Rajesh Khanna : राजेश खन्ना, जिन्हें भारतीय सिनेमा का पहला सुपरस्टार माना जाता है, ने अपनी रोमांटिक अदाओं, मंत्रमुग्ध कर देने वाले अभिनय और यादगार संवादों के जरिए दर्शकों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ी. उन का कैरियर न केवल फिल्मी परदे पर बल्कि भारतीय समाज और संस्कृति पर भी गहरा प्रभाव डालने वाला रहा. उन की फिल्मों ने न केवल बौक्स औफिस पर धमाल मचाया बल्कि उन्होंने अपनी एक ऐसी छवि गढ़ी जो आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है.

सदियों से राजा बड़ी सावधानी से अपने दूतों को चुनते थे जो दूसरे राज्य के संदेश दे सकें. संदेश की तरह संदेशवाहक भी हमेशा महत्त्व का रहा है और उस का व्यक्तित्व, उस की वाक्पटुता, उस की चालढाल संदेश के महत्त्व को घटाती व बढ़ाती रही है. धर्मों ने तो संदेशवाहकों को देवता बना डाला और संदेश को भूल कर संदेशवाहक को पूजने लगे हालांकि धर्मों के मामले में संदेशवाहक असल में खुद संदेश गढ़ते रहे हैं क्योंकि यह सोचना कि किसी अदृश्य शक्ति ने उन्हें संदेश दे कर भेजा है, अपनेआप में बेवकूफी है लेकिन चारपांच हजार वर्षों से मानवता उस की शिकार रही है. संदेशवाहकों की मृत्यु के बाद भी संदेशवाहकों के एजेंट उन के बुत बना कर या संदेशवाहक के बनावटी संदेश को ले कर धर्म का अपना धंधा सफलता से चलाते रहे हैं.

फिल्मों में अभिनेता सिर्फ संदेशवाहक होता है क्योंकि संदेश तो कहानी लेखक, पटकथा लेखक, निर्माता, निर्देशक द्वारा सम्मिलित बनाया होता है. अभिनेता राजेश खन्ना ने अपनी फिल्मों में एक नायाब संदेशवाहक का काम किया. आज एक के बाद एक संदेशवाहक तोड़मरोड़ कर, विभाजनकारी, अंधविश्वासी संदेश लगातार अपने व्यक्तित्व के सहारे परोस रहे हैं, ऐसे में राजेश खन्ना की जैसी फिल्मों की जरूरत महसूस की जा रही है. उन की फिल्में समाज में सामाजिकता और पारिवारिकता का जो संदेश पहुंचा रही थीं उस का श्रेय उन फिल्मों की कहानी के लेखकों को जितना जाता है उस से ज्यादा तब के सुपरस्टार राजेश खन्ना को ज्यादा जाता है.

राजेश खन्ना की फिल्मों में मारधाड़ न होना, एंग्रीयंग मैन की छवि का न उकेरना, जेम्स बौंड की नकल न करना, केवल सफलअसफल प्रेम की कहानी दे कर मनोरंजन न करना एक खास विशेषता है जो आज के अभिनेताओं से उन की पहचान को अलग करती है.

राजेश खन्ना ने सौ पर भारी एक होने का रोल कम अपनाया. उन की फिल्मों में सामाजिक, पारिवारिक संदेश हमेशा रहे, जीवन का फलसफा एक के बाद एक सामने आया. 1970 और 1980 के दशकों में उन की फिल्मों को देख कर बड़ी हुई पीढ़ी ने एक सभ्य समाज का निर्माण किया जिस ने 1991 के आर्थिक सुधारों का पूरा फायदा उठा कर देश को गरीबी व मुफलिसी से उबारा और लगातार थोपे जा रहे धार्मिक मारकाट के नारों के बीच आम जनता को शांत रखा.

आज के अभिनेताओं में वह बात नहीं

आज के अभिनेतागण अजय देवगन, अक्षय कुमार और विक्की कौशल व अन्य फिल्मों के सहारे सामाजिक विघटन का संदेश दे रहे हैं. अभिनेत्री व फिल्म निर्मात्री कंगना रनौत लगातार एजेंडे वाली फिल्में कर रही हैं. अनुपम खेर बेहतरीन ऐक्टर होते हुए भी अपने व्यक्तित्व के सहारे जनता पर पोंगापंथी विचार थोप रहे हैं. ऐसा लगता है कि अभिनेता अपनी बात कहने के लिए फिल्मों की कथा लिखवा रहे हैं ताकि उन की छवि में एक खास रंग भरा रहे जिसे भुनाने में सफलता मिलती रहे, सामाजिकता एकता चाहे जाए भाड़ में.

राजेश खन्ना ने फिल्मों की कहानियां लिखवाईं या उन्हें उन फिल्मों के लिए चुना गया जो कोई पौजिटिव संदेश दे रही थीं, इस के बारे में कहना मुश्किल है लेकिन जो भी संदेश था उसे परदे पर राजेश खन्ना ने अति सफल या असफल फिल्मों के जरिए पहुंचाया. राजेश खन्ना लोगों के दिलों में केवल अपने चेहरे या ऐक्टिंग के चलते नहीं बसे बल्कि उन फिल्मों की कहानियों के कारण भी जिन का समाज पर गहरा असर पड़ा. यही वजह थी कि उन्हें उस वक्त का सुपरस्टार माना गया, स्टारों का स्टार.

दर्शक जब सिनेमाहौल में होता है तो वह भूल जाता है कि अभिनेता जो शब्द बोल रहा है वे किसी और ने लिखे हैं. अभिनेता के बोले शब्द अगर उस के मन को गहराई तक छूते हैं तो वह रंगरूप, अभिनय, फोटोग्राफी सब भूल जाता है. राजेश खन्ना की फिल्मों को आज फिर याद करना और उन फिल्मों को उन के व्यक्तिगत जीवन से अलग करना जरूरी है क्योंकि आज ऐसी फिल्मों की बाढ़ आई हुई है जो फालतू के काल्पनिक मुद्दों पर विवाद खड़ा कर रही हैं. राजेश खन्ना की फिल्में आज भी सुकून देती हैं.

सुपरस्टार राजेश खन्ना ने अपने कैरियर में रोमांटिक फिल्मों से हट कर कोई फिल्म नहीं की. दर्शक परदे पर उन की रोमांटिक अदाएं, उन के नृत्य करने की अदा, नृत्य के समय बालों और कमर को हिलाने का अंदाज, हाथों का अंदाज आदि को देखने के लिए पागल रहता था. इतना ही नहीं, राजेश खन्ना हमेशा अभिनय कैरियर की ऊंचाइयों पर रहे. वे कभी भी ऐसी फिल्मों का हिस्सा नहीं बने जिन्हें बौक्स औफिस पर पसंद न किया गया हो और न ही उन्होंने ऐक्शन या किसी अन्य जौनर की फिल्म की.

‘आराधना’ से ‘अवतार’ तक के किरदार

राजेश खन्ना को याद करने की कई वजहें हैं. उन में से पहली है बौलीवुड का आज अपने सब से खराब दौर से गुजरना. दूसरी वजह है मुद्दत से फिल्म इंडस्ट्री का एक और सुपरस्टार के लिए तरसना. तीसरी वजह जो उन की याद दिलाती है वह है उन के निभाए किरदार जिन से आज का दर्शक भी खुद को रिलेट करता है.

बिलाशक एक वक्त में राजेश खन्ना ने धड़ाधड़ फिल्में साइन कीं लेकिन आंख बंद कर नहीं कीं बल्कि कहानी में अपने किरदार को ठोकबजा कर कीं कि वे आम लोगों के कितने नजदीक हैं. अगर धड़ाधड़ फिल्में साइन करना सुपरस्टार होने की निशानी और पहचान होती तो मिथुन चक्रवर्ती के सिर यह ताज होता जिन्होंने राजेश खन्ना से दोगुनी फिल्मों में काम किया लेकिन एकाधदो फिल्मों को छोड़ कर किसी को यह याद नहीं कि उन्होंने कौनकौन सी भूमिकाएं निभाई हैं.

राजेश खन्ना ने इस बात का ध्यान रखा और उन का निभाया लगभग हर चरित्र दर्शकों के दिलोदिमाग में उतरता गया, फिर चाहे वह ‘आराधना’ के अरुण और सूरज हों, ‘बाबर्ची’ का रघु हो, ‘रोटी’ का मंगल सिंह हो, ‘अमर प्रेम’ का आनंद बाबू हो या ‘अवतार’ का अवतार कृष्ण. फिर ‘आनंद’ के आनंद का तो कहना ही क्या.

शुरुआत ‘आराधना’ से की जाए तो राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर की लवस्टोरी बेहद नाटकीय ढंग से शुरू होती है जब नायिका वंदना (शर्मिला टैगोर) घर आए अरुण (राजेश खन्ना) के ऊपर बाल्टीभर पानी फेंक देती है. धीरेधीरे दोनों में प्यार हो जाता है और दोनों गुपचुप मंदिर में न केवल शादी कर लेते हैं बल्कि सुहागरात भी मना डालते हैं. अरुण एयरफोर्स में पायलट है जिसे लड़ाई में जाना पड़ जाता है लेकिन फिर वह लौट कर नहीं आता. इस शादी की खबर किसी को नहीं होती और वंदना प्रैग्नैंट हो जाती है.

कुंआरी बेटी के मां बनने की खबर से वंदना के डाक्टर पिता बहुत ही गहरे सदमे में आ जाते हैं और उन की मौत हो जाती है. वंदना बच्चे को जन्म देती है और लोकलाज के डर से उसे अनाथाश्रम में छोड़ जाती है जहां से उसे एक दंपती गोद ले लेते हैं. शक्ति सामंत निर्देशित ‘आराधना’ में वे तमाम सामाजिक पेंचोखम हैं जो 70 के दशक की पहचान थे. नाटकीय तरीके से वंदना उसी घर में नौकरानी बन कर रहने लगती है जहां उस का बेटा सूरज (राजेश खन्ना का डबल रोल) भी पिता की तरह पायलट बन कर आता है और उस की इज्जत बचाने के लिए अपने ही मामा का खून कर देता है, जिस का आरोप वंदना अपने ऊपर ले लेती है और जेल चली जाती है. ‘आराधना’ में दोनों ही किरदारों में राजेश खन्ना ने इतना सशक्त अभिनय किया था कि दर्शक मंत्रमुग्ध से फिल्म से बंधे रहते हैं. फिल्म का गीत ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू…’ आज की युवा पीढ़ी भी शिद्दत से गुनगुनाती है, फिर भले ही उस ने फिल्म देखी या न देखी हो.

