Social Story : 28 दिसंबर, 1985. जाड़े की एक अलसाई सुबह. सफर पर निकलने की तैयारी में सबकुछ जल्दबाजी में हो रहा था. सुबह के 5 बज चुके थे पर अभी तक रात का भ्रम हो रहा था. घने कोहरे के बीच रास्ता बनाता औटोरिकशा आखिरकार रेलवे स्टेशन तक पहुंच ही गया था.

राकेश ने इंक्वायरी से पता किया. ट्रेन अभी 2 घंटे लेट थी. कस्बे का छोटा सा स्टेशन रामनगर. ठंड और कोहरे के कारण अभी चहलपहल ज्यादा नहीं थी. स्टेशन के अलसाए मौन को तोड़ता उद्घोषणा का स्वर गूंजा.

हावड़ा से गोरखपुर जाने वाली एक्सप्रैस ट्रेन पहुंच रही थी.

दीपा ने हौकर से अखबार लिया पर इतनी कम रोशनी में अखबार पढ़ने की कवायद बेमानी थी. इधरउधर नजरें दौड़ाती दीपा खुद को व्यस्त रखने का कोई जरिया तलाश रही थी. ट्रेन अब प्लेटफौर्म पर लग चुकी थी.

ट्रेन से उतर कर एक लड़का और एक लड़की दीपा के बिलकुल बगल में आ कर बैठ गए. सीमित सामान देख कर दीपा ने अनुमान लगाया कि वे पर्यटन के उद्देश्य से निकले थे. सुबह हुई तो फिर अपने गंतव्य की ओर निकल पड़े शायद या फिर ऐसा भी हो सकता है किसी रिश्तेदार के यहां किसी फंक्शन में शरीक होने आए हों और कोई रिसीव करने आने वाला हो.

पता नहीं यह इंसानी फितरत है या महज उसी का फितूर जिस के तहत बगल में बैठे किसी अनजान के बारे में सबकुछ जान लेने की प्रबल इच्छा जन्म लेती है. जानती थी दीपा उस से सामने वाले को भला क्या फर्क पड़ता था कि कोई क्या सोच रहा है उस के बारे में.

संभव है वह लड़का उस का प्रेमी हो जिस के साथ वह घर छोड़ कर जा रही हो कहीं या कोई रिश्तेदार ही हो, क्या फर्क पड़ता है?

दीपा को अपनी सोच पर हंसी आई. 6 बज चुके थे. मगर सूरज अब भी लापता था. शायद कोहरे की साजिश का शिकार हो चला था.

प्लेटफौर्म पर ट्रेन का इंतजार वाकई बेहद उबाऊ होता है. अनमने भाव से दीपा पेपर पलट रही थी पर छपी खबरों का स्थान और समय से वास्ता न रहा. लगभग प्रतिदिन खबरें वही होती हैं- कहीं हत्या, कहीं बलात्कार, कहीं धरनाप्रदर्शन तो कहीं चोरीडकैती. दीपा ने अखबार मोड़ कर रख दिया था.

लड़का और लड़की आपस में बातें कर रहे थे पर आवाज बेहद धीमी थी. दीपा ने अपने को सचेत किया. जाने किस आकर्षण के वशीभूत उन की बातों पर ध्यान केंद्रित किया.

एक बार तो उस की इच्छा हुई कि आगे बढ़ कर उन के बारे में पूछ डाले. अपना परिचय भी दे डाले. मसलन, ‘कहां जा रही है वह और क्यों, कितने दिनों बाद लौटने वाली है? पर उस का संकोची स्वभाव आड़े आ रहा था.

इसी ऊहापोह में अपनी नजरें उस ने विपरीत दिशा में घुमा दीं ताकि उस की अतिरिक्त सक्रियता भांप न लें वे दोनों. कौन जाने मन के भाव उस के चेहरे पर चस्पां हो चले हों अब तक. सच ही तो कहा गया है, चोर की दाढ़ी में तिनका.

आधा घंटा तो गुजर गया, बाकी वक्त भी गुजर जाएगा यों ही, उस ने सोचा. बगल में राकेश निश्चिंत बैठे थे आंखें मूंदे, शाल में ढके खुद को. कौन जाने सो रहे थे या यों ही बस सोने का अभिनय था वह. वास्तविकता से बचने का बेहतर तरीका यही है शायद. उस ने छेड़ना ठीक नहीं समझा अखबार उस ने दोबारा उठा लिया था. याद आया कि आज शनिवार है और अखबार के साथ संगिनी अंक भी संलग्न होगा. अखबार खोला ही था कि लड़की ने प्रश्न किया उस से-

‘‘दीदी, यहां से वाल्मीकि नगर जाने के लिए क्या करना होगा? मतलब किस साधन से जा सकते हैं?’’

