरी शर्त के अनुसार राजा कहीं भी जाएंगे वह भी उन के साथ जाएगी. तीसरी व अंतिम शर्त यह थी कि वह अपने ही गांव का पानी पिएगी यानी राई गांव का ही पानी पिएगी. तीसरी शर्त कठिन थी परंतु राजा ने उस काल की अत्याधुनिक तकनीक प्रयोग कर प्रेम में यह कार्य भी सरल कर दिखाया.
हम पूरा महल घूम चुके थे और गाइड का भी काम खत्म हो चुका था. मैं ने उस की पेमैंट की और अब अकेले ही किला घूम रानी व उस की सखियों की अठखेलियां, कल्लोल, आनंद क्रीड़ाएं व उस प्रेम की उपस्थिति महसूस करने लगी. उस युग को जीने की कोशिश करने लगी. अकेले घूमने का रत्तीभर भी पछतावा नहीं था. मैं ने वहां कुछ वीडियोज बनाए व फोटोज क्लिक कीं ताकि जब मन करे, इन पलों को फोटो के माध्यम से फिर से जी पाऊं. वक्त अब फिर से गोपाचल जाने का संकेत कर रहा था, सो, मैं बाहर निकली और एक औटो ले लिया.
गोपाचल पहुंच मैं ऊपर पर्वत पर पहुंचने के लिए उत्साहित थी. जल्दीजल्दी जूते खोले ही थे कि सुबह वाला मंदिर का वह व्यक्ति फिर आ गया और बोला कि आज मंदिर बंद है (जबकि वह कोई मंदिर नहीं है). बस, अब मेरी सहनशीलता की सीमा समाप्त हो चुकी थी. मैं ने उस से थोड़ी ऊंची आवाज में पूछा, ‘‘आप झूठ बोल रहे हैं न? आप को मेरे पाश्चात्य कपड़ों से शायद कुछ परेशानी है जो मैं सुबह ही भांप चुकी थी. मैं वापस नहीं जाने वाली.’’ इस तरह मैं उस पर प्रश्नों के वार पर वार करते जा रही थी, साथ ही, अनजान शहर में अकेले होते हुए इस तरह झगड़ने के कारण मन ही मन डर भी रही थी.
मुझे लगता है कि निडर से निडर इंसान को भी डर लगता है. लेकिन जो इस डर पर जय पा जाए वही निडर कहलाता है. शोरशराबा सुन मंदिर के अन्य लोग भी आ गए. अब मैं ने अपनी सुरक्षा हेतु वीडियो भी बनाना शुरू कर दिया और सभ्यता के साथ प्रश्नों की बौछार किए जा रही थी. मंदिर के महासचिव द्वारा किसी व्यक्ति को मु झे जाने देने का संदेश दे कर भेजा गया और मैं बहुत खुश हुई.
अब मैं पर्वत पर चढ़ने लगी. प्राकृतिक सुंदरता चारों ओर बिखरी हुई थी. यदि सक्षम होती तो वह मनोहर खूबसूरत दृश्य समेट कर रख लेती. प्राकृतिक सौंदर्य का आंखों द्वारा मधुर पान करते हुए मैं शीर्ष पर पहुंच गई. वहां का दृश्य देख मैं कुछ देर निस्तब्ध अवाक खड़ी रही. पर्वतों को काट कर बनाए गए उन मंदिरों को देख मेरे होश उड़ गए. वहां एक अलग ही शांति का वास था. सुकून ही सुकून पसरा हुआ था.
वहां 26 गुफाएं थीं जिन में मंदिरों का निर्माण किया गया था. चट्टानों पर सुंदरसुंदर नक्काशी मन मोह रही थी. मैं ने खुद को ऊपर आने की लड़ाई लड़ने के लिए शाबाशी दी. यदि मैं ने जिद न की होती तो मैं ये आश्चर्यचकित कर देने वाली कृतियां कभी न देख पाती. कुछ देर वहां की प्राकृतिक शांति को अपने अंदर समेट कर व उन कृतियों की सुंदरता को आंखों में बसा कर मैं वहां से निकल गई.
