Surrogacy : संतानहीन दंपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है. ऐसे में सरोगेसी प्रक्रिया बेहतर विकल्प है. लेकिन देश का सरोगेसी कानून कोख पर पहरा जैसा है. इस के कई बिंदुओं में सुधार किए जाने की बात देश का सर्वोत्तम न्यायालय भी कह रहा है.

समाज में अपनी कोख की संतान का बहुत महत्त्व होता है. जिन औरतों की कोख से संतान नहीं होती उन को समाज ‘बांझ’ कहता है. कुरीतियां तो यहां तक हैं कि सुबहसुबह बांझ औरत का मुंह देखना भी अशुभ माना जाता है. पितृसत्तात्मक समाज में ‘बांझ’ औरत को केवल ‘अधूरी औरत’ ही नहीं कहा जाता बल्कि तमाम शुभ और सामाजिक माने जाने वाले कामों से उस को दूर भी रखा जाता है.

ऊपरी तौर पर आज इस में सुधार दिखता है. जैसे ‘बांझ’ की जगह पर अब ‘नि:संतान’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा है. इस के बाद भी बांझ औरत के प्रति सामाजिक भेदभाव बना हुआ है. समाज ही नहीं, पति की नजरों में भी बांझ पत्नी के प्रति बदलाव आ जाता है. कई बार पति और उस का परिवार संतान न होने पर डाक्टर से इलाज कराने की जगह पर दूसरी शादी करना सही समझते हैं. असल में पौराणिक कहानियों में कई ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं जहां एक राजा की संतान न होने पर वह दूसरीतीसरी शादियां कर लेता था.

महाभारत और रामायण में इस तरह की कथाएं भरी पड़ी हैं. रामायण और महाभारत के दौर में सरोगेसी जैसे उपाय नहीं थे. अपनी संतान के लिए दूसरे तमाम उपाय किए जाते थे. अपनी संतान के प्रति मातापिता का अलग ही मोह होता है. कानून की बात करें तो वही संतान असल माने में उत्तराधिकारी होती है जो अपनी हो. किसी दूसरे की संतान या गोद लिए बच्चे को तभी उत्तराधिकारी माना जा सकता है जब उसे कानूनी रूप से उत्तराधिकारी घोषित किया जाए.

रामायण में राम का जन्म इसी तरह हुआ था. राजा दशरथ को पुत्र प्राप्त नहीं हो रहे थे. पुत्र के लिए उन्होंने 3 शादियां की थीं. इस के बाद भी तीनों रानियों में से किसी से संतान नहीं हुई. इस से दशरथ परेशान थे. उन्होंने अपनी परेशानी महर्षि वशिष्ठ को बताई. वशिष्ठ ने उन्हें श्रृंगी ऋषि के पास जाने को कहा. श्रृंगी ऋषि अपने यज्ञ और तपोबल के जरिए संतान भी दिला सकते थे. दशरथ उन से मिलने सिंहावा के महेंद्रगिरि पर्वत गए. वहां पहुंच कर उन्होंने उन्हें अपने आने के बारे में बताया. तब श्रृंगी ऋषि ने उन से पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराने को कहा.

दशरथ ने श्रृंगी ऋषि की बात मान कर उन से पुत्रकामेष्टि यज्ञ करने की प्रार्थना की. दशरथ के साथ श्रृंगी ऋषि अयोध्या आए जहां उन्होंने पुत्रकामेष्टि यज्ञ संपन्न किया. श्रृंगी ऋषि ने यज्ञ के बाद प्रसाद के रूप में खीर देते दशरथ से कहा, ‘यह खीर अपनी तीनों रानियों को खिला दीजिए.’ दशरथ ने वैसा ही किया. इस के बाद उन की तीनों रानियों ने राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न को जन्म दिया.

मनुस्मृति में है नियोग विधि का जिक्र

महाभारत में संतान प्राप्त करने के लिए नियोग विधि बताई गई है. उस समय नियोग विधि संतानप्राप्ति का एक तरीका था. हस्तिनापुर के राजा विचित्रवीर्य की पत्नियां अंबिका और अंबालिका थीं. उन से संतान नहीं हो रही थी. ऐसे में विचित्रवीर्य को पता चला कि नियोग विधि से उन की पत्नियों से संतान हो सकती है. विचित्रवीर्य के भाई वेदव्यास थे. वे नियोग विधि जानते थे. उन्होंने विचित्रवीर्य की दोनों पत्नियों अंबिका, अंबालिका और उन की दासी के साथ नियोग क्रिया की. अंबिका ने नियोग के समय अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी और अंबालिका ने अपने पेट पर पीली मिट्टी का लेप लगा लिया था. उन की दासी ने कुछ नहीं किया था. आंखों पर पट्टी बांधने के कारण अंबिका से पैदा पुत्र धृतराष्ट्र जन्म से अंधे रहे. पेट पर पीली मिट्टी का लेप लगाने के कारण अंबालिका के पेट से पैदा पाण्डु जन्म से बीमार रहे. दासी से पैदा हुए विदुर हर तरह से सेहतमंद थे. ऋषि वेद व्यास इन के नियोग पिता थे.

