Trending Debate : लार्सन एंड टूब्रो कंपनी के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यम के वर्कप्लेस पर हफ्ते में 90 घंटे काम करने वाले बयान पर गरमागरम बहस छिड़ी हुई है. कोई सुब्रह्मण्यम को गरिया रहा है तो कोई उन का समर्थन कर रहा है.

दिल्ली स्थित एक पोस्ट औफिस में शाम 4.45 पर लता एक जरूरी पत्र स्पीड पोस्ट करवाने पहुंची. काउंटर पर बैठी महिला ने उन से कहा, “आप को जल्दी आना चाहिए. अब तो स्पीड पोस्ट नहीं हो रही है.”

लता ने कहा, “अभी तो 5 बजने में पूरे 15 मिनट बाकी हैं. अभी से कैसे बंद हो गया? मैं सुबह जब साढ़े दस बजे आई थी तब आप की सीट खाली पड़ी थे. पता चला आप देर से आती हैं. 10 मिनट इंतजार कर के मैं अपने औफिस चली गई. अब भी मैं समय से आई हूं तो आप कह रही हैं कि जल्दी आना चाहिए?

“मैडम आप कल आइएगा. मैं सारे पैसे काउंट कर के भीतर जमा कर आई हूं. आज का हिसाब पूरा हो गया है. आप की वजह से मुझे फिर से हिसाब कर के भीतर जमा करना पड़ेगा.”

“तो आप को 5 बजे के बाद हिसाब करना चाहिए. पोस्ट औफिस तो 5 बजे बंद होता है. आपने पहले क्यों कर दिया?”

जब काउंटर पर बैठी महिला कर्मचारी ने स्पीड पोस्ट करने से साफ मना कर दिया तब लता ने पोस्ट औफिस के मैनेजर से लिखित में उस की शिकायत कर दी. यही नहीं उन्होंने फेसबुक पर भी यह बात वायरल कर दी. अगले दिन उस महिला कर्मचारी को उस काउंटर से हटा दिया गया. हालांकि इस से उस की कामचोरी की आदत नहीं जाएगी. वह जिस सीट पर होगी वहां समय से पहले ही काम बंद कर देगी.

यह हाल एक पोस्ट औफिस का नहीं, बल्कि अधिकांश सरकारी दफ्तरों का है. कर्मचारी न तो समय से अपनी सीट पर पहुंचते हैं, न ही पूरे वक़्त काम करते हैं. 5 बजने से पहले ही सीट से उठ कर चलते बनते हैं. जाड़ों के दिनों में तो अधिकांश दफ्तरों के कर्मचारी दोपहर की धूप खाने के लिए घंटों अपनी सीट से गायब रहते हैं. कुछ दफ्तर के बाहर मूंगफली खाते या चाय पीते नजर आते हैं.

भारत की धरती को धर्म की धरती कहा जाता है. यहां सदियों से ऋषिमुनियों, साधुसंतों को बहुत मान सम्मान दिया जाता है. उन्हें सिरमाथे पर बिठाया जाता है. पर ज़रा गंभीरता से सोचें तो क्या इन लोगों की देश के विकास में कोई भूमिका है? क्या वे किसी प्रकार का श्रम करते हैं? क्या वे अपनी मेहनत का खाते हैं? नहीं. ये निठल्ले लोग हैं, मेहनत मशक्कत और जिम्मेदारियों से दूर भागे लोग हैं. ये सिर्फ दूसरों की मेहनत की कमाई खाते हैं और हम इन्हें सिरमाथे पर बिठाते हैं. हमारे देश में न काम करने वालों को सिर पर चढ़ा कर रखा जाता है.

हम बेटी के लिए रिश्ता ढूंढते हैं तो चाहते हैं कि लड़का सरकारी नौकरी वाला मिल जाए. क्यों? क्योंकि वहां फुर्सत ज़्यादा है. पैसा अधिक है. ऊपरी कमाई है. हम मेहनती और काम में व्यस्त रहने वाले लड़के की जगह एक निठल्ला और कामचोर दामाद चाहते हैं. यह हम भारतीयों की मानसिकता है जो धर्म से प्रेरित है. हम आरामतलब लोग हैं और इसीलिए विकास के मार्ग पर कछुआ चाल चल रहे हैं.