नीचे पहुंची तो मेरे लिए महासचिव से मिलने का संदेश था. मैं चाहती तो अस्वीकार कर सकती थी लेकिन मेरी जिज्ञासु प्रवृत्ति ने मु झे ऐसा करने से रोक लिया. मैं उन के औफिस में पहुंची तो उन्होंने बड़ी शालीनता और मृदुभाषी बन मेरा परिचय लिया और फिर संस्कृति पर मोरल पौलिसिंग करने लगे. मैं ने भी उन से हार न मानी और लिंगभेद पर प्रश्न दागने लगी कि आखिर क्यों पुरुष का नग्न शरीर प्राकृतिक है और औरत की देह अश्लील? उन के पास इस का कोई उत्तर नहीं था. बस, नियम थे जो युगों से औरतों के लिए बने थे.
उन्होंने बताया कि जैनी महापुरुष बेशक नग्न रहते हैं लेकिन महिलाओं के लिए 6 गज (अच्छे से याद नहीं शायद इस से भी अधिक हो) के बड़े से कपड़े का प्रावधान है जिसे वह कमर से ऊपर ही बांधती हैं. मु झे लगा कि धर्म पर बहस करना व्यर्थ है, सो, मैं ने जाने की आज्ञा मांगी और उन्होंने दोबारा आने के लिए बोल कर आज्ञा दे दी.
होटल आ कर मैं ने अपना खाना और्डर किया और कल की यात्रा का ढांचा तैयार करने लगी. मु झे गूजरी महल में मिले एक युवक का ध्यान आया जो ड्राइवर और गाइड दोनों ही था. अपने दिमाग पर जोर देते हुए मैं ने उस का नाम याद किया और अपने फोन पर नाम ढूंढ़ ही रही थी कि उस का मैसेज दिख गया. यह पहली बार था जब मैं ने यात्रा के दौरान अपना फोन बहुत ही कम चैक किया, इसीलिए मालूम ही नहीं चला कि कब यह मैसेज आया. उस ने भी कल की योजना के बारे में पूछा था कि क्या वह तैयार रहे, क्या उसे बुक किया जा रहा है?
मैं ने उसे फोन किया और उस ने मु झे ग्वालियर फोर्ट के चार्ज बताए. मैं ने उसे पूरा ग्वालियर घुमाने का पूछा और वहां के पर्यटन स्थल के बारे में जानकारी ली. उस ने मु झे बताया कि अगर ऐसा है तो वह कल पहले सिंधिया महल दिखाएगा जो अब होटल में परिवर्तित हो चुका है. मैं ने उस से कहा, ‘‘मु झे सिंधिया महल नहीं देखना जहां अब कोई प्राचीनता नहीं और न ही प्राकृतिकता. फिर मैं क्यों 250 रुपए दे कर पूंजीपतियों की पूंजी बढ़ाने में मदद करूं. हम ने कल के घूमने की योजना तैयार कर ली. इतने में खाना आ गया, खाना खा कर मैं ने कुछ पृष्ठ पुस्तक के पढ़े और सो गई.
दूसरे दिन गाइड वक्त से गाड़ी के साथ हाजिर हो गया. मैं भी तैयार बैठी थी. हम लोग निकल पड़े अपनी आगे की यात्रा पर. हम पहले सूर्य मंदिर गए जोकि बहुत ही खूबसूरत था, तेली मंदिर, तानसेन और उन के गुरु के मकबरे, रानी लक्ष्मीबाई की समाधि होते हुए हम अब ग्वालियर फोर्ट के रास्तों पर थे. इस दौरान मेरी गाइड से अच्छी दोस्ती हो गई. उस का नाम शिवा था. शिवा अपने प्रोफैशन के बारे में बता रहा था. उस ने अपनी पूर्व प्रेमिका, जोकि विदेशी थी, की वीडियो फोटो दिखाई, उस के बारे में बात की.
