देहरादून से गाजियाबाद अधिक दूर न होने की वजह से अकसर जाना होता रहता. वजह, मायके की चाह मन में रहती है. मायके में भरापूरा परिवार है. मां की तरह भाभी भी दिल से लगाव रखती हैं, तो जाने का मन करता और मनभर बात भी हो पाती. हां, भैया से कुछ कम होने लगी है, पहले सा चुलबुलापन बातों में नहीं रहा.
अब तो जब भी मिलना होता, आत्मीयता तो होती पर शब्दों में औपचारिकता आ गई थी. कैसी है तू, विनयजी और बच्चे ठीक हैं न, किसी बात की कोई परेशानी तो नहीं है, सब ठीकठाक है न वगैरहवगैरह?
शायद यही उम्र का तकाजा है कि आप के व्यवहार, बोलचाल, रहनसहन, आदतों में समझदारी व परिपक्वता दिखाई देने लगती है और व्यक्तित्व में गंभीरता आने लगती है.
अभी इसी साल भैया के बेटे की शादी हुई है. बहू स्तुति बड़ी प्यारी लड़की है. अपने व्यवहार और बोलचाल से घर में सब का मन लगाए रखती है. वह एक अच्छी प्राइवेट कंपनी में जौब कर रही है, शनिवार व इतवार उस की छुट्टी रहती है.
कल ही उस का फोन आया, ‘बूआ, इस बार शुक्रवार यानी फ्राइडे को आ जाओ. सोमवार की भी छुट्टी है तो पूरे 3 दिन सब को संग रहने को मिल रहे हैं.’ आ जाओ न, बूआ. साथ में, फूफाजी और दीदी व भैया भी आ जाएंगे, घर के सभी लोग इकट्ठे हो संगसंग रहेंगे व खूब सारी गपशप व मज़े करेंगे.
‘और हां, बुआ, आप इधरउधर आनेजाने का प्रोग्राम मत बनाना, कहीं किसी न किसी रिश्तेदार के यहां जाने के लिए तैयार मत होना. इस बार आप को कहीं किसी और के घर मिलने भी नहीं जाने देंगे. बस, हम सब एकसाथ रहेंगे, संगसाथ समय बिताएंगे.’
हंसते हुए मैं ने कहा, ‘ठीक है, बेटा. जैसा तुम्हारा हुक्म, आज्ञा का पालन किया जाएगा. हम आने की कोशिश करते हैं.’ पतिदेव और बच्चों से बात की तो वीकैंड पर छुट्टी की वजह से सभी जाने के लिए तैयार हो गए.
खैर, शुक्रवार की देर शाम तक हम घर पहुंचे. सभी से मिल बड़ा अच्छा लग रहा था.
भाभी पूछने लगीं, “दीदी चाय बनाऊं या खाना लगा दूं?”
मैं कुछ कहती, इस के पहले ही अर्जुन बोल पड़ा, “मां, खाना ही लगा लो. अभी तो बूआ के साथ बहुत बातें करनी हैं तब चाय पी लेंगे, क्यों बूआ, सही कहा?”
“बिलकुल सही.” और फिर हम दोनों ही हंस दिए.
खापी, देररात तक सब बैठे बतियाते रहे. नींद आने लगी तो अपने कमरों में सोने चले गए.
सुबह थोड़ी देर से आंख खुली क्योंकि कहीं बाहर आ कर घर की जिम्मेदारियों से मुक्त जो हो जाते हैं. नहाधो जब बाहर आई तो भाभी चाय का कप देते हुए बोलीं, “नाश्ते में तुम्हारी पसंद की आलू की सब्जी और कचौड़ी मंगवाई है, मन से खा लेना.”
सभी एकसाथ नाश्ता करने बैठे तो फिर गपों का दौर चल पड़ा. भैया की अपनी फैक्ट्री है तो 10 बजे तक घर से निकल जाते हैं परंतु आज तो आराम से सब के संग बातचीत कर रहे थे. भाभी ने कहा, “आज फैक्ट्री नहीं जाना है क्या? तो भैया हंस कर कहने लगे, चला जाऊंगा भई, घर से बाहर मत निकाल देना,” भैया का कहने का अंदाज ऐसा था कि सभी हंस दिए.