मनुस्मृति में नियोग विधि से संतान प्राप्त करने का जिक्र है. इस के अनुसार, पति अगर संतान पैदा करने में असमर्थ होता था तो उस की पत्नी पति की इच्छा से किसी दूसरे योग्य पुरुष से नियोग द्वारा संतान पैदा कर सकती थी. अगर पति की असमय मृत्यु हो गई है तब भी उस की पत्नी संतान पैदा करने के लिए नियोग का सहारा ले सकती थी.

नियोग का पहला नियम यह था कि कोई भी महिला इस का पालन केवल संतान पैदा करने के लिए करेगी. इस का प्रयोग आनंद के लिए मना था. नियोग विधि में शरीर पर घी का लेप लगाया जाता था. जिस से पत्नी और नियोग करने वाले पुरुष के मन में सैक्स की इच्छा जाग्रत न हो. पुरुष अपने जीवनकाल में केवल 3 बार नियोग कर सकता था. पुरुष का उददेश्य केवल उस महिला को संतानप्राप्ति में सहयोग करने का होता था.

नियोगप्रथा से पैदा हुई संतान वैध मानी जाती थी. वह संतान कानूनी रूप से पतिपत्नी की मानी जाती थी, न कि नियोग करने वाले पुरुष की. नियोग करने वाला पुरुष उस संतान के पिता होने का अधिकार नहीं मांग सकता था. उस को आगे भविष्य में भी बच्चे से कोई रिश्ता रखने का अधिकार नहीं होता था. पौराणिक दौर में सरोगेसी प्रक्रिया नहीं थी. नियोग हो या यज्ञ, इन से मिली संतानें किस तरह से पैदा होती थीं, इस का कोई प्रामाणिक तथ्य नहीं है. लेकिन आज सरोगेसी में प्रामाणिक तथ्य है.

इस कानून को सरकार ने जिस तरह से बनाया है उस में खामियों को ले कर मसला सुप्रीम कोर्ट तक गया है. चेन्नई के डाक्टर अरुण मुथवेल और 14 दूसरे याचिकाकर्ताओं द्वारा दाखिल की गईं सरोगेसी विनियमन अधिनियम और सहायक प्रजनन तकनीक (विनियमन) अधिनियम 2021 की कुछ धाराओं को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए जस्टिस बी वी नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा ने केंद्र सरकार से लिखित जवाब दाखिल करने को कहा है.

सरोगेसी कानून पर सरकार का पहरा

भारत का सरोगेसी कानून नरेंद्र मोदी की सरकार के दौर में बना. यह सरकार पुराणों और पौराणिक कथाओं के बताए रास्ते पर चलती है. यह सरोगेसी कानून परोपकार की भावना पर आधारित है. इस में फल की इच्छा करने की मनाही है. गीता में यही कहा गया है.

पौराणिक कथाओं पर चलने वाली सरकार ने सरोगेसी कानून को परोपकार की भावना पर बना दिया है. परोपकार की यह भावना ही इस कानून को सीमित कर देती है. सरोगेसी का संबंध गर्भधारण करने वाली औरत, बच्चा चाहने वाली औरत या दंपती की कोख और डाक्टर के बीच का होता है. इस में सरकार को घुसने की जरूरत नहीं है.

सरकार यह क्यों बताए कि किस उम्र की महिलाएं सरोगेट मां बन सकती हैं. वह यह भी क्यों बता रही है कि सरोगेट मां करीबी जानपहचान की हो. वह यह भी क्यों बताए कि सरोगेट मां सिंगल या विधवा नहीं हो सकती? सरकार को यह तय करने का अधिकार क्यों है कि सरोगेट मां पैसे ले या नहीं? सरोगेसी में एक महिला कितनी बार मां बने, यह तय करने का अधिकार भी सरकार को क्यों होना चाहिए?

बच्चे को पैदा करने वाली कोख महिला की है. उसे ही यह अधिकार होना चाहिए कि वह कितने बच्चों की सरोगेट मां बनेगी. अगर कोई गरीब महिला इस काम के बदले पैसे लेती है तो सरकार बीच में क्यों आ रही है? इस के बारे में फैसला डाक्टर की सलाह पर मां को लेने का अधिकार होना चाहिए. यह औरत का निजी मामला और हक है कि वह क्या फैसला ले. इस कानून के जरिए सरकार ने औरतों की कोख पर पहरा बैठा दिया है. कोख को सरकार अपनी जागीर क्यों समझ रही है?

कोख पर नियंत्रण केवल महिला का होना चाहिए, चाहे बात बच्चे पैदा करने की हो या सरोगेट मां बनने की या फिर गर्भपात कराने की. इस में कानून का ही नहीं, घरपरिवार के किसी सदस्य का भी कोई दखल नहीं होना चाहिए. अगर कोई महिला सरोगेट मां बनने का फैसला लेती है तो उसे अपने पति, मातापिता या ससुराल वालों से पूछने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. वहीं, उसे बच्चा नहीं चाहिए और वह गर्भपात कराना चाहती है तो किसी दूसरे की सहमति की जरूरत नहीं होनी चाहिए.

