Relationship Tips : सास और बहू को एकदूसरे की भूमिका को स्वीकार करना चाहिए. सास पुरानी परंपराओं का पालन करते हुए बहू को सिखा सकती है और बहू नई सोच व नए दृष्टिकोण से घर को बेहतर बना सकती है.
‘‘बहूरानी तो बढि़या ही है. दीवाली पर आई तो रंगोली बनाई, घर भी सजाया, लेकिन क्या बताएं इन आजकल की लड़कियों को. एक दिन बाजार गए थे तो पीछे से मेरी ननद आ गई. बताइए भला, किचन में जा कर चाय तक न बनी इन से. घर पहुंचे तो देखा कि नाश्ता, चाय सब बाजार से आया और मेरी ननद जो जिंदगीभर ताने मारती रहीं, कहती हैं, भाभी कुछ भी कहो, खुशनसीब हो. ऐसी बहू तो नसीब वालों को मिलती है. पति भी प्रसन्न कि उन की बहन तारीफ झांके जा रही है. अब क्या ही कहते कि हम जो किचन में जान देते रहे तब तो तारीफ करने में शब्द ही खो गए.’’ करुणा भले ही अपनी सखियों को अपना दुखड़ा सुना रही थी लेकिन उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि उसे दुख बहू के काम न आने का है या फिर उस की तारीफ से वह जल रही है.
यही दुख संगीता का भी है कि बहू वैसे तो बहुत अच्छी है, आगेपीछे डोलती है लेकिन जैसे ही किचन का कोई काम होता है, गायब हो जाती है. ‘‘उसे क्यों नहीं दिखता कि सास काम कर रही है तो उसे भी मदद के लिए खड़ा होना चाहिए. इतना अपनापन तो होना ही चाहिए. वह यह भी कहना नहीं भूलती कि हम ने अपनी सासजेठानियों को इतना आराम दिया लेकिन मेरी किस्मत में आराम कहां?’’
कुछ यही हाल नीलिमा का भी है. पूरी जिंदगी नौकरी की. पूरा घर एक ढर्रे पर चलाया. पति को भी हाथ में कपड़े पकड़ाए, कभी चाय तक नहीं बनाने दी लेकिन तब कुछ दरकता नजर आया जब पुणे में काम करने वाली बहू त्योहार पर घर आई. हर काम के लिए बेटे को साथ में जुटाए रखती. वह कहती है, ‘‘जब बर्दाश्त नहीं हुआ तो बेटे को बोला तो उस ने जवाब पकड़ा दिया कि मम्मी आप को तो खुश होना चाहिए. कभी पापा ने आप की मदद नहीं की, जबकि आप बीमार तक हो जाती थीं. मैं ऐसा नहीं कर सकता. आप खुश क्यों नहीं हो रहीं इस बात से?’’
बची है सास में उम्मीद
गलती किस की है? कहां है? पिछले 20 सालों में जमाना इतना बदला कि उस की आंधी में सबकुछ बदल गया. सासबहू के रिश्ते, अपेक्षाएं, घरों के समीकरण और रिश्तों के तानेबाने के साथ भी बहुतकुछ. लेकिन बहुतकुछ बदलने के बीच सास में उम्मीदों की कुछ लडि़यां बची रह गई हैं. औरतों ने सास बनने के बाद अपनी बहुओं से किचन संभालने की उम्मीद तो छोड़ दी लेकिन वह किचन में साथ में खड़ी हों, यह उम्मीद लगा ली.
पूरे घर का न सही, लेकिन अपने कमरे में साजसंभाल कर लें, ये उम्मीद भी अभी जिंदा है. अपने लिए वे मौडर्न हैं क्योंकि वह ये नहीं चाहतीं कि बहू अकेले 5 लोगों का खाना बना ले या फिर हाउसहैल्प न आए तो पूरे घर का झाड़ूपोंछा कर ले, पति के कपड़े निकाल कर दे लेकिन ऐसा भी क्या कि किचन में खड़े होने में पसीने छूटने लगे, 10 लोगों की चाय बनाए तो पति को पीछेपीछे लगाए रखे.
रागिनी कहती है, ‘‘जिस पति ने कभी मेरी मदद तक नहीं की आज जब बहू के बारे में कहो तो कहते हैं कि आखिर वह भी तो बेटे के बराबर नौकरी करती है तो क्यों बेटे के मदद करने पर तुम चिहुंक जाती हो?’’ अब कौन पूछे कि जब मैं अकेले 10 लोगों का खानापीना कर रही थी तब तो आप ने मदद नहीं की? मैं भी नौकरी करती थी, तो बोलते हैं, ‘‘वह कौर्पोरेट की नौकरी थोड़े थी. टीचरी करने में कौन मेहनत?’’ कहतेकहते रागिनी की आंखों के कोरों से पानी छलक जाता है.