नाश्ते के थोड़ी देर बाद तक भी डाइनिंग टेबल पर ही बैठ बातें करते रहे, फिर अर्जुन और स्तुति की शादी का अलबम देखने में लग गए. दोनों की जोड़ी बड़ी प्यारी लग रही थी. ये दोनों घूमने कश्मीर गए थे तो वहां के भी फोटो देखने में समय मालूम ही नहीं पड़ा. स्तुति फिर चाय बना लाई तो उस का मजा लिया.
लंच पर भैया आ गए तो भाभी के हाथ का बना बढ़िया खाना खाया, खासतौर से उड़द की दाल और मीठे चावल बहुत अच्छे बने थे. भैया ने जबरदस्ती मेरी प्लेट में एकदो दफा मीठे चावल रखे यह कहते हुए कि “तुझे तो बचपन से बहुत पसंद हैं, अच्छे से खा.”
अर्जुन ने प्रोग्राम बनाया कि अभी थोड़ी देर से घूमने निकलते हैं. पहले कनौट प्लेस में घूमेंगे, फिर इंडिया गेट जाएंगे और वहीं कुछ समय बिताएंगे. बीच में ही अर्जुन की बात काटते हुए भैया कहने लगे, “थोड़ी देर के लिए दरियागंज भी जाएंगे, वहां की फलूदा कुल्फी भी तेरी बूआ को खिलानी है.”
“ठीक है, पापा. पहले कुल्फी बाद में कुछ और.”
अपना इतना ध्यान रखता देख मन बहुत भावुक हो गया था, लग रहा था कि हम वही बचपन वाले भाईबहन हैं जो जब भी बाजार जाते, कुल्फीफालूदा खाए बगैर वापस न आते थे.
खैर, खूब घूमेफिरे, खायापिया और साथ ही बचपन की यादों को ताजा किया.
अगले दिन इतवार था. भैया की भी छुट्टी थी तो प्रोग्राम बना कि नाश्ता करने के बाद दिल्ली से कोई 50 किलोमीटर दूर रिजौर्ट हैं, वहीं चला जाए. पूरा दिन रिजौर्ट में साथ रहेंगे, खाएंगेपिएंगे और वहीं जो भी खेलने की व्यवस्था होगी खेलेंगे, मस्ती करेंगे. बच्चे तो खेलकूद का सुनते ही खुश हो गए और घर से भी क्याक्या ले जा सकते हैं, सोचविचार होने लगा.
नियत समय घर से निकल जहां जाना था, आराम से पहुंच गए.
पहुंचते ही पहले लंच किया जो काफी स्वादिष्ठ था. रिजौर्ट रहने के लिए अच्छा बना हुआ था. रिजौर्ट के अंदर ही इंडोरगेम्स यानी खेलनेकूदने का भी इंतजाम था. बच्चे खेलने चले गए. भैया कहने लगे, “आओ हमारे कमरे में बैठ एकएक कप चाय हो जाए, फिर बच्चों संग एंजौय करेंगे.”
चाय पीतेपीते कितनी ही बचपन की बातें ताजा हो गईं जिन का विनय और भाभी भी सुन कर मजा ले रहे थे.
भैया मेरी तरफ देख कहने लगे, “बचपन में जब कभी यह मेरी कोई शिकायत मम्मी या पापा से करती थी तो मैं पिट्ठूफोड़ खेल खेलते हुए इस की पीठ पर जोर की गेंद मार अपना बदला ले लिया करता था. कई बार इस को स्कूटी पर घूमने जाने के बहाने बैठा कर स्पीडब्रेकर या गड्ढों पर जोर की उछाल दिया करता था, साथ ही, डराता भी रहता था कि अब मेरी किसी भी तरह की शिकायत की तो और भी तंग करूंगा.”
बीच में ही विनय कहने लगे, “फिर आप से डरने लगी होगी, अब से कुछ ऐसा ही मुझे भी करना होगा.” विनय कुछ ऐसे बोले कि उन के अंदाज पर कमरा हंसीठहाकों से गूंज उठा.
शाम हो आई थी. हम सभी बच्चों के पास चले आए. देखते ही बच्चे स्विमिंग पूल पर चलने को कहने लगे. अर्जुन कहने लगा, “हमारा स्विमिंग पूल में नहाने का मन हो रहा है, यदि आप बड़े नहाने का मजा नहीं लेना चाहते हैं तो कुछ देर वहीं बैठिएगा, अच्छा लगेगा.”
वहां जाते ही सारे बच्चे पानी में उतर गए. कुछ देर बाद न-न करने वाले भैया, फिर भाभी और फिर विनय भी पानी में तैरते हुए बच्चों की भांति छपछप करते नजर आए.