राजेश खन्ना का स्टारडम हालांकि 1969 में प्रदर्शित नरेंद्र बेदी की फिल्म ‘बंधन’ से आकार लेने लगा था जो शुद्ध सस्पैंस मूवी थी.

आगे का अंश बौक्स के बाद

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‘‘हर औरत पैसों के पीछे नहीं रहती’’ -अनीता अडवाणी

राजेश खन्ना के अंतिम दिनों में साथ रहीं एक महिला जिन्हें परिवार की सिर्फ दुत्कार मिली

अनीता अडवाणी: शख्स एक, पहचान अनेक. अनीता अडवाणी की पहचान यह है कि वे बौलीवुड के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना के साथ 10 से 12 वर्षों तक लिवइन रिलेशनशिप में रहीं. अनीता खुद को राजेश खन्ना की ‘सरोगेट पत्नी’ बताती हैं. अनीता दावा करती हैं कि वे राजेश खन्ना के घर ‘आशीर्वाद’ का प्रबंधन करती थीं, उन के अंतिम वर्षों के दौरान उन की देखभाल करती थीं. यहां तक कि उन के लिए करवाचौथ का व्रत भी रखती थीं वे.

राजेश खन्ना के देहांत के बाद अनीता को बाहर फेंक दिया गया जिस के लिए वे पिछले 13 वर्षों से अदालती लड़ाई लड़ रही हैं. अनीता अडवाणी की दूसरी पहचान यह है कि वे फिलिपींस के पूर्व राष्ट्रपति फर्डिनैंड मार्कोस की भांजी हैं. मार्कोस परिवार से यह संबंध उन के व्यक्तिगत इतिहास में एक दिलचस्प अंतर्राष्ट्रीय आयाम जोड़ता है. तीसरी पहचान यह कि अनीता अडवाणी ने कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया था. चौथी पहचान यह कि राजेंद्र कुमार, सलमान खान के पिता सलीम खान, श्याम बेनेगल व धर्मेंद्र तक सैकड़ों कलाकारों को मुंबई के मरीना गैस्ट हाउस में शरण देने वाली अनीता की मौसी थीं. अनीता के पिता जयपुर में बहुत बड़े ट्रांसपोर्टर थे. अनीता की मां की सहेलियों में जयपुर की महारानी गायत्री देवी भी थीं.

अब अनीता अडवाणी ने बौलीवुड के सुपरस्टार राजेश खन्ना के साथ बिताए गए अपने 12 वर्षों के जीवन व यादों के साथ कई सच बताने वाली किताब ‘द एंडियरिंगली विक्ड वेज औफ राजेश खन्ना’ लिखी है, जिसे बाजार में आने से एक दिन पहले ही कुछ लोगों ने प्रकाशक के साथ साजिश रच कर गायब करा दिया. हाल ही में इन सभी प्रकरणों को ले कर उन से हमारी लंबी बातचीत हुई. पेश हैं अंश:

आप को ले कर कई तरह की चर्चाएं हैं, इन में फिलिपींस, जयपुर व मुंबई तक के संबंध हैं. आप इस पर रोशनी डालेंगी?

मेरा जन्म जयपुर में हुआ. जयपुर में हमारी जिंदगी एकदम फैंटेसी जैसी रही. जिंदगी बहुत खूबसूरत थी. मेरी मां बहुत सुंदर थीं. मेरे डैडी बहुत मेहनती व अच्छे इंसान थे. मेरी मां उच्चशिक्षित आधुनिक महिला थीं. वे हिंदी व सिंधी के साथ इंग्लिश, फ्रैंच भाषाएं भी बोलती थीं. मेरी मां के पिताजी मतलब मेरे नानाजी कराची में जज थे. यानी हमारा परिवार बहुत बड़ा और क्लासी था. मेरी मम्मी जयपुर में सभी बड़े घरानों के क्लबों की सदस्या थीं. ऐसे मातापिता की संतान होने के नाते हम सभी बहुत ही ज्यादा स्टाइलिश बच्चे थे. हम राम बाग पैलेस भी जाया करते थे. महारानी गायत्री देवी व मेरी मां आपस में अच्छी सहेलियां थीं.

मेरे मामा इंग्लिश साहित्य के बहुत अच्छे विद्वान थे. वे अमेरिका में इंग्लिश साहित्य के प्रोफैसर थे. वहां पर एक फिलिपीनी महिला इंग्लिश के साथ फिलिपीनो भी पढ़ती थी जो मेरे मामा की बहुत बड़ी फैन थी. उस के पिता बहुत बड़े राजनेता थे. मार्कोस ओर रैम्पोस मौसेरे भाई थे. उन फिलिपीनो महिला को मेरे मामा मार्कोस से प्यार हो गया. दोनों की शादी हो गई. फिर मेरी वे आंटी सीनेटर बनीं. उन के भाई फिलिपींस के राष्ट्रपति बने. वे हमारे परिवार के बहुत करीब थीं. मुंबई उन का आनाजाना था. उन के 3 बच्चे हैं. हमारे बहुत अच्छे संबंध हैं. मैं फिलिपींस जा चुकी हूं. वहां सीनेट में भी गई थी. मैं ने इस के बारे में अपनी किताब में भी लिखा है.

मेरी मौसी का मुंबई के बांद्रा पश्चिम में रेलवे स्टेशन के पास ही मरीना गैस्ट हाउस था, जोकि हर फिल्मी स्ट्रगलर के लिए काफी लक्की था. हम जब भी मुंबई आतीं तो अपनी मौसी के पास मरीना गैस्ट हाउस में ही रुकती थीं. मेरे लिए वे बड़ी मां थीं. मुझ से बहुत प्यार करती थीं. मेरे लिए मां व मौसी में कोई फर्क नहीं था. मेरी मौसी अपने साथ रखती थीं. वे मुझे गोद लेना चाहती थीं. मैं तो मौसी के साथ रहना चाहती थी पर मेरे पिताजी मुझे छोड़ने को तैयार नहीं थे. मैं तो बच्ची थी. मरीना गैस्ट हाउस में रुकने वालों को पहचानती नहीं थी पर बाद में पता चला कि मरीना गैस्ट हाउस में राजेंद्र कुमार, लेखक व सलमान खान के पिता सलीम खान, श्याम बेनेगल, कैमरामैन, अशोक मेहता, राज मार्कोस, निर्देशक ब्रज, सुरेंद्र, धर्मेंद्र सहित कई लोग रहे हैं. मुझे तो इस वक्त सभी के नाम भी याद नहीं आ रहे.

इतना ही नहीं, गुलजार सहित कई हस्तियां शाम को वहां पर जमा होती थीं. संजीव कुमार तो कभीकभी आ कर 2 लोगों के बीच सो जाते थे कि यह जगह बहुत लक्की है. जब मेरी पढ़ाई शुरू हो गई तो मैं गरमी की छुट्टियों में मुंबई आया करती थी. मेरी मौसी बहुत अच्छी थीं. मैं ने फिल्मों में अभिनय भी किया. मैं ने 12 साल राजेश खन्ना के साथ गुजारे. उन के लिए करवाचौथ का व्रत रखती थी. राजेश खन्ना के देहांत के बाद मुझे बदनाम किया गया. मैं ने अपनी यादों व सच को सामने लाने के लिए एक किताब ‘द एंडियरिंगली विक्ड वेज औफ राजेश खन्ना’ लिखी, जिसे साजिशन दबाया जा रहा है.

तो क्या मरीना गैस्ट हाउस की वजह से आप ने फिल्मों में अभिनय किया था?

जब गरमी की छुट्टियों में मैं मुंबई आती तो मरीना में ही रुकती थी, जहां फिल्म वालों का जमावड़ा लगा रहता था. मुझे वहीं पर फिल्मों में अभिनय करने के औफर मिलने लगे थे. मेरे लिए अपने घर जैसा माहौल था. मेरा एक फिल्म के लिए वहीं पर स्क्रीन टैस्ट हुआ था. मेरी फिल्मों में काम करने की इच्छा नहीं थी. लेकिन राजेश खन्ना की कुछ फिल्मों की शूटिंग देखने के बाद मेरे अंदर फिल्मों के प्रति रुचि पैदा हुई. मैं ने लगभग 13 साल की उम्र में पहली बार राजेश खन्ना की किसी फिल्म की शूटिंग देखी थी. मैं ने बहुत ज्यादा फिल्मों में अभिनय नहीं किया था. मुझे लगता है कि मैं ने ‘चोरनी’ व ‘आओ प्यार करें’ जैसी 4-5 फिल्मों में अभिनय किया था. फिल्म ‘शालीमार’ में मैं ने केवल डांस किया था. यह बहुत खास गाना था. केवल एक माह तक इस की रिहर्सल चली थी. फिल्म ‘साजिश’ में मेरा बहुत अच्छा किरदार था. उस के बाद मैं ने कई बड़ीबड़ी फिल्में साइन की थीं पर मुझे फिल्मी माहौल पसंद नहीं था, इसलिए मैं ने दूरी बना ली थी. आप भी जानते होंगे कि यहां पर कास्टिंग काउच की बड़ी समस्या है.

तो आप ने फिल्में छोड़ दीं?

जी, माहौल की वजह से. लोगों की जो अपेक्षाएं थीं, उन्हें पूरा करना मेरे वश की बात ही नहीं थी. उन दिनों बौलीवुड में जिस तरह की बातें चलती थीं, वे मैं सुनना भी नहीं चाहती थी.

जब आप फिल्मों में अभिनय कर रही थीं तभी राजेश खन्ना से आप की मुलाकात हुई थी?

