अपने एक लेख में एक विदेशी अमेरिकी नागरिक मार्क मैनसन लिखता है कि जैसे ही आप का प्लेन दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरता है, एक हलकी नारंगी सी हवा आप को घेर लेती है. (यह नारंगी हवा भगवा सरकार की भगवा बातें कतई नहीं हैं. मार्क बात गंदी और बदबूदार हवा की कर रहा है. यह बात दूसरी कि वह नहीं जानता कि पिछले 40 वर्षों से यह हवा भगवा गैंग ने शहरों में ही नहीं, शहरियों के दिमागों में भी भर दी है).
मार्क मैनसन ‘अ डस्ट ओवर इंडिया’ शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में लिखता है, ‘‘प्लेन के नीचे शैंटी टाउन दिखते हैं जिन का ट्रैफिक बिखराव पूरे लैंडस्केप को भर देता है. पूरे माहौल में स्मौग, स्मोक, कैमिकल भरा पौल्यूशन, डस्ट इस तरह फैला रहता है कि आप कहीं जाओ, ये आप का पीछा नहीं छोड़ेंगे.’’ मार्क मैनसन आगे लिखता है कि उस ने 40 से ज्यादा देश देखे हैं, गलत वजह से भारत सब से गहरा असर छोड़ता है, सही वजह से नहीं.
जो भी विदेशी पर्यटक इस बारे में अगर कुछ और कहता है तो समझ उस की आंखों पर पट्टी बंधी हुई है. भारत विरोधाभासों का देश है. एक ही शहर की एक सड़क पर आप को उपलब्धियां दिख जाएंगी, मौन्यूमैंट्स दिख जाएंगे, भयंकर अवसाद पैदा करने वाली गरीबी दिख जाएगी, क्रूरता दिख जाएगी. आप कहीं चले जाओ, दिल्ली से कितनी ही दूर चले जाओ, यह गैस, यह बदबू आप को सवाल पूछने पर मजबूर कर देती है कि यहां के लोग असल में करते क्या हैं कि स्थिति इस कदर बेकाबू है.
एक और विदेशी पर्यटक जूरे स्नोज एक्स पर लिखती है कि इनक्रेडिबल इंडिया की इनक्रेडिबिलिटी केवल एक मामले में है, वह है इस के प्रदूषित शहर. वह बताती है कि उस ने मुंबई, हैदराबाद, मैसूर, कोयंबटूर, कर्नाटक के तटीय इलाके, पश्चिमी घाट, मैंगलोर, बेंगलुरु, भोपाल, खजुराहो, ओरछा, ?ांसी, ग्वालियर, आगरा, न्यू दिल्ली देखे. अभी शायद और बहुतकुछ देखने को है, वह मानती है और उस ने सब जगह एक चीज देखी- कूड़ा, कागज, फेंका हुआ खाना, कुत्ते, गाय और लोग, सब बिखरे, सड़ते.
वर्णव्यवस्था की देन गंदगी
पर्यटकों को आजकल अपनी बात कहने के अवसर मिलते हैं. वे इंटरनैट पर अपने अनुभव सांझा करते रहते हैं और इसीलिए डर्टी इंडिया के बारे में जानने के लिए इंटरनैट पर बहुत सा मैटर है और सब में एक ही बात है, भारत के शहर डर्टी नहीं, डिस्गस्टिंग हैं. साउथ इंडिया गंदा है तो नौर्थ इंडिया, सीधे शब्दों में, सड़ा हुआ.
शहरों की गंदगी वास्तव में हमारे चरित्र, संस्कार, धर्म, समाज, संस्थाओं, शासन की पोल खोलती है. यह बताती है कि विश्वगुरु, सब से प्राचीन धर्म, सब से प्राचीन ज्ञान, पौराणिक युग की गाथाएं कितनी कपोलकल्पित हैं. हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि सफाई का काम शूद्र भी नहीं, बल्कि अछूत करते हैं जिन्हें अब सम्माननीय शब्द शैड्यूल कास्ट के नाम से जाना जाता है.
शहरों को साफ करने के अफसर
चाहे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हों, यह पक्का है झाड़ू उठाने वाले और कूड़े के ट्रक ढोने वाले केवल और केवल एससी जमातों के मिलेंगे. उन्हें खुद गंद में रहने को मजबूर किया गया है. हिंदू राजाओं ने उन्हें गांवों से बाहर जानवरों की तरह रहने और गांव के भीतर की साफसफाई जबरन करने पर मजबूर किया.
जो लोग 50 वर्ष पहले तक घरों का मैला सिर पर रिसती टोकरी में ले जाने के आदी हों उन पर शहरों की सफाई का जिम्मा डाला जाएगा तो हाल यही होगा जो आप आगे पढ़ेंगे. आज भी सीवर ऐसे बन रहे हैं जो मानव मल के साथ पत्तियां, बोतलें, पत्थर, सीमेंट डाल दिए जाने पर ब्लौक हो जाते हैं और उन्हें खोलने या चालू करने के लिए गंदे पानी में ये लोग डुबकी लगाते हैं. उन के बलबूते शहर साफ रह ही नहीं सकते.
शहरों की गंदगी संस्कार का मामला है, संस्कृति का मामला है, धर्म का मामला है, प्रशासन का अकेला मामला नहीं है. वर्णव्यवस्था ने हमें गंदगी में रहने को मजबूर ही नहीं किया है, उस पर गर्व करने को प्रोत्साहन भी दिया है.
हमारे शहर कितने गंदे हैं, इस के लिए बात शुरू करते हैं मुंबई से, देश की कमर्शियल राजधानी, जहां अरबपतियों की लाइन लगी है. देश के नीतिनिर्धारक यहीं रहते हैं. वे यहां की गगनचुंबी इमारतों में रहते हैं और रौल्स रौयस गाडि़यों में चलते हैं. खरबों का खेल यहां के स्टौक एक्सचेंज में होता है.
दुनिया के सब से गंदे शहरों की लिस्ट में शामिल सपनों का शहर कहलाने वाला मुंबई शहर जहां एक तरफ अपनी ग्लैमर और फिल्मी दुनिया के लिए प्रसिद्ध है, वहीं एक सर्वे के अनुसार, 5 प्रमुख पर्यटन स्थलों में मुंबई सब से गंदे शहरों की लिस्ट में शामिल भी है.
मुंबई में रास्ते पर बेइंतहा गड्ढे हैं. उन्हीं गड्ढों में भरा गंदा पानी, कई सारे इलाकों की तंग गलियों में कचरे के ढेर, बीचबीच में झोपड़पट्टी वगैरह मुंबई के एक दूसरे पहलू को दर्शाते हैं जिस का नाम गरीबी है. गरीबी के चलते आम लोग ऐसी गंदगी में रहने को मजबूर हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है मायानगरी कहलाने वाली मुंबई नगरी में इतनी गंदगी की भरमार का जिम्मेदार कौन है- मुंबईवासी या महानगरपालिका?
मोदी सरकार को खुश करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वच्छता अभियान की मुहिम में नेता से ले कर अभिनेता तक हरकोई हिस्सा बना. इस के चलते कई अभिनेताओं ने मौजूदा सरकार को खुश करने के लिए शूटिंग स्थल और रास्तों पर झाड़ू तक लगाई.
इतना ही नहीं, मुंबई में स्वच्छता अभियान को और ज्यादा तूल देने के लिए प्लास्टिक की थैलियां तक बंद की गईं ताकि रास्ते में कचरा न हो.
महानगरपालिका ने नागरिकों पर कंट्रोल करने के लिए रास्ते पर थूकने और कचरा फेंकने पर दंड भी लगाया लेकिन मुंबईवासियों ने, हम नहीं सुधरेंगे बोल कर, अपना खुद का उलटा अभियान चला रखा है कि हर जगह थूकने के लिए है, कूड़ा फेंकने के लिए है जिस वजह से कई जगहों पर कचरों के ढेर दिखाई देते हैं.
मुंबईवासियों द्वारा सड़क पर कचरा फेंकना अगर उन का जन्मसिद्ध अधिकार है तो भी, मुंबईवासियों के अनुसार, कचरे के ढेर को उठाने की जिम्मेदारी महानगरपालिका की ही है पर न तो वह कचरा उठाने को ले कर पूरी तरह सक्रिय है और न ही रास्ते पर कचरों के डब्बे ठीक तरीके से लगाने में रुचि लेती है.
बीएमसी यानी ब्रहन्मुंबई म्यूनिसिपल कौर्पोरेशन ढंग से एक नाली भी साफ नहीं करवाती जिस की वजह से नालों में कचरा जमा होने की वजह से बारिश आने पर या वैसे भी नाले जाम हो जाते हैं और उन का गंदा पानी अकसर सड़कों पर आ जाता है.