आगे का अंश बौक्स के बाद
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इन्हें आजमाइए
- हर महीने अपनी आय और खर्च का हिसाब रखें. इस से आप समझ पाएंगे कि पैसा कहां जा रहा है और फुजूलखर्ची कैसे रोकनी है.
- वर्किंग कपल दिनभर की भागदौड़ में थोड़ा वक्त निकाल कर साथ बैठें, जैसे चाय पिएं, फिल्म देखें या टहलने जाएं. ये छोटे पल रिश्ते को गहरा करते हैं.
- प्रैग्नैंसी के दौरान मानसिक शांति के लिए ध्यान, गहरी सांस या पसंदीदा काम करें. तनाव बच्चे और मां दोनों के लिए नुकसानदेह हो सकता है.
- मीडिया और इंटरनैट का इस्तेमाल सोचसमझ कर करें. अनजान लोगों से बात न करें और अपनी निजी जानकारी (जैसे फोटो या पता) शेयर करने से बचें ताकि सुरक्षित रहें.
- गरमी में चेहरे पर सनस्क्रीन जरूर लगाएं और पसीने से बचने के लिए बारबार चेहरा धोएं. गरमी में रैशेज या जलन से बचने के लिए कौटन के कपड़े पहनें.
- टीनऐज में दोस्तों का असर बहुत पड़ता है. ऐसे दोस्त बनाएं जो पौजिटिव सोच रखते हों और अच्छे कामों के लिए प्रेरित करें.
- यूनीक गार्डनिंग के लिए ऐक्सरसाइज गार्डन, हर्ब गार्डन, बटरफ्लाई गार्डन या मिनी जंगल तैयार करें.
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उस ने बताया कि ओरछा में उस का दोस्त रहता है, जिस ने विदेशी से शादी की और वहीं सैटल हो गया. उस ने बताया, ओरछा के उस गांव में अधिकतर लड़के विदेशी लड़कियों से शादी कर विदेशों में ही बस गए हैं. मु झे यह सोच कर आश्चर्य हो रहा था कि लड़कियों को जरा सी बात पर गोल्ड डिगर की उपाधि दे दी जाती है लेकिन यह सामान्य है. यदि भारतीय लड़की गलती से लड़के के साथ अलग रहने लगे तो क्रूर कहलाई जाती है, यहां तो लड़कों के परिवार वाले गर्व के साथ बताते हैं कि उन के बेटे बाहर उन की बहुओं के साथ रहते हैं. नैतिकता और नियम भी परिस्थिति और सुविधाओं पर निर्भर रहते हैं. उस ने बताया कि वह भी जल्द ही विदेश में बस जाएगा और इस तरह धीरेधीरे हम अच्छे हमसफर और दोस्त बन गए.
अब हमारी गाड़ी ग्वालियर फोर्ट की जिगजैग सड़कों पर दौड़ रही थी. जल्द ही हम ने टिकट लिए और ग्वालियर फोर्ट घूमने लगे. यह फोर्ट कम से कम 12 किलोमीटर में फैला हुआ है.
मध्य प्रदेश के किलों की यह विशेष खासीयत है कि इन के स्तंभों, दीवारों और छतों को बहुत ही सुंदर नक्काशी से अलंकृत किया गया है. यहां के छोटे से छोटे पत्थर भी मानो अपने अलंकरण पर इतरा रहे हों. किले, दीवारें, छत, खंडित मूर्तियां, खंडहर की ओर बढ़ते भवन एवं पत्थर तक अपनी सुंदरता के मद में फूलते हुए और खूबसूरत बन पड़ते हैं. मैं उन खूबसूरत नक्काशियों को स्पर्श कर, उन शिल्पकारों की भावनाओं को तलाश रही थी जिन्होंने आज भी इन पत्थरों को अपने शिल्प के माध्यम से जीवंत रखा हुआ था. उन्होंने जब पहली बार अपना संपूर्ण शिल्प कौशल देखा होगा तो क्या महसूस किया होगा, कितने भावुक होंगे?