मुझे बारबार आने को कह रहे थे पर मैं ऊपर ही बैठी सब को देख आनंदित हो रही थी. तभी भैया और अर्जुन ने आंखों ही आंखों में क्या इशारा किया, पता नहीं, पर अचानक से अर्जुन ने पीछे से मुझे धीरे से धक्का दिया और भैया ने मुझे पकड़ पानी में उतार लिया. कुछ देर तक शायद डर की वजह से मैं चिल्लाती रही लेकिन बाकी सभी मेरी हालत देख हंसते रहे.
भैया कहने लगे, “पानी में मजा आ रहा है न, तुझे चिल्लाते देखने का ही तो मन था, ऐसे ही तो बचपन में भी मेरे तंग करने पर चिल्लाती रहती थी.”
भैया को ऐसा कहते देखा तो वही बचपन वाला भाई आंखों के सामने दिखा, वही भाई, वही बचपन की नोंकझोंक. खैर, पहले तो पानी में डर लग रहा था किंतु सब के साथ फिर बहुत अच्छा लगने लगा.
कुछ देर वहीं रहे. फिर सभी अपनेअपने कमरे में आ कर कपड़े बदल और खापी कर वापस कुछ न कुछ खेलने में व्यस्त हो गए. वहां लूडो और सांपसीढ़ी भी खेलने के लिए रखा हुआ था. मैं और विनय व भैयाभाभी हम चारों लूडो खेलने बैठ गए. भैया मेरे बराबर में बैठे थे.
जब भी मैं अपनी चाल चलती, तभी भैया बोलते, “देख, अब कैसे तेरी गोटी काट कर वापस जहां से शुरू की थी वहीं पहुंचाता हूं. तुझे जीतने नहीं दूंगा, पहले मैं ही गोटियां खत्म कर जीतूंगा.”
खेलतेखेलते मन काफी भावुक हो चला था. जो भाई जिम्मेदारियों की चादर के नीचे कहीं छिप गया था, आज उस के सामीप्य जा कर मालुम हुआ कि आंतरिक तौर पर कुछ नहीं बदलता है.
वह तो समय धीरेधीरे अपनी आगोश में लेते हुए व्यक्तित्व में बदलाव और अपने फर्ज को पूरा करने की गंभीरता सिखाता जाता है और हम मनुष्य कहीं दूर अपना प्यारा बेफिक्रीभरा बचपन छोड़ कब इस जिंदगी के तमाम कर्तव्यों व जिम्मेदारियों को निभाने में लीन या फंसते चले जाते हैं, खुद को ही नहीं मालूम हो पाता.
आज मेरा वही प्यारा बचपन का भाई मेरे सामने था और मैं वही उस की छोटी बहन. कुछ नहीं बदला था, सबकुछ वैसा ही था.
खैर, खेलने के बाद अब सभी को भूख लगने लगी थी. सो, डाइनिंग हौल में जा कर स्वादिष्ठ खाने का मजा लिया. फिर एकएक कप कौफी का ले कर कुछ देर गपें कर अपने कमरों में सोने चल दिए.
अगले दिन जल्दी नाश्ता कर वापस घर की ओर निकल लिए क्योंकि हमें तो देहरादून जाना था. दिल्ली पहुंच कर कुछ खापी और सामान ले कर उदास मन से जल्दी ही फिर मिलने का वादा कर एकदूसरे से विदा ली.
रास्तेभर एक अलग तरह की खुशी महसूस कर आंतरिक तौर पर मन बहुत खुश था, ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कोई कीमती वस्तु मिल कर वापस मेरे पास आ गई हो.
सच, आज यह बात सौ प्रतिशत सही साबित हो रही थी कि रिश्तों की डोर समय, साथ, लगाव, आत्मीयता, समर्पण, अनौपचारिकता की गांठ से ही बंधती है. अधिक मजबूती के लिए एकदूसरे को भलीभांति समझने व ज़रूरत पड़ने पर संग-साथ खड़े रहने की गांठ भी लगानी पड़ती है.
सब जानसमझ मन ही मन निश्चय कर लिया था कि अब भैया के संग बातें भी होंगी, साथसाथ रहने का समय भी जरूर निकालूंगी और कभीकभी वही बचपन वाली गुड़िया बन कर भी रहूंगी.
खुशी व सुकून की मुसकान के साथ पतिदेव और बच्चों पर नजर डाल अपनी राह पर चल दी.