यह पानी लोगों के घरों तक भी पहुंच जाता है. चारों तरफ कचरे से घिरी तंग गलियों में बनी झोपड़पट्टियों में भी वह पानी घुस जाता है जो बच्चे से बूढ़े तक को उक्त पानी में तैरने को मजबूर कर देता है. बावजूद इस के, सरकार गंदगी दूर करने या उस पर नियंत्रण करने के लिए कोई ठोस व्यवस्था नहीं करती. बस, हर साल सिर्फ आश्वासन ही दिया जाता है और दोष नागरिकों के सिर पर मढ़ दिया जाता है.
बारिश के मौसम में रास्तों पर इतना पानी भर जाता है कि चलना मुश्किल हो जाता है. ऐसे में कई जगहों पर गटर के ढक्कन न होने की वजह से लोग उस बिना ढक्कन के गटर में गिर कर मौत के घाट उतर जाते हैं. 2023 में एक डाक्टर बिना ढक्कन वाले गटर में गिर गया और वह कहां गया, किसी को पता ही नहीं चला. उस की लाश तक नहीं मिली.
धारावी चाल की गंदगी में जीते हजारों लोग
मुंबई में झुग्गी बस्ती धारावी पर कई फिल्में तक बनी हैं. यह एक ऐसी गंदी बस्ती है जहां गंदगी होने के साथ कई गैरकानूनी काम और अपराध भी अंजाम पाते हैं. धारावी पर केंद्रित कई फिल्में बनी भी हैं, जैसे ‘स्लम डौग मिलेनियर’, रजनीकांत की ‘काला’, रणवीर सिंह की ‘गली बौय’, ‘धारावी’ और ‘धारावी बैंक’. रितिक रोशन अभिनीत ‘अग्निपथ’ फिल्म की शूटिंग भी धारावी में हुई है.
मुंबई शहर के सब से गंदे स्टेशन
उतरते ही मुंबई में गंदे स्टेशनों के दर्शन होते हैं. उन के बाहर कचरे के ढेर देखने को मिलते हैं. कल्याण, कुर्ला और ठाणे जैसे स्टेशनों के बाहर फैले कचरे के ढेर की वजह से राहगीरों का चलना मुश्किल हो जाता है. मुंबई शहर में एक और जगह गंदगी के लिए प्रसिद्ध है जिस का नाम है बांद्रा की खाड़ी. बांद्रा की खाड़ी में मुंबई शहर का सारा कचरा जमा होता है. ऐसे में वहां से गुजरना भी मुश्किल और बदबूदार होता है. यहां तक कि लोकल ट्रेन से सफर करते समय जब बांद्रा की खाड़ी आती है, ट्रेन में मौजूद राहगीर अपनी नाक पर रूमाल रखने में जरा भी देरी नहीं करते.
सरकार की मुंबई स्वच्छ अभियान की मुहिम
राष्ट्रीय स्तर पर सफाई में पिछड़ने के बाद बीएमसी ने मुंबई को स्वच्छ रखने के लिए स्वच्छता अभियान की मुहिम शुरू की है. खबरों के अनुसार सड़कों, चौक और महत्त्वपूर्ण स्थानों पर 720 क्लीनअप मार्शल तैनात किए गए हैं जो सार्वजनिक जगह पर गंदगी फैलाने वालों पर 200 से 1,000 रुपए तक का दंड लगाएंगे, ताकि राहगीर गंदगी फैलाने से पहले दस बार सोचें.
मुंबई पर भी और शहरों की तरह मंदिरों ने गंदगी फैलाने में पूरा असर डाला है. हर मंदिर के आसपास गंदगी का आलम रहता है. गणपति जैसे त्योहारों में लगे झंडे, फूलतोरण, पोस्टर और जुलूस के रास्ते में लोगों का जमा पेशाब-मल (पब्लिक टौयलेट कहां है?) आदि कोई निर्माण नहीं बल्कि स्थिति का नाश करते हैं.
इस से यही निष्कर्ष निकलता है कि मुंबई की खराब व्यवस्था के जिम्मेदार मुंबईवासी और बीएमसी दोनों ही हैं. जब तक ये दोनों अपनी जिम्मेदारी नहीं महसूस करेंगे तब तक मुंबई शहर स्वच्छ और सुंदर नहीं हो पाएगा. शिवसेना, जो म्यूनिसिपल कौर्पोरेशन पर वर्षों से राज कर रही है, अयोध्या जा कर बाबरी मसजिद गिरा सकती है लेकिन अपनी सरकार होने के बावजूद मुंबई शहर को दर्शनीय नहीं बना सकती क्योंकि यह ‘पुण्य’ का काम नहीं है.
मानसून की बारिश के बाद देश के महानगर, शहर और कसबे बदहाल हैं, शहरों की कुव्यवस्था की एक तरह से पोल खुल रही है. यातायात जाम, सड़कों, गलियों और घरों, दुकानों, स्कूलों और विधानसभाओं तक यानी हर जगह पानी ही पानी. सीवर जाम, नालियां ठप हैं.
स्कूलों की छुट्टी कर दी जाती है, औफिस, व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद रखने पड़ते हैं. सड़कें, पुल, मकान ढह रहे हैं. अनेक मौतें हो रही हैं.
कमोबेश हर शहर का यही हाल है. शासन-प्रशासन पंगु दिखाई देते हैं. शहर सड़ रहे हैं, हमें न शहर बनाने आते हैं और न ही उन्हें संभालना. शासन, प्रशासन शहरों का प्रबंधन कर पाने में नाकाम साबित हो रहे हैं.
मुंबई ऐसे ही गंदा नहीं है. मुंबई की गंदगी में सैकड़ों अपने हाथ साफ करते हैं, धोते हैं. वे ऊंचे अपार्टमैंटों में रहते हैं. 2024-25 में मुंबई पर 59,954 करोड़ रुपए खर्च होंगे. ये रुपए मुंबई के सिर्फ मेयर, उन की चुनी हुई टीम नहीं खर्चेगी, इस में अफसरों से ज्यादा कौंट्रैक्टरों का योगदान होगा जो बीएमसी से अरबों लेंगे और पूछेगा कोई नहीं.
1,400 करोड़ रुपयों का टैंडर तो इस बात के लिए दिया गया है कि घरों से कूड़ा उठाया जाए. यह कौंट्रैक्टर हर घर से भी वसूलेगा, यह भी पक्का है. कहने को यह कौंट्रैक्टर नालियां साफ करेगा, सड़कों पर झाड़ू लगाएगा.
स्लम एरिया से कूड़े के निबटान के लिए 350 करोड़ रुपए दिए जाएंगे. एक एक्टिविस्ट अनिल गलापनी का कहना है कि एक ठेकेदार पर निर्भर रहना गलत होगा. उस की बात सही है. 1,800 करोड़ रुपए लूटने के लिए कौंट्रैक्टरों ने जम कर टैंडर तो भरे पर पता चला कि सब के सब खुद धब्बेदार थे, सब पर बेईमानियों के आरोप थे. मुंबई शहर की आफत सिर्फ उस के नागरिक या उस की जनसंख्या नहीं, उन की गंदी आदतें भी नहीं हैं बल्कि इस की वजह सिर्फ और सिर्फ नौकरशाही, नेताशाही हैं.
पर्यटन के लिए मशहूर शहर जयपुर का भी यही हाल है
जयपुर में ड्रेनेज सिस्टम पूरी तरह खराब है. जयपुर में परकोटे के भीतर की अनेक कालोनियों में पहले घरों की दहलीज ऊंची होती थी और सड़कें नीचे लेकिन इन वर्षों में सड़कें ऊपर हो गईं और घर नीचे चले गए. लिहाजा, सड़कों का पानी घरों में घुस जाता है. लोग ऊपर की मंजिल पर चले जाते हैं और पंप मंगवा कर पानी निकालना पड़ता है. परकोटे के अंदर की सभी सड़कें, कालोनियां गणगौरी बाजार, ब्रह्मपुरी, सुभाष चौक, जोरावर सिंह गेट, कंवर नगर, चांदी की टकसाल आदि में पानी भर गया.