नहीं. पहली मुलाकात बचपन में हुई थी. मैं अपने पिता के साथ मुंबई आई हुई थी. उस वक्त मेरी उम्र 12 से 13 साल रही होगी. मेरी काफी नजदीकी सहेली राजेश खन्ना की शूटिंग देखने जा रही थी तो उस के साथ मैं भी चली गई. मेरी सहेली के अंकलजी, राजेश खन्ना से परिचित थे. वहां पहुंचे तो पता चला कि उन की शूटिंग खत्म हो गई और राजेश खन्नाजी वापस जा रहे हैं. मैं ने कहा कि मुझे तो राजेश खन्ना को देखना था तब सहेली के अंकल ने राजेश खन्ना की गाड़ी का पीछा किया और हम लोग आशीर्वाद बंगले पर पहुंच गए.

सहेली के अंकल पहले अकेले ही अंदर गए और बात कर के वापस आए. फिर हमें साथ में ले कर बंगले के अंदर गए. हमें राजेश खन्ना के निजी डाइनिंग हौल में बैठाया गया था. तभी राजेश खन्ना ने दरवाजा खोल कर मुसकराते हुए अंदर प्रवेश किए. उन्हें देखते ही मुझे लगा कि मेरे दिल की धड़कन बंद हो गई हो. राजेश खन्नाजी बहुत हैंडसम लग रहे थे. हम उन के गले लगे. कुछ देर उन से बातचीत की. उन्होंने हमें नाश्ता कराया, चाय पिलाई. दूसरे दिन शूटिंग देखने के लिए बुलाया.

आप ने राजेश खन्ना के साथ आशीर्वाद बंगला में कब रहना स्वीकार किया?

जब डैस्टिनी 2 लोगों को मिलाना चाहती है तो वे मिल जाते हैं. जब मैं उन से पहली बार मिली थी तभी उन्होंने कुछ अलग अंदाज में मेरी तरफ देखा था और उस वक्त ऐसा लगा था जैसे कि मेरी जान ही चली गई हो. वह ऐसा पल था जो मेरे दिल में रह गया था. उस के बाद तो हम जब भी मुंबई आते, उन से मुलाकातें होती रहीं. बाकी आप मेरी किताब में पढ़ लीजिएगा.

राजेश खन्ना के निधन के 12 साल पूरे होने के बाद उन पर किताब लिखने की कोई खास वजह?

किताब की नींव तो राजेश खन्ना उर्फ काकाजी के जीवित रहते ही पड़ गई थी. उन दिनों कई कलाकारों की आत्मकथारूपी किताबें बाजार में आ रही थीं. मैं ने काका से भी अपनी आत्मकथा लिखने के लिए कहा था. मैं ने उन से कहा था कि वे बोलते जाएं, मैं लिखती रहूंगी पर उन की जिद थी कि वे खुद ही लिखेंगें पर वह दिन नहीं आया और वे बिना किताब लिखे ही इस संसार से चले गए. उन के निधन के बाद लोग मेरे व काका के बारे में अनापशनाप बकने लगे. किसी ने कहा कि काकाजी का घर तो इनकम टैक्स विभाग ने सील कर दिया था. काका के पास बैठने तक की जगह नहीं थी. मतलब लोग पता नहीं कहां से अजीबोगरीब कहानियां ले कर आ गए थे जबकि हकीकत यह है कि काका का घर कभी भी सील नहीं किया गया था. ये सब वाहियात बातें हैं. मेरे बारे में लोग कहने लगे कि यह तो काका के बैडरूम तक कभी नहीं गई. इस ने बैडरूम की शक्ल तक नहीं देखी. कुछ लोगों को मैं ने जवाब दिया कि हम लोग सड़क पर ही बैठे रहते थे. यह सब सुन कर मेरे अंदर से टीस उठी कि मैं दुनिया को हकीकत बता दूं. इसी बात ने मुझ से यह किताब लिखवा दी. यह पहला भाग है, दूसरा भाग आना बाकी है.

राजेश खन्ना को जिस वक्त सहारा चाहिए था, उस वक्त आप ने सहारा दिया?

नहीं. मैं ने जो किया वह अपनी खुशी से किया. मैं ने उन के साथ रह कर उन की आंखों में जो चमक हुआ करती थी, वह वापस लाने की कोशिश की. वह स्पार्क लाने के लिए मैं ने बहुत जद्दोजेहद की. राजेश खन्ना के ढेर सारे नौटी तरीके थे. राजेश खन्ना के फैंस जो यह जानना व सीखना चाहते हैं कि राजेश खन्ना किस तरह के इंसान थे और किस तरह लोगों को अपना बनाते थे तो उन्हें मेरी यह किताब पढ़नी चाहिए.

किताब का नाम अजीब सा?

इस का नाम है ‘द एंडियरिंग विक्ड वेज औफ राजेश खन्ना.’ उन के काम करने के अपने तरीके थे, जिन्हें वे खुद कभीकभी विक्ड बोलते थे. उन सभी तरीकों को मैं ने अपनी इस किताब का हिस्सा बनाया है. एंडियरिंग का अर्थ ‘बहुत प्यारे’ है. किताब लिखने के बाद इसे लोगों तक पहुंचाने के लिए मैं ने प्रकाशक तलाशा. उस के साथ वकीलों की मदद से एक एग्रीमैंट हुआ, जिस के अनुसार इस किताब से संबंधित कोई भी जानकारी वे किसी को भी नहीं दे सकते. फिर डेढ़ वर्ष तक एडिटिंग का काम चला. कवर पर मैं ने अपनी राय दी. 29 दिसंबर, 2024 को हैदराबाद में 9वें निजाम के हाथों इस किताब को रिलीज किया. अमेजन पर किताब को रिलीज करना था, इसलिए मैं ने पोस्टर बना कर दिए और प्रकाशक ये सारे पोस्टर मेरे पास हैदराबाद में पहुंचाने वाले थे लेकिन उस ने सारा काम बिगाड़ दिया.

28 दिसंबर की शाम मैं निजाम के 300 वर्ष पूरे होने के कार्यक्रम में मौजूद थी, जहां मुझे खबर मिली कि किताब तो रिलीज हो गई. मैं तुरंत कार्यक्रम से बाहर आई तो देखा कि सारे पोस्टर मेरे खिलाफ थे. पोस्टर में लिखा था, ‘अनीता अडवाणी एंड राकेश खन्ना’. इतना ही नहीं, पोस्टर में मुझे बदनाम करने वाली बातें थीं कि यह किताब झूठी है. इस में काल्पनिक कहानियां हैं. सबकुछ झूठ लिखा हुआ है. मैं तो हैरान रह गई कि मेरी किताब में राकेश खन्ना कौन है? मैं ने तो सबकुछ सच लिखा है, फिर यह काल्पनिक क्यों कहा गया?

मैं ने तुरंत प्रकाशक को फोन किया पर किसी ने भी मेरा फोन नहीं उठाया. मैं ने कई जगह फोन किया. अंत में प्रकाशक ने सौरी बोलते हुए कहा कि उन की इंटर्न ने टाइपिंग मिस्टेक कर दी. मैं ने कहा कि यह गलती नहीं बल्कि आप लोगों की चाल है, जो मेरी समझ में आ रही है. मैं ने अदालत में घसीटने की धमकी दी. अब तो मैं ने उन्हें नोटिस भी भेज दिया है. उन्होंने अमेजन में जो किताब बिक्री के लिए पोस्टर दिया, उस में नाम मेरी किताब का है, मगर उस के नीचे फोटो किसी अन्य किताब की है. प्रकाशक ने एग्रीमैंट की सारी शर्तें तोड़ दीं और मेरी बदनामी कर दी. इतना ही नहीं, इस किताब को उन्होंने ‘प्रतिलिपि’ पर फ्री ईबुक के रूप में रिलीज कर दिया. मैं तो बहुत रोई.

प्रकाशक ने ऐसा क्यों किया?

यह मुझे बदनाम व बरबाद करने की कुछ लोगों की साजिश है. मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि एक प्रकाशक अपनी किताब को खराब क्यों करेगा? कोई है जो उन से ऐसा करवा रहा है. लेकिन आज नहीं तो कल, लोग पूछेंगे कि मेरी किताब कहां हैं? मैं तो चाहती हूं कि पूरी दुनिया को पता लगे कि राजेश खन्ना की किताब को गायब करने में किस का हाथ है? मेरा मानना है कि कुछ लोग राजेश खन्ना पर लिखी मेरी इस किताब को हर हाल में दबाने में लगे हुए हैं.

इस किताब की क्या खासीयत है?

इस में बहुत नईनई चीजें मैं ने डाली हैं. एक तो आप इस में राजेश खन्ना की आवाज सुन सकते हैं. इस में मैं ने क्यूआर कोड डाले हैं. अगर आप क्लिक करेंगे, स्कैन करेंगे तो आप को राजेश खन्ना की आवाज सुनाई देगी. कभीकभी वे मुझ से बच्चों की तरह बात करते थे. आज तक किसी ने उन को बच्चों की तरह बात करते हुए नहीं सुना होगा कि वे तोतली सी बच्चों की तरह बात कर रहे हैं तो वे सारी चीजें, लाइफ में वे जिस तरह के इंसान थे, उन का बचपन, उन का कभी लड़ना, कभी दादागीरी से बोलना कि भूख लगी है आदि तरह के संवाद आप सुन सकेंगे. वे कैसे बात करते थे, कभी कहते कि सर्दी लग रही है तो उन के वह एंटीक्स मुझे बहुत पसंद थे और मैं वह सब रिकौर्ड करती थी. फिर जब मैं उन से लड़ाई कर के अपने घर आती थी तो मैं उन चीजों को मिस करती थी. उस वक्त नयानया फोन निकला था. मैं ने रिकौर्डिंग सीखी थी. राजेश खन्ना भी बहुत ज्यादा एक्साइटेड थे. बहुत सी रिकौर्डिंग मेरी खो गईं.

राजेश खन्ना की मौत के बाद कहा गया था कि आप आशीर्वाद पर कब्जा करना चाहती हैं?

यहां लोग सिर्फ औरत को बदनाम करते हैं. सच यह है कि हर औरत पैसों के पीछे नहीं होती है. अरे, मैं क्या कर लेती बंगले का. मैं तो अकेली घर में रहती हूं. मैं तो सिर्फ चाहती थी कि उन की तमन्ना पूरी हो. उन का म्यूजियम बने. मैं हमेशा से ही शुरू से ही म्यूजियम के लिए लड़ती आई हूं क्योंकि हम ने उस के पीछे काफी मेहनत की है.

