Maharashtra : बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है. राजनीति में भी बड़े दल पहले छोटे दलों का लौलीपौप देते हैं फिर उन को खत्म कर देते हैं. भाजपा अब बड़ी मछली बन कर छोटे दलों को खा रही है.

भारतीय जनता पार्टी एक एक कर छोटे दलों को प्रभावहीन कर के खत्म कर रही है. इस का ताजा उदाहरण महाराष्ट्र की राजनीति में दिखाई दे रहा है. महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के पहले और बाद में अंतर आ गया है. शिवसेना के जो एकनाथ शिंदे पहले मुख्यमंत्री थे अब वह उप मुख्यमंत्री हैं. एकनाथ शिंदे और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस के बीच कई मुद्दों को ले कर मतभेद हैं. महाराष्ट्र ही नहीं बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश में भी भाजपा छोटे दलों को खत्म करती जा रही है.

महाराष्ट्र की महायुति सरकार में दरार के संकेत लगातार मिल रहे हैं. सीटों, विभागों और योजनाओं पर लगातार मतभेद और टकराव सामने आ रहे हैं. एकनाथ शिंदे की नाराजगी खुल कर सामने आई है और सरकार में एक के बाद एक कई मुद्दों पर असहमति बनी हुई है. महाराष्ट्र सरकार 3 पैरों वाले तांगा जैसी है. इस में सब से आगे मुख्यमंत्री और भाजपा ने देवेन्द्र फडणवीस हैं. इस के पीछे के दो पहियों में से एक शिवसेना के एकनाथ शिंदे हैं और एक एनसीपी के अजित पंवार हैं.

तीनों पहियों में दो जिस तरफ चलेंगे वह सरकार में बना रहेगा. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. एकनाथ शिंदे और अजित पवार में से कोई भी एक के अलग होने से सरकार नहीं गिरेगी. दूसरी तरफ भाजपा इन में से किसी भी एक के साथ तोड़फोड़ कर उस को खत्म सकती है. इस के पहले भी एकनाथ शिंदे और अजित पवार शिवसेना और एनसीपी को तोड़ चुके हैं. उस समय भाजपा ने बड़ा दिल दिखाते हुए एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया था.

जैसे ही विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा मजबूत हुई उस ने मुख्यमंत्री का पद छीन लिया. अब भाजपा के देवेन्द्र फडणवीस मुख्यमंत्री हैं, शिवसेना के एकनाथ शिंदे और एनसीपी के अजित पंवार उप मुख्यमंत्री हैं. मुख्यमंत्री से उपमुख्यमंत्री बने एकनाथ शिंदे के लिए तालमेल बैठाना सरल नहीं है. ऐसे में लगातार विवाद की खबरें आती रहती हैं.

महायुति में महाभारत

चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे को ले कर महायुति में विवाद था. इस को किसी तरह से हल किया गया. चुनाव के बाद जब भाजपा को बड़ी जीत मिली तो भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री बनाना तय किया. इस के बाद मुख्यमंत्री के चयन को ले कर भाजपा और शिंदे में अनबन की खबरें आने लगीं. शिंदे मुख्यमंत्री पद नहीं छोड़ना चाहते थे और भाजपा देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी. इस के बाद समझौता हुआ और शिंदे उप मुख्यमंत्री बनने को राजी हुए.

शिंदे अगर राजी न होते तो भी भाजपा के पास दूसरा प्लान भी था. शिंदे के साथी उदय सामंत देवेन्द्र फडणवीस के करीबी माने जाते हैं. उन के साथ 20 विधायक भाजपा के पाले में आने को तैयार थे. शिंदे सेना के 57 विधायक हैं. उन में से 20 अलग होते, तो दलबदल कानून लागू नहीं होता. उदय सामंत डिप्टी सीएम बनते. इस की भनक शिंदे को लग गई और वह उप मुख्यमंत्री बनने को राजी हो गए.