यहां चौमूं पुलिया से ले कर हरमाड़ा तक करीब 8-10 किलोमीटर तक की सड़क पर इतना पानी भर जाता है कि नाव तैरा दी जाए. शहर की उत्तरी आबादी की दर्जनों कालोनियों को जोड़ने वाली यह मुख्य सड़क है. यही नहीं, शहर के बाहर बनी नई कालोनियों का भी बहुत बुरा हाल है. अजमेर रोड स्थित कमला नेहरू नगर, वैशाली नगर, मानसरोवर, विवेक विहार, महेश नगर, मालवीय नगर, तिलक नगर, मुरलीपुरा, सिरसी रोड, झाटवाड़ा, निवारू रोड के आसपास की कालोनियों, जो पिछले 15-20 सालों में विकसित हुई हैं, की हालत भी बारिश होते ही बदतर दिखती है. घरों, दुकानों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों को लाखोंकरोड़ों का नुकसान उठाना पड़ता है.
असल में शहर की स्थानीय व्यवस्था को सुचारु रूप से संचालित करने के उद्देश्य से सरकार ने कुछ समय पहले जयपुर को 2 भागों हैरिटेज सिटी और ग्रेटर जयपुर में बांट दिया था.
शहर की नई बसावट का जिम्मा जयपुर विकास प्राधिकरण के अलावा प्राइवेट बिल्डरों के हाथों सौंप दिया गया था. सरकार की नाकामी के चलते बिल्डरों, बेईमान, निक्कमों, करप्ट, नौकरशाहों और राजनीतिबाजों के गठजोड़ ने यह काम हथिया लिया. आधे लोग तो नारे लगाने और शहर को भगवा रंग में पोतने में लगे रहते हैं.
शहर बसाने की जिम्मेदार संस्थाओं के पास नगर नियोजन का कोई सुव्यवस्थित, वैज्ञानिक तरीका नहीं है. न ही इन के पास शहरों को बसाने का ज्ञान है. अराजक, अव्यवस्थित, अवैध बस्तियों, कालोनियों का जाल बिछता जा रहा है. प्राइवेट बिल्डर बिना प्लानिंग के अवैध कालोनियां बसाने में लगे हैं.
अव्यवस्थित माहौल
जयपुर के इतिहास के अनुसार यह देश का पहला योजनाबद्ध तरीके से बसाया गया शहर था. राजा जयसिंह ने जयपुर को 9 आवासीय खंडों में बसाया था. शहर इस तरह नियोजित था कि नागरिकों को मूलभूत आवश्यकताओं के साथ अन्य किसी प्रकार की दिक्कत न हो. सुचारु पेयजल व्यवस्था, बागबगीचे, कलकारखाने आदि के साथ वर्षा के पानी का संग्रह और निकास का सुव्यवस्थित प्रबंध कराया गया. लेकिन आज हालात बदतर दिखाई देते हैं.
पिछले दिनों यहां विधानसभा के चुनाव होते ही हवामहल क्षेत्र से विधायक बालमुकुंदाचार्य चौपड़ के बाजार में अपने समर्थकों के साथ आ गए और अधिकारियों को सख्त हिदायत दी कि परकोटे के भीतर अव्यवस्थित, अवैध रेहडि़यां, थडि़यां हटाई जाएं. खासतौर से विधायक खुले में बिकने वाले मीटमांस की दुकानों को हटाना चाहते थे.
आबादी में ये दुकानें इसलिए खुल गईं क्योंकि हम ने शहर, कालोनियां बसाते वक्त इस बात का ध्यान ही नहीं रखा कि कालोनियों, महल्लावासियों के खानेपीने की छोटीमोटी दुकानें बना दें. शहरों के नियोजन के लिए सरकार ने कानून भी बनाए हैं लेकिन न तो ये कानून कारगर हैं और न ही शहर बनाने वाले किन्हीं नियमों का पालन करते हैं.
दिल्ली दिल वालों की नहीं, दिल दहलाने वालों की
देश का दिल दिल्ली शहर मुख्यतया 2 हिस्सों में है- नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली. इस के दूसरे हिस्से यानी पुरानी दिल्ली का हाल भी बेहाल है.
देश की राजधानी दिल्ली आम आदमी पार्टी की भारी बहुमत से चुनी राज्य सरकार, म्यूनिसिपल कौर्पोरेशन और भारतीय जनता पार्टी के कठपुतले उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना के पेंच में फंसी है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सिर्फ बयानों के आधार पर नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने जेल में बंद कर रखा है.
कौर्पोरेशन की सुध लेने वाला आज कोई नहीं है. पहले कांग्रेसी जमाने में कुछ अच्छा था, यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि कौर्पोरेशन का हर अफसर और चुना हुआ हर पार्षद हर शहर की तरह, शहर की गंदगी की नहीं, अपनी जेब की चिंता करता है. दिल्ली सरकार का बजट 71 हजार करोड़ रुपए है और कौर्पोरेशन का 8 हजार करोड़ रुपए. दिल्ली को साफ करना नहीं, बजट को साफ करना नेताओं और अफसरों का पहला ‘कर्तव्य’ है. इसे हर शहर के नेता और अफसर इस देश में बखूबी निभाते हैं.
दिल्ली भारत का शायद वह एकलौता शहर है जो पूरी तरह आधुनिक होने के बावजूद अपने इतिहास की डोर से जुड़ा हुआ है, जिस की झलक आज भी दिल्ली के लजीज खानपान और ऐतिहासिक इमारतों में नजर आती है. जब भी दिल्ली के इतिहास की बात होती है तो ज्यादातर लोगों को केवल मुगलकाल याद आता है.
मुगलों की कई पीढि़यां दिल्ली के सिंहासन पर बैठीं और उन्होंने दिल्ली में बेहतरीन निर्माण कार्य करवाए. मुगलकाल में बनी शानदार इमारतें और खूबसूरत बाग आज भी दिल्ली की पहचान हैं. हालांकि मुगलों के अलावा भी कई मुसलिम और हिंदू शासक दिल्ली की गद्दी पर बैठे.
11वीं शताब्दी आने तक दिल्ली की समृद्धि को देखते हुए दिल्ली पर बाहरी आक्रमण होने लगे जिस के फलस्वरुप मोहम्मद गौरी ने दिल्ली पर अपनी सत्ता स्थापित की और मरने से पहले कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली सौंप दी. इस के बाद दिल्ली पर बाहरी मुसलिम शासकों का ही राज रहा. 16वीं शताब्दी में बाबर ने भारत पर आक्रमण किया और मुगल साम्राज्य की स्थापना की.
आखिरी मुगल सुल्तान बहादुर शाह जफर के बाद वर्ष 1857 से हुकूमत ब्रिटिश शासन के हाथ आ गई. 1857 में कलकत्ता को ब्रिटिश भारत की राजधानी घोषित किया गया लेकिन 1911 में दिल्ली को ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाया गया. इस के बाद नई दिल्ली क्षेत्र भी बना, जिस में वायसराय हाउस, नौर्थ ब्लौक, साउथ ब्लौक, पार्लियामैंट और कनाट प्लेस आदि बने. उस समय और आज भी कनाट प्लेस खरीदारी का प्रमुख केंद्र है.
गंदगी का ढेर दिल्ली
1947 में भारत की आजादी के बाद दिल्ली को आधिकारिक रूप में भारत की राजधानी घोषित कर दिया गया. 1,483 वर्ग किलोमीटर में फैली दिल्ली जनसंख्या की दृष्टि से भारत का दूसरा सब से बड़ा महानगर है जिस में करीब 2 करोड़ लोग निवास करते हैं.
दिल्ली ने वैभव भी देखा है और आपदाएं भी देखी हैं. दिल्ली कई बार उजड़ी और कई बार बसी है. मुगलकाल और ब्रिटिशकाल में दिल्ली बहुत खूबसूरत और साफसुथरी रही है. शाही इमारतें, मकबरे, ?ारने और बागान दिल्ली की शान की कहानी कहते थे. साफसुथरी सड़कें थीं और सड़कों पर वाहन कम थे. लिहाजा, प्रदूषण कम था और सीवर सिस्टम भी बेहतर था. बरसात में कभी सड़कें पानी से लबालब नहीं होती थीं, जैसी कि आज जरा सी बारिश में हो जाती हैं.
मौजूदा समय में भी दिल्ली में 350 से अधिक गांव हैं. इन सभी गांवों का अपना समृद्ध इतिहास और सरस-संस्कृति है. समय की रफ्तार के साथ यहां पर आधुनिकता का तड़का लगा और जिस के बाद गांव का मिजाज अब शहरों की तरह हो गया है.
अब भी कुछ जगहों को गांवों के नामों से ही जाना जाता है. मगर इन गांवों में चूंकि सीवर सिस्टम नहीं था और कच्चे मकान बेतरतीब ढंग से बने हुए थे, लिहाजा इन गांवों का शहरीकरण होने के बाद भी यहां ड्रेनेज सिस्टम ठीक से नहीं बन पाया और बेतरतीब कच्चे मकान जब पक्के बहुमंजिला मकानों व इमारतों में तबदील किए गए तो सीधी सड़कें, नालियां, गटर आदि का खयाल नहीं रखा गया.
