Hindi Satire :  आजकल पूरे देश में प्रदूषण की समस्या का होहल्ला मचा है और देश की राजधानी को तो प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए नएनए प्रयोग आजमाए जा रहे हैं. ‘औडइवन’ अर्थात ‘समविषम’ के नुस्खों में हम सब की जान फंसी रही. ऐसे लाजवाब एक्सपेरीमैंट से हमारे क्रियाशील मस्तिष्क में भी एक क्रांतिकारी विचार उपजा है जिसे बिना किसी शुल्क के, मुफ्त में आप सभी से शेयर कर रहे हैं.

असल में इस लेख के माध्यम से हम प्रदूषण के समस्त ज्ञातअज्ञात रूपों से इतर, एक ‘सुपर स्पैशल प्रदूषण’ पर आप सभी का ध्यान आकर्षित करना चाह रहे हैं जिसे बेचारे हम सरीखे ‘सद्गृहस्थी’ 24×7 की तर्ज पर ‘नौनस्टौप’ भुगतते आए हैं. दुख की बात यह है कि इस प्रदूषण की समस्या पर लंबीचौड़ी फेंकने वाले विद्वानों की भी बोलती बंद है. इस में कोई आश्चर्य की बात भी नहीं.

पत्नीजी से डरना, उन की डांटफटकार सुनना हर पति महाशय का परम कर्तव्य है. इसे हम पावनधर्म इसलिए कह रहे हैं ताकि इस मजबूरी को साहित्यिक रूप में सम्मानपूर्वक प्रकट कर सकें. वरना विवशता तो यह है कि उन के आगे सब की बोलती बंद है. मंत्री हो या संत्री, अफसर हो या बेरोजगार, इस पैमाने के आगे सब एकसमान हैं.

अब हम ने सर्वजन हिताय में इस विषय पर बोलने की हिम्मत की है. श्रीमतीजी की प्रतिदिन की डांट से त्रस्त आ कर जनहित में हम ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर उठाने का बीड़ा उठाया है. हमें पता है, हमें नारी संगठनों से प्रतिरोध, उलाहने सहने पड़ेंगे लेकिन पत्नी पीडि़त संघों से हमें अटूट समर्थन, सम्मान और पुरस्कारों की भी आशा है. अब इस अघोषित प्रदूषण के खिलाफ ‘विसिल ब्लोअर’ की भूमिका निभाने की हम ने कमर कस ली है. सभी पतियों की यही रामकहानी है, सो आप प्रबुद्धगण हमारी दुखती रग को पकड़ चुके होंगे.

आप खुद सोचिए, रेल, बस, कारमोटर, स्कूटर, बाइक के कर्कश हौर्न, लाउडस्पीकर पर बजते कानफोड़ू संगीत अथवा रैली, धरनाप्रदर्शन करते आदरणीय नेताओं के भाषण ही ध्वनि प्रदूषण फैलाते हैं. जब घरों में पत्नीजी का संवाद डांटफटकार की प्रक्रिया, सप्तम स्वर में संपन्न होने लगे तो क्या इसे ‘स्पैशल होमली प्रदूषण’ की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए? डांट के रूप अनेक हो सकते हैं, बच्चों पर और खासकर पति महाशय पर डांट का रूप अकसर विस्फोटक ही होता है. भारतीय गृहस्थी दुनिया का 8वां अजूबा है. यह रेल की पटरियों की तरह साथसाथ चलती जरूर है लेकिन मिलती कहीं नहीं. अटकती, लटकती, मटकती, इतराती, बलखाती हुई निर्बाध रूप से भारतीय गृहस्थी लगातार गतिशील रहती है. यही कारण है कि हमारे यहां पतिपत्नी साथसाथ रह कर अपने विवाह की स्वर्ण, रजत अथवा प्लैटिनम जुबली मनाते हैं.

पतिपत्नी और डांट का चोलीदामन का साथ है. जहांजहां पत्नीजी की उपस्थिति पाई जाती है वहांवहां डांटफटकार का पाया जाना निश्चित है. अब इस दार्शनिक वाक्य से आप उस प्रदूषण की सहज कल्पना कर सकते हैं जिस के लिए पत्नीजी की डांटफटकार जिम्मेदार है. सुबह हमारी नींद पत्नीजी की उस लास्ट घोषणा से खुलती है जो अल्टीमेटम का अंतिम रूप जैसी होती है.

यह क्रिया इतनी बुलंद आवाज में संपन्न होती है कि बिना आलस से बिस्तर छूट जाता है. यह कार्य निबटते ही उलाहनों, कोसने और रुटीन रोनेधोने का कार्यक्रम चलने लगता है जो शीघ्र ही डांट में बदल कर ध्वनि प्रदूषण फैलाने लगता है. एक बानगी देखिए – ‘‘अजी सुनते हो, 8 बज गए, कब तक सोते रहोगे? फिर बाथरूम में जा कर बैठ जाओगे…बच्चों को भी स्कूल जाना होता है…ऐसी आरामतलबी है तो दोचार बाथरूम बनवाने की हैसियत कायम करते…’’