दीपा ने नजरें घुमाईं. वह लड़की उसी से मुखातिब थी जिसे देख कर भी अनजान बनने का नाटक करती रही थी वह.

‘‘क्या पहली बार आई हो?’’ उत्तर देने के बजाय प्रश्न कर दिया था उस ने.

‘‘जी, पहली बार. दरअसल हमें पोखरा जाना है, नेपाल. सोचा है, वाल्मीकि नगर घूमते हुए निकल जाएंगे.’’

लड़की की आवाज में जादुई सम्मोहन था. देखने में जितनी सुंदर थी, आवाज भी बेहद शालीन और सौम्य.

दीपा के मन में कई प्रश्न थे. मसलन, कब शादी हुई उन की, पोखरा में कौन रहता है, घर कहां है उस का, मायका कहां है और ससुराल कहां, क्या करती है वह, लव मैरिज है या अरेंज्ड?

लड़की ने सिंदूर भी लगा रखा था जो बालों से ढका था पर करीब से दिख रहा था.

दीपा ने अपनी उत्सुकता को जबरन दबा रखा था. आखिर इन सारे सवालों के जवाब जान भी ले तो क्या हासिल होने वाला था भला? उस ने कहा, ‘‘यहां से बसें भी जाती हैं. सुबह ही करीब 3 बसें निकलती हैं आधेएक घंटे के अंतराल पर, यहीं चौक से ही या फिर प्राइवेसी चाहिए तो औटो या टैक्सी भी मिल जाएंगी.’’

‘‘बहुत धन्यवाद आप का. आप कहां जा रही हैं?’’ लड़की ने बातचीत में उत्सुकता जताई.

‘‘बस, गोरखपुर तक. 2 घंटे लगेंगे यहां से. मायका है मेरा. तीनचार दिनों में वापस आ जाएंगे,’’ दीपा ने सबकुछ एक बार में ही बता दिया. साथ ही, उन तमाम सहेजे प्रश्नों में से एक प्रश्न उछाल भी दिया आखिर, ‘‘पोखरा में क्या मायका है तुम्हारा?’’

‘‘नहीं,’’ जवाब बेहद संक्षिप्त था. शायद ज्यादा विस्तार से बताना नहीं चाहती थी. दीपा समझ चुकी थी इस बात को.

फिर वह खुद प्रश्न कर बैठी, ‘‘दीदी, क्या इस एरिया में सचमुच किडनैपिंग का डर है?’’उस के चेहरे पर डर का भाव था पर लड़का प्रश्न सुन कर मुसकरा रहा था.

दीपा ने हौसला दिया, ‘‘जितना मीडिया में बढ़ाचढ़ा कर दिखाते हैं वैसा तो नहीं मगर कुछ तो है. आखिर हम लोग भी तो यहीं रहते हैं. स्टेशन परिसर में जो इतनी भीड़ है. यहीं के बाशिंदे तो हैं.’’

कहने को तो दीपा ने कह दिया था पर बखूबी समझती थी यहां के असुरक्षित माहौल को. आखिरकार मिनी चंबल का नाम मीडिया ने यों ही तो नहीं दिया था. उस ने बातों का क्रम आगे बढ़ाते हुए एक हिदायत जरूर दी, ‘‘हां, शाम के बाद कहीं नहीं निकलना ही ठीक रहेगा, खासकर घने जंगलों में स्थित दर्शनीय स्थलों के भ्रमण पर. इतना एहतियात रखना जरूरी होगा तुम दोनों के लिए.’’

लड़की ने मुसकरा कर प्रत्युतर दिया. अब वह लड़के से मुखातिब थी, ‘‘7 तो बज गए, चलते हैं अब.’’ लड़के ने हां में सिर हिलाया.

दोनों ने अपना सामान उठाया और स्टेशन परिसर से बाहर निकल आए. दीपा उस का नाम तक नहीं पूछ पाई थी इतनी लंबी बातचीत में.

दीपा महसूस कर रही थी कि पहली नजर में जो अनुमान लगाया था उस ने, शायद वही सच था. मतलब दोनों घर से भागे हुए लग रहे थे. उन के हावभाव, आपसी जुड़ाव एकदूसरे के लिए अतिरिक्त फिक्रमंदी और सजगता दर्शा रहे थे कि पतिपत्नी नएनए बने थे या बनने वाले थे. या ऐसा भी हो सकता है कि चुपके से शादी कर ली हो कहीं पर अब परिवार और समाज का सामना करने की ताब न जुटा पा रहे हों. लड़की की मांग का सिंदूर तो स्पष्ट दिखाई दे रहा था. हाथों में मेहंदी भी लगी थी.