जिस ने जहां जैसा मन हुआ बिना नक्शा पास कराए अपना मकान खड़ा कर लिया. नतीजा यह हुआ कि अब ये इलाके दमघोंटू गंदगी और जलभराव के शिकार हैं. सड़कें ऊबड़खाबड़ हैं. संकरी गालियां कूड़े के ढेर से पटी रहती हैं. दिल्ली का सब से बड़ा दाग हैं स्लम और कूड़े के वे पहाड़ जो निरंतर आसमान छू रहे हैं.
दिल्ली की जनसंख्या 1971 की 40 लाख से बढ़ कर आज लगभग 2 करोड़ से अधिक पहुंच गई है, जिस से यह दुनिया का दूसरा सब से अधिक आबादी वाला और सब से गंदे शहरों में शामिल शहर बन गया है. दिल्ली को पेरिस बनाने का दावा करने वाली केजरीवाल सरकार राजधानी के लोगों को आम सुविधाएं देने में असफल साबित हो रही है.
सीवर व्यवस्था बदहाल
दिल्ली का शायद ही कोई ऐसा इलाका बचा हो जहां के लोग सीवर जाम और सीवर ओवरफ्लो की समस्या से न जूझ रहे हों. समस्याओं के समाधान की बात हो तो सिर्फ दिखावा और लीपापोती होती है. जनता को स्थायी समाधान नहीं मिलता.
दिल्ली में सीवरेज निस्तारण की उचित व्यवस्था न होना जहां परेशानी का सबब है वहीं यमुना को प्रदूषित करने का भी प्रमुख कारण यही है.
यह भी अफसोसनाक है कि दिल्ली में 22 स्थानों पर स्थित कुल 37 सीवरेज शोधन संयंत्रों में से मात्र 18 चालू हालत में हैं और उन में से भी सिर्फ 3 ही अपनी पूरी क्षमता से काम कर रहे हैं. यही नहीं, सूबे में 7,200 किलोमीटर लंबे सीवरेज नैटवर्क में से अब तक 100 किलोमीटर तक को ही दुरुस्त करने या गाद हटाने का काम किया जा सका है. काम की सुस्त रफ्तार दर्शाती है कि सीवरेज सिस्टम को दुरुस्त करने को ले कर अब तक गंभीरता नहीं दिखाई गई है.
दशकों पुराना ड्रेनेज सिस्टम इतना बदहाल हो चुका है कि अब वह राजधानी की सवा 2 करोड़ से ज्यादा आबादी के जलमल का भार सहने की क्षमता खो चुका है. फिर भी दिल्ली उसी 48 वर्षों पुराने ड्रेनेज सिस्टम पर आश्रित है.
दिल्ली में जलनिकासी के लिए 4 फुट से ऊपर के 713 नाले हैं जबकि 4 फुट से कम के 21 नाले हैं. इन की सफाई 2 चरणों में होती है. सफाई का पहला चरण मानसून से पहले शुरू होता है, जिस में इन नालों को पूरी तरह से साफ किया जाता है. सफाई का दूसरा चरण तब शुरू होता है जब मानसून का सीजन खत्म होता है.
यमुना के फ्लड एरिया की चौड़ाई हुई कम
20-22 साल पहले तक यमुना जितना बरसाती पानी कैरी कर सकती थी, उतना अब नहीं कर सकती है. ऐसा इसलिए कि यमुना के फ्लड प्लेन एरिया में कई रेलवे ब्रिज और फ्लाईओवर बन गए हैं. ऐसे कुल 22 पुल और फ्लाईओवर बने हैं जिन से फ्लड प्लेन एरिया की चौड़ाई कम हो गई है. पहले यमुना फ्लड प्लेन एरिया 2 से 2.5 किलोमीटर तक था. अब कई जगहों पर फ्लड प्लेन एरिया 800 मीटर तक ही बचा है.
वजीराबाद से ओखला बैराज तक यमुना फ्लड प्लेन एरिया 9,700 हेक्टेयर था. 22 किलोमीटर तक फ्लड प्लेन एरिया में से डीडीए के पास सिर्फ 3,638 हेक्टेयर ही रह गया है. इस में से भी 1,000 हेक्टेयर फ्लड प्लेन एरिया में स्थायी स्ट्रक्चर बन गए हैं जिन में अक्षरधाम मंदिर 100 हेक्टेयर, खेलगांव 63.5 हेक्टेयर, यमुना बैंक मैट्रो स्टेशन डिपो 40 हेक्टेयर, शास्त्रीपार्क डिपो 70 हेक्टेयर में बने हैं.
आईटी पार्क, दिल्ली सचिवालय, मजनू का टीला और अबू फजल एनक्लेव यमुना फ्लड प्लेन एरिया में ही हैं. इस से यमुना की चौड़ाई कम हो गई है और पहले जितना बरसाती पानी यमुना में जा सकता था, अब उतना नहीं जा सकता. इसलिए पिछली बार जब यमुना में अधिक पानी आया तो वह बैकफ्लो होने लगा और आईटीओ, विकास मार्ग, राजघाट व रिंग रोड पर कई दिनों तक नालों से पानी बैकफ्लो होता रहा. बरसाती पानी यमुना तक ले जाने के लिए पहले 201 नैचुरल ड्रेन थे जिन में से 50 गायब हो चुके हैं. नालों के गायब होने से भी दिल्ली में जलभराव की समस्या गंभीर हो रही है.
बेसमैंट में पानी भरने से 3 स्टूडैंट्स की मौत
राष्ट्रीय राजधानी के पौश इलाके ओल्ड राजेंद्र नगर में अगस्त 2024 में बेहद दर्दनाक घटना घटी. एक नामी आईएएस कोचिंग सैंटर के बेसमैंट में अचानक नाले का गंदा पानी घुसने से 3 स्टूडैंट्स की उस में डूब कर मौत हो गई, मृतकों में 2 छात्राएं और एक छात्र था. जिस समय कोचिंग सैंटर के बेसमैंट में पानी घुसा वहां करीब 35 छात्रछात्राएं मौजूद थे. बेसमैंट में लाइब्रेरी बनी थी तो वे वहीं पढ़ाई कर रहे थे. जिस जगह बेसमैंट में यह लाइब्रेरी बनी थी वहां आनेजाने का सीढि़यों के जरिए एक ही रास्ता था. दिल्ली में हुई इस दर्दनाक घटना पर छात्र कहते हैं कि हर साल बारिश में उन्हें सड़क पर घुटनेभर पानी से हो कर कोचिंग जाना पड़ता है.
कचरे के बोझ में दबी दिल्ली
दिल्ली में 3 जगहों पर कूड़े के पहाड़ हैं, जिन्हें लैंडफिल साइट कहा जाता है- गाजीपुर, ओखला, भलस्वा. इन लैंडफिल साइटों पर शहरभर का कूड़ाकचरा इकट्ठा किया जाता है. इन की ऊंचाई कुतुबमीनार के बराबर पहुंच चुकी है. इन पहाड़ों पर कई बार आग लगती है और इस से राजनीति भी गरम हो जाती है.
इन पहाड़ों से निकलने वाली जहरीली गैस से आसपास के इलाके प्रदूषित हो जाते हैं. अब तो ये कूड़े के पहाड़ दर्शनीय स्थान बनने लायक हैं और नए संसद भवन, इंडिया गेट की जगह लोगों को आधुनिक भारत के नायाब नमूने गाजीपुर और भलस्वा के पहाड़ कूड़े के, देखने आना चाहिए. यह दिल्ली की ‘महान उपलब्धि’ है.
दिल्ली की 1,400 किलोमीटर लंबी मुख्य सड़कों की सफाई आज भी हाथ में ?ाड़ू लिए कर्मी करते हैं. ये अब अपने साथ एक पहिए वाली सफाई करने की मशीन भी नहीं रखते क्योंकि कौर्पोरेशन उन की मरम्मत नहीं कर पाता था. मशीनें सिर्फ 70 हैं जिन में से भारी बदबू आती है और कितनी मरम्मत के लिए खड़ी रहती हैं, पता नहीं. सैकड़ों पुरजे वाली इन मैकेनिकल स्वीपर्स को मेंटेन करना मुश्किल काम है. 70-75 लाख की एक मैकेनिकल स्वीपर एक छोटे से पुरजे के खराब होने पर खड़ी हो जाती है तो उस की देखरेख वाला कोई नहीं होता. खरीद में भारी बेईमानी की जाती है.