सरकार को ऐसे घरेलू मामलों में नहीं पड़ना चाहिए. असल में मौजूदा सरकार को निजी जीवन में घुसने की आदत है. वह यह तय करती है कि आप का मकान किस तरह का होगा. उस में कितने कमरे होंगे, वह कितना ऊंचा होगा. इस के बाद उस ने तमाम ऐसे कानून बना दिए जो घर के अंदर तो छोडि़ए, बैडरूम के अंदर भी पहुंच गए हैं. वे यह तय करने लगे हैं कि बच्चे 3 अच्छे होते हैं या हम दो हमारे दो होने चाहिए या बच्चा एक ही अच्छा होना चाहिए. इस तरह के कानून बनाने वाले कई देशों में जनसंख्या कम होने लगी है. ऐेसे में वहां की सरकारें अपने देशवासियों से अब ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील कर रही हैं. सरकार की मांग पर औरत कम या ज्यादा बच्चे क्यों पैदा करे?

सरोगेसी कानून में हो बदलाव

सरोगेसी कानून संतान प्राप्त करने के वैज्ञानिक रास्ते को आसान करने के बजाय कठिन करने वाला है. यह कानून औरत की कोख पर पहरा बैठाने वाला है. इस कानून में बदलाव होना चाहिए. सरोगेसी में सभी फैसले लेने का हक केवल महिला को होना चाहिए. उस में सरकारी दखल बंद होना चाहिए, जिस से समाज में पितृसत्तात्मक को खत्म किया जा सके. इस के लिए सरोगेसी को समझना होगा तब पता चलेगा कि सरकार ने कानून बना कर अपनी किस तरह की सोच को आगे बढ़ाने का कदम उठाया है.

आज के समय में 20 से 25 प्रतिशत दंपतियों को नि:संतानता की परेशानी से गुजरना पड़ रहा है. सरोगेसी कराने वाले बहुत सारे दंपती उलझन से दूर ही रहना चाहते हैं. यही नहीं, वे गोपनीयता भी चाहते हैं. इस वजह से वे अपने नजदीकी संबंधों वाली महिला को सरोगेट मां नहीं बनाना चाहते.

यहां कानून दंपतियों को मजबूर कर रहा है कि वे सरोगेट मां उसी को बनाएं जो नजदीकी रिश्तों वाली हो. ऐसे में सरोगेट विधि से संतान प्राप्त करना कठिन हो जाता है. कानून कहता है कि सरोगेट मां परोपकार करे. उसे कोई दूसरी आर्थिक मदद न दी जाए. सरोगेसी कानून का यह बिंदु गोपनीयता की चाहत के खिलाफ है.

बात केवल सरोगेसी कानून की ही नहीं है. गर्भधारण और गर्भपात जैसे मसलों में भी औरत की जगह उस के परिवार की सलाह ली जाती है. अगर कोई बालिग लड़की गर्भपात कराने के लिए किसी अस्पताल में जाती है तो उस के मातापिता, बहनभाई या परिवार के सदस्य की सहमति के बिना गर्भपात नहीं किया जाता. शादी के बाद महिला नसबंदी कराना चाहे तो पति की सहमति ली जाती है. इस में भी सरकार की साजिश है.

गर्भपात और सरोगेसी करने वाले के लिए अस्पताल का नियम है कि वे अपना रजिस्ट्रेशन कराएं. अगर बिना किसी रजिस्ट्रेशन कोई अस्पताल ऐसा करता है तो जिले के सीएमओ यानी मुख्य चिकित्सा अधिकारी को यह अधिकार है कि वे अस्पताल को सील कर दें.

कोख पर पहरा है कानून

सरोगेसी बिल 2019 में तैयार किया गया. इस को 2021 में लागू किया गया. इस कानून को सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम 2021 के नाम से जाना जाता है. इस कानून में नैशनल सरोगेसी बोर्ड, स्टेट सरोगेसी बोर्ड का गठन भी किया गया. सरोगेसी की निगरानी करने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों की नियुक्ति भी की गई. सरोगेसी कराने के लिए संतान चाहने वाले को इस बोर्ड से अनुमति लेनी पड़ती है.

यह कानून सिर्फ संतानहीन विवाहित दंपतियों को ही सरोगसी कराने का अधिकार देता है. जब कोई औरत किसी गंभीर बीमारी से गुजर रही हो, जिस की वजह से गर्भधारण करना मुश्किल हो रहा हो तो उस को ही सरोगेसी की इजाजत मिलती है. इस के लिए सरकारी बाबुओं के चक्कर लगाने पड़ेंगे. स्वास्थ्य विभाग का बाबू यह जांच करेगा कि सरोगेसी कराने में कपल्स का इस से कोई स्वार्थ न जुड़ा हो, बच्चों को बेचने, देह व्यापार या अन्य प्रकार के शोषण के लिए सरोगेसी न की जा रही हो.