अब किचन सिर्फ औरतों की प्रौपर्टी नहीं
इसे समझने के लिए थोड़ा मनोविज्ञान समझाना पड़ेगा. आजकल मौडर्न परिवारों में लड़कियों की परवरिश में किचन गायब है. कई घरों में गृहस्वामिनियों को ही किचन से मुक्ति मिली हुई है तो बेटियां क्यों किचन में जाएं? जब वे गई ही नहीं तो उन की दिलचस्पी भी नहीं है. दूसरे, जैंडर इक्वैलिटी की बातों में लड़कियों की डिक्शनरी से किचन शब्द गायब कर दिया गया है. किचन पर किसी एक जैंडर का अधिकार नहीं. लेकिन सासों की डिक्शनरी में अब भी औरतों और किचन का संबंध है. बेटियां अपनी जगह सही हैं कि वे बरसों की बनीबनाई व्यवस्था के विरोध में किचन में घुसना नहीं चाहतीं और जब वे जाती हैं तो पति को भी ले जाती हैं.
दिव्यानी कहती है, ‘‘जिस बेटे को मैं ने हाथ में पानी दिया, प्लेट दी वह अब खाने की टेबल लगाता है. बीवी की मदद के लिए आगेपीछे घूमता है. मुझे तो कभी मदद नहीं की. पता नहीं क्यों बेटे यह नहीं समझ पाते कि मांएं भी उतना ही थकती हैं जितना बीवियां?’’
हालांकि वह या उन की जैसी मांएं भूल जाती हैं कि उन्होंने कभी मदद मांगी भी नहीं क्योंकि उन की जो रूल बुक थी उस में बेटे या लड़के घर के कामों से बरी थे या उन्होंने काम किया भी तो उन का तरीका समझ में नहीं आया या फिर कभी मदद चाही भी होगी तो सास ने सुना दिया तो मन की मन में ही रह गई लेकिन अब जब वे बहुओं के साथ जुटे बेटों को देख रही हैं तो एक खलिश भी मन में है कि मुझे ऐसा क्यों नहीं मिला.
जमाने के साथ बदलते रहिए
मनोवैज्ञानिक आंचल कहती हैं कि औरतों को हमेशा से दबाया गया है. अभी जो जनरेशन सास बन रही है उस में नौकरीशुदा महिलाएं भी हैं लेकिन उन्होंने घर संभाला है क्योंकि आज से 30-40 साल पहले समाज ने औरतों को घर से निकलने की इजाजत दी तो शर्त यह ही थी कि घर के कामों में कोई ढील नहीं दी जाएगी. चूंकि संघर्ष इतने ज्यादा थे तो औरतों ने इस शर्त को मजबूरी में माना कि कम से कम घर से निकलने को तो मिलेगा. लेकिन बीते वर्षों में एकल परिवार बढ़े, लड़कियों के अधिकारों की बातें बुलंद हुईं, लड़कों ने भी इसे समझ और नतीजा सब के सामने है.
काम को अब जैंडर के नजरिए से यह पीढ़ी अब नहीं देखती. जब लड़कियों को किचन में जाने को कहा जाता है तो वह पति को ले जा कर यह संदेश देना चाहती हैं कि सिर्फ मैं ही क्यों? दूसरे, बेटे ने आप की तकलीफों को समझना चाहा लेकिन मांओं ने कुछ प्यार तो कुछ सामाजिक तानेबाने की वजह से उन्हें घर के कामों विशेषकर किचन से दूर रखा. लेकिन उस की पत्नी भी इसी तरह के माहौल से आई है. उसे भी घर के काम करना नहीं आता. ऐसे में वे अपने पति को साथ रखती हैं. काम को एंजौय करने का यह उन का नजरिया भी हो सकता है. साथ ही ससुराल में उन्हें जज होने का खतरा भी दिखता है, ऐसे में उन का पति उन की ढाल बनता है.
अब ऐसे में सास क्या करें? मनोवैज्ञानिक की सलाह है कि चुप रहें, मुसकराती रहें और अगली बार चाय बनानी हो तो बहू के बजाय बेटे को बोलें. बहू को पूरी मोहब्बत दें. जो महिलाएं यह कहती हैं कि उन्होंने अपनी सास या जेठानियों के लिए बहुत किया, अपने दिल को टटोले और पूछे कि क्या वे उन को प्यार करती हैं या फिर उन के दिल में सिर्फ कड़वी यादें हैं? ज्यादातर बताएंगी कि कड़वी यादें हैं तो फिर याद रखिए कि काम करने और अपना समझने का कोई रिश्ता नहीं.
क्यों नहीं आप मोहब्बत के साथ बहू को अपना समझने की कोशिश शुरू करें, न कि काम करने की अपेक्षा कर के. जिस काम के लिए आप बहू के लिए मन में मैल पाल रही हैं वह काम कोई भी कर देगा. लेकिन आप उसे मोहब्ब्त से अपनाएंगी तो फिर रिजल्ट दूसरे ही होंगे. वहीं बेटों की मांएं अपने बेटों को किचन की ट्रेनिंग दें ताकि जब वह अपनी बीवी के साथ खड़ा नजर आए तो दिल में दर्द न हो.
लेखिका : रुचिदा राज