दिल्ली की हालत दूसरे शहरों से अलग नहीं है. कच्ची गलियां, खराब सड़कें, टूटे ओवरब्रिज, रैड लाइटों के अभाव या खराब होना, मैले मकान, सड़े स्कूल और सरकारी व निजी भवन शहर को दूसरे शहरों की तरह गंदा कर रहे हैं.
74वें संविधान संशोधन के अनुसार, मैट्रोपोलिटन सिटी में मैट्रोपोलिटन प्लानिंग कमेटी के गठन की व्यवस्था की गई है जो स्थानीय निकायों द्वारा तैयार योजनाओं को मैट्रोपोलिटन क्षेत्र में एकीकृत करेगी. मैट्रोपोलिटन शहर 10 लाख से अधिक आबादी वाले कहलाते हैं. 3 लाख से ऊपर वाले शहरों के लिए वार्ड कमेटी के गठन की व्यवस्था की बात कही गई है जो नगरपालिका संबंधी कार्यों को देखेगी.
सरकार की नीति-अनीति
भारत के पहले नैशनल कमीशन औन अर्बनाइजेशन ने 1988 में शहरी नीति पर एक रिपोर्ट सौंपी थी. उस के बाद 1992 में 72वां एवं 73वां संशोधन लाए गए जिन्हें पंचायती राज एक्ट एवं नगर पालिका एक्ट के नामों से जाना जाता है. इन का उद्देश्य आर्थिक एवं स्थानीय नियोजन द्वारा ग्रामीण एवं शहरों का विकास करना था. लेकिन भूमि राज्यों का विषय होने के कारण कुछ ही राज्यों ने इसे अपनाया. इस से इस कानून के क्रियान्वयन में ढिलाई आ गई.
2015 में केंद्र सरकार ने स्मार्ट सिटी योजना शुरू की थी, जिस का उद्देश्य 5 वर्षों में 100 शहरों की स्थिति में सुधार लाना था. इसी वर्ष आधुनिक व्यवस्था के साथ अधिक से अधिक शहरों के विकास के लिए अमृत योजना यानी अटल मिशन फौर रेजुवेनेशन एंड अर्बन ट्रांसफौर्मेशन लाई गई. उस के बावजूद समस्या से नजात नहीं मिल पाई.
प्राचीन काल में लोग शहरों, कसबों को हम से अधिक अच्छे से बसाना और सुव्यवस्थित रखना जानते थे. उन का नगर नियोजन वैज्ञानिक, सुव्यवस्थित, सुंदर होते थे. सिंधु घाटी सभ्यता के शहरों के नियोजन की खासीयत यह थी कि इस की सीधी रेखाएं और नियमितता थी जो स्थिरता और व्यवस्था की प्रतीक थी. तब शहर का एक व्यवस्थित मजबूत लेआउट होता था.
गुजरात का अधिकांश हिस्सा दक्षिण की ओर भावनगर के पास लोथल से ले कर उत्तर की ओर कच्छ के रण के पास धोलावीरा तक सिंधु घाटी सभ्यता क्षेत्र का हिस्सा रहा है. यहां उस युग की बस्तियां मौजूद थीं. उन बस्तियों की योजना ज्यादातर ग्रिडिरोन पैटर्न पर बनाई गई थी और उन में सीवरेज सिस्टम, स्टौर्म वाटर ड्रेनेज सिस्टम और जल वितरण प्रणाली जैसी बुनियादी संरचनाएं थीं.
देश पर 5वीं शताब्दी से ले कर 19वीं शताब्दी तक की अवधि के दौरान कई साम्राज्यों और राजवंशों ने शासन किया. उन में सोलंकी राजवंश और मुगल काल प्रमुख थे. उन के काल में हालांकि शहर की योजना में आक्रमणकारियों के हमलों से नागरिकों की रक्षा के लिए रक्षात्मक योजना का दृष्टिकोण था लेकिन इस ने लोगों के विभिन्न वर्गों और उन की गतिविधियों को मान्यता दी, जो नियोजन और क्षेत्र विकास में बुनियादी कारक थे. इसे विभिन्न क्षेत्रों के रूप में कहा जा सकता है, जो बस्ती की सभी दिशाओं से सीधी पहुंच वाले उपयुक्त स्थानों पर स्थित थे. प्रमुख प्रशासनिक क्षेत्रों के साथसाथ व्यापारिक क्षेत्रों को इस तरह से स्थित किया गया था कि वे शहर के साथसाथ भीतरी इलाकों की जरूरतों को पूरा कर सकें.
नगर नियोजन का उद्देश्य
तेजी से बढ़ते शहरीकरण के इस दौर में शहरी क्षेत्रों में बड़ी संख्या में समस्याओं के साथ भविष्य के शहरी विकास के लिए योजना बनाना बहुत जरूरी है. नगर नियोजन की शुरुआत मानव बस्तियों की उत्पत्ति के साथ हुई. पूरी दुनिया में मानव बस्तियां नदी के किनारे या नदी के आसपास स्थित थीं. वे बस्तियां वाणिज्य, व्यापार, उद्योग, सामाजिक संबंध और प्रशासन से जुड़ी थीं, जिन्होंने बदले में नगर नियोजन के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. मानव बस्तियों का विकास बेहतर जीवनस्तर की दिशा में पहला कदम था. ये शुरुआती मानव बस्तियां अब आज के कसबों और शहरों में तबदील हो गई हैं.
नगर नियोजन का मुख्य उद्देश्य जनता को बेहतर जीवनस्तर प्रदान करना है. 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में तकनीकी विकास हुआ, जिस के कारण ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन हुआ. उद्योगों में वृद्धि के साथ ही ?ाग्गी?ांपडि़यों का भी जन्म हुआ.
शहरीकरण और उस से जुड़ी आर्थिक गतिविधियों के तेजी से बढ़ने के कारण शहरी भूमि की कमी हो गई, जिस से विकास परिदृश्य प्रभावित हुआ और साथ ही, लोगों के जीवनस्तर में भी गिरावट आई. इसलिए, अव्यवस्थित और अनियोजित विकास को नियंत्रित करने, नियोजित विकास को प्रोत्साहित करने और स्वस्थ पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए नगर नियोजन की अवधारणा विकसित की गई.
1884 में बंबई, बंगलौर और मद्रास के लिए स्वच्छता आयोग की स्थापना की गई. सार्वजनिक स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए दिशानिर्देश प्रदान करने के लिए एक आयोग की स्थापना की गई थी.
1898 में बंबई राज्य में सुधार ट्रस्ट की स्थापना की गई. इसे बौम्बे इम्प्रूवमैंट ट्रस्ट के नाम से जाना जाता था. इस ट्रस्ट का गठन संवैधानिक प्रावधान के तहत वित्तीय रूप से लाभदायक योजनाओं को लागू करने के लिए किया गया था. ट्रस्ट ने नए क्षेत्रों के विकास को बढ़ावा दिया, लेकिन पुराने क्षेत्र के सुधार की उपेक्षा की. इसलिए सार्वजनिक स्वास्थ्य और सुरक्षा का मुख्य उद्देश्य पूरा नहीं हुआ.
1915 में बौम्बे राज्य में बौम्बे टाउन प्लानिंग एक्ट लागू किया गया. इस एक्ट के तहत कई टाउन प्लानिंग योजनाएं तैयार की गईं और उन्हें लागू किया गया. बौम्बे, पुणे और अहमदाबाद को टाउन प्लानिंग योजनाओं के जरिए विकसित किया गया. इसी तरह गुजरात नगर नियोजन और शहरी विकास अधिनियम 1976 को अधिनियमित किया गया.
शहरी आबादी में हर साल 3 से 4 फीसदी की दर से वृद्धि होती है. इसलिए भविष्य की आबादी को उचित रूप से समायोजित, आवास के लिए प्रावधान करने, परिवहन और श्रमिकों की आवश्यकता को पूरा करने और औद्योगिक विकास को सही दिशा में पूरा करने के लिए योजना बनाना बहुत जरूरी है.
सरकारी कानूनों और अनगिनत योजनाओं के बावजूद भारत के शहर सड़ रहे हैं, जनता बेबस है. सरकारें विकास के थोथे दावे कर रही हैं.
भोपाल का हाल बुरा दूसरे मुख्य शहरों में जो कभी साफसफाई के लिए जाने जाते थे, उन में से भोपाल एक है.
