Women’s Leadership : यह कोई नई बात नहीं है, जब स्त्री को आगे रख कर उस के सारे अधिकार पुरुष ने अपने हाथों में ले लिए. भारत के लोकतंत्र में तो यह आम बात है कि जब कोई महिला सरपंच या मुख्यमंत्री बनती है तो वह महज रबर स्टाम्प ही होती है, कामकाज तो सारा उस के पति, ससुर या बेटे ही चलाते हैं.

महिलाओं की लीडरशिप पर सवाल उठाता एक विवाद दिल्ली में पिछले दिनों तब शुरू हुआ जब दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी मार्लेना सिंह ने दिल्ली की वर्तमान मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के पति मनीष गुप्ता का एक वीडियो एक्स पर पोस्ट कर लिखा कि- इस फोटो को ध्यान से देखिए जो व्यक्ति एमसीडी (दिल्ली नगर निगम), डीजेबी (दिल्ली जल बोर्ड), पीडब्ल्यूडी (लोक निर्माण विभाग) और डीयूएसआईबी (दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड) के अफसरों की मीटिंग ले रहा है वह दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के पति मनीष गुप्ता हैं.

आतिशी ने आगे लिखा कि देश के इतिहास में यह पहली बार हुआ होगा कि एक महिला के सीएम बनने के बाद उन के पति सरकारी कामकाज संभाल रहे हैं. क्या रेखा गुप्ता को काम संभालना नहीं आता? इस वजह से दिल्ली में रोज लंबेलंबे पावर कट हो रहे हैं. प्राइवेट स्कूलों की फीस बढ़ रही है.

‘आप’ नेता सौरभ भारद्वाज ने भी भाजपा प्रदेश अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा से सवाल किया कि सीएम रेखा गुप्ता के पति दिल्ली सरकार में किस पद पर हैं, जो वे सरकारी अधिकारियों के साथ मीटिंग कर रहे हैं? इस तरह की राजनीति करना दिल्ली की 2 करोड़ जनता का अपमान है. उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि सीएम रेखा गुप्ता केवल रबर स्टाम्प की मुख्यमंत्री है. मगर दिल्ली कोई फुलेरा की पंचायत नहीं है.

इस के बाद तो जैसे भूचाल सा आ गया और महिलाओं के नेतृत्व को ले कर एक नया राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया. भाजपा के नेता अपनी खीज उतारने के लिए आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल की पत्नी को भी निशाना बनाते सुनाई दिए जो केजरीवाल के जेल में बंद रहने के दौरान जनता और मीडिया से वार्ता करते दिखाई दी थीं.

यह कोई नई बात नहीं है, जब स्त्री को आगे रख कर उस के सारे अधिकार पुरुष ने अपने हाथों में ले लिए. देश की पंचायतों में तो यह आम बात है कि जब कोई महिला सरपंच बनती है तो वह महज रबर स्टाम्प ही होती है, कामकाज तो सारा उस के पति, ससुर या बेटे ही चलाते हैं.

हां, देश की राजधानी में ऐसी तस्वीर पहली बार नजर आई जब मुख्यमंत्री के पति जो किसी भी सरकारी पोस्ट पर नहीं हैं, इतने बड़ेबड़े विभागों के अधिकारियों के साथ मीटिंग कर रहे हैं. यानी रेखा गुप्ता, जिन की क्षमताओं पर भरोसा कर के दिल्ली की जनता ने दिल्ली की उन्हें कमान सौंपी थी, जनता के हित से जुड़े फैसले वे नहीं बल्कि उन के पति ले रहे हैं? मनीष गुप्ता यदि सरकार में होते तो भी कोई बात नहीं थी, मगर न तो वे सरकार में हैं और न कोई अधिकारी हैं. ऐसे में विपक्ष द्वारा सवाल उठाना गलत नहीं है.

आपने ग्रामीण क्षेत्रों में महिला ग्रामप्रधान के पति द्वारा पंचायत संबंधी काम करने की बातें खूब सुनी होंगी लेकिन अब पति एक सीढ़ी ऊपर चढ़ कर मुख्यमंत्री के साथ सरकारी काम निपटा रहे हैं. विपक्षी पूछ रहे हैं- तो क्या रेखा गुप्ता को सरकारी काम संभालना नहीं आता? क्या उन की ऐसी ही योग्यता और क्षमता के आधार पर उन्हें दिल्ली की गद्दी सौंपी गई? क्या वजह है कि रेखा गुप्ता से सत्ता नहीं संभल रही है? एक मुख्यमंत्री पति किस हैसियत से राजकाज चला रहा है? हिंदू राष्ट्र बनाने वालों को मुख्यमंत्री के लायक एक अदद सक्षम विधायक नहीं मिला? किस मजबूरी में रेखा गुप्ता को दिल्ली की जनता पर थोप दिया गया?