राजेशजी की तमन्ना थी कि वे रहें न रहें, उन का बंगला म्यूजिम बने, लोग आएं तो उन की मौजूदगी को महसूस करें कि काका यहां रहते थे, यहां सोते थे, यहां खाते थे. उन की इतनी तमन्ना थी. मेरा तो दिल टूट गया कि ऐसा नहीं हो पाया और घर ही टूट गया. लोगों का क्या है, कुछ तो लोग कहेंगे ही, लोगों का काम है कहना और बुरा ही कहना औरत के लिए. अगर वह अपना हक मांगे तो वह बुरी हो जाती है. क्यों भाई? अपने हक के लिए औरत नहीं लड़ सकती? क्यों नहीं लड़ना चाहिए, अगर आप अपने लिए नहीं लड़ सकते तो फिर किस के लिए लड़ेंगे?

जिस दिन आशीर्वाद तोड़ा गया, उस दिन?

उस दिन आशीर्वाद बंगले पर नहीं, मेरे दिल पर हथौड़ा चला था. मुझ से उस का टूटना देखा नहीं गया. मैं ने काफी सारी फोटोज लीं. मैं काफी देर तक वहां खड़ी रही. बहुत बुरा किया. इन लोगों ने घर को तोड़ कर बहुत बुरा किया. वह उन की एक निशानी थी, वहां लोग आ कर उन से मिलते थे. लोग मुझे फोन करते थे कि कार्टर रोड की शान ही खत्म हो गई. एक हार्डहार्टेड आदमी ही ऐसा कर सकता है. काका अपनी जिंदगी के अंतिम वक्त तक बोलते रहे कि म्यूजियम बनाएंगे. अब तो सबकुछ बदल गया. जब वे बीमार हो गए तो खुद को ही भूलने लगे थे. उन को समझ नहीं आता था कि कौन है? मैं पास में होती तो भी पूछा करते थे कि अनीता कहां है? उस वक्त उन की समझ में नहीं आ रहा था. तभी दूसरी वसीयत बना ली गई.

आप के अंदर अभिनय के अलावा भी काफी खूबियां हैं?

जी हां, मैं ड्रैस डिजाइनर भी हूं. लिंकिंग रोड पर ही अपना ड्रैस डिजाइनर का औफिस हुआ करता था. ज्वैलरी भी डिजाइन की. ज्वैलरी के पाउच हजारों में बनाए होंगे. मैं इंटीरियर डिजाइन भी करती हूं. राजेश खन्ना की पत्नी की तरह आशीर्वाद बंगले में रहते हुए मैं ने पूरे बंगले का इंटीरियर डिजाइन करने के साथ ही पूरे बंगले को सजाया था. मेरा अपना कैफे भी रहा है. फिर धीरेधीरे सबकुछ छोड़ दिया.

आप ने राजेश खन्ना के साथ 10 से 12 साल गुजारे पर खबरें छप रही हैं कि राजेश खन्ना अपने अंतिम समय में रोते थे?

जो ऐसा कह या लिख रहा है, वह झूठ बोल रहा है. ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्हें रोना आया हो. यह बात तो मैं ने भी कभी नहीं कही. राजेश खन्ना बहुत ही ज्यादा स्ट्रौंग इंसान थे. जब उन्हें अपनी बीमारी का पता चला तब भी वे निराश नहीं हुए. जब अस्पताल में पहली बार उन्हें खून चढ़ाया जा रहा था तब उन की आंखों में आंसू आए थे. उन्होंने कहा था कि पता नहीं किस का खून मेरे शरीर के अंदर जा रहा है. अन्यथा अस्पताल में उन्हें बहुत तकलीफ झेलनी पड़ी, पर आंखों में आंसू नहीं आए.

राजेश खन्ना ने शराब ऐसे छोड़ी जैसे उन्होंने कभी पी ही न हो. हम अकसर देखते हैं कि इंसान शराब छोड़ नहीं पाता. छोड़ने के बाद भी वह कभीकभार पी लेता है. डाक्टर ने भी कभीकभार एक पैग लेने की इजाजत दी थी पर राजेश खन्ना ने शराब का सेवन छोड़ने के बाद कभी एक बूंद भी नहीं पी. उन का विलपावर कमाल का था. यह बात मेरे लिए शौकिंग थी. मैं तो चाहती थी कि वे पिएं जिस से मुझे एहसास हो कि वे आम नौर्मल इंसान हैं जबकि मैं डरती थी कि इन्हें विदड्राअल सिम्पटम्स न हो जाएं पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. शराब छोड़ने के बाद कई बार ऐसा हुआ जब राजेश खन्ना ने पार्टी में दूसरों को ड्रिंक बना कर दी पर खुद एक बूंद नहीं ली.

पर राजेश खन्ना को ले कर जो खबरें छप रही हैं?

कुछ भ्रम है या लोग मेरी बात को सही अर्थों में समझ नहीं पाए. मैं ने कहा था कि राजेश खन्ना मैनीफैस्ट किया करते थे कि ‘मैं तो 70 साल तक जिऊंगा.’ जबजब वे यह बात कहते थे तबतब मैं उन से कहती थी कि नैगेटिविटी को निमंत्रण मत दो. आप बारबार जो बात बोलते हैं, उसे प्रकृति सुनती है. मैं ने सिर्फ यही बात कही है. अब लोग इसी का अर्थअनर्थ कर के छाप रहे हैं. हम किसी पर लगाम नहीं लगा सकते.

आप ने खुद फिल्म निर्माण करने की नहीं सोची?

इस दुखद अध्याय की याद दिला कर आप ने मेरे अंदर दबे दुख को जगा दिया. सच यही है कि मैं फिल्म बना रही थी पर इतना बड़ा धोखा मिला कि क्या कहूं. अब मैं इस पर इस से ज्यादा बात नहीं करना चाहती. मेरे जो पार्टनर थे, उन की नीयत खराब हो गई. जब आप की नीयत खराब हो तो वह काम पूरा नहीं होता. मैं अदालत में लड़ सकती हूं पर किसी से जबानी लड़ाई या तूतूमैंमैं नहीं कर सकती.

आगे की क्या योजना है?

फिलहाल अदालत में मुकदमा लड़ रही हूं. किताब लिख रही हूं. इस किताब का दूसरा भाग लिख लिया है. समय चाहेगा तो लिखना जारी रखूंगी पर जिंदगी आप को कहां ले जाती है, पता नहीं. सब समय होता है. जब मैं बचपन में पहली बार अपनी सहेली व उस के अंकल के साथ आशीर्वाद पहुंची थी तो क्या मैं ने सोचा था कि मैं आशीर्वाद बंगले में कभी लंबे समय तक रहूंगी. मैं राजेश खन्ना की पार्टनर रहूंगी. उन की पत्नी बन जाऊंगी. उन के लिए करवाचौथ का व्रत रखूंगी. यह समय ही था. समय ने कहां से घुमाफिरा कर मिलाया.

आशीर्वाद में बिताए गए 10-12 वर्षों की यादें आती होगी तो तकलीफ होती होगी?

बहुत ज्यादा. मुझे आज भी लगता है कि काका वहां बैठे हुए स्मोक कर रहे हैं. उन्हें मैं कैसे भूल सकती हूं. वे लंबे समय तक मेरे सपने में भी आते रहे. मैं तो उन्हीं के म्यूजियम के लिए लड़ रही हूं.

राजेश खन्ना ने कभी आप के लिए कुछ खास बात कही हो या लिखी हो?

उन्होंने तो मुझ से हजारों बातें कही हैं. एक बार भावुक हो कर उन्होंने कहा था, ‘‘अगर तुम न होतीं तो मैं बिखर जाता.’’ एक बार कहा था, ‘‘मुझे तुम पर इतना यकीन है कि अगर मैं तुम से कहूं तो तुम कहीं से भी जा कर ले कर आओगी.’’ उन को मुझ पर विश्वास था, यह बड़े गर्व की बात है. अगर इस कदर का विश्वास आप को अपने पार्टनर पर हो तो क्या कहना. इस बात को स्वीकार करना भी अहम बात है. वे कमजोर नहीं बल्कि ताकतवर इंसान थे. राजेश खन्ना हमेशा कहा करते थे कि, ‘मैं किसी के कंधे पर बंदूक रख कर नहीं चला सकता.’ और ‘मैं किसी के सामने हाथ नहीं फैला सकता.’

पर फिल्मों में काम न करने की वजह?

उन के अंदर का मोटिवेशन खत्म हो गया था. आप मेरी किताब पढ़ कर हैरान रह जाएंगे. लोग कहते हैं कि काका को काम नहीं मिल रहा था, जबकि ऐसा नहीं था. उन्हें काम मिल रहा था पर उन के अंदर मोटिवेशन नहीं था. सभी जानते हैं कि राजेश खन्ना अपने जमाने में इतने ‘फायरी’ इंसान थे कि दुनिया को अपना मुरीद बनाया हुआ था पर जब उन के अंदर काम करने की इच्छा ही नहीं थी, तो वे क्या करते. कभीकभी मुझे लगता था कि किसी ने उन के ऊपर काला जादू कर रखा है. राजेश खन्ना ने कितने लोगों की जिंदगी बनाई थी. जब राजेश खन्ना ने साथ देने का वादा किया था तभी यश चोपड़ा ने अपने भाई का साथ छोड़ कर अपनी कंपनी ‘यशराज फिल्म्स’ शुरू की थी तो काका कभी भी यश चोपड़ा या सलीम अंकल से कह सकते थे कि चलिए, आप के साथ फिल्म करता हूं पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया.