जो महिला सरोगेट मदर बनने के लिए तैयार होगी उस की सेहत और सुरक्षा का ध्यान सरोगेसी की सुविधा लेने वाले को रखना होगा. इस में सरोगेसी में गर्भावस्था के दौरान चिकित्सा में खर्चे और बीमा कवरेज के अलावा सरोगेट मां को किसी तरह का पैसा या मुआवजा नहीं दिया जाता. सरोगेट बनने वाली महिला के लिए भी कानून है जो यह तय करता है कि किस तरह की महिला सरोगेट मां बन सकती है.

सरोगेट बनने वाली मां की उम्र 25 से 35 वर्ष के बीच होनी चाहिए. वह शादीशुदा होनी चाहिए और उस के पास अपने खुद के बच्चे भी होने चाहिए. इन सब के साथ उस महिला को एक मनोचिकित्सक से सर्टिफिकेट प्राप्त करना होगा, जिस में उसे मानसिक रूप से फिट होने के लिए प्रमाणित किया गया हो. कानून यह भी कहता है कि सरोगेट माता और दंपती को अपने आधार कार्ड को लिंक करना होगा. यह व्यवस्था में शामिल व्यक्तियों के बायोमैट्रिक्स का पता लगाने में मदद करेगा, जिस से धोखाधड़ी की गुंजाइश कम हो जाएगी.

सरोगेसी कानून गे कपल्स, सिंगल और समलैंगिक जोड़ों को बच्चे पैदा करने के लिए सरोगेसी का अधिकार नहीं देता. सरोगेट मां एक बार कौन्ट्रैक्ट करने के बाद गर्भावस्था से प्रसव तक की अवधि तक इस से इनकार नहीं कर सकती. उसे अपनी मरजी से गर्भ को खत्म करने का भी कानूनी अधिकार नहीं है. सरोगेट बच्चे का जन्म होने के बाद मातापिता बच्चे को लेने से मना नहीं कर सकते.

कानून कहता है कि सरोगेसी प्रोसैस में भ्रूण से मांबाप का रिश्ता होना जरूरी है. या तो पिता से हो, मां से या फिर दोनों से. इस का मतलब यह हुआ कि भ्रूण किसी और के होने की अनुमति नहीं है. अगर भारतीय जोड़ा देश के बाहर सरोगेट की सेवाओं का उपयोग करता है तो इस से पैदा होने वाले बच्चे को भारतीय नागरिक के रूप में मान्यता नहीं दी जाएगी. सरोगेसी से जन्मे बच्चे 18 वर्ष के होने पर यह जानने के अधिकार का दावा कर सकते हैं कि वे सरोगेसी से पैदा हुए हैं. वे सरोगेट मां की पहचान का पता लगाने का भी अधिकार रखते हैं.

बौंबे हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा कि सरोगेसी से होने वाले बच्चे पर फर्टिलाइज्ड एग डोनर का कानूनी अधिकार नहीं होता है. सरोगेसी या आईवीएफ ट्रीटमैंट से पैदा हुए बच्चे के पेरैंटल अधिकारों का दावा एग डोनर नहीं कर सकता. पहले यह मसला ठाणे की ट्रायल कोर्ट में गया था. वहां यह आदेश हो गया था कि डोनर बच्चे पर कानूनी अधिकार रखता है. बौंबे हाईकोर्ट ने ठाणे की अदालत के उस आदेश को रद्द कर दिया. उस में याचिकाकर्ता महिला को उस के जुड़वां बच्चों से मिलने से मना कर दिया गया था, क्योंकि वह उन की बायोलौजिकल मदर नहीं थी.

हाईकोर्ट ने इस मामले पर फैसला सुनाते हुए कहा कि किसी व्यक्ति द्वारा एग या स्पर्म डोनेट करने से उसे सरोगेसी या इनविट्रो फर्टिलाइजेशन ट्रीटमैंट से पैदा हुए बच्चों पर मातापिता का अधिकार नहीं मिल सकता. हाईकोर्ट ने कहा कि सरोगेसी एक्ट के तहत जन्मे बच्चे के कानूनी मातापिता की पहचान पहले से निर्धारित होती है और डोनर का अधिकार केवल बायोलौजिकल आधार पर सीमित होता है.

अदालत ने फैसले में यह भी कहा कि सरोगेसी के मामले में कानूनी अधिकारों की रक्षा और स्पष्टता सुनिश्चित करने के लिए कानूनों का पालन करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है. यह फैसला सरोगेसी के कानूनी पहलुओं को समझने में एक अहम कदम है और इसे ले कर आने वाली कानूनी प्रक्रियाओं पर भी इस का प्रभाव पड़ेगा.