लखनऊ में भी मेयर सुषमा खर्कवाल से ज्यादा उन के पुत्र मयंक खर्कवाल शासन का काम संभालते हैं. किसी को यदि सुषमा खर्कवाल से फोन पर बात करनी हो तो उन का फोन उन के पुत्र के पास ही रहता है. मजबूरी में लोगों को अपनी विपदा उन्हीं को सुनानी पड़ती है और फिर उन की मर्जी पर होता है कि किस का काम होगा और किस का नहीं.

मध्य प्रदेश में पंचायत चुनाव में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि चुनाव जीतते ही उन के पति ही पंचायत औफिस में नजर आते हैं. मनरेगा, गौठान निर्माण, नाली निर्माण, खड़ंजा रोड, स्कूल सहित अन्य कार्यों में महिला सरपंच की जगह उन के पति काम करवाते हैं. कोई ग्रामीण जब अपने काम से पंचायत दफ्तर पहुंचते हैं तो वहां सरपंच के बजाय सरपंच पति ही मिलता है और सरपंच एक हाथ लंबा घूंघट कर घर में चूल्हा फूंक रही होती है.

ग्राम पंचायतों में महिलाओं की आरक्षित सीट पर पुरुष चुनाव नहीं लड़ सकते, इसलिए वे अक्सर अपनी पत्नी को चुनाव में खड़ा कर देते हैं. पत्नी के जीतने के बाद अपना दबदबा कायम रखते हैं और पत्नी को मोहरे के रूप में इस्तेमाल करते हैं.

73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा जमीनी स्तर पर महिलाओं को सशक्त बनाने और प्रतिनिधि लोकतंत्र के माध्यम से उन की सामाजिकआर्थिक स्थिति में सुधार लाने की कोशिश तो की गई है, महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने व महिला सशक्तिकरण के उद्देश्य से पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए आरक्षण भी किया है मगर यह सुधार सिर्फ सरकारी कागजों तक ही सीमित हैं. जमीन पर औरत की स्थिति जस की तस है.

महिला सरपंच घर में बच्चे पालती है, चूल्हाचौका करती है, सासससुर की सेवा करती है और सरपंच पति पंचायत भवन में सरकारी कामकाज चलाता है. गांव के भले के लिए आने वाले सरकारी धन में कैसे कितना हिस्साबांट करना है, कितनी सड़कें कागजों पर बनवानी हैं, कितने हैंडपंप कागजों पर लगवाने हैं, कितने स्कूलों की मरम्मत की खानापूर्ति होनी है, कहां लाइट लगवानी है, ये सारी डीलिंग सरपंच पति ही करता है.

महिला सरपंच किसी कठपुतली की तरह होती है जिस की डोर पति, देवर, ससुर, बेटे की उंगलियों में फंसी होती है. उस से कब किस कागज पर साइन करवाने हैं, कब कितने पैसे बैंक खाते से निकलवाने हैं, यह सब पितृसत्ता तय करती है.

दरअसल पितृसत्ता से दब कर और डर कर रहना धर्म के नाम पर महिलाओं को उन के जन्म लेने के बाद घुट्टी में घोल कर पिलाया जाता है, जिस के प्रभाव से वे जीवनभर निकल नहीं पाती हैं. जिस भी स्त्री के सिर पर पिता, पति, देवर, ससुर, बेटे बैठे हैं वह स्त्री कितनी भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर ले और कितनी भी ऊंची कुर्सी पर क्यों न बैठ जाए, अपनी मर्जी से कोई कार्य नहीं कर पाती हैं. संविधान से तमाम अधिकार मिले होने के बावजूद वह अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं कर पाती. पितृसत्ता की भारी बेड़ियां उस के कदम रोक देती हैं.

एक शादीशुदा, बच्चों वाली महिला कई बार ट्रांसफर, प्रमोशन लेने से इंकार कर देती है क्योंकि उच्च पद पर ज्यादा जिम्मेदारी और ज्यादा समय देना पड़ता है. ऐसी स्त्रियां फील्ड वर्क भी करने से बचती हैं क्योंकि फील्ड वर्क में सारा दिन दौड़ना पड़ता है और घर लौटने का कोई निश्चित समय नहीं होता.

शादीशुदा महिला को छह बजते ही घर लौटने की चिंता सालने लगती है. रात के खाने में क्या पकना है, सुबह बच्चों और पति के टिफिन में क्या देना है, इन्हीं विचारों में घिरी वह तेजी से घर की तरफ भागती नजर आती है. जरा सी देर हो गई तो सास बखेड़ा खड़ा कर देगी, घर में महाभारत मच जाएगा, पति भी डांटेगा और बच्चे भी बोलने से नहीं चूकेंगे, यह डर चेहरे पर झुर्रियों की संख्या में इजाफा करता चला जाता है.