प्राइवेट नौकरियों वाले समय के अभाव का रोना रोते हैं परन्तु देश अगर कुछ तरक्की कर रहा है तो उस का श्रेय प्राइवेट सैक्टर को ही जाता है. सरकार भी जानती है कि उस के कर्मचारी जो काम 100 दिन में करेंगे, प्राइवेट आदमी दो दिन में कर देगा. यही वजह है कि अधिकांश सैक्टर चाहे रेलवे हो, विद्युत या इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट सब प्राइवेट हाथों में चले गए हैं. वहां कम्पटीशन ज्यादा है. इसलिए कर्मचारियों के लिए काम के घंटे ज्यादा हैं.

मुंबई की लोकल ट्रेनों में औफिस से घर लौटने वाली महिलाओं को अपनी सीट पर बैठ कर सब्जी काटते हुए भी देखा जाता है क्योंकि घर पहुंचतेपहुंचते उन्हें इतनी देर हो जाती है कि परिवार के लिए खाना बनाने का थोड़ा सा समय बचता है. कई कर्मचारी तो रोड साइड पर बने ढाबों से पकी हुई सब्जी दाल खरीद कर ले जाते हैं ताकि घर पहुंच कर सिर्फ रोटी ही बनानी पड़े. इन कर्मचारियों के पास इतना समय ही नहीं बचता कि वे अपने बच्चों के साथ कुछ क्वालिटी टाइम बिता सकें. उन के साथ शाम को कहीं घूमने जा सकें. या उन की पढ़ाई के विषय में ही कुछ पूछ सकें.

रेखा एक रियल एस्टेट कंपनी में काम करती है. उस का औफिस सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक है. आएदिन औफिस के बाद मीटिंग्स होती हैं या उस को क्लाइंट वगैरह से मिलने जाना होता है. जिस के चलते घर लौटते लौटते कई बार तो 10 बज जाते हैं. घर लौट कर भी रेखा अपने लैपटौप पर लगी रहती हैं. उस की पगार अच्छी है. पति से तलाक हो चुका है क्योंकि इतनी अच्छी पगार छोड़ कर वह घर संभालने का काम नहीं करना चाहती थी. उस के काम के घंटे तय नहीं हैं. मगर पगार अच्छी होने के कारण उस को अपना काम बोझ नहीं लगता. वह विभिन्न लोगों से मिलती है, औफिस की पार्टियां एन्जोय करती है. क्योंकि उस ने अपने ऊपर घर गृहस्थी की कोई जिम्मेदारी नहीं ओढ़ी है. वह अपने फ्लैट में अकेली रहती है. इसलिए देर रात लौटने पर उस के सामने किसी की सवालिया आंखें नहीं होतीं.

शरबती गोरखपुर चौरीचौरा की निवासी है. वह पति के साथ खेतों पर काम करती है. सुबह 5 बजे से उस की दिनचर्या शुरू होती है. भैसों को दुहना, उन को चारापानी देना, सब के लिए खाना बनाना, फिर खेतों में जा कर पति और देवर के साथ शाम तक काम करना, लौट कर खाना बनाना, सब को खिलाना, बर्तन मांजना, सास की सेवा करना ऐसे बहुत सारे काम वह प्रतिदिन करती है. शरबती को बमुश्किल 5 घंटे का वक़्त ही आराम करने का मिल पाता है. यानी 19 घंटे वह काम करती है, जिस का उस को कोई भुगतान नहीं मिलता. कुछ कमीबेशी हो जाए तो पति की गालियां अलग से खाती है.

देश में भले श्रम कानून बना हो मगर आम भारतीय गृहणी सुबह 4 बजे से रात 11 बजे तक निरंतर कोई न कोई काम करती रहती है. उस के लिए काम के घंटे तय नहीं हैं. किसानों के लिए काम के घंटे तय नहीं हैं. वह साल भर खेतों में हाड़तोड़ मेहनत करता है. पुलिस वालों की ड्यूटी 24 घंटों की होती है. युद्ध का मौक़ा आता है तो सेना रात दिन लड़ती है. वहां कोई श्रम कानून काम नहीं करता. अभी अमेरिका के लौस एंजेलिस में आग लगी तो फायरमैन 36-36 घंटे लगे रहे हैं.