वे काम ही नहीं करना चाहते थे, जिस के पीछे कई वजहें थीं. मैं इस किताब के माध्यम से स्पष्ट करना चाहती हूं कि काका के पास पैसे या स्टाफ सहित किसी चीज की कोई कमी नहीं रही. सिर्फ मोटिवेशन की कमी थी. सच कह रही हूं, जब मैं उन से मिली तब तक उन के अंदर काम करने की आग खत्म हो चुकी थी. उन के दिमाग में अच्छी फिल्म करने की बात थी, मगर आउट औफ वे जा कर कुछ नहीं करना था उन्हें. मेरे आने से पहले वे जिंदगी में अकेले पड़ चुके थे. उन के अंदर ‘अकेलापन’ घर कर चुका था पर वे अपनी हर चीज को रोमांटिसाइज करते थे.

देखिए, एक समय वह आता है जब इंसान चाहता है कि उस के इर्दगिर्द उस के अपने हों. जब उस के इर्दगिर्द उस के अपने न हों तो उस के लिए कोई मोटिवेशन ही नहीं रहता. घर के अंदर प्यार का माहौल खत्म हो चुका था. सब से बड़ी जरूरत प्यार की होती है. आप के पास सैकड़ों रुपए, गाड़ीघोड़ा, बंगला सबकुछ हो पर परिवार न हो तो आप को आप की जिंदगी नीरस लगने लगती है. मैं ने अपनी तरफ से उन को अपना बनने की कोशिश की.

इन दिनों लोग सोशल मीडिया पर बहुतकुछ लिख रहे हैं. आप ने राजेश खन्ना के साथ की अपनी यादों को सोशल मीडिया पर शेयर करने की नहीं सोची?

हाथी अपनी चाल चलता है, फिर कौन उस के पीछे भाग रहा है, वह इस पर ध्यान थोड़े ही देता है. यहां लोग सच बोलने से पता नहीं क्यों डरते हैं. मैं ने तो कइयों के साथ रिश्ता निभाया है. कइयों की नौकरी बचाई है. वे सब भी मेरी बुराई कर रहे हैं. उन्हें चुल्लूभर पानी में शर्म से डूब मरना चाहिए.

अब आप के क्याक्या प्रयास होंगे कि लोगों तक यह किताब पहुंचे?

मैं सिर्फ लोगों से रिक्वैस्ट कर सकती हूं कि उन कड्डे जो मंसूबे हैं उन पर पानी फिरे और किताब को खरीदें. मैं कैटल पर भी रिलीज करूंगी थोड़े टाइम के बाद. वहां जा कर पढ़ें और कमैंट दें, रिव्यू दें ताकि पता चले कि किताब कैसी लगी, आप को कैसी लगी क्योंकि मैं ने, जब रिलीज हुई थी उस समय कुछ रिव्यूज पढ़े थे तो मुझे अच्छे रिव्यूज मिले थे. मतलब, उस समय जो रिव्यूज वगैरह आए थे वह मैं देख भी नहीं सकती हूं. अब फिर से जोरोंशोरों से रिलीज करेंगे और फिर आप के सारे पाठको व दर्शकों से कहूंगी कि खरीदिए बुक और हम कोशिश करेंगे इसे हिंदी में भी पब्लिश करें ताकि हिंदी के पाठक भी पढ़ सकें. यदि अभी भी अमेजन पर अवेलेबल है तो आप लोग जरूर खरीदिए और पढि़ए और देखिए व समझिए कि राजेश खन्नाजी की हकीकत क्या है.
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‘आनंद’ मील का पत्थर

वर्ष 1971 में प्रदर्शित हृषिकेष मुखर्जी की फिल्म ‘आनंद’ में आनंद के रोल के बारे में कुछ भी कहना बेमानी है क्योंकि आनंद के किरदार में कोई जान फूंक सकता था तो वे राजेश खन्ना ही थे. तब थिएटरों में ‘अमर प्रेम’ भी चल रही थी और ‘आराधना’ भी क्योंकि फिल्मों के बहुत ज्यादा प्रिंट रिलीज नहीं होते थे और छोटे शहरों तक फिल्में सालदोसाल बाद प्रदर्शित हो पाती थीं. ‘आनंद’ के रिलीज के वक्त हालत तो यह थी कि अगर किसी छोटे शहर में 3 टौकीज थे तो तीनों में राजेश खन्ना की फिल्में चल रही होती थीं, वितरक दूसरी फिल्में खरीदते ही नहीं थे.

‘आनंद’ का एक अतिरिक्त आकर्षण हालांकि अमिताभ बच्चन थे लेकिन तब वे उतने पहचाने नहीं जाते थे कि लोग उन्हें देखने थिएटर जाएं. दर्शक पैसे तो खर्च उस ‘आनंद’ को देखने के लिए करते थे जिसे मालूम है कि कैंसर के चलते वह कुछ ही महीने जिएगा लेकिन जीना कैसे है, यह आनंद इतनी जिंदादिली से और हंसतेगाते बताता है कि जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए और लोग उस के कायल हो जाते हैं व नम आंखें लिए हौल से बाहर निकलते हैं. तब कैंसर की पहचान आम नहीं थी यानी एक तरह से यह लोगों के लिए नई बीमारी थी, जिस के मरीज के चेहरे पर बजाय दहशत के मुसकराहट देख लोगों को सुखद एहसास हुआ था और उस के चलते आनंद गलीचौराहों का नायक बन गया था, घरघर उस की जिंदादिली की मिसाल दी जाने लगी थी. कालेजों और काफी हाउसों में सिर्फ राजेश खन्ना के चर्चे होते थे लेकिन दबी जबान से बात अमिताभ बच्चन यानी डाक्टर भास्कर बनर्जी की बेबसी की भी हो जाती थी कि उन्होंने भी हालांकि टक्कर देने वाली ऐक्टिंग तो की है लेकिन राजेश खन्ना के लिए वे कोई चुनौती नहीं हैं.

अकसर कलाकार कहते हैं कि वे जिस किरदार को परदे पर निभाते हैं, उस का कुछ अंश उन के अंदर निहित होता ही है. यह बात राजेश खन्ना के अंतिम 2 माह के दिनों को देखते हुए एकदम सच नजर आती है. हृषिकेष मुखर्जी की फिल्म ‘आनंद’ में राजेश खन्ना ने कैंसरपीडि़त आनंद का किरदार और अमिताभ बच्चन ने बाबूमोशाय का किरदार निभाया है. यदि मुमताज की बात सही मानी जाए तो राजेश खन्ना की मौत कैंसर की वजह से हुई. (वैसे, राजेश खन्ना के करीबी दावा करते हैं कि राजेश खन्ना की मौत लिवर में इंफैक्शन की वजह से हुई.)

आनंद ने सिखाया कि मौत तो आनी है लेकिन हम जीना नहीं छोड़ सकते. जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए. जिंदगी जितनी जियो, दिल खोल कर जियो. हिंदी सिनेमा का यह आनंद आज भले ही हमारे बीच न हो लेकिन उस का यह किरदार कभी नहीं मरेगा.

फिल्म ‘आनंद’ का एक संवाद- ‘हम तो इस रंगमंच की कठपुतलियां हैं और हम सब की डोर ऊपर वाले के हाथ में है. कौन क्या कब, यह कोई नहीं जानता. इसलिए बाबू मोशाय…अरे बाबू मोशाय, जिंदगी जो है वह बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं. इतना प्यार ज्यादा अच्छा नहीं है’- हर दर्शक/इंसान को सीख देता है.

‘आनंद’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि भावनाओं का एक गहरा समुद्र थी. यह फिल्म आज भी अपने संवादों, कलाकारों के शानदार अभिनय और मार्मिक कहानी के लिए याद की जाती है. लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि राजेश खन्ना इस किरदार के लिए निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी की पहली पसंद नहीं थे. हृषिकेश मुखर्जी इस किरदार के लिए अपने करीबी दोस्त और फिल्म इंडस्ट्री के शोमैन राज कपूर को कास्ट करना चाहते थे लेकिन उस दौरान राज कपूर की तबीयत कुछ ठीक नहीं चल रही थी.

जब हृषिकेश मुखर्जी ने देखा कि राज कपूर की तबीयत पहले से खराब चल रही है तो उन के मन में यह वहम बैठ गया कि कहीं फिल्म की कहानी का असर राज कपूर की सेहत पर न पड़ जाए. इसी वजह से उन्होंने राज कपूर की जगह पर दूसरे कलाकार की तलाश शुरू कर दी. यह खबर राजेश खन्ना को मालूम हुई तो सुपरस्टार राजेश खन्ना खुद उन के पास गए और खुद इस फिल्म में काम करने की इच्छा जताई और जब आनंद का किरदार उन्होंने निभाया तो वह मील का पत्थर बन गया जिसे आज तक कोई हिला नहीं पाया.

विविधताभरी फिल्में

‘आराधना’ के बाद ‘बावर्ची’ में निभाया उन का रघु का किरदार दर्शकों के सिर चढ़ कर बोला था. 1972 में प्रदर्शित हृषिकेश मुखर्जी निर्देशित यह फिल्म एक हैरानपरेशान संयुक्त मध्यवर्गीय शर्मा परिवार की कहानी थी जिस में सभी सदस्य, खासतौर से बहुएं, छोटेछोटे कामों और बातों को ले कर आपस में इस कदर झगड़ा करती हैं कि कोई उन के घर ‘शांति निवास’ में रसोइए का काम करने को तैयार नहीं होता.

ऐसे में रघु नाम का देहाती सा युवा आ कर बावर्ची बनने की पेशकश करता है तो पूरा शर्मा परिवार चहक उठता है और उसे हाथोंहाथ लेता है. बातूनी रघु जायकेदार खाना बनाने में तो माहिर है ही, अपनी प्रतिभा व ज्ञान से शांति निवास के सदस्यों की मदद भी करता है और उन के बीच फैली कटुता को भी दूर करने में मददगार साबित होता है. एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद इस रहस्य से परदा उठता है कि रघु दरअसल बावर्ची नहीं बल्कि पेशे से प्रोफैसर है जो इस घर में शांति स्थापित करने के मकसद से आया था जिस में वह कामयाब भी रहता है.