अचानक दीपा की सोच की दिशा बदली. हाथों में मेहंदी लगी है तो कहीं ऐसा तो नहीं कि शादी के मंडप से भागी हो और अब परिवार व समाज की नजरों से बचने के लिए नेपाल भाग रहे हों दोनों.

आखिर पकड़े जाने पर तो अंजाम पता ही था सभी को. अगर लड़की की शादी वहां टूट भी जाती तो उसे कड़े पहरे में रखा जाता. लड़के की जगह तो निसंदेह कारागार ही होता और जुर्म लड़की को भगाए जाने का.

दीपा ने महसूस किया, पिछले एक घंटे से वह अपनी सोच को इसी बिंदु पर उलझे है. पता नहीं इतना गौर करना और इतनी गहराई से किसी बात पर सोचना उस की ताकत है या कमजोरी. मायके जाने की खुशी को भी कुछ क्षणों के लिए वह भूल चुकी 2 अनजान लोगों के लिए.

तभी उद्घोषक का स्वर गूंजा. राकेश हड़बड़ा कर सामान व्यवस्थित करने लगे. ट्रेन के आने की घोषणा हो रही थी. अपना पर्स संभालते हुए दीपा उठ गई. चेहरे पर मुसकान थी अब. जिस 2 घंटे बिताने को ले कर वह नर्वस थी पहले, जाने कैसे बीत चुके थे.

2 जनवरी, 1986. नए वर्ष के आगमन का उत्साह अभी शेष था. नववर्ष पर कल बच्चों के साथ पिकनिक मना कर आज लौट रही थी दीपा.

सुबह के 10 बज रहे थे. चारों ओर कुहासे का साम्राज्य था. सूरज जाने किन साजिशों का शिकार था. लापता था या कौन जाने इतनी ठंड में सुनहरी किरणों का लिहाफ बना कर दुबका था कहीं.

अभी दूसरी कप चाय ली थी दीपा ने. ट्रेन आज भी लेट थी. पता तो था ही कि कुहरे के कारण ट्रेनें अकसर ही देर से चलती हैं या रद्द भी हो जाती हैं. बावजूद इस के, छुट्टियों में बच्चों के साथ घूमने का मोह नहीं छोड़ पाती दीपा. स्टेशन पर हाड़ कंपाने वाली ठंड सच में कंपा रही थी.

तभी अखबार बेचता हौकर गुजरा. दीपा ने अखबार खरीदा. ट्रेन एक घंटा लेट थी. चल पड़ी ट्रेन तो राहत की सांस ली दीपा ने. धीमी रफ्तार से चलती ट्रेन वाल्मीकि नगर रुक गई. आगे लाइन क्लियर नहीं थी. सहयात्रियों से ज्ञात हुआ चक्का जाम है आगे. अपराध के खिलाफ आमजनों का आक्रोश प्रदर्शन का अंजाम था यह.

4 बज चुके थे अब. पता नहीं कब तक ट्रेन चले आगे. बगल में रखा हुआ अखबार पढ़े जाने की प्रतीक्षा में पड़ा हुआ था. अनमने भाव से दीपा ने अखबार उठाया.

अखबार खोलते ही दीपा के चेहरे पर संशय, भय और दुख का मिलाजुला भाव था.

हैडलाइन थी : ‘फरार प्रेमी युगल अपराधियों के हत्थे चढ़ा.’

सामने पृष्ठ पर उसी लड़की का शव था जिस से 28 दिसंबर की सुबह वह मिली थी. बौक्स में लड़के का फोटो था. खबर का सार यह था कि शव की पहचान मोतिहारी की अलका जायसवाल के रूप में की गई थी. उस के अपहरण की एफआईआर भी दर्ज की गई थी थाने में. लड़का कृष्णा वहीं रह कर पढ़ता था पर म?ालिया का रहने वाला था. अपराधियों ने अलका की बलात्कार के बाद हत्या कर दी थी. लड़के कृष्णा को फिरौती के लिए अगवा कर लिया गया था.

क्राइम का एक और अध्याय जुड़ गया था मिनी चंबल से. अपनों के भय से भाग कर कहीं और पनाह ढूंढ़ने जा रहे उस प्रेमी युगल का ऐसा दुखद अंत भला किस ने सोचा था. खुद उन दोनों ने जाने कितने सपने संजोए होंगे अपनी जिंदगी की खातिर. अब उन के अधूरे सपनों का दंश क्या महसूस कर पाएंगे समाज के मूल्यों के ठेकेदार.