कानून में है खामियां

सरोगेसी अधिनियम की धारा 2 (1) कहती है कि सरोगेट मां बनने वाली महिला की उम्र 25 से 35 वर्ष के बीच होनी चाहिए. कानून के मुताबिक मां बनने की चाहत रखने वाली महिला की उम्र 23 से 50 वर्ष और पिता बनने की चाहत रखने वाले पुरुष की आयु 26 से 55 वर्ष की होनी चाहिए. चेन्नई के डाक्टर अरुण मुथवेल ने यह बात सुप्रीम कोर्ट के सामने रखी, तब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा. इस की वजह यह है कि आयुसीमा के बाहर की महिलाओं को उन के अधिकार से रोका जा रहा है. जब शादी करने की उम्र लड़की के लिए 18 और लड़के के लिए 21 साल है तो सरोगेट मां और संतान चाहने वाली मां की उम्र बढ़ा कर क्यों रखी गई है. यह अधिकार स्वास्थ्य विभाग के बाबू को क्यों दिया गया है?

कोई भी बालिग, मां बनने योग्य महिला सरोगेट मां बन सकती है. कानून इस अधिकार को छीन नहीं सकता. मां बनने का फैसला महिला और डाक्टर का होना चाहिए. इसी तरह से सरोगेट मां बनने के लिए विवाह की शर्त भी ठीक नहीं है.

44 साल एक विदेशी कंपनी में काम करने वाली महिला ने याचिका में कहा कि सरोगेसी कानून सही नहीं है,. इस कानून के मुताबिक, सिर्फ 35 से 45 साल की विधवा या तलाकशुदा महिला ही सरोगेसी से मां बन सकती है. अविवाहित महिलाओं को यह अधिकार नहीं दिया गया है.

उक्त महिला ने कानून को गलत बताते हुए कहा कि यह भेदभावपूर्ण है. इस का कोई तर्कसंगत आधार नहीं है. ये पाबंदियां न केवल याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं बल्कि व्यक्ति के परिवार बनाने के मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन करती हैं. यह जीने के अधिकार के खिलाफ भी है.

इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बी वी नागरत्ना और जस्टिस ए जौर्ज मसीह की बैंच ने कहा कि भारत में अकेली महिला का शादी के बाहर बच्चा पैदा करना आम नहीं है. इसलिए सरोगेसी कानून के तहत यह इजाजत नहीं दी जा सकती. देश में शादी की संस्था को बचाना जरूरी है. हम पश्चिमी देशों की तरह नहीं हैं जहां शादी के बाहर बच्चे पैदा होना आम है. आप हमें पुराने खयालों वाले कह सकते हैं, लेकिन देश में शादी की संस्था को बचाना जरूरी है. बच्चे की भलाई को देखते हुए हम इस बारे में सोच रहे हैं. यानी, सुप्रीम कोर्ट को भी संस्कृति की फिक्र है, औरतों के मौलिक अधिकारों की नहीं.

कोर्ट ने यह भी कहा कि शादी को नकारा नहीं जा सकता. 44 साल की उम्र में सरोगेट बच्चा पालना मुश्किल है. आप जिंदगी में सबकुछ नहीं पा सकते. हमें समाज और शादी की संस्था की भी चिंता है. हम पश्चिमी देशों की तरह नहीं हैं जहां कई बच्चे अपने मातापिता को नहीं जानते. हम नहीं चाहते कि हमारे देश में बच्चे बिना मातापिता के भटकें. विज्ञान भले ही बहुत तरक्की कर गया है लेकिन समाज के नियम नहीं बदले हैं. कुछ खास कारणों से ऐसा होना भी जरूरी है. सुप्रीम कोर्ट की यह राय न तो नैतिक है न व्यावहारिक. जब विज्ञान एक सुविधा दे रहा है तो उसे अपनाया जाना चाहिए, जैसे एरोप्लेन को अपनाया जा रहा है.

विधवाओं या तलाकशुदा महिलाओं को भी सरोगेट मां बनने का अधिकार होना चाहिए. इस कानून में इन को मां बनने का अधिकार नहीं दिया गया है. सरोगेसी सेवाओं का लाभ उठाने के लिए अविवाहित महिलाओं, एकल पुरुषों, लिवइन पार्टनर्स और समान लिंग वाले युग्मों को बाहर रखा गया है. यह सही नहीं है. यह वैवाहिक स्थिति, लिंग एवं यौन रुझान के आधार पर भेदभाव है और उन्हें अपनी इच्छा का परिवार बनाने के अधिकार से वंचित करता है.

सरोगेसी कानून अकेली महिला (विधवा या तलाकशुदा) को सरोगेसी के लिए खुद के डिंब अंडाणु का उपयोग करने के लिए मजबूर करता है. कई मामलों में महिला की उम्र अधिक होती है. इस स्थिति में उस के खुद के युग्मों का उपयोग चिकित्सकीय रूप से अनुचित है. ऐसे में उसे यह अधिकार होना चाहिए कि वह दूसरी फीमेल युग्मों के लिए किसी डोनर की सहायता ले सके.

सरोगेसी कानून में गर्भावस्था के दौरान चिकित्सा व्यय और बीमा कवरेज के अतिरिक्त सरोगेट मां के लिए किसी आर्थिक मुआवजे को शामिल नहीं किया गया है. यह सही नहीं है. सरोगेट मां को लाभ मिलना ही चाहिए. वह अपनी कोख में 9 माह बच्चे को पालती है, तमाम तरह के कष्ट सहती है, बच्चे से दूर होने का मानसिक कष्ट भी होता है. ऐसे में किसी तरह का लाभ न मिलना उचित नहीं है.