स्त्री की नेतृत्व क्षमता तभी उभरती है जब उस के सिर पर कोई पुरुष न हो. देश की प्रधानमंत्री रहीं आयरन लेडी इंदिरा गांधी की नेतृत्व क्षमता तब उभर कर सामने आई जब उन के पिता जवाहरलाल नेहरू और उन के पति फिरोज गांधी का निधन हो गया. भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी के समान तेजस्वी और मजबूत फैसले लेने वाली महिला कोई और नहीं हुई.

जयललिता, ममता बनर्जी और मायावती जैसी ओजस्वी महिलाओं की लीडरशिप की दुनिया कायल है मगर वह इसी वजह से है क्योंकि उन्होंने विवाह नहीं किया. उन्होंने पितृसत्ता को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया. जो फैसला लिया स्वयं लिया. सुषमा स्वराज और शीला दीक्षित इस में जरूर अपवाद हैं क्योंकि दोनों ही विवाहित थीं, फिर भी उन का नेतृत्व तगड़ा रहा. इस की वजह यह थी कि दोनों अपने कामों में पतियों का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं किया और उन के पतियों ने भी इस बात को समझा.

देश में अनेक बड़ी कंपनियों में उच्च पदों पर कार्यरत महिलाओं पर यदि नजर डालें तो आप पाएंगे कि अधिकांश ने या तो विवाह नहीं किया है, या वे तलाकशुदा हैं. यह बात दर्शाती है कि स्त्री तभी आगे बढ़ सकती है जब उस के पैरों में पुरुष नाम की बेड़ी न हो. क्योंकि पुरुष हमेशा स्त्री को अपने अंगूठे के नीचे रखना चाहता है. यह उस की जन्मजात प्रवृत्ति है. वह उसे रसोई और बैडरूम में बांधे रखता है. पढ़ीलिखी कामकाजी विवाहित महिला रसोई और बैडरूम से छुटकारा नहीं पा पाती और इसीलिए जीवन में आगे नहीं बढ़ पाती है.

धर्म को रचने वाला पुरुष है. कभी किसी महिला ने धर्मग्रंथों की रचना की हो, ऐसा सुनने को नहीं मिला. तो जो ग्रंथ पुरुषों ने रचे उस में उन्होंने स्त्री को काबू में रखने के लिए अनेकानेक नियम बनाए. सारे धार्मिक कृत्यों को पूरा करने की जिम्मेदारी उस के सिर पर रख दी. सारे सेवा कार्य उस की पीठ पर लाद दिए. न करने पर दंड की व्यवस्था भी रखी. नर्क और जहन्नुम का डर भी दिखाया.

लिहाजा स्त्री जीवनभर इन्हीं धार्मिक कर्मकांडों में घिरी रहती है, उसे सोचनेविचारने का समय ही नहीं मिलता कि धर्मग्रंथों की जो बातें बचपन से घुट्टी की तरह पिलाई गईं, वे ठीक भी हैं या नहीं. अविवाहित होने पर पिता उस को धर्म के नाम पर डराए रखता है और शादी के बाद पति. उस का खुद का नेतृत्व और विचार तो कभी उभरता ही नहीं है.

पढ़लिख कर जो स्त्रियां नौकरी में आ जाती है और अपने विवेक का इस्तेमाल करने लगती हैं, चूल्हेचौके के चक्कर में नहीं फंसतीं, पुरुष की गुलाम बन कर नहीं रहतीं उन में नेतृत्व के गुण उभर कर सामने आते हैं. वे अपने विवेक से काम करती हैं.

यह सच है यदि स्त्री पितृसत्ता की बेड़ियों से आजाद हो जाए तो वह पुरुषों के मुकाबले ज्यादा बेहतर तरीके से काम कर सकती हैं. आमतौर पर स्त्रियां बेईमान नहीं होतीं, वे भावुक होती हैं, संवेदनशील और ममतामई होती हैं लिहाजा वह दुनिया को ज्यादा खूबसूरत बना सकती हैं.

यदि दुनिया का नेतृत्व स्त्री के हाथों में हो तो जगहजगह जो लड़ाइयां छिड़ी हुई हैं, बमबारूद के गोले फट रहे हैं, धरती लहू से लाल हो रही है, यह सब होना रुक जाए. पूरी धरती शांत और सुंदर हो जाए. यह सब हो जाए मगर शर्त ये है कि स्त्री पितृसत्ता से किसी तरह खुद को आजाद करें.

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