भारत में काम और कर्मचारियों के विभिन्न प्रकार हैं. कुछ लोगों से बहुत ज्यादा काम लिया जाता है और कुछ लोगों से कम, कुछ ऐसे भी हैं जो बिलकुल निठल्ले हैं. कुछ लोग वह काम करते हैं जो उन्हें पसंद होता है. इसलिए उस में कितना भी वक्त दें उन्हें अखरता नहीं है. और अगर उस में पेमेंट भी अच्छा हो तो सोने पर सुहागा. मगर अधिकांश लोग अपने परिवार के भरण पोषण के लिए काम करते हैं. यह काम उन की मजबूरी है. पेमेंट ठीक है तो उस काम का वह अच्छा आउटपुट भी देते हैं. अगर पेमेंट ठीक नहीं है तो मजबूरी में किए जा रहे ऐसे काम का आउटपुट भी कुछ ख़ास नहीं होता है. फिर चाहे वह कितने ही घंटे उस काम को देदे. कुछ लोगों को उन के 10 से 12 घंटे के काम का भी बहुत थोड़ा भुगतान होता है. इन में मजदूर वर्ग और गृहणियां शामिल हैं.

काम के घंटों को ले कर यह विभिन्न प्रकार का विवरण इसलिए है क्योंकि हाल ही में लार्सन एंड टूब्रो कंपनी के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यम ने अपने कर्मचारियों को सम्बोधित करते हुए कहा, “मुझे अफ़सोस है कि मैं आप को रविवार को भी काम पर नहीं बुला पा रहा हूं. अगर मैं आप से रविवार को भी काम करा सकता, तो मुझे ज्यादा ख़ुशी होती क्योंकि मैं रविवार को काम करता हूं. आप को सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए. अपने घर में बैठ कर आप क्या करते हैं? आप अपनी पत्नी को कितनी देर निहार सकते हैं और पत्नी अपने पति को कितनी देर निहार सकती है?”

उन्होंने यह बात इस सवाल के जवाब में कही थी कि कंपनी ने शनिवार को काम पर आना अनिवार्य क्यों कर दिया?

एसएन सुब्रह्मण्यम के इस वक्तव्य के बाद सोशल मीडिया, अख़बारों और टीवी स्क्रीन पर काम के घंटों को ले कर एक गरमागरम बहस छिड़ी हुई है. कोई सुब्रह्मण्यम को गरिया रहा है तो कोई उन का समर्थन कर रहा है. बड़ेबड़े दिग्गज काम के घंटों पर अपनी राय पेश कर रहे हैं. इस में फ़िल्मी सितारों से ले कर उद्योगपति तक शामिल हैं. यह मामला अब इतना तूल पकड़ चुका है कि बिहार में काराकट से सीपीआई-एमएल सांसद राजा राम सिंह ने बाकायदा श्रम मंत्री मनसुख मांडविया को पत्र लिख कर सुब्रह्मण्यम के बयान को श्रम कानूनों के उल्लंघन का मामला करार दे दिया है.

लेबर, टेक्सटाइल पर संसद की स्थाई समिति के सदस्य और बिहार में काराकाट से सीपीआई-एमएल सांसद राजा राम सिंह ने श्रम मंत्री मनसुख मांडविया को पत्र लिख कर कहा है, “एलएंडटी के चेयरमैन ने हाल में बयान दिए हैं कि कर्मचारियों को हफ्ते में 90 घंटे काम करना चाहिए. कुछ समय पहले इन्फ़ोसिस के कोफाउंडर नारायण मूर्ती ने कहा था कि युवाओं को हफ्ते में 70 घंटे काम करना चाहिए. लम्बे वर्क आवर से प्रोडक्टिविटी बढ़ती नहीं घट जाती है. श्रम कानूनों का उल्लंघन न होने देना सरकार की जिम्मेदारी है. सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि वर्कर्स को हफ्ते में 48 घंटे की कानूनी सीमा से ज्यादा काम के लिए मजबूर न किया जाए.”