भोपाल के बारे में एक दिलचस्प वाकेआ अब से कोई 7 वर्षों पहले का है, जब शिवराज सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. 25 अक्तूबर, 2017 को वे अमेरिकी यात्रा पर थे. वाशिंगटन डीसी में रसेल सीनेट हौल में पंडित दीनदयाल उपाध्याय फोरम के शुरू होने पर अपने भाषण में शिवराज सिंह ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था कि अगर किसी राज्य को आगे बढ़ाना है तो बुनियादी ढांचे के बिना वह आगे नहीं बढ़ सकता. इस के लिए हम ने सड़कें बनवाईं. सड़कें भी ऐसी कि जब मैं यहां वाशिंगटन में एयरपोर्ट पर उतरा और सड़कों पर चल कर आया तो मुझे लगा कि मध्य प्रदेश की सड़कें यूएस से बेहतर हैं.
इधर मध्य प्रदेश में लोगों ने यह सुना तो हरकोई भौचक रह गया. नेता अकसर ?ाठ बोलते हैं, यह अंदाजा तो सभी को था लेकिन शिवराज सिंह इतने बड़े ?ाठेले हो चुके हैं, इस की उम्मीद किसी को न थी. जल्द ही लोगों ने उन का मखौल उड़ाना शुरू कर दिया. सोशल मीडिया पर तो टूटीफूटी खराब, खस्ताहाल और गड्ढेदार सड़कों के फोटो यूजर्स ने जम कर शेयर किए कि देखो, हमारी सड़कें यूएस से बेहतर हैं.
भोपाल के कोलार रोड के एक दुकानदार इकबाल ने तब कहा था कि मध्य प्रदेश की सड़कें और अमेरिका से बेहतर… क्या मजाक कर रहे हो. क्या यहां गड्ढों को आप देख नहीं सकते. मेरी दुकान के ठीक बाहर ही गड्ढे में 2 दर्जन लोग गिर चुके हैं. क्या शिवराज सिंह को यह नहीं दिखता? तब केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में थे, उन्होंने तंज कसते हुए ट्वीट किया था, ‘‘कृपा कर के कोई उन की आंखें खोलने में मदद करे. श्रीमान चौहान, अपनी आंखें खोलिए और हकीकत देखिए.’’
हाल वाकई बुरे और चिंतनीय हैं. भोपाल की सड़कें और सीवरेज सिस्टम दोनों फेल हैं. बरसात के दिनों में पानी नदी सरीखा बहता है और आएदिन के जाम किसी सुबूत के मुहताज नहीं. जुलाई के महीने में जब बारिश ढंग से शुरू ही हुई थी तब 11 तारीख को पुराने भोपाल में भोपाल लौज के नजदीक ड्यूटी पर जा रहा एक सिपाही अपनी बाइक सहित गड्ढे में जा गिरा था. मजेदार बात तो यह है कि 10 जुलाई को ही भोपाल की महापौर मालती राय ने इस इलाके का निरीक्षण किया था लेकिन उन्हें ये गड्ढे नजर नहीं आए थे.
शहर के सब से बड़े कारोबारी इलाके एमपी नगर और सब से व्यस्ततम बाजार न्यू मार्केट की सड़कें जरा सी बारिश से लबालब हो जाती हैं. होशंगाबाद रोड पर भी नजारा तालाब सरीखा नजर आता है. पौश इलाकों शाहपुरा, गुलमोहर और शिवाजी नगर की सड़कों पर तो चलना मुहाल हो जाता है.
नगरनिगम जिम्मेदार
हकीकत में नगरनिगम ज्यादा जिम्मेदार है जो हर साल सीवेज पर करोड़ों रुपए खर्चता है लेकिन सालदरसाल पानी का भराव उस के दावों को खोखला साबित कर देता है. 289 किलोमीटर में फैले भोपाल की आबादी 25 लाख का आंकड़ा छू रही है. लेकिन यह आंकड़ा देख हैरानी होती है कि हालफिलहाल शहर के 23 फीसदी इलाकों में ही सीवेज नैटवर्क बन पाया है, बाकी 77 फीसदी इलाके नारेबाजी के.
इसी साल जुलाई में 19 तारीख को तेज बारिश हुई थी तो पूरा शहर अस्तव्यस्त हो कर त्राहित्राहि कर उठा था. सड़कों पर पानी इतना भर गया था कि लोगों का पैदल चलना भी मुहाल हो गया था. बरसात से पहले नगरनिगम आयुक्त हरेंद्र नारायण और महापौर मालती राय ने दावे किए थे कि अब की बार भोपाल में कहीं भी जलभराव नहीं होगा. लेकिन उन के दावे नए सहित पुराने भोपाल में पानी के साथ बहते दिखे थे जब सैफिया कालेज रोड पर अलमारियां, पेटियां और ट्रंक भी बह गए थे.
तब कोई पूछने वाला नहीं था और न ही कोई जवाब देने वाला था कि हर साल जो 100 करोड़ रुपए ड्रेनेज और सीवेज के नाम पर खर्चे जाते हैं वे इस साल भी क्या पानी के साथ बह गए.
पिछले 20 सालों में भोपाल नगरनिगम एक हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा की राशि सीवेज और ड्रेनेज पर खर्च कर चुका है. लेकिन पानी है कि सलीके से बहने का नाम ही नहीं लेता.
नगरनिगम क्या करता है, इस पर नजर डालें तो समझ आता है कि वह नेताओं की तरह सिर्फ वादे और दावे करता है. शहर में लगभग 789 नाले हैं जिन पर 25 हजार से भी ज्यादा अतिक्रमण हैं. इस का जिम्मेदार कौन है?
भोपाल के एक टाउन प्लानर सुयेश कुलश्रेष्ठ कहते हैं कि शहर में कालोनियों का निर्माण मनमरजी से किया जा रहा है. इन पर रोक लगाई जानी चाहिए और भूमि विकास नियम के मुताबिक निर्माण होना चाहिए. निमानुसार घर सड़क से डेढ़ फुट ऊंचे होने चाहिए. ऊंचाई कम होने से नई कालोनियों में भी जलभराव होता है.
भोपाल के 789 नालों पर अगर 25 हजार नाजायज कब्जे हैं जिन की वजह से 70 फीसदी नालों की सफाई नहीं हो पाती तो इस का जिम्मेदार और जवाबदेह नगरनिगम ही होता है.
लखनऊ की खस्ता हालत
‘मुसकराइए कि आप लखनऊ में हैं’ रेलवे स्टेशन और एयरपोर्ट पर इस स्लोगन को पढ़ कर जैसे ही आगे बढ़ेंगे, आप का सामना सड़क जाम, जलभराव और गंदगी से होगा. केंद्र सरकार के स्वच्छता सर्वेक्षण में 2022 में लखनऊ 17वें नंबर से फिसल कर 2023 में 44वें नंबर पर पहुंच गया. बागों का शहर अब जलभराव, गंदगी, सड़क पर जाम, पेयजल की कमी से जू?ा रहा है. मायावती सरकार में अंबेडकर पार्क और शहर का विस्तार किया गया. समाजवादी पार्टी की सरकार में शहर को हराभरा बनाने के लिए जनेश्वर मिश्रा और राम मनोहर लोहिया जैसे पार्क बने. 7 साल से भाजपा सरकार में शहर विस्तार की केवल कागजी योजनाएं तैयार होती रहीं. एक भी नई कालोनी, अस्पताल विश्वविद्यालय नहीं बना. बागों का शहर सड़तेबिगड़ते शहरों की कतार में खड़ा है. जमीनमकान लेने वालों को धोखाधड़ी का शिकार होना पड़ता है.
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की गिनती बेहद खूबसूरत शहरों में की जाती है. तसवीरों में सुदंर दिखने वाला शहर पूरी तरह से खस्ताहाल है. जानकीपुरम, आशियाना और गोमती नगर जैसी नई बसी कालोनियों का बुरा हाल है. बरसात के दिनों में सड़कों पर पानी भर जाता है. देखने को यहां पर चौड़ीचौड़ी सड़कें हैं. अच्छी कोठियों जैसे दिखने वाले मकान हैं. जमीन की कीमतें आसमान छू रही हैं. इन कालोनियों में 7 हजार रुपए स्क्वायर फुट से 10 हजार रुपए स्क्वायर फुट जमीन की कीमत है. इन को बनाने का काम लखनऊ विकास प्राधिकरण और आवास विकास परिषद द्वारा किया गया है. इस के बाद यहां के रहने वाले परेशान और बेबस हैं.