उस अल्प परिचय ने भी जाने कैसा रिश्ता जोड़ दिया था कि दीपा बेहद उदास थी. उस दिन जिस अजनबी युवती से नाम नहीं पूछ पाई थी, वही नाम आज बड़े अक्षरों में अखबार में छपा था उस के निर्जीव शरीर के साथ, अलका जायसवाल.

दीपा को एहसास हुआ, बस, वह देह ही निर्जीव नहीं थी जो पृष्ठ संख्या 4 पर प्रमुखता से छपी थी एक खबर बन कर, आज का सच तो यह था कि पैसे के लालच में सबकुछ बेजान हो चला था. अर्थहीन हो चली थी मानवीयता और कुंद हो चुकी थीं संवेदनाएं भी. आखिर, यह कैसा विरोधाभास है कि बच्चे अपने बारे में अपने ही मांबाप से बातें नहीं कर पाते.

ये वही बच्चे तो होते हैं जिन के सपने पूरा करने के लिए मांबाप अपना सर्वस्व लगा देते हैं. फिर इतने महत्त्वपूर्ण निर्णय पर ही इतना विरोधाभास क्यों? कई बार तो बच्चे भी डर के मारे अपनी बात नहीं रख पाते और भाग जाते हैं. यह पलायन शायद ही उन को उन की मंजिल तक पहुंचने देता है. रास्ते का अवरोध या तो उन के सपनों को तोड़ देता है या फिर उन के अस्तित्व को ही मिटा देता है.

बेहद अनमनी और डरी हुई थी दीपा. अखबार मोड़ कर उस ने रख दिया. एक भरपूर दृष्टि डाली पास बैठे अपने पति और बच्चों पर.

शाम गहरा रही थी. जाने कब तक ट्रेन पहुंचे गंतव्य तक. स्टेशन परिसर के आसपास ही जंगल की शुरुआत थी. कौन जाने किस दिशा से अपराधियों का गिरोह निकल आए. आक्रमण कर दे निहत्थे यात्रियों पर. लूट ले उन को, अगवा कर ले और विरोध करने पर जान ही ले ले. यही तो सचाई थी इन दिनों इस क्षेत्र की.

कानूनव्यवस्था कहनेभर की रह गई थी यहां. वर्चस्व तो अपराधियों का ही था. सरकारी योजनाओं के सफलीभूत होने के सच से सभी वाकिफ थे. हां, अपहरण का उद्योग खूब फलफूल रहा था इस मिनी चंबल में. इस सचाई से सभी वाकिफ थे और इस क्षेत्र के बाशिंदों की यही नियति थी. बहरहाल, दीपा विगत की घटनाओं से अपना ध्यान बंटाना चाह रही थी. वैसे भी, उस के सोचने से कुछ भी बदलने वाला नहीं था, यह बेहतर पता था उसे.

दीपा को विगत वर्षों का आतंक आज बेतरह डरा रहा था. अपहरण और फिरौती के आतंक के चलते शाम होते ही लोग घरों में कैद होने को मजबूर थे. खुद दीपा ने भी न जाने कितनी शामें बेचैनियों में गुजारी थीं जब निखिल कार्यवश देर से घर पंहुचते थे. आज आतंक पर थोड़ा अंकुश भले लगा था पर खत्म कहां हो पाया था. लोगों के जेहन में उन दहशतभरे दिन की यादें अब भी ताजा थीं.

अभी तो आधी दूरी भी तय नहीं हो पाई थी, एक भय पसरा था उस के जेहन में फिर वैसा ही.

आंखें अनायास भर आई थीं उस की. उस संक्षिप्त परिचय में वह अनजानी अपनी सी क्यों लगने लगी थी जबकि अब नाम की शेष थी वह. दुख जोड़ता है मन को संवेदना के तारों से. यही सच था आज का उस के समक्ष.

अनमनी सी खिड़की से बाहर देखने लगी वह आसपास पसरे जंगल और उस के तिलिस्म को. जाने कितनी जिंदगियां दफन थीं वहां आतंक के साए में. घने दरख्तों और आसपास पसरे अंधेरे में अब भी जाने कितनी जिंदगियां इंतजार में थीं कैद से रिहाई के लिए. अपराधियों का शरणगाह था वह घना अरण्य. सूर्य अब अस्ताचलगामी थे पर सुकून इतना जरूर था कि ट्रेन अब सरकने लगी थी पटरी पर स्टेशन छोड़ कर.

लेखिका – सीमा स्वधा

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