सुब्रह्मण्यम के बयान पर बड़ी आपत्ति महिलाएं भी जता रही हैं क्योंकि एसएन सुब्रह्मण्यम ने अपने वक्तव्य में कहा कि आप घर में बैठ कर कितनी देर अपनी पत्नी को निहारेंगे?

शशि कहती हैं, “घर पर कौन सा पति दिन भर पत्नी को निहारता है? एक संडे का दिन हमें मिलता है साथ रहने का. बच्चे भी पिता का साथ चाहते हैं. पूरे हफ्ते इंतज़ार करते हैं. मैं अपने कुछ कामों में उन की हेल्प चाहती हूं. कभी रिश्तेदारी में जाना होता है. कभी डाक्टर के पास किसी जांच के लिए जाना होता है. हमारे रिश्तेदार भी संडे के दिन ही मिलने आते हैं. अब संडे भी औफिस बुला लो तो फिर घरपरिवार की जरूरत क्या है? इन को वहीं रख लो औफिस में. सुब्रह्मण्यम साहब की पत्नी उन को भाव न देती होंगी इसलिए वे अपना संडे भी औफिस में बिताते हैं. सब की पत्नियां उन की पत्नी की तरह थोड़ी हैं.”

वर्क लाइफ बैलेंस को ले कर छिड़ी बहस के बीच उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने भी अपनी राय रखी है. विकसित भारत यंग लीडर्स डायलोग 2025 कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा, “मेरी पत्नी वंडरफुल है, मुझे उसे निहारना अच्छा लगता है.”

आनंद महिंद्रा ने कहा कि वह काम के घंटों की जगह काम की गुणवत्ता में विश्वास करते हैं. यही नहीं, इंटरनेट मीडिया पर बहुत एक्टिव रहने से जुड़े एक सवाल पर उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा, “मैं उस प्लेटफौर्म पर इतना एक्टिव हूं तो इस का मतलब यह नहीं कि मैं अकेला हूं. इंटरनेट मीडिया अमेजिंग बिज़नेस टूल है. मुझे इस पर 11 मिलियन लोगों का फीडबैक प्राप्त होता है. मैं घर और औफिस के कामों में बैलेंस रखता हूं. मेरी पत्नी बहुत प्यारी है, मुझे उसे निहारते रहना अच्छा लगता है.”

आनंद महिंद्रा ने कहा कि मौजूदा बहस गलत है, क्योंकि यह काम घंटों पर जोर देती है. उन्होंने युवाओं से कहा, “मैं नारायण मूर्ति और अन्य लोगों का बहुत सम्मान करता हूं. इसलिए मैं इसे गलत नहीं समझूंगा, लेकिन मुझे लगता है कि यह बहस गलत दिशा में जा रही है. मेरा मानना है कि हमें काम की गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए, काम के घंटों पर नहीं. इसलिए यह 40, 70 या 90 घंटे की बात नहीं है. यह काम के आउटपुट पर निर्भर करता है. अगर 10 घंटे काम कर के अच्छा आउटपुट दे रहे हैं तो आप दुनिया बदल सकते हैं. मेरा मानना है कि किसी कंपनी में ऐसे लीडर होने चाहिए जो समझदारी से निर्णय लें, समझदारी से चुनाव करें.”

परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताने की जरूरत पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि अगर आप घर पर समय नहीं बिता रहे हैं, अगर आप दोस्तों के साथ समय नहीं बिता रहे हैं, अगर आप पढ़ नहीं रहे हैं, अगर आप के पास सोचनेसमझने का समय नहीं है, तो आप फैसला लेने में सही इनपुट कैसे लाएंगे? एक व्यक्ति तभी बेहतर निर्णय ले सकता है जब उस की जिंदगी का संतुलन सही हो.