अगर लखनऊ की इन 3 पौश कालोनियों में रहने वालों का यह हाल है तो इस के अलावा जो कालोनियां बनी हैं उन का और भी बुरा हाल है. इन में राजाजीपुरम, इंदिरानगर, महानगर, हजरतगंज, अमीनाबाद, नखास, चौक, निशातगंज कल्याणपुर, मोहबुल्लापुर, त्रिवेणीनगर जैसे तमाम महल्ले हैं जिन की सब से बड़ी परेशानी बरसात के पानी के निकासी की है. सड़क के किनारे बनी नालियों में पानी, कीचड़ और गंदगी भरी रहती है. इस से पानी में मच्छर पनपते हैं जो बीमारी का कारण बनते हैं. सड़कें ऊंची हो जा रही हैं. नालियों से पानी नहीं निकलता, इस का सब से बड़ा कारण शहर में सड़क, पानी की निकासी और सीवर के काम की खराब प्लानिंग है.
हैदर कैनाल बन गया गंदा नाला
आज के मुकाबले अगर 200 साल पहले की सोच को देखें तो उस समय पानी के निकास की अच्छी व्यवस्था थी. उस की प्लानिंग सही दिशा में थी. लखनऊ शहर में बरसात के पानी की निकासी के लिए हैदर कैनाल बनी थी जो राजाजीपुरम के पास से शुरू हो कर हजरतगंज के पास गोमती नदी में मिलती है. बरसात के पानी की निकासी के लिए बनी यह हैदर कैनाल आज गंदा नाला बन कर रह गई है. उस समय की सोच थी कि यह हैदर कैनाल बरसात का पानी बहाने का काम करेगी. इस के जरिए कानपुर के पास की गंगा नदी का पानी गोमतीनदी में भेजने की योजना थी. नदियों को नदियों से जोड़ कर पानी के सही उपयोग की चाहत थी.
200 वर्षों पहले 1814 में नवाब गाजीउद्दीन हैदर अवध के वजीर बने थे. लखनऊ व आसपास रहने वाले किसानों ने मांग की कि खेती के लिए पानी नहीं मिलता है. लखनऊ के पास 2 नदियां हैं- एक गोमती दूसरी सई नदी. ये दोनों ही नदियां बरसाती हैं जिन में बरसात के दिनों में पानी रहता है. लखनऊ से दूर गंगा नदी थी. ऐसे में गाजीउद्दीन हैदर ने सोचा कि यदि एक नहर बना कर गंगा का पानी गोमती तक पहुंचा दिया जाए तो पानी की परशानी दूर हो जाएगी. 1815 में हजरतगंज की तरफ से हैदर कैनाल की खुदाई शुरू हुई. 1830 तक लगभग 13 किलोमीटर नहर की खुदाई कर यह सई नदी तक पहुंच गई. इस में करीब 17 लाख रुपए का खर्च आया.
पुराने लखनऊ शहर की परेशानी गंदगी और सड़कों पर लगने वाला जाम है. चौक, अमीनाबाद, गणेशगंज, यहियागंज, नखास, कैसरबाग में आधी से अधिक सड़कों पर अतिक्रमण हो गया है. दुकानें लग गई हैं. नालियां बंद हैं, जिस की वजह से न तो इन जगहों पर सही तरह से आनाजाना हो सकता है और न ही गंदगी दूर होती है. जब सड़क बनती है तो उस के ऊपर से ही बनाना शुरू कर दिया जाता है. सड़कें घरों से एक से दो मीटर तक ऊंची हो गई हैं, जिस से सड़क और नाली का पानी घरों में घुस जाता है.
बरसात ने खोली पोल
2 अगस्त की दोपहर 12 बज कर 30 मिनट से 2 बजे तक डेढ़ घंटे की तेज बारिश हुई. बरसात ने लखनऊ की पोल खोल दी. पूरा शहर तालाब जैसा दिखने लगा. नगरनिगम मुख्यालय में पानी घुस गया. सैकड़ों फाइलें भीगने से खराब हो गईं. अफसरों को पैंट ऊपर कर पानी से हो कर जाना पड़ा. 100 वर्षों से अधिक पुरानी नगरनिगम की दूसरी मंजिल पर रिकौर्डरूम है. बिल्डिंग की छत जर्जर है, जिस के कारण रिकौर्डरूम उस कमरे में है जहां पर कर्मचारी बैठते हैं. वहां पर उसी तरह बारिश हो रही थी जैसे बाहर हो रही थी. इस से यहां पर रखे रजिस्टर और रिकौर्ड की नकल के कागजात भीग गए. कर्मचारी भी भीग गए. जलभराव को ले कर नगरनिगम के सारे दावे फेल हो गए. जलभराव को रोकने की तैयारी पानी में बह गई. नगरनिगम न खुद जलभराव से बच पाया और न ही शहर को बचा पाया.
मैनचेस्टर बन गया सब से गंदा शहर
उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर की गिनती आज देश के सब से गंदे शहर के रूप में की जाती है. अंगरेजों के समय में यह ‘मैनचेस्टर औफ ईस्ट’ कहा जाता था. अब होने वाले सर्वे में कानपुर की गिनती देश के सब से गंदे शहरों में की जाती है. आज भी कानपुर में आईआईटी, एचबीटीआई, चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय और जीएसवीएम मैडिकल कालेज जैसे संस्थान हैं जिन की पहचान पूरी दुनिया में है. आंकड़े बताते हैं कि कानपुर के शहरियों के फेफड़ों की क्षमता 11 फीसदी कम हो गई है. फैक्ट्रियों और टेनरियों के कचरे ने गंगा को प्रदूषित कर दिया है. औद्योगिक प्रदूषण ने हवाओं में जहरीले तत्त्व घोल दिए हैं. शहर में दाखिल होते ही बजबजाते कचरे से निकला बदबू का भभका मुंह से टकराता है.
इस के लिए कहीं न कहीं कानपुर में रहने वाले भी जिम्मेदार हैं. कचरा तो हमारे ही घरों से निकलता है. पांडु नदी अब गंगा के लिए खतरा बन चुकी है. इस के जरिए पनकी क्षेत्र की राख, कैमिकलयुक्त कचरा गंगा में आ रहा है. यह नदी उन्नाव और फतेहपुर जिले के बीच में स्थित बक्सर के पास गंगा में मिलती है, जहां गंगा सब से गंदी है. नालों से रोजाना 50 करोड़ 40 लाख लिटर (544 एमएलडी) कचरा गंगा में गिर रहा है.
2023 में कानपुर नगरनिगम का बजट 21 अरब 73 करोड़ रुपए और जलकल का बजट 3 अरब 63 करोड़ रुपए पास हुआ था. इस के अलावा, मार्च 2024 में नगरनिगम ने 181 करोड़ रुपए की वसूली की है. इस के तहत, हर पार्षद को विकास कार्य कराने के लिए 34 लाख रुपए दिए गए थे. करोड़ों के बजट के बाद भी शहरों की दशा में सुधार नहीं हो रहा है.
उत्तर प्रदेश में शहरों के निर्माण का काम 2 संस्थाएं करती हैं. आवास विकास परिषद और विकास प्राधिकरण. आवास विकास परिषद पूरे प्रदेश के हर शहर में कालोनी बनाती है. इस का मुख्यालय राजधानी लखनऊ में है. विकास प्राधिकरण हर जिले के नाम से होते हैं. इन के मुख्य कार्यालय हर शहर में होते हैं. ये कालोनी बसाने के बाद नगरनिगम को दे देते हैं. नगरनिगम टैक्स वसूल कर शहर की देखभाल करता है. पंचायती राज कानून लागू होने के बाद जनता द्वारा चुने प्रतिनिधि, जिन को पार्षद कहते हैं, देखभाल करते हैं. ये नगरनिगम या नगर पंचायत में वही स्थान रखते हैं जो विधानसभा में विधायक और संसद में सांसद रखता है.
यही हालत वाराणसी, आगरा, गोरखपुर और बरेली जैसे बड़े शहरों की है. यहां तक कि दिल्ली एनसीआर में बसे गाजियाबाद, नोएडा जैसे शहरों में भी अव्यवस्था देखने वाली है. बड़ेबड़े अपार्टमैंट अंदर तो साफ दिखते हैं लेकिन जैसे ही सड़क किनारे निकलेंगे तो बजबजाती सड़क दिखेगी. गंदगी ही नहीं, यातायात और अपराध भी खूब होते हैं.
वेनिस शहर एक उदाहरण
शहरों की अच्छी व्यवस्था का एक शानदार उदाहरण इटली का वेनिस है जिस के उत्तरी इलाके में समुद्र के नीचे 2,500 साल पुरानी रोमन साम्राज्य के समय बनाई गई एक सड़क से ले सकते हैं. माना जाता है कि उस समय वेनिस का यह हिस्सा पूरी तरह से सूखा था, जबकि आज समुद्र के पानी में डूबा हुआ है. सड़क की खोज 1980 के दशक में की गई थी. रोमन साम्राज्य के समय बनी यह सड़क वेनिस के बाहरी लैगून के उत्तरी इलाके में स्थित ट्रीपोर्टी चैनल में मौजूद है.