तब दौर संयुक्त परिवारों का था जिस में छोटीछोटी बातों को ले कर कलह बेहद आम रहती थी. बावर्ची का काम तो बहाना था वरना तो राजेश खन्ना की भूमिका एक फैमिली काउंसलर की बताई गई है जो पूरे परिवार को प्यार, लगाव और सद्भाव का सबक सिखाता है तब फिल्म के पोस्टरों पर राजेश खन्ना के सिर की बावर्ची वाली टोपी ने भी सुर्खियां बटोरी थीं और उन्होंने यह भी साबित कर दिया था कि रोमांटिक भूमिकाओं से इतर भी वे बावर्ची जैसे आम लेकिन चैलेंजिंग किरदार में भी जान डाल सकते हैं.

वर्ष 1971 की सब से कामयाब और चर्चित फिल्म ‘हाथी मेरे साथी’ थी जिस में पशुप्रेमी नायक राजकुमार को भी दर्शकों ने सिर पर बैठाया था. उस वक्त राजेश खन्ना कैरियर के सुनहरे दौर से गुजर रहे थे जिस में ‘हाथी मेरे साथी’ जैसी फिल्म उन के कैरियर के लिए खतरा भी साबित हो सकती थी लेकिन यह जोखिम उन्होंने उठाया और उस में भी सफल रहे.

इस से पहले 1970 में आई ‘सच्चा झुठा’ में भी वे ‘आराधना’ की तरह डबल रोल में थे जो मनमोहन देसाई की मसाला फिल्म थी. उन के दोनों ही किरदार भोला और रंजीत दर्शकों ने पसंद किए थे. अब उन की जोड़ी मुमताज के साथ जमने लगी थी जो मुंबई में उन की पड़ोसिन थीं और अच्छी दोस्त भी बन चुकी थीं.

1972 में ही शक्ति सामंत ने राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर को ले कर एक और हाहाकारी फिल्म ‘अमरप्रेम’ बनाई थी जिस ने वाकई यह साबित कर दिया था कि वक्त और दौर दोनों राजेश खन्ना के ही हैं.

बंगाल की पृष्ठभूमि पर बनी ‘अमर प्रेम’ में राजेश खन्ना यह जताने व बताने में कामयाब रहे थे कि वे बंगला संस्कृति और फिल्म में भी बंगाली अभिनेताओं जैसे रचबच सकते हैं.

उसी साल अभिनय की विविधता दिखाते और साबित करते राजेश खन्ना ने दुलाल गुहा निर्देशित फिल्म ‘दुश्मन’ में एक ट्रक ड्राइवर सुरजीत सिंह के किरदार को बड़ी शिद्दत से जिया था. यह एक प्रयोगात्मक फिल्म थी जिस की शुरुआत ही सुरजीत की ऐयाशी से होती है. ट्रक चलाते वह बिंदु के कोठे पर रुकता है और शराब पी कर मस्ती में नाचतागाता है. बिंदु और राजेश खन्ना पर फिल्माया यह गाना तब युवाओं की जबान पर चढ़ा ही रहता था- ‘वादे पे तेरे मारा गया, बंदा मैं सीधासादा, वादा तेरा वादा…’ लेकिन कोठे से निकलते ही कुछ दूर नशे में धुत सुरजीत से एक ऐक्सिडैंट हो जाता है जिस में एक गरीब किसान मारा जाता है.

असली फिल्म यहां से शुरू होती है जब अदालत सुरजीत को बतौर सजा यह हुक्म सुनाती है कि वह गांव जा कर सुरजीत की खेतीकिसानी संभाले और उस के परिवार की देखभाल करे. मजबूरी का मारा सुरजीत जब गांव पहुंचता है तो घबरा भी जाता है और चकरा भी, क्योंकि सब उस से नफरत करते हैं खासतौर से मृत किसान रामदीन की पत्नी मालती. इस रोल में तब की दिग्गज ऐक्ट्रैस मीना कुमारी थीं. सुरजीत जैसेतैसे खेती संभालता है.

धीरेधीरे वह गांव का हिस्सा बन जाता है और मीना कुमारी के परिवार की जरूरत भी बनता जाता है. एक वक्त ऐसा भी आता है कि सजा पूरी हो जाने के बाद भी वह गांव छोड़ने के नाम पर जज्बाती हो कर रोने लगता है. कैसे एक आवारा ट्रक ड्राइवर घरगृहस्थी में बंध जाता है इस खूबी को राजेश खन्ना ने अपनी ऐक्टिंग के जरिए साबित किया था. इस किरदार के लिए राजेश खन्ना को फिल्मफेयर अवार्ड मिला था.

‘आनंद’ के बाद भी

अब तक अमिताभ बच्चन की ‘जंजीर’ भी बौक्स औफिस पर छाने लगी थी जिस से राजेश खन्ना का स्टारडम खतरे में पड़ने लगा था. ‘जंजीर’ मई 1973 में रिलीज हुई थी. इस के 6 महीने बाद ‘नमक हराम’ प्रदर्शित हुई थी जिस में ‘आनंद’ के बाद एक बार फिर अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना आमनेसामने थे. हृषिकेष मुखर्जी की इस फिल्म में दोनों के लिए करने को काफीकुछ था. दोनों जिगरी दोस्त हैं लेकिन अमिताभ बच्चन यानी विक्की एक रईस बाप का बेटा है जबकि सोमू यानी राजेश खन्ना गरीब परिवार से है. अमीरीगरीबी इन की दोस्ती में आड़े नहीं आती.

फिल्म की कहानी असरदार थी जिस के तहत विक्की को अपने बीमार पिता का कारोबार संभालने जाना पड़ता है जहां उस का वास्ता ट्रेड यूनियन से पड़ता है. वह सोमू को फैक्ट्री ले आता है और उसे नेता बनवा देता है. मजदूर चंदर बने सोमू पर आंख बंद कर भरोसा करने लगते हैं.

सोमू मजदूरों की बदहाल जिंदगी देखता है तो उस से रहा नहीं जाता और वह विक्की से उन के हितों के लिए भिड़ पड़ता है. फिर फिल्मी मारधाड़ और नाटकीय घटनाक्रम होते हैं जिन में सोमू मारा जाता है. विक्की अपने पिता का आरोप अपने सिर ले कर जेल चला जाता है और पिता से कहता है कि यह सजा आप के लिए है.

अहम यह है कि राजेश खन्ना ने सोमू के रोल में जो जान फूंकी उस से विक्की का किरदार फीका पड़ गया और सारी वाहवाही व इनाम राजेश खन्ना बटोर ले गए जो पूरी फिल्म में वास्तविक मजदूर ही लगे और बतौर यूनियन लीडर, अपने मजदूर साथियों को धोखा नहीं दे पाए. दर्शकों को उन का यह रूप खूब भाया था.

‘नमक हराम’ के रिलीज के बाद यह बात उजागर हुई थी कि अमिताभ बच्चन भी फिल्म के आखिर में मरने वाला रोल चाहते थे लेकिन हृषिकेष मुखर्जी ने आखिर तक यह नहीं बताया था कि मरना किसे है विक्की को या सोमू को और जब यह पता चला कि मरना सोमू को है तो अमिताभ बच्चन परेशान हो गए थे क्योंकि मरने वाले किरदार को ज्यादा हमदर्दी मिलती है.

1973 में ही उन की एक रोमांटिक लेकिन ट्रेजेडिक फिल्म ‘दाग’ रिलीज हुई थी. गुलशन नंदा की कहानी पर यश चोपड़ा ने यह फिल्म बनाई थी जिस में राखी और शर्मिला टैगोर थीं.

इस के बाद उन की फिल्में पहले की तरह सुपरहिट होने की गारंटी नहीं रह गई थीं, फिर भी वे ठीकठाक बिजनैस कर जाती थीं जिस से निर्माता को घाटा नहीं होता था. ऐसी ही एक फिल्म 1974 की ‘रोटी’ थी जिस में राजेश खन्ना ने एक मुजरिम का रोल किया था जो सुधरना चाहता है लेकिन माफिया उसे यह मौका नहीं देते और कई उतारचढ़ाव के बाद आखिर उसे मार ही देते हैं. इस में मंगल सिंह के रोल में उन्होंने अग्रिम पंक्ति के दर्शकों से खूब तालियां और सीटियां बजवाई थीं. मंगल जैसा भी है पर वह भ्रष्ट सिस्टम की पोल खोलता है, उस से लड़ता है और आम शोषितों की आवाज का प्रतिनिधित्व करता है.

मनमोहन देसाई ने अग्रिम पंक्ति के दर्शकों की नब्ज पकड़ते राजेश खन्ना को भुनाने में कामयाबी पा ली थी. फिल्म के सभी गाने हिट थे जिन में से ‘ये जो पब्लिक है सब जानती है…’ आज भी आम चुनाव में बजता सुनाई दे जाता है जो भ्रष्ट राजनीति पर निशाना साधता है.

उसी साल जे ओम प्रकाश की फिल्म ‘आप की कसम’ में राजेश खन्ना फिर एक बार मुमताज के साथ नजर आए थे. एक रोमांटिक लेकिन शक्की पति कमल भटनागर को वहम हो जाता है कि उस की पत्नी सुनीता यानी मुमताज के नाजायज संबंध उस के दोस्त मोहन (संजीव कुमार) से हैं. एक शक्की पति कैसीकैसी हरकतें करता है और इसी शक के चलते अपनी गृहस्थी उजाड़ लेता है, इस किरदार को राजेश खन्ना ने जीवंत कर डाला था.

अब तक घोषिततौर पर राजेश खन्ना का स्टारडम अमिताभ बच्चन में हस्तांतरित हो चुका था लेकिन इस के बाद भी उन के निभाए कुछ किरदार मुद्दत तक लोगों को याद रहेंगे. 1981 में इस्माइल श्रौफ की फिल्म ‘थोड़ी सी बेवफाई’ में वे शबाना आजमी के अपोजिट अरुण कुमार चौधरी के रोल में थे. यह फिल्म भी शक पर आधारित थी. नीमा यानी शबाना आजमी एक रिश्तेदार की बातों में आ कर बिना सच्चाई जानेपरखे बेटे को ले कर मायके चली जाती है. अरुण की बेबसी को राजेश खन्ना ने बेहद सहजता से दर्शाया है. इस के लिए उन्हें एक बार फिर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था.