टकराव के मुद्दे

शिंदे को एक बार दवाब में लेने के बाद भाजपा ने उन को आगे बढ़ने नहीं दिया. मंत्रिमंडल में विभागों के बंटवारे पर खींचतान चलती रही. शिंदे गृह मंत्रालय चाहते थे, लेकिन कोई मुख्यमंत्री गृह विभाग दूसरे को नहीं देता है. इस के बाद राजस्व और शहर विकास विभाग की मांग की गई. भाजपा राजस्व विभाग देने को तैयार न थी. हार मान कर शिंदे को शहर विकास विभाग स्वीकार करना पड़ा. भाजपा और शिंदे के बीच एक और टकराव जिलों के गार्जियन मंत्रियों की नियुक्ति को ले कर हुआ. फडणवीस ने नासिक में अपनी पार्टी के गिरीश महाजन और रायगढ़ में अजित की पार्टी की अदिति तटकरे को नियुक्त किया. शिंदे गुट के विरोध पर 24 घंटे में यह निर्णय स्थगित करना पड़ा. दोनों जिले पूर्व में शिंदे गुट के पास ही थे. यह मामला अब तक विवादों में पड़ा है.

राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के पुनर्गठन में एकनाथ शिंदे का नाम नहीं था. बाद में नियमों में बदलाव कर शिंदे को शामिल किया गया. महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम के अध्यक्ष अमूमन परिवहन मंत्री होते हैं. परिवहन मंत्रालय शिंदे सेना के प्रताप सरनाईक के पास है. उन के बजाय अतिरिक्त मुख्य सचिव संजय सेठी को अध्यक्ष बना दिया गया.

एकनाथ शिंदे जब मुख्यमंत्री थे उस समय अपने कार्यकाल के दौरान की उन्होंने कुछ लोकप्रिय योजनाओं का प्रस्ताव रखा था. नई सरकार द्वारा उस पर पुनर्विचार न होने से भी शिंदे नाराज हैं. इन में लाडली बहना और त्योहारों के समय गरीबों को मुफ्त दी जाने वाली राशन किट योजना ‘आनंदाचा शिघा’ भी शामिल है. इन योजनाओं ने महायुति को जिताने में अहम भूमिका निभाई. इन योजनाओं को बंद नहीं किया जाएगा, लेकिन नियमों में कड़ाई बरते जाने से कई समूह इन से बाहर हो जाएंगे.

शिंदे अपनी पार्टी का विस्तार राज्य के बाहर करना चाहते हैं. इस में भी भाजपा को दिक्कत थी. देवेन्द्र फडणवीस ने शिंदे के 20 विधायकों की सुरक्षा फडणवीस ने घटा दी. कहने के लिए भाजपा और अजित पवार के कुछ विधायकों की सुरक्षा भी घटाई गई है, लेकिन उन की संख्या शिंदे के विधायकों की तुलना में बहुत कम है. शिंदे-भाजपा के बीच टकराव की परतें खुलती नजर आ रही हैं. शिंदे को यह महसूस होना स्वाभाविक है कि उन्हें घेरा जा रहा है और उन की उपेक्षा व अनदेखी की जा रही है.

खत्म हो रहे छोटे दल

शिंदे समयसमय पर अपनी नाराजगी दिखाते रहते हैं. एकदो बार वह मंत्रिमंडल की बैठक में नहीं गए. भाजपा या अजित पवार की बैठकों का उन्होंने बहिष्कार किया. उसी विषय पर अपनी स्वतंत्र बैठक बुलाई. मुख्यमंत्री सहायता निधि की तरह ही अपना स्वतंत्र सहायता फंड भी बना लिया है. ऐसा लगता है कि शिंदे को हाशिए पर लाने के लिए भाजपा और अजित पवार एक हो गए हैं. जब तक भाजपा और अजित पंवार एक साथ हैं एकनाथ शिंदे के नाराज होने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है.

एकनाथ शिंदे बुरे फंस गए हैं. भाजपा शिंदे और अजित पंवार के बीच तोलमोल का खेल खेल रही है. जब तक अजित पंवार भाजपा के साथ है तब तक महाराष्ट्र में महायुति सरकार को कोई खतरा नहीं है. भाजपा शिंदे को खत्म कर देगी. बिहार में नीतीश कुमार और भाजपा के बीच गठबंधन चल रहा है. यहां भाजपा अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए नीतीश की जदयू को खत्म कर देगी.

बिहार 26 फरवरी को नीतीश सरकार का मंत्रिमंडल विस्तार हुआ. 2025 के विधानसभा चुनाव पर इस मंत्रिमंडल विस्तार का प्रभाव पड़ेगा. मंत्रिमंडल विस्तार में भाजपा का पलड़ा भारी है. इस विस्तार में 7 नए मंत्रियों को जगह मिली. सभी 7 मंत्री भारतीय जनता पार्टी कोटे से हैं. भाजपा ने इस विस्तार के जरीए जातीय गणित और क्षेत्रीय संतुलन को बनाने का काम किया है. मंत्रिमंडल में पिछड़ा वर्ग के 3, अत्यंत पिछड़ा वर्ग के 2 और सवर्ण जाति से दो मंत्री बनाए गए हैं.