जबकि अयोध्या में जिस राममंदिर के विवाद को सुलझने के लिए खुदाई की गई उस के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिले. केवल राममंदिर का ही नहीं, अयोध्या में राजा दशरथ के महल का भी कोई हिस्सा नहीं मिला. अयोध्या में और कोई बस्ती 2500 साल थी. 5,000 साल पहले से आज तक इस का कोई सुबूत नहीं मिला जैसा रोमन सड़कों का मिल रहा है.
वेनिस स्थित इंस्टिट्यूट औफ मैरीन साइंस की जियोफिजिसिस्ट फैंटिना मद्रीकार्डो ने कहा कि यह इलाका सदियों पहले सूखा था. उस समय यह मुख्य सड़कमार्ग हुआ करती थी. जिस से कई गलियां और रास्ते निकलते थे. यहां पर व्यापारिक क्षेत्र होने का अनुमान लगता है.
अयोध्या में भले ही आर्कियोलौजिकल सुबूतों में भव्य शहर का पता नहीं चला है लेकिन रोमन साम्राज्य में बनी सड़कें अभी भी साफतौर पर दिखती हैं. उन से सड़कों की डिजाइन, पानी निकासी और पानी की सप्लाई को सम?ा जा सकता है. कई शहरों में आज भी इन का उपयोग हो रहा है.
सड़कें ही नहीं, रोमन साम्राज्य की कलाकृतियां और प्राचीन वस्तुएं भी समुद्री मार्गों व द्वीपों पर मिली हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि रोमन साम्राज्य के कई शहरों में जब रोमन कला की सड़कों की जांच की गई तो पता चला कि 2 ऊपरी परतें एकदम चिकनी हैं जबकि अंदर की तरफ नुकीली और खुरदुरी, ताकि निचला हिस्सा मजबूती से जमीन को पकड़ सके. जो पत्थर प्राचीन रोमन सड़कों में लगाए जाते थे, उन्हें रोमन बैसोली कहा जाता है.
रोमन राजाओं ने भारी सार्वजनिक भवनों का निर्माण किया. उन्होंने आवास और सार्वजनिक स्वच्छता का पूरा ध्यान रखा. सार्वजनिक और निजी स्नानघर व शौचालय, हाइपोकोस्ट, मीका ग्लेजिंग, ओस्टिया एंटिका और गरम व ठंडा पानी पाइप इस के उदाहरण हैं.
वास्तुकला रोमन ने कंक्रीट के साथ आसानी से उपलब्ध पत्थर को ईंट के विकल्प के रूप में प्रयोग करना शुरू किया था. बड़े भवनों में मेहराब और गुंबदों को बनाया गया.
रोमन साम्राज्य में कई सड़कों का निर्माण, जैसे सेवोवेट औफ सेगोविया, पोंट डु गार्ड और रोम के 11 मुख्यालयों की सड़कों व कई पुलों आदि का निर्माण किया गया था. इन में से स्पेन में मेरिडा में पुएंटे रोमानो और प्रोवंस, वैनला रोमेन में पंट जूलियन और पुल अभी भी दैनिक उपयोग में हैं.
ये बातें इसलिए बताई जा रही हैं कि हम अपने ‘महान’ धर्म का ढोल खूब पीटते हैं कि हमारा धर्म रोमन साम्राज्य व ईसाई धर्म से पहले का है.
धर्म में भी धांधली इधर अपने अयोध्या को लें. अयोध्या में वित्तीय वर्ष साल 2023 और 24 में राममंदिर में 776 करोड़ रुपए खर्च हुए. आगामी वित्तीय वर्ष में टोटल मिला कर 850 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान राम मंदिर ट्रस्ट ने लगाया है. 363 करोड़ 34 लाख रुपए लोगों ने दान भी दिए हैं. राममंदिर के संपूर्ण निर्माण में अभी तक लगभग 1,800 से 1,900 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं.
इतना पैसा खर्च करने के बाद भी अयोध्या में नई बनी सड़कें पहली बरसात में ही धंस गईं. आज आधुनिक से आधुनिक टैक्नोलौजी से बने शहर समस्याओं से घिरे हैं. बरसात में पानी का जलभराव पूरे शहर में हो जाता है. उत्तर प्रदेश के अयोध्या में नवनिर्मित रामपथ पर कई जगह सड़क धंस गई, जिस से बारिश में जलभराव हो गया. इस की वजह से आनेजाने वालों को भारी परेशानी हुई.
23 जून और 25 जून को बारिश के बाद रामपथ के साथ लगभग 15 गलियों और सड़कों पर पानी भर गया. सड़क के किनारे के घरों में भी पानी भर गया था. इस 14 किलोमीटर लंबी सड़क के कई हिस्से भी कई जगहों पर धंस गए. उत्तर प्रदेश सरकार ने साल 2024-25 के लिए 7,36,437 करोड़ रुपए का बजट पेश किया है. इस बजट में अयोध्या के सर्वांगीण विकास के लिए 100 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है.
राममंदिर के कारण अयोध्या को भव्य बनाने के लिए बड़े इंतजाम किए गए. राज्य सरकार ने इस मामले में गुजरात के अहमदाबाद स्थित ठेकेदार भुवन इन्फ्राकौम प्राइवेट लिमिटेड को नोटिस जारी किया है. रामपथ की सब से ऊपरी परत निर्माण के तुरंत बाद क्षतिग्रस्त हो गई थी, जो उत्तर प्रदेश सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता वाले कार्य में लापरवाही को दर्शाता है. यह केवल एक शहर की बात नहीं है. भारत के छोटेबड़े हर शहर की कुछ यही कहानी है.
नगर निगमों में बेईमानी का राज
एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) ने अहमद नगर के म्यूनिसिपल कमिश्नर पंकज जावले को एक बिल्डर से 8 लाख रुपए की रिश्वत लेने के आरोप में जून 2024 में पकड़ा.
मुंबई से सटे थाने में एसीबी इंस्पैक्टर विजय कावले ने एक व्यक्ति को झाठे मामले में फंसाने के लिए कथित तौर पर दस्तावेज तैयार करने के आरोप में 5 नगर निगम कर्मियों के खिलाफ मामला दर्ज किया.
वर्ष 2023 में महाराष्ट्र सरकार ने स्पैशल इन्वैस्टिगेशन टीम गठित की जो 2019 से 2022 के बीच हुए 12,024 करोड़ रुपए के खर्च में की गई गड़बड़ी की जांच कर रही है.
सूरत म्यूनिसिपल कौर्पोरेशन में
10 लाख रुपए की रिश्वत लेने के आरोप पर सितंबर 2024 में 2 पार्षदों के खिलाफ मुकदमे दर्ज किए गए. मार्च 2023 में अहमदाबाद के वार्ड इंस्पैक्टर को रिश्वत के मामले में गिरफ्तार किया गया. दिल्ली के निकट गुरुग्राम में 50 मामलों में म्यूनिसिपल कौर्पोरेशन के अधिकारी विजिलैंस विंग के रिकौर्ड नहीं दे रहे. जो 2 वर्षों से चल रहे हैं.
दिल्ली में एक मकान मालिक से घर के निर्माण के लिए 15 हजार रुपए की रिश्वत की मांग को ले कर एंटी करप्शन ब्यूरो ने भजनपुरा इलाके के एक बेलदार और गौरव गर्ग, जूनियर इंजीनियर को पकड़ा.
कौर्पोरेशनों के पास हक है, जिम्मेदारियां हैं या नहीं, यह पता नहीं. इन कौर्पोरेशनों को चलाने वाले नेता और अफसर से आखिरी सफाई कर्मचारी तक रिश्वत बटोरने में लगे रहते हैं, उन के लिए यही पुण्य का काम है. पोस्ट पर बने रहने के लिए जब पूजापाठ है तो जनता की खुशी की क्या जरूरत है.
देशभर में शहरों में जमीनों के दाम आसमान तक पहुंच रहे हैं. किराए के मकान भी नहीं मिलते. इस के बाद भी गांव से लोग शहरों में रहने आ रहे हैं, जिस से गंदगी और अव्यवस्था दोनों फैल रही हैं. इस को सुधारने के लिए न तो सरकार के पास कोई प्लान है और न जनता के पास तमीज.
दिल्ली से नसीम अंसारी कोचर, मुंबई से आरती सक्सेना, जयपुर से जगदीश पंवार, भोपाल से भारत भूषण श्रीवास्तव, लखनऊ से शैलेंद्र सिंह.