बता दें कि अभी कुछ वक्त पहले इनफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ती ने भी सप्ताह में 70 घंटे काम करने की सलाह दी थी. उन के बाद लार्सन एंड टूब्रो (एलएंडटी) के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यम ने अपने कर्मचारियों को सप्ताह में 90 घंटे काम करने का सुझाव देते हुए कहा कि पत्नी को कितना निहारोगे? रविवार को भी काम करो.

गौरतलब है कि वर्क लाइफ बैलेंस पर यह बहस ऐसे समय छिड़ी है जब कई देशों में 4 दिन के वर्क वीक का प्रयोग चल रहा है. ओयो के सह संस्थापक और सीईओ रितेश अग्रवाल का कहना है कि काम के घंटों की अवधारणा सही नहीं है. उन्होंने कहा, “काम के लिए सही अवधारणा यह है कि आप को पूरे मन से काम करना चाहिए. हर कोई विकसित भारत मिशन के लिए पूरे मन से काम कर रहा है. कुछ लोग दिन में केवल 4 घंटे में प्रोडक्टिव हो सकते हैं, जबकि कुछ लोगों को 8 घंटे लग सकते हैं. हर किसी का काम करने का अपना तरीका और रास्ता हो सकता है.”

यह सच है कि भारत में प्रोडक्टिविटी अन्य देशों के मुकाबले कम है मगर यहां वर्कर्स का वेतन भी बहुत कम है. दूसरी तरफ सरकारी महकमों ने काम न करने की ऐसी मानसिकता फैला रखी है कि लोग आलसी और कामचोर ज्यादा हो गए हैं. वे अपने आराम के आगे देश के विकास की बात सोच ही नहीं पाते. ऐसे में जब नारायण मूर्ति या सुब्रह्मण्यम जैसे लोग काम के घंटे बढ़ाने की बात करते हैं तो आलोचना का बाजार गर्म हो जाता है.

दरअसल चीजें प्राइवेट और सरकारी दोनों जगहों पर समान रूप में लागू किए जाने की आवश्यकता है. देश के विकास में दोनों ही सेक्टर महत्वपूर्ण हैं. प्राइवेट सेक्टर वालों का खून चूस लो और सरकारी महकमे के लोग अय्याशियां करते रहें, इस से देश का विकास नहीं होगा.

प्रोडक्टिविटी बढ़ाने के लिए वर्कर्स में उत्साह जागृत करने की जरूरत है. उत्साह तभी जागृत होगा जब वेतन बढ़िया होगा. इस के लिए कामकाजी माहौल भी बेहतर होने चाहिए. वर्कर्स की स्किल बढ़ाने के लिए तकनीक में अधिक से अधिक निवेश की जरूरत है. अच्छी मशीनरी लगाईं जाए. मौसम के हिसाब से वर्क फ्लोर पर सुविधाएं हों, जो कई देशों में होती हैं. वर्क एनवायरनमेंट बेहतर होगा तो 90 घंटे का काम कम समय में भी हो सकता है और उस की क्वालिटी भी अच्छी होगी.

चीन में हफ्ते में 40 घंटे काम का समय तय है. लेबर लौ औफ चाइना के अनुसार, चीन के लोग रोजाना 8 घंटे और सप्ताह में 40 घंटे काम करते हैं. यहां के लोग सप्ताह में 5 दिन ही काम करते हैं. इसलिए पूरे सप्ताह में यहां के लोग 40 घंटे ही काम करते हैं. हालांकि, चीन के विशेष क्षेत्रों में 996 वर्क कल्चर भी प्रभावी है. इस का मतलब यह है कि टैक्नोलौजी और वित्त क्षेत्र में कर्मचारियों से सप्ताह में 6 दिन, सुबह 9 से रात 9 बजे तक काम लिया जाता है, लेकिन यह सप्ताह में 72 घंटे ही होता है. हालांकि, चीन की सरकार ने हाल के वर्षों में 996 वर्क कल्चर और अनियमित कामकाजी घंटे को नियंत्रित करने के लिए कदम भी उठाए हैं.