मैं इन सब बातों की कल्पना कर बहुत अचंभित थी. मैं ने देखा कि गार्ड लोगों से अब किला खाली करने का आग्रह कर रहा है. मु झे यों लगा जैसे समय आज अपनी गति से दोगुने वेग से बढ़ रहा है. हम वहां से सासबहू मंदिर पहुंचे जो उस के ही निकट था. जिस का एक नाम सहस्त्रबाहू भी है. संभव है कि सासबहु, सहस्त्रबाहू का अपभ्रंश रूप हो. यह 11वीं सदी में निर्मित विष्णु का मंदिर है. खूबसूरत नक्काशीदार इस मंदिर को काफी क्षति पहुंचाई गई है. इस मंदिर में अभी कोई भी मूर्ति नहीं और न ही यहां पूजा होती है. मैं ने शिवा से अब चाय की मांग की. वहां से निकल कर हम चाय पीने के लिए सुंदर और प्यारीप्यारी वनस्पतियों के बीच बनी छोटी सी दुकान पर चाय पीने लगे.
8 बजने को थे. पेड़पौधे खुशनुमा मौसम की खुशी में झूम रहे थे. हम चाय पी कर फोर्ट से शहर का नाइटव्यू देखने के बाद चौपाटी जाने की योजना बना ही रहे थे कि फोन फिर बज उठा. अनजान नंबर देख एक बार तो न उठाने का निर्णय लिया क्योंकि मैं कभी अनजान नंबर नहीं उठाती, फिर मु झे याद आया कि मैं तो एक चलतीफिरती जिम्मेदारी हूं, होटल वालों का हो सकता है और यह उन्हीं का फोन था. उन्होंने कहा कि 8 बज चुके हैं, उन्हें फिक्र हो रही थी, इसीलिए फोन कर लिया. मैं ने उन का आभार प्रकट किया और थोड़ी देर बाद पहुंचने को कह दिया.
मुझे उन का फोन करना थोड़ा ठीक भी लगा. खैर, हम ने नाइटव्यू देखा और चौपाटी से खापी कर होटल को निकल गए. ग्वालियर में यह मेरी अंतिम रात थी. कल सुबह की फ्लाइट थी. शिवा ने मु झे आश्वासन दिया कि कल वह वक्त से होटल पहुंचेगा और मु झे एयरपोर्ट छोड़ेगा. मैं ने उस से कहा कि कोई प्रैशर नहीं है छोड़ने का, वह चाहे तो अपने लिए टूरिस्ट देख सकता है. लेकिन उस ने कहा कि वह सच में एक दोस्त को छोड़ने जाना चाहता है. हम ने एकदूसरे से शुभरात्रि कह अलविदा लिया.
दूसरे दिन सुबह जल्दीजल्दी पूरी पैकिंग कर टाइम से होटल का हिसाबकिताब किया ही था कि शिवा की गाड़ी आ पहुंची. पहली बार किसी शहर को छोड़ते हुए कुछ छूटता सा महसूस हो रहा था. होटल के सभी स्टाफ से मैं ने विदा ली और सभी स्टाफ वाले यों पंक्ति से खड़े थे मानो घर से कोई करीबी मेहमान जा रहा हो. सब ने बारीबारी अलविदा कहा. सच में, मैं ने इस से पहले कभी ऐसा महसूस नहीं किया और न ही किसी होटल ने मु झे ऐसा महसूस करवाया. उन्होंने मेरा बैग गाड़ी में रखवाया और हम एयरपोर्ट के लिए निकल पड़े. हम ने रास्ते में बहुत बातें कीं. एयरपोर्ट पहुंच कर यादों में सहेजने के लिए सैल्फी ली और शिवा से भी विदा ली. उस ने कहा कि वह दिल्ली आएगा तो हम मिलेंगे.
मेरा एक सफर समाप्त हो चुका था. मैं फ्लाइट के लिए निकल पड़ी एक नए सफर के लिए.
लेखिका : कशिश नेगी