अब आप बताइए ऐसे ध्वनि प्रदूषण को हम किस श्रेणी में रखें? क्या हमारी यह डिमांड गलत अथवा अतार्किक है? पत्नीजी की चिल्लाहट, झल्लाहट समय और अवसर की मुहताज नहीं होती. जब मन किया, हमें सुधारने के लिए ऐसी डांटफटकार की डोज दिन में अनेक बार आवश्यक रूप से पिलाई जाती है. कई बार तो इस ‘होमली प्रदूषण’ से आसपास की बिल्ंिडगों के शीशे भी तड़क जाते हैं. इस उदाहरण से आप इस प्रदूषण की तीव्रता का सहज अनुमान लगा सकते हैं. पत्नीजी की डांट और शोरगुल से अकसर हमें गुस्सा और आक्रोश भी महसूस होता है लेकिन दिल को तब सुकून मिलता है जब पड़ोस से भी ऐसा ही ध्वनि प्रदूषण सुनने को मिलता है. मजे की एक बात और देखिए, जैसे ही हम शाम को घर आते हैं, श्रीमतीजी सीबीआई इंस्पैक्टर की भूमिका में हमारे समक्ष परिवार, कालोनी की रिपोर्ट प्रस्तुत करने लगती हैं. बच्चों की गतिविधियां, स्टडी, स्कूल, ट्यूशन, टीवी, कार्टून और इंटरनैट यूज से जुड़ी सब अपडेट सविस्तार प्रस्तुत करती हैं. अब यदि ऐसे महत्त्वपूर्ण लमहे पर हम ने जरा सी लापरवाही दिखा दी तो हमारा शिकार होना तय है – ‘‘मैं भी किस से बतिया रही हूं, इन्हें चिंता किस बात की है. मेरी बातें तो इन्हें बकवास लगती हैं. इन से बोलने का मतलब दीवारों से सिर फोड़ना है. अजी बहरे हो क्या, आप से ही पूछ रही हूं और आप अखबार में डूबे हो. सच्ची बात कह दो तो आप को सांप सूंघ जाता है. दीवारों से बात करूं या आप से, आप का कुछ नहीं हो सकता.’’

यदि घर पहुंचने में देर हो गई तो पुलिस अफसर अथवा सुप्रीम कोर्ट के सफल एडवोकेट की तरह हमें जिरह का सामना भी करना पड़ता है और यदि हम ने बुद्धिमानी से काम नहीं लिया तो डांट का ध्वनि प्रदूषण पूरी कालोनी को प्रदूषित करने लगता है. इस समय अकसर पूरा संवाद एकतरफा ही चलता है. हम होंठ चिपकाए भीगी बिल्ली की तरह इस संपूर्ण प्रक्रिया को जल्द से जल्द निबटा लेना चाहते हैं ताकि फटाफट डांटफटकार का क्रम शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हो सके. इस स्थिति के लिए अकसर श्रीमतीजी खुद अपनेआप को ही कोसती हैं. वे दिनरात की मेहनत में सुधार कार्यक्रम चला कर भी हमें सुधार नहीं पाई हैं.

हमारी लाइफस्टाइल उन्हें जरा भी पसंद नहीं. हम ठहरे लापरवाह, गैर जिम्मेदार. उन की नजर में उन के प्रति हमारी तटस्थता किंतु हमारा रहस्यमय रोमांटिक नेचर उन्हें हमेशा शक के दायरे में फंसाए रखता है. इसलिए उन की नजर में चिल्लाना एकदम जायज है. वैसे, एक बात कहें, शर्त यह है कि आप हमारे राज को किसी से कहेंगे नहीं. रोजरोज की पत्नीजी की डांट से बचने के लिए हम ने अपने कानों में रूई ठूंसने का देशी जुगाड़ कर रखा है वरना अब तक तो हमारे कान के परदे फट गए होते.

अब समय आ गया है कि इस घरेलू प्रदूषण से मुक्ति के लिए समस्या समाधान पर पूरे देश में विचारमंथन हो. हम इस लेख के माध्यम से सरकार को एक मुफ्त की सलाह भी देना चाहते हैं. यदि इस पर अमल हो जाए तो बहुत संभव है इस प्रदूषण की समस्या न्यून रह जाएगी. अगर पतिपत्नी संवाद को भी ‘औडइवन’ सिस्टम से सीमितप्रतिबंधित कर दिया जाए तो पति जमात का उद्धार हो सकता है. महीने की औड तारीख को पत्नीजी बोलेंगी और इवन डेट को पति महाशय. सच कहूं तो इस से ‘सम्मान नागरिक संहिता’ का भी आदर्श रूप से पालन हो सकेगा वरना पतिपत्नी संवाद अकसर एकतरफा ही चलता है जो गुस्से की सीमा पार कर अकसर बम विस्फोट की तरह प्रदूषण फैलाने लगता है.

यह नियम यदि गृहस्थों पर लाद दिया जाए तो मूक पतियों को भी बोलने का कानूनी अधिकार मिल सकता है. कानों में रूई ठूंसने की तकनीक भी अब पुरानी पड़ चुकी है. समय की मांग को देखते हुए हमारे इस सुझाव पर तुरंत अमल होने की जरूरत है. इस से ‘पौल्यूशन फ्री होम’ का सपना भी साकार होगा.

एक तथ्य हम और स्पष्ट कर दें, पति की नजर से हम ने अपनी तहरीर रख दी है लेकिन सच में मेरा मन पत्नीजी का बहुत आभारी है. वे गुस्सा चाहे कितना भी करें लेकिन यह सच है कि हमारा जीवन उन्हीं पर निर्भर है. यदि एक दिन बीमार पड़ जाएं तो हमारे होश ठिकाने आ सकते हैं, फिर उन का चिल्लाना भी जायज है. आखिर वे भड़ास निकालें तो किस पर. दिनभर घरपरिवार के लिए खपती हैं तो उन की हम से अपेक्षा रखना स्वाभाविक है. सात फेरे लिए हैं, सात जन्मों का साथ है तो इतना अधिकार तो बनता है. हमारी इल्तजा बस इतनी सी है, सरकार इस प्रदूषण पर गौर फरमाए और पतियों को भी बोलने का अवसर प्रदान करे.

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