भाजपा के इस कदम पर नीतीश कुमार अभी मौन हैं. इस से साफ लग रहा है कि वह पूरी तरह से भाजपा पर निर्भर हैं. 2025 में बिहार के विधानसभा चुनाव हैं. यहां चुनाव भाजपा भले ही नीतीश कुमार के साथ लड़ेगी. चुनाव के बाद जैसे फैसले आएंगे भाजपा वैसा कदम उठाएगी. भाजपा ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगी. उस के अधिक विधायक होंगे तब वह अपना मुख्यमंत्री बनाएगी और जदयू खत्म हो जाएगा.

बिहार में जदयू ही नहीं चिराग पासवान की लोकजन शक्ति पार्टी का भी वही हाल है. चिराग पासवान में अपने बलबूते कुछ करने की ताकत नहीं है. ऐसे में उन की पार्टी भाजपा की पिछलग्गू ही बनी रहेगी. बिहार के नेता जीतन राम मांझी भले ही केंद्र में मंत्री हों लेकिन भाजपा से वह भी परेशान हैं. बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले सीट शेयरिंग को ले कर सियासी बवाल मच गया है.

केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी ने भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. जीतन राम मांझी का कहना है कि जहां भाजपा मजबूत है वहां के चुनाव में वह सहयोगी दलों को महत्व नहीं देती है. जैसे दिल्ली के चुनाव में उस ने किया. दिल्ली में चिराग पासवान और नीतीश कुमार की पार्टी को भाजपा ने सीट में हिस्सेदारी दे दी लेकिन जीतन राम मांझी को एक भी सीट नहीं दी थी. इस को ले कर जीतन राम मांझी बुरी तरह भड़के हुए हैं. जीतन राम मांझी ने कहा कि ‘झारखंड में भी हमारी औकात नहीं थी, दिल्ली में भी हमारी औकात नहीं है लेकिन बिहार में हम अपनी औकात दिखाएंगे.’

बिहार जैसे हाल है उत्तर प्रदेश में

भाजपा बिहार में जिस तरह से नीतीश कुमार, चिराग पासवान और जीतन राम मांझी के साथ कर रही है वही हाल उत्तर प्रदेश में लोकदल, अपना दल अनुप्रिया पटेल, ओम प्रकाश राजभर और संजय निषाद के साथ कर रही है. पिछड़ी जाति के आरक्षण को ले कर अनुप्रिया पटेल ने उत्तर प्रदेश की योगी सरकार पर हमला बोला. इस के बाद उन के पति और योगी सरकार में मंत्री आशीष पटेल ने कई बातें कहीं. जिस के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उन को बुला कर बात की. इस के बाद से अपना दल के नेता पूरी तरह से खामोश हैं.

लोकदल के नेता जंयत चौधरी केंद्र में मंत्री रह कर ही खुश हैं. उन को लगता है कि भाजपा विरोध में उन का दल टूट जाएगा. ओमप्रकाश राजभर और सुभाष निषाद योगी सरकार के खिलाफ कुछ भी बोलने की हालत में नहीं हैं. असल में भाजपा ने इन दलों में अपने नेताओं को घुसा दिया है. यह विचारधारा के हिसाब से भाजपा के करीब हैं. भाजपा के इशारे पर यह नेता इन दलों को तोड़ कर खत्म कर सकते हैं. ऐसे में अनुप्रिया, ओमप्रकाश और सुभाष निषाद के पास खामोश रहने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. जो भाजपा की बात नहीं मानता वह दल टूट जाता है. महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना इस का उदाहरण हैं.

1993 में भाजपा के मुकाबले सपा-बसपा एक साथ चुनाव लड़ी. भाजपा ने बसपा नेता मायावती को मुख्यमंत्री पद का झांसा दे कर गठबंधन को तोड़ दिया. इस के बाद 3 बार मायावती भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं. दलित और पिछड़ी जातियों के बीच आपस में इतनी दूरी है कि अब समाजवादी पार्टी बसपा को भाजपा की बी टीम कहती है. बसपा के फैसले भाजपा को लाभ पहुंचाने वाले होते हैं.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी कहते हैं, ‘अगर लोकसभा चुनाव में बसपा कांग्रेस के साथ खड़ी होती तो भाजपा को तीसरी बार सरकार बनाने से रोका जा सकता था.’ बसपा ने उत्तर प्रदेश के 9 विधानसभा के उपचुनाव लड़े. जिस का प्रभाव यह हुआ कि समाजवादी पार्टी को भाजपा के मुकाबले केवल 2 सीटों पर जीत मिल सकी. सपा को इस बात की टीस है कि बसपा के चुनावी फैसलों का लाभ भाजपा को मिल रहा है. बसपा अब भाजपा पर निर्भर है.