इस मसले में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने तर्क रखे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरोगेट बनने वाली मां के हितों की रक्षा भी जरूरी है. कोर्ट ने कहा कि भारत में वाणिज्यिक सरोगेसी पर पाबंदी होने के बावजूद सरोगेट मां का शोषण न हो, इस के लिए मजबूत सिस्टम बनाने की जरूरत है. इस के लिए एक डाटाबेस होना चाहिए जिस से सरोगेट मां के बारे में जानकारी रहे. इस का गलत इस्तेमाल न हो. कोर्ट ने कहा कि सरोगेट मां को मुआवजा देने के लिए वैकल्पिक तरीके भी हो सकते हैं. एक विशेष जिम्मेदार अधिकारी द्वारा भुगतान के सिस्टम को कंट्रोल किया जाए.

जब कानून देह के धंधे को मना नहीं करता तो सरोगेट मां पर यह प्रतिबंध ठीक नहीं कि वह सरोगेट बनने के एवज में लाभ न ले. औरत का शरीर उस का अपना है. इस पर उस को अधिकार होना चाहिए. पितृसत्तात्मकता के चलते महिलाओं को उन के कार्य का कोई आर्थिक मूल्य नहीं मिलता. यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रजनन के लिए महिलाओं के मौलिक अधिकारों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है. एक व्यक्ति बुद्धि और तार्किक शक्ति को अपने क्लाइंट को ‘बेचता’ है और सुप्रीम कोर्ट में बहस के पैसे लेता है. उसी तरह एक औरत अपनी कोख को दूसरे के बच्चों के लिए इस्तेमाल करे और पैसे ले तो क्या आफत आ जाएगी?

भारत का सरोगेसी कानून कहता है कि मां का आनुवंशिक रूप से बच्चे की तलाश करने वाले पतिपत्नी के साथ कोई संबंध या जानपहचान होनी चाहिए. यह भी ठीक नहीं है. जानपहचान के अलावा भी सरोगेट मां बनने का अधिकार औरत को होना चाहिए. परोपकारी सरोगेसी इच्छुक दंपती के लिए सरोगेट मां चुनने के विकल्प को भी सीमित कर देती है क्योंकि बहुत ही सीमित रिश्तेदार इस प्रक्रिया में शामिल होने के लिए तैयार होंगे.

परोपकारी सरोगेसी में सरोगेट मां के रूप में कोई दोस्त अथवा रिश्तेदार न केवल भावी मातापिता के लिए बल्कि सरोगेट बच्चे के लिए भी भावनात्मक परेशानियां खड़ी कर सकता है क्योंकि सरोगेसी की अवधि और जन्म के बाद बच्चे से उन के रिश्ते को ले कर समस्याएं हो सकती हैं. ऐसे में इस को शुद्ध रूप से व्यावसायिक रखना चाहिए, परोपकारी कानून उचित नहीं है.

परोपकारी सरोगेसी कानून में किसी तीसरे पक्ष की भागीदारी नहीं होती. जबकि तीसरे पक्ष की भागीदारी यह सुनिश्चित करती है कि इच्छित युगल सरोगेसी प्रक्रिया के दौरान चिकित्सा और अन्य विविध खर्चों को वहन करेगा तथा उस का समर्थन करेगा. तीसरा पक्ष इच्छित युगल और सरोगेट मां दोनों को जटिल प्रक्रिया से गुजरने में मदद करता है, जो परोपकारी सरोगेसी के मामले में संभव नहीं. सरोगेसी में आईवीएफ का अपना योगदान होता है. इस के जरिए ही सरोगेसी को किया जाता है.

आगे का अंश बौक्‍स के बाद 

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सरोगेसी कानून में खामियां

1. सिंगल पेरैंट्स, लिवइन में रहने वाले जोड़ों या समलैंगिक लोगों को सरोगेसी कराने की अनुमति नहीं है.

2. तलाकशुदा या विधवा महिलाओं को अपने अंडाणु के इस्तेमाल का अधिकार नहीं है.

3.सरोगेट मां को आर्थिक लाभ देने या किराए पर गर्भधारण करने की अनुमति नहीं है.

4. सरोगेट मां को कम से कम एक बार गर्भधारण और प्रसव होना चाहिए, कानून की यह शर्त गलत है.

5. सरोगेट मां को मनोचिकित्सक से सर्टिफिकेट लेना होता है, जो निरर्थक है.

6. सरोगेट मां को केवल मैडिकल खर्च और बीमा की रकम ही दी जाए. यह काफी कम है.

7. सरोगेट मां को एकतरफा गर्भावस्था को समाप्त करने का अधिकार है. यह अनुबंध के खिलाफ है और दंपती के लिए भी भावनात्मक भय पैदा करता है.