इस के 2 वर्षों बाद ही मोहन कुमार निर्देशित ‘अवतार’ में उन्होंने एक जीवट भूमिका निभाई थी. एक अधेड़ पिता को उस की स्वार्थी संतानें धोखा दे जाती हैं तो वह रोतागाता नहीं है बल्कि एक हाथ कट जाने के बाद भी अपने गैरेज का कारोबार शुरू कर बेशुमार दौलत कमाता है. पत्नी राधा का झुकाव नालायक और धोखेबाज बेटों की तरफ देख वह तिलमिला उठता है. राजेश खन्ना ने अपने जोरदार अभिनय से फिर से वापसी के संकेत ‘अवतार’ के किरदार के जरिए दिए थे लेकिन ऐसा हो नहीं पाया.

राजेश खन्ना के बाद या यों कहें कि राजेश खन्ना के ही दौर में जितेंद्र, शम्मी कपूर, शत्रुघ्न सिन्हा, धर्मेंद्र, राज कुमार, विनोद खन्ना, ऋषि कपूर, रणधीर कपूर भी अपनेआप को ‘सुपरस्टार’ मानते रहे, मगर हकीकत में इन में से किसी को भी ‘सुपरस्टार’ का खिताब नहीं मिला. जब कि ये सभी बेहतरीन कलाकार रहे हैं.

राजेश खन्ना मरते दम तक एक शहंशाह, एक सुपरस्टार की ही तरह जीते रहे. उन्होंने न तो कभी पीछे मुड़ कर देखना जरूरी समझ और न ही वक्त के साथ अपनेआप को बदलने की कोशिश की. लगभग 2005 के आसपास जब मेरी उन से मुलाकात हुई थी तो उन्होंने कहा था, ‘राजा, राजा ही होता है, चाहे जहां भी रहे.’ उन का अपना एक अलग ‘औरा’ था. तभी तो वे आज भी लोगों के दिलोदिमाग में छाए हुए हैं. हवा के रुख को भांप कर अपनेआप को बदलना उन्होंने उचित नहीं समझ. वे मात्र सुपरस्टार रहे हैं जो संघर्ष के दिनों में भी स्पोर्ट्स कार में घूमते थे. वे हमेशा महंगी गाडि़यों में ही निर्माताओं के पास काम मांगने जाते थे. उन के चेहरे पर सदैव एक स्निग्ध मुसकान नजर आती थी, तभी तो उन की फिल्म ‘अमर प्रेम’ का यह संवाद, ‘आई हेट टियर्स’ (मुझे आंसुओं से नफरत है) उन की निजी जिंदगी की पहचान बन चुका था.

मगर 69 साल की उम्र में 18 जुलाई, 2012 को दोपहर 1 बज कर 40 मिनट पर उन्होंने अपने ‘आशीर्वाद’ बंगले पर आखिरी सांस ली.

1974 के बाद भी राजेश खन्ना फिल्मों में काम करते रहे पर ‘जंजीर’ व ‘दीवार’ जैसी फिल्मों के हिट होने के साथ अमिताभ बच्चन की ‘एंग्री यंगमैन’ की जो छवि उभर कर आई उस के चलते राजेश खन्ना दब गए क्योंकि वह वो दौर था जब बेरोजगार युवाओं के अंदर गुस्सा था और उन का यह गुस्सा उन्हें अमिताभ बच्चन के रूप में फिल्मों में नजर आया.

यहीं से लोग राजेश खन्ना के बजाय अमिताभ बच्चन की तरफ खिसकते चले गए. सच यही है कि अमिताभ बच्चन दूसरे और अंतिम ‘सुपरस्टार’ रहे. अमिताभ बच्चन के बाद अभी कोई भी सुपरस्टार नहीं बना.

जब निर्देशक ने कम बजट की बात की थी, तब राजेश खन्ना ने अपनी फीस बहुत कम कर अपनी कंपनी शक्तिराज फिल्म्स के तहत ‘आनंद’ के वितरण अधिकार हासिल किए थे और यह उन का शानदार निर्णय साबित हुआ क्योंकि उन्होंने अपने सामान्य अभिनय शुल्क से दसगुना ज्यादा कमाया. यह सब आनंद की अविश्वसनीय सफलता की बदौलत हुआ.

उन्होंने फिल्मफेयर का लाइफटाइम एचीवमैंट अवार्ड भी पाया. 15 बार फिल्मफेयर के लिए नामांकित हुए. यही नहीं, राजेश खन्ना जब तक जीवित रहे तब तक अवार्ड हासिल करते चले गए.

उन्हें इस बात का एहसास भी था कि 1969 से 1973 तक ही उन का कैरियर स्टारडम पर रहा. स्टारडम के वक्त सैट पर शूटिंग के दौरान देर से पहुंचना उन की आदत बन चुकी थी. उन की यह आदत अंतिम समय तक बरकरार रही. वे जहां भी देर से पहुंचते थे, उन का एक ही तकियाकलाम होता था, ‘मैं देर से आता नहीं, देर हो जाती है. मुझे माफ कर दो. हमें माफी दे दो सरकार.’

नारी संबंध : औरतों की इज्जत की

इस सच से सभी वाकिफ हैं कि लड़कियां और औरतें राजेश खन्ना के प्यार में किस कदर दीवानी थीं. कहा जाता है कि जब राजेश खन्ना की गाड़ी निकलती थी तो लड़कियां उन की गाड़ी की धूल से अपनी मांग भरती थीं. इस की सब से बड़ी खासीयत यह थी कि राजेश खन्ना हर लड़की व औरत के साथ इज्जत के साथ पेश आते थे, बल्कि वे उसे उस की अहमियत का एहसास कराते थे. जब राजेश खन्ना वर्ष 2000 के बाद अनीता अडवाणी के साथ ‘आशीर्वाद बंगले’ में रह रहे थे तो अनीता अडवाणी खुद को राजेश खन्ना की सरोगेटेड वाइफ मानती रहीं.

तब वे जब कहीं बाहर जाते थे तो वहां से वापसी में वे अनीता की छोटी बहन के लिए भी गिफ्ट ले कर आते थे. यदि हम अनीता अडवाणी की मानें तो एक बार रीना रौय के घर में पार्टी थी. उस पार्टी में राजेश खन्ना, अनीता अडवाणी और अनीता की बहन भी गए हुए थे. पार्टी में कुछ देर बाद अनीता राजेश खन्ना के लिए खाना लेने चली गईं. कुछ देर में प्लेट ले कर वहां पर राजेश खन्ना भी पहुंच गए थे. अनीता ने उन से कहा कि वह उन्हीं के लिए खाना ले कर आ रही है तब राजेश खन्ना ने कहा था कि वे तो उन की बहन के लिए खाना लेने आए हैं और वे ले कर जाएंगे. राजेश खन्ना ने खुद ही प्लेट में खाना परोस कर अनीता की बहन को जा कर दिया था. इस तरह के कई किस्से राजेश खन्ना को ले कर मशहूर हैं.

राजेश खन्ना के कैरियर पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि वे हर हीरोइन के लिए ‘पारस पत्थर’ थे. जिस हीरोइन ने राजेश खन्ना के साथ काम किया, उस का कैरियर बन जाता था. राजेश खन्ना ने मुमताज के साथ 8 फिल्में कीं और आठों फिल्में सुपरहिट रहीं. दोनों के बीच प्यार का भी संबंध था लेकिन 1966 में राजेश खन्ना अंजू महेंद्रू को अपना दिल दे बैठे थे. मुमताज ने न सिर्फ राजेश खन्ना बल्कि बौलीवुड को भी हमेशा के लिए अलविदा कह अलग राह पकड़ ली थी.

इस बीच पूरे 7 साल तक राजेश खन्ना और अंजू महेंद्रू के बीच रोमांस चलता रहा पर कुछ ऐसा हुआ कि राजेश खन्ना ने 28 मई, 1973 को डिंपल कपाडि़या से विवाह कर लिया. उस वक्त राजेश खन्ना 31 साल और डिंपल महज 16 साल की थीं.

फिल्म ‘बौबी’ की शूटिंग रुकी हुई थी तो वहीं मीडिया में कई तरह की खबरें छप रही थीं. उन दिनों मीडिया में यह खबर भी छपी थी कि किस तरह डिंपल ने ऋषि कपूर द्वारा दी गई अंगूठी को समुद्र में फेंक दिया. मगर इन सारी खबरों का अपनी हर फिल्म की हीरोइन के प्यार में डूबने वाले राज कपूर पर नहीं पड़ रहा था जबकि राजेश खन्ना अंदर ही अंदर आगबबूला हो रहे थे. पूरी तरह से विवश राज कपूर ने हार नहीं मानी और फिल्म ‘बौबी’ को पूरी कर 28 सितंबर, 1973 को रिलीज किया. फिल्म को बौक्स औफिस पर अच्छी सफलता मिली.

महज 9 साल में ही डिंपल कपाडि़या अपनी गलती स्वीकार करते हुए राजेश खन्ना से 1982 में अलग हो गई थीं पर कानूनी रूप से तलाक नहीं लिया. वास्तव में डिंपल ने राजेश खन्ना से जब शादी की थी तो उन्होंने सपनों जैसी लवस्टोरी की कल्पना की थी. मगर हकीकत कल्पना से अलग साबित हुई.

फिल्म ‘बौबी’ की सफलता के बाद लोग डिंपल को अच्छे औफर दे रहे थे, लेकिन पति राजेश खन्ना की इच्छा का सम्मान करते हुए डिंपल ने फिल्में छोड़ घर पर रहना शुरू किया. यह उन की दूसरी सब से बड़ी गलती थी. डिंपल को कुछ वक्त बाद रिश्ते में घुटन महसूस होने लगी. उन्हें यह बराबरी का रिश्ता नहीं लगा. अब वे आर्थिक रूप से उन पर निर्भर भी थीं. डिंपल को अपनी शादीशुदा जिंदगी नरक लगने लगी थी. उन्होंने 3 बार अपनी बेटियों के साथ घर छोड़ने की कोशिश की थी.

उधर राजेश खन्ना के दिलोदिमाग में उन की व डिंपल की जोड़ी इस तरह छाई रही कि आखिरकार राजेश खन्ना ने स्वयं डिंपल से अलगाव के बावजूद 1990 में फिल्म ‘जय शिवशंकर’ बनाई.