पंजाब में शिरोमणि अकाली दल भारतीय जनता पार्टी का सहयोगी दल था. अटल बिहारी बाजपेयी से ले कर नरेंद्र मोदी सरकार तक केंद्र सरकार में अकाली दल के नेताओं को मंत्री पद मिला हुआ था. कृषि कानूनों के विरोध में जब किसान आन्दोलन हुआ तब से अकाली दल और भाजपा के बीच दूरियां बढ़नी शुरू हुई. भाजपा जब भी ‘हिंदूराष्ट्र’ की बात करती है तो सहज भाव से सिख को अपना खलिस्तान याद आने लगता है. अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल हिंदू और सिखों के बीच एक कड़ी का काम करते थे जो दोनों को जोड़े थे. शिरोमणि अकाली दल के कमजोर होने का प्रभाव पंजाब की राजनीति पर पड़ रहा है.

2020 में नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार ने बिना शिरोमणि अकाली दल से बात किए 3 कृषि कानून लागू कर दिए थे. इन कानूनों के विरोध में सुखबीर बादल की पत्नी हरसिमरत कौर ने केन्द्रीय मंत्री पद भी छोड़ दिया. इस के बाद शिरोमणि अकाली दल हाशिए पर है. भाजपा ने अकाली दल को लगभग खत्म कर दिया है. भाजपा एकएक कर छोटे दलों को खत्म करती जा रही है. नवीन पटनायक और चन्द्रबाबू नायडू के साथ भी भाजपा ने इसी तरह से खेल किया है.

भाजपा से लड़ कर ही बच रहे दल

जो दल भाजपा के पिछलग्गू बने हैं वह एकएक कर खत्म हो रहे हैं. दूसरी तरफ जो दल भाजपा का साथ छोड़ कर अलग हो गए वह अपने को बचाने में सफल हो रहे हैं. दक्षिण भारत एआईएडीएमके जयललिता के समय से भाजपा के साथ थीं. नरेंद्र मोदी के दौर में भाजपा की बदलती विस्तारवादी नीति से परेशान हो कर भाजपा से दूर हो गई. तभी अपने वर्चस्व को बचा पाई. इसी तरह से टीएमसी नेता ममता बनर्जी भी खुद को बचाने में सफल रही है.

जयललिता और ममता बनर्जी एनडीए का हिस्सा रहते हुए भी अटल सरकार की नाक में नकेल डाल कर रखा था. यह महिला नेता चाहे साथ रही या विपक्ष में अपनी शर्तों और मुद्दों पर काम किया. जिस तरह से भाजपा के प्रभाव में आ कर मायावती ने दलित राजनीति को खत्म कर दिया कुछ वैसा ही हाल जयललिता का भी हुआ. जयललिता और मायावती की राजनीतिक विरासत भी एक जैसी रही. मायावती अपने गुरू कांशीराम के बाद बसपा पर कब्जा किया तो जयललिता ने एमजी रामचन्द्रन की विरासत हासिल कर अपना प्रभाव जमाया था.

जयललिता 1991 से 1996, 2001 में, 2002 से 2006 तक और 2011 से 2014, 2015 से 2016 तक 6 बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रहीं. वह आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना द्रमुक) की महासचिव थीं. राजनीति में आने से पहले वो अभिनेत्री थीं. उन का जन्म गरीब परिवार में हुआ था. जयललिता ने तमिल के अलावा तेलुगू, कन्नड़ और एक हिंदी तथा एक अंग्रेजी फिल्म में भी काम किया था. 15 साल की आयु में कन्नड़ फिल्मों में मुख्य अभिनेत्री की भूमिकाएं करने लगी थीं. इस के बाद वे तमिल फिल्मों में काम करने लगीं.

1965 से 1972 के दौर में उन्होंने अधिकतर फिल्में एमजी रामचंद्रन के साथ की थी. यहीं से वह राजनीति में आई. 1987 में रामचंद्रन का निधन के बाद उन्होंने खुद को रामचंद्रन की विरासत का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. जयललिता अटल सरकार का हिस्सा नहीं रही लेकिन वह एनडीए के साथ रही. उन का सहारा ले कर भाजपा ने तमिलनाडु की राजनीति में अपना प्रभाव बढ़ा लिया. मोदी राज में भी जयललिता 2016 तक एनडीए का हिस्सा रही.