8. सरोगेसी करने वाले अस्पताल को भी अपना रजिस्ट्रेशन कराना होता है. इस रजिस्ट्रेशन के नाम पर सरकार अस्पतालों में पैदा होने वाले बच्चों पर बाबूशाही की नजर बना लेती है.
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अब आगे पढ़ें… 

क्या है आईवीएफ

आईवीएफ को बांझपन दूर करने का सब से कारगर इलाज माना जाता है. 1978 में आईवीएफ तकनीक का आविष्कार ब्लौक ट्यूब में गर्भधारण करवाने के लिए किया गया था. समय के साथ इस में नएनए आविष्कार होते गए. अब यह तकनीक नि:संतानता संबंधी समस्याओं को दूर करने का सब से कारगर उपाय है. आईवीएफ को ‘इनविट्रो फर्टिलाइजेशन’ कहते हैं. आम बोलचाल में टैस्ट ट्यूब बेबी भी कहते हैं. यह प्राकृतिक रूप से गर्भधारण में विफल दंपतियों के लिए गर्भधारण का सफल माध्यम बन गया है.

आईवीएफ में महिला के शरीर में होने वाली निषेचन की प्रक्रिया यानी महिला के अंडे व पुरुष के शुक्राणु का मिलन औरत के शरीर के बाहर लैब में किया जाता है. लैब में बने भ्रूण को महिला के गर्भाशय में ट्रांसफर किया जाता है. इस में टैस्ट ट्यूब का प्रयोग होता है. इस कारण ही यह टैस्ट ट्यूब बेबी कहलाता है. प्राकृतिक रूप से महिला की ओवरी में हर महीने अंडे तो ज्यादा बनते हैं लेकिन हर महीने एक ही अंडा बड़ा होता है जबकि आईवीएफ प्रोसीजर में सभी अंडे बड़े करने के लिए महिला को दवाइयां और इंजैक्शन दिए जाते हैं. इस प्रक्रिया के दौरान अंडों के विकास को देखने के लिए अल्ट्रासाउंड के माध्यम से महिला की जांच की जाती है. आईवीएफ प्रक्रिया में सामान्य से ज्यादा अंडे इसलिए बनाए जाते हैं ताकि उन से ज्यादा भ्रूण बनाए जा सकें.

अंडे बनने और परिपक्व होने के बाद अल्ट्रासाउंड इमेजिंग की निगरानी में एक पतली सूई की मदद से अंडे टैस्ट ट्यूब में एकत्रित किए जाते हैं जिन्हें लैब में रख दिया जाता है. अंडे निकालने के कुछ घंटों बाद महिला अपने घर जा सकती है. महिला के अंडे निषेचित करवाने के लिए मेल पार्टनर के सीमन का सैंपल ले कर अच्छे शुक्राणु अलग किए जाते हैं. लैब में महिला के अंडों के सामने पुरुष के शुक्राणुओं को छोड़ा जाता है. शुक्राणु अंडे में प्रवेश कर जाता है और फर्टिलाइजेशन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है.

आईवीएफ में महिला की ट्यूब में होने वाले काम को लैब में किया जाता है. आईवीएफ महिला निसंतानता की समस्याओं में लाभदायक होने के साथसाथ पुरुष, जिन के शुक्राणुओं की मात्रा 5 से 10 मिलियन प्रति एमएल है, के लिए भी फायदेमंद है. डाक्टर एम्ब्रियोलौजिस्ट इन्क्यूबेटर में विभाजित हो रहे भ्रूण को अपनी निगरानी में रखते हैं. 2-3 दिनों बाद यह अंडा 6 से 8 सेल के भ्रूण में बदल जाता है. एम्ब्रियोलौजिस्ट इन भ्रूणों में से अच्छे 1-2 भ्रूणों को महिला की ओवरी में डालने के लिए रख लेते हैं. कई मरीजों में भ्रूणों को 5-6 दिन लैब में विकसित कर के ब्लास्टोसिस्ट बना लिया जाता है, उस के बाद उस को ओवरी में डाला जाता है. इस में सफलता की संभावना ज्यादा होती है.

आईवीएफ प्रक्रिया के माध्यम से बने भ्रूण या ब्लास्टोसिस्ट में से 1-2 अच्छे भ्रूण का एम्ब्रियोलौजिस्ट चयन करते हैं और उन्हें भ्रूण ट्रांसफर कैथेटर में लेते हैं. डाक्टर एक पतली नली के जरिए भ्रूण को बड़ी सावधानी से अल्ट्रासाउंड इमेजिंग की निगरानी में औरत के गर्भाशय में डालते हैं. भ्रूण स्थानांतरण की प्रक्रिया में दर्द नहीं होता. महिला को बैडरैस्ट की जरूरत नहीं होती. भ्रूण ट्रांसफर के बाद सारी प्रक्रिया प्राकृतिक गर्भधारण के समान ही होती है. भ्रूण जन्म तक मां के गर्भ में ही बड़ा होता है.

सरोगेसी में पतिपत्नी के भ्रूण को एक दूसरी महिला की कोख में डाल देते हैं. कई बार पत्नी की कोख इस तरह की होती है जिस से वह 9 माह तक पेट में बच्चे को पालने में सक्षम नहीं होती. ऐसे में वह दूसरी कोख में पलता है. यह जिस महिला की कोख में पलता है उसे ही सरोगेट मदर कहते हैं. इस को ले कर ही सरकार ने जो सरोगेट कानून बनाया उस में तमाम खामियां हैं. यह कानून कोख पर पहरा बैठाने वाला है.