चीन में सप्ताह में 40 घंटे का कामकाजी समय संतुलित और कुशलता से कार्य को बढ़ावा देता है. कर्मचारियों को आराम का समय मिलता है, जिस से उन की उत्पादकता में बढ़ोतरी होती है. नियमित कामकाजी घंटे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में मदद करते हैं. तनाव और बर्नआउट कम होता है. लंबे घंटों यानी 996 वर्क कल्चर के विपरीत 40 घंटे की सीमा कर्मचारियों के मानसिक स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाती है.

जापान में भी श्रम मानक अधिनियम लागू है. इस का मकसद, काम करने की ऐसी स्थितियां सुनिश्चित करना है जो श्रमिकों की जरूरतों को पूरा करें. जापान में, एक सामान्य कार्य सप्ताह में प्रतिदिन 8 घंटे और पूर्णकालिक कर्मचारियों के लिए प्रति सप्ताह 40 घंटे के वैधानिक कार्य घंटे हैं. ओवरटाइम की सीमा महीने में 45 घंटे और साल में 360 घंटे है. इन सीमाओं का उल्लंघन करने पर कंपनी को जुर्माना और जेल हो सकती है.

जापान में श्रम मानक कानून के तहत मजदूरी और अन्य प्राथमिक कार्य स्थितियों के लिए न्यूनतम मानक तय किए गए हैं. जापान में कर्मचारियों को कई तरह के अवैतनिक अवकाश भी मिलते हैं, जैसे कि मातृत्व अवकाश, शिशु देखभाल अवकाश, परिवार देखभाल अवकाश और नर्सिंग अवकाश. जापान में, नियोक्ता को कर्मचारियों के साथ ईमानदारी से परामर्श करना होता है. जापान में, नियोक्ता को कर्मचारियों के साथ प्रतिकूल व्यवहार करना मना है.

अमेरिका में तो परिवार और चिकित्सा अवकाश अधिनियम (एफएमएलए) 50 या उस से ज्यादा कर्मचारियों वाले नियोक्ताओं को कर्मचारियों को सालाना 12 हफ्ते तक का अवैतनिक अवकाश देने की बाध्यता देता है.

भारत में सरकारी कर्मचारियों और प्राइवेट कर्मचारियों के काम के घंटे, काम के तरीके और आउटपुट में जमीन आसमान का अंतर है. सरकारी कर्मचारी जहां 7 – 8 घंटे की ड्यूटी में आधा वक़्त गप्पे मारने, घूमने, खाने और चाय पीने में व्यतीत करते हैं वहीं प्राइवेट जौब वाला 9 – 10 घंटे अपनी सीट पर बैठ कर भी कभीकभी अच्छा आउटपुट नहीं दे पाता क्योंकि वह थक चुका होता है. जब किसी मजबूरीवश वह ऐसी नौकरी में आता है जहां काम के घंटे बहुत अधिक हैं और वेतन कम है तो उस के लिए ऐसी नौकरी एक उबाऊ चीज हो जाती है. आप उस को 10 की जगह 14 घंटे बिठा लीजिए, आउटपुट जीरो ही रहेगा.

इस के विपरीत यदि नौकरी पसंद की हो, उत्साहित करने वाली हो, वेतन ज्यादा हो, नियोक्ता अपने कर्मचारी के ओवरटाइम और अवकाश का ख्याल रखता हो, वहां कर्मचारी चाहे 4 घंटे काम करे या 10 घंटे, उस का आउटपुट बहुत अच्छा होगा. वह कम समय में भी अच्छा रिजल्ट देगा.

इस बात पर भी चिंतन जरूरी है कि कोई भी व्यक्ति नौकरी इसलिए करता है ताकि वह अपने परिवार का भरण पोषण कर सके और उन के साथ जिंदगी को एंजोय कर सके. उस के लिए परिवार प्रथम है. यदि उस से हफ्ते के सातों दिन काम करवाया जाए और उस को अपने परिवार के साथ हंसनेबोलने, घूमनेफिरने का वक़्त ही न मिले तो ऐसा काम न सिर्फ उस के लिए भार बन जाएगा, उस काम में उस का इंटरेस्ट ख़त्म हो जाएगा, उस का आउटपुट बेकार होगा, बल्कि उस की सेहत भी खराब होती चली जाएगी. वह डिप्रेशन, तनाव और बीपी का मरीज बन जाएगा.

विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि वयस्कों को रात में 7 से 9 घंटे सोना चाहिए. जो वयस्क रात में 7 घंटे से कम सोते हैं, उन में 7 या उस से अधिक घंटे सोने वालों की तुलना में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं अधिक होती हैं. वह समय से पहले बूढ़ा हो जाता है. उस की कार्यक्षमता घट जाती है. यदि वह अपनी समस्याएं और अपने काम के तनाव को किसी के साथ शेयर नहीं कर पाता, तो जल्दी ही उस का मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाएगा. ऐसे व्यक्ति से अच्छे काम की उम्मीद करना ही व्यर्थ है.

दुनिया भर में औसतन वीकली वर्क औवर 40-50 घंटे के बीच हैं. कई देशों में तो हफ़्ते में सिर्फ 4 दिन ही काम लिया जाता है. भारत में भी मजदूरों और दफ्तरों में वर्कर्स के लिए श्रम कानून के तहत काम के घंटे तय हैं. अधिनियम के अनुसार, 6 दिनों में प्रति सप्ताह अधिकतम 48 घंटे काम करना अनिवार्य है, तथा किसी भी कर्मचारी को प्रतिदिन 9 घंटे या सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम करने की अनुमति नहीं है.

कारखाना अधिनियम, 1948 और दुकानें एवं प्रतिष्ठान अधिनियम (एसईए) के मुताबिक, मजदूरों को रोजाना 9 घंटे या हफ्ते में 48 घंटे से ज्यादा काम नहीं कराया जा सकता. इस में एक घंटे का आराम या भोजन अवकाश शामिल है. अगर कोई मजदूर सामान्य काम के घंटों से ज्यादा काम करता है, तो उसे ओवरटाइम वेतन का हक मिलता है. नाबालिग मजदूरों को रोजाना साढ़े 4 घंटे से ज्यादा काम नहीं कराया जा सकता. नाबालिग मजदूरों को रात में काम करने की अनुमति नहीं है. लड़कियों को सिर्फ़ सुबह 8 बजे से शाम 7 बजे के बीच काम करने की अनुमति है.

भारत में काम के घंटों को ले कर कई कानून हैं, जिन में से एक न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948 भी है. इस अधिनियम के तहत, कामकाजी हफ़्ते को 40 घंटे या रोजाना 9 घंटे तक सीमित किया गया है.

दफ्तरों में वर्कर्स के लिए काम के घंटे को ले कर कई कानून हैं. न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948 के मुताबिक, कामकाजी सप्ताह 40 घंटे या प्रतिदिन 9 घंटे तक सीमित है. कारखाना अधिनियम 1948 और दुकानें एवं प्रतिष्ठान अधिनियम (एसआई) के मुताबिक, काम के लिए हर दिन 9 घंटे और हर सप्ताह 48 घंटे का समय तय है.

श्रम संहिता-2020 के तहत, काम के घंटों को बढ़ा कर प्रतिदिन 12 करने का प्रावधान है, लेकिन सप्ताह में यह अधिकतम घंटे 48 तक सीमित रहे. अगर कोई कर्मचारी अपने तय वक्त से ज्यादा काम करता है, तो उसे ओवरटाइम का पैसा मिलना चाहिए. ओवरटाइम वेतन की गणना सामान्य मजदूरी की नियमित दर से दोगुनी दर पर कराई जाती है. हर 5 घंटे काम के बाद 30 मिनट का ब्रेक देना होगा.

भारत में श्रम कानूनों, श्रमिकों के वेतन, निवेश, तकनीक और सुविधा आदि पर गहन मंथन की जरूरत है. सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में जो जमीन आसमान का अंतर है उस में कोई बीच का रास्ता तलाश करना होगा. एक व्यक्ति हफ्ते में 48 घंटे काम करे और दूसरा व्यक्ति 90 घंटे काम करे तो ऐसी व्यवस्था में तो समाज और देश में तनाव ही बढ़ेगा.

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