जयललिता के निधन के बाद भाजपा ने उन को हिंदू छवि का नेता बताया. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अन्नामलाई कहते हैं, ‘जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक ने हिंदुत्व के आदर्शों से किनारा किया.‘

भाजपा ने इस तरह के आरोप लगा कर अन्नाद्रमुक के अंदर भीतरघात कर उस को कमजोर किया. अन्नाद्रुमुक के वोटर भाजपा और डीएमके के बीच बंट गए हैं. ऐसे में जयललिता की पार्टी को भाजपा ने खत्म सा कर दिया है.

टीएमसी नेता ममता बनर्जी ने अपनी राजनीति कांग्रेस के साथ शुरू की. कुछ समय पर भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए का भी हिस्सा रही. इस के बाद भी ममता बनर्जी ने इन दलों को धूल चटा कर अपनी राजनीतिक जमीन तैयार की. ममता बनर्जी ने 15 साल की उम्र ही राजनीति शुरू की थी. कांग्रेस (आई) की छात्र शाखा से जुड़ी थी. इस के बाद वह पश्चिम बंगाल में कांग्रेस (आई) पार्टी में बनी रहीं और पार्टी के भीतर और अन्य स्थानीय राजनीतिक संगठनों में विभिन्न पदों काम किया.

1975 में उन्होंने समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के विरोध में उन की कार पर डांस किया था. 1976 से 1980 तक महिला कांग्रेस (इंदिरा), पश्चिम बंगाल की महासचिव रहीं. 1984 के आम चुनाव में ममता बनर्जी सोमनाथ चटर्जी को हरा कर सब से कम उम्र की सांसद बनी थीं. 1991, 1996, 1998, 1999, 2004 और 2009 के आम चुनावों में कोलकाता दक्षिण सीट को बरकरार रखा. 1991 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने बनर्जी को मानव संसाधन विकास, युवा मामले और खेल तथा महिला एवं बाल विकास के लिए केंद्रीय राज्य मंत्री बनी थीं.

1997 में कांग्रेस से नाराज को तृणमूल कांग्रेस नाम से पार्टी बनाई. 1999 में वह भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार में शामिल हो गईं और रेल मंत्री बनीं. 2004 के आम चुनाव में टीएमसी ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया. इस चुनाव में सफलता नहीं मिली तो वह भाजपा से दूर हो गई. 2009 के चुनाव में टीएमसी ने कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए का साथ दिया. 2009 की मनमोहन सरकार में दोबारा रेल मंत्री बनीं.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के लिए ममता बनर्जी ने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. 2011 में टीएमसी ने वामपंथी सरकार को पश्चिम बंगाल की सत्ता से बाहर कर दिया. तब से वह मुख्यमंत्री पद पर बनी हुई है. वह पश्चिम बंगाल की तीसरी सब से लंबे समय तक मुख्यमंत्री बनी रहने वाली नेता बन गई हैं. अगर ममता कम से कम 26 अक्टूबर 2025 तक पद पर बनी रहती हैं, तो वह बिधान चंद्र रौय को पीछे छोड़ते हुए ज्योति बसु के बाद दूसरी सब से लंबे समय तक सेवा करने वाली मुख्यमंत्री बन जाएंगी. इस से ममता बनर्जी की राजनीतिक पकड़ को समझा जा सकता है.

जो दल भाजपा के साथ पिछलग्गू बने रहे वह टूट कर बिखर गए. उन का जनाधार खत्म हो गया. दूसरी तरफ जो दल भाजपा से अलग हो कर अपना जनाधार बढ़ाने में लगे रहे भाजपा के मुकाबले डट कर खडे हुए वह सफल हो रहे हैं. इन में ममता बनर्जी सब से प्रमुख नेता हैं. बहुत सारे प्रयासों के बाद भी भाजपा पश्चिम बंगाल के किले को भेद नहीं पाई है. न ही ममता बनर्जी को झुका पाए हैं. इसी दौर में अरविंद केजरीवाल जैसे लोग जो विचारधारा की राजनीति से भटके वह बिखर गए. जनता के साथ रह कर उस के काम कर के भाजपा से लड़ा जा सकता है. ममता बनर्जी ने यह दिखा दिया है.

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