क्या होती है आईयूआई

संतानहीनता को दूर करने में आईयूआई प्रक्रिया से भी उपचार किया जाता है. आईयूआई का मतलब इंट्रायूटेराइन इनसेमिनेशन है. यह एक ऐसी टैकनीक है जिस से निसंतान दंपती को संतानप्राप्ति कराई जाती है. इस में एक पतली नली की सहायता से धुले हुए शुक्राणुओं को बच्चेदानी के मुंह द्वारा बच्चेदानी के अंदर डाला जाता है. इलाज के पहले कुछ जांचें की जाती हैं. पहली जांच टीवीसी या ट्रांस वैजाइनल सोनोग्राफी की होती है. इस में अंडेदानी के अंदर अंडों की संख्या, क्वालिटी और ग्रोथ देखते हैं.

इस में एंडोमेट्रियम मतलब बच्चेदानी की परत को देखते हैं. इस से पता चलता है कि उस में ग्रोथ पैटर्न या रक्त का बहाव कैसा है. बच्चेदानी की नली, जिसे फैलोपियन ट्यूब कहते हैं, को देखा जाता है. हर महिला में 2 फैलोपियन ट्यूबें होती हैं. अगर एक फैलोपियन भी काम कर रही है तो इलाज हो जाता है. दूसरा टैस्ट ह्यस्टेरो सालपिंगोग्राम नामक होता है. इस में बच्चेदानी में देखा जाता है कि ट्यूबें खुली हैं या नहीं. इस को सामान्यतया माहवारी के 8-10 दिन के दौरान किया जाता है. तीसरा, शुक्राणु की जांच का होता है. इस में शुक्राणु की संख्या और गतिशीलता देखी जाती है.

आईयूआई में इलाज के लिए जब महिला को बुलाया जाता है तो पुरुषों से 3 से 7 दिन का परहेज होना चाहिए. इस का मतलब यह होता है कि महिला को सैक्स संबंध नहीं बनाने हैं. क्लीनिक में यह सैंपल एक स्टेरायल बोतल में लिया जाता है. सैंपल को तैयार होने में करीब 1 घंटे 30 मिनट लगते हैं. वाश किए हुए शुक्राणु 24-82 घंटे तक जीवित रहते हैं. लेकिन उन की निषेचन की क्षमता 12-24 घंटे बाद खत्म हो जाती है. अंडा औव्युलेशन के बाद करीब 24 घंटे तक जीवित रहता है.

आईयूआई के कारण सामान्यतया ब्लीडिंग नहीं होती लेकिन औव्युलेशन की वजह से थोड़ी ब्लीडिंग हो सकती है. यह एक दर्दरहित प्रक्रिया है लेकिन औव्युलेशन के कारण थोड़ा पेट में मरोड़ हो सकता है. औव्युलेशन के 6-12 दिन बाद भ्रूण आ कर बच्चेदानी में चिपकता है. अगर दवा खा कर आईयूआई करा रहे हैं तो 1-2 बार इस को कर सकते हैं. उस के बाद 3-4 बार इंजैक्शन ले कर आईयूआई करा सकते हैं. जिन दंपतियों में शुक्राणुओं की संख्या बिलकुल नहीं होती उन में यह नहीं हो सकता है. उन में डोनर के सहारे बच्चा मिल सकता है. जिन महिलाओं की दोनों फैलोपियन ट्यूबें खराब होती हैं और जिन में एकदम अंडे नहीं बनते हैं वे भी इस विधि से बच्चे हासिल नहीं कर पाते हैं. तब उन को सरोगेसी की तरफ जाना होता है. सरोगेसी संतानप्राप्ति का सब से अच्छा विकल्प है.

संतान प्राप्त करने में बच्चा गोद लेने की भी अपनी एक प्रक्रिया है. इस में दूसरे का बच्चा गोद लेना होता है. ऐसे में इस के साथ भावनात्मक लगाव अपनी कोख से पैदा हुई संतान जैसा नहीं होता. इस के अलावा अपनी पसंद का और देख कर बच्चा नहीं मिलता. बच्चा गोद लेने की लंबी प्रक्रिया होती है. इस में बहुत अड़ंगे होते हैं. इस को संतानहीनता के विकल्प के रूप में नहीं देखा जाता है. बच्चा गोद लेते समय उस की एक तय उम्र होती है, जिस से कई बार उस के स्वभाव में बदलाव नहीं होता है.

सरोगेसी संतान प्राप्त करने का सब से आसान जरिया है. इस में कानून के पेंच कम से कम होने चाहिए जिस से 20 से 25 प्रतिशत की जनता जो संतानहीनता के दौर से गुजर रही है उसे लाभ मिल सके. वह अपना बच्चा, अपनी कोख से पैदा हुए बच्चे का सुख हासिल कर सके.

 

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