इस फिल्म में राजेश खन्ना व डिंपल के साथ ही जितेंद्र भी थे. वैसे पहले इस में डिंपल कपाडि़या, विनोद खन्ना, मिथुन चक्रवर्ती व जैकी श्रौफ थे पर बाद में विनोद खन्ना की जगह खुद राजेश खन्ना आ गए और मिथुन चक्रवर्ती की जगह जितेंद्र व जैकी श्रौफ की जगह पर चंकी पांडे आ गए थे लेकिन एक पुरानी कहावत है कि जैसी नीयत वैसी बरकत. इसी कहावत के अनुसार फिल्म ‘जय शिवशंकर’ बनी, मगर आज तक यह फिल्म रिलीज नहीं हो पाई.

राजेश खन्ना की शख्सियत यह रही कि किसी भी नारी से उन की कभी दुश्मनी नहीं हुई. हाल ही में गुलशन ग्रोवर ने स्वीकार किया है कि 1980 से 1987 तक राजेश खन्ना और टीना मुनीम के बीच संबंध थे. 1988 में राजेश खन्ना की जिंदगी में अंजू महेंद्रू की वापसी हुई थी.

राजेश खन्ना की मौत की खबर सुन कर लंदन से मुमताज ने कहा था, ‘‘राजेश खन्ना की मौत कैंसर से हुई. पिछली बार जब हम मिले थे, हम दोनों ने कैंसर से अपनीअपनी लड़ाई को ले कर चर्चा की थी. दूसरों के साथ बहुत कम घुलनेमिलने वाले काका मेरे काफी करीब थे. मैं ने तो ब्रैस्ट कैंसर से लड़ाई जीत ली पर मैं पूरी रात रोती रही.’’ (यह एक अलग बात है कि उसी वक्त राजेश खन्ना के पारिवारिक सूत्रों ने राजेश खन्ना की मौत लिवर में इन्फैक्शन की वजह से होने का दावा किया था).

मुमताज की बातों से राजेश खन्ना के स्वभाव की यह बात उभर कर आती है कि वे जल्दी लोगों से घुलतेमिलते नहीं थे. इसी कारण शायद कुछ लोग कहते हैं कि राजेश खन्ना घमंडी थे. मगर यह बात किसी के गले नहीं उतरती. इतना ही नहीं, राजेश खन्ना ने एक बार खुद के घमंडी होने से इनकार करते हुए कहा था, ‘‘अगर ऐसा होता तो हम सुपरस्टार न बन पाते.’’

राजेश खन्ना की शख्सियत को इस बात से भी समझ जा सकता है कि लगभग 30 वर्षों तक राजेश खन्ना से अलग रहते हुए भी डिंपल के मन में उन के प्रति कभी कटुता नहीं आई. पूरे 30 वर्षों के दौरान ऐसा कभी नहीं हुआ जब दोनों में से किसी ने भी एकदूसरे के खिलाफ कोई टिप्पणी की हो. इतना ही नहीं, जब राजेश खन्ना बीमार पड़े तो अस्पताल में लोगों ने डिंपल कपाडि़या को उन के साथ उन की इस तकलीफ में एक हमदम, एक हमसफर, एक फिक्रमंद के रूप में खड़ी देखा, जहां अनीता अडवाणी को घुसने तक नहीं दिया गया था.

गौसिप पत्रिका के रूप में मशहूर रही नारी हीरा की मासिक पत्रिका ‘स्टारडस्ट’ के मई 1973 के अंक में अंजू महेंद्रू ने राजेश खन्ना के खिलाफ लंबाचौड़ा इंटरव्यू दिया था, लेकिन उस के बाद अंजू महेंद्रू ने भी राजेश खन्ना के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया, बल्कि हमेशा अच्छा दोस्त ही मानती रही. अंजू महेंद्रू भी उस वक्त आशीर्वाद बंगले में थी जब राजेश खन्ना ने अंतिम सांसें लीं और वह उन की अंतिम यात्रा में भी साथ थी. तभी तो एक बार जब राजेश खन्ना से मेरी बात हो रही थी तब राजेश खन्ना ने बहुत बड़ी बात कही थी, ‘मैं ने कभी किसी नारी को धोखा नहीं दिया. मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो औरतों का पल्लू पकड़ कर सफलता की सीढ़ी चढ़ते हैं.’

यदि राजेश खन्ना के पूरे कैरियर पर गौर किया जाए तो शर्मिला टैगोर हों या मुमताज, दोनों के साथ उन की जोड़ी हिट रही. फिल्मी परदे पर इन दोनों के साथ उन की कैमिस्ट्री हमेशा पसंद की गई. जबकि उन्होंने हेमा मालिनी के साथ एकदो नहीं बल्कि 15 फिल्में कीं. लोग उन्हें संवादों का बादशाह मानते हैं. तभी तो ‘दुश्मन’, ‘बंधन’, ‘रोटी’, ‘दुश्मन चाचा’, ‘बावर्ची’ या ‘आनंद’ फिल्मों के संवाद कभी भुलाए नहीं जा सकते.

फैंस ने बरसाया अटूट प्यार

29 दिसंबर, 1942 में अमृतसर में जन्मे जतिन खन्ना को उन के गोद लिए हुए मातापिता ने पाला था और उन्होंने उन का नाम बदल कर राजेश खन्ना कर दिया था. स्कूल के दिनों में राजेश खन्ना की दोस्ती रवि कपूर (अभिनेता जितेंद्र) से हुई. बाद में राजेश खन्ना और रवि कपूर दोनों ने कालेज में भी एकसाथ पढ़ाई की. राजेश खन्ना को बचपन से ही अभिनय करने का शौक था. उन्हें अच्छे मौके की तलाश थी.

1965 की बात है. फिल्मफेयर पत्रिका और यूनाइटेड प्रोड्यूसर एसोसिएशन की तरफ से सिनेमा में काम करने के लिए प्रतिभाशाली कलाकार की खोज शुरू की गई थी, जिस में पूरे देश से 10 हजार युवकों के साथ ही राजेश खन्ना ने आवेदन किया था. इन 10 हजार में से जिन 8 लोगों को चुना गया था, उन में से एक राजेश खन्ना थे. उस वक्त किसी ने नहीं सोचा था कि उन्होंने देश के पहले सुपरस्टार को चुना है.

बहरहाल, सब से पहले जीपी सिप्पी ने राजेश खन्ना को फिल्म ‘राज’ के लिए साइन किया. उस के कुछ समय बाद चेतन आनंद ने राजेश खन्ना को अपनी फिल्म ‘आखिरी खत’ के लिए चुना पर राजेश खन्ना की पहली प्रदर्शित फिल्म ‘आखिरी खत’ थी, जोकि 1967 में रिलीज हुई. इस फिल्म से ही यह साबित हो गया कि वे आने वाले कल के सफलतम कलाकार होंगे.

जब राजेश खन्ना ने ‘आखिरी खत’ से बौलीवुड में डैब्यू किया तो उन्हें नोटिस तक नहीं किया गया. यह लो बजट की फिल्म थी. हालांकि फिल्म को 1967 में औस्कर के लिए बैस्ट फौरेन लैंग्वेज कैटेगरी में भेजा गया था.

राजेश खन्ना ने बौलीवुड में उस वक्त कदम रखा था जब दिलीप कुमार और राज कपूर जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों का कैरियर ढलान पर था. इस के अलावा राजेश खन्ना ने अपनी शोख अदाओं, अभिनय के नएनए अंदाज से परदे पर रोमांस का एक ऐसा नया रूप पेश किया कि हरकोई उन का दीवाना हो गया. उन की यह दीवानगी अंत तक लोगों के बीच मौजूद रही.

शायद 2012 की शुरुआत हुई थी, तभी मशहूर फिल्मकार आर बाल्की ने राजेश खन्ना को ले कर पंखा यानी कि फैन बनाने वाली एक कंपनी के लिए विज्ञापन फिल्माया था. इस विज्ञापन फिल्म में राजेश खन्ना ने अपने दिल की ही बात कही थी. इस विज्ञापन फिल्म में उन का संवाद है, ‘मेरे फैंस मुझ से कोई नहीं छीन सकता.’ इस बात का सुबूत उस वक्त नजर आया जब मुंबई के बांद्रा स्थित आशीर्वाद बंगले से विलेपार्ले के पवन हंस श्मशान भूमि तक जब उन की शवयात्रा निकाली गई तो जिस तरह उन के प्रशंसक उन्हें एक नजर देखने को व्याकुल थे, ऐसा हम ने अपनी याद में अब तक किसी भी कलाकार की मौत पर नहीं देखा.

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अभिनेता राजेश खन्ना और पौलिटिकल लीडर जौर्ज फर्नांडिस में समानता

अभिनेता राजेश खन्ना और उन की अभिनेत्री पत्नी डिंपल कपाड़िया तलाक दिए बिना अलगअलग रहे. अनीता अडवाणी वर्ष 2000 से 2012 तक राजेश खन्ना के साथ पत्नी की तरह रहीं और सेवा की. राजेश खन्ना जब गंभीर रूप से बीमार हुए तब मृत्यु से कुछ दिनों पहले डिंपल कपाडि़या अपनी बेटी ट्विंकल खन्ना और दामाद अक्षय कुमार के साथ आशीर्वाद बंगले में पहुंचे, उस पर कब्जा कर के अनीता अडवाणी को वहां से भगाया. अनीता ने डोमैस्टिक वौयलैंस का मुकदमा दर्ज करा दिया. मामले की कोर्ट में सुनवाई शुरू होने से पहले ही राजेश खन्ना की मौत हो गई.

उधर राजनेता जौर्ज फर्नांडिस का विवाह समाज सेविका लैला कबीर से हुआ था. जौर्ज और लैला बिना तलाक लिए अलगअलग रहने लगे. समता पार्टी की राजनेत्री जया जेटली जौर्ज फर्नांडिस के साथ रहने लगीं. जब जौर्ज फर्नांडिस गंभीर रूप से बीमार हुए तो बेटे सीन फर्नांडिस के साथ लैला कबीर ने जा कर जौर्ज फर्नांडिस के घर पर कब्जा कर जया जेटली को भगाया. जया जेटली भी अदालत पहुंचीं.
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