गुनाह के आरोप में पूरी जवानी जेल की सलाखों में खत्म हो गई. कालेज में एडमिशन हुआ था तो मांबाप ने कितने सपने देखे थे. सारे सपने मिट्टी में मिल गए. उस समय 18-19 साल की उम्र थी. आज 60 के ऊपर हैं. इतने सालों में मांबाप परिवार सब बर्बाद हो गया. 44 साल बाद दोस्त की हत्या के पाप से इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मुक्त करते हुए बेगुनाह करार दिया, मगर सवाल यह कि अब बुढ़ापे में जेल से छूट कर कहां जाएं? क्या करें? हताशा में बोले ‘जहां सलाखों में पूरा जीवन काट दिया वहां से अर्थी भी उठती तो ठीक था.
यह मामला है मुजफ्फरपुर का है जहां दो कालेज के छात्र सहित एक नाबालिग छात्र को पुलिस ने एक अन्य छात्र की हत्या का आरोपी बना कर जेल भेज दिया था. हमारी देश की न्यायिक संरचना का मूलभूत आधार है कि 100 गुनाहगार भले ही छूट जाएं किंतु एक बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए, पर जब 3 निर्दोष 44 साल तक जेल में बंद रहें तो ऐसी न्याय व्यवस्था को शर्म से डूब मरना चाहिए. उस से बड़ा सवाल तो यह है कि जब ये 3 लोग हत्यारे नहीं हैं तो असली कातिल कौन था? जब तक उस का पता न चले, मरने वाले को न्याय कैसे मिलेगा?
2 जून 2024 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 44 साल पहले मुजफ्फरनगर डीएवी कालेज में बीए के छात्र की हत्या में दोषी 3 दोस्तों को बेगुनाह करार दिया है. कोर्ट ने उन्हें मिली आजीवन कारावास की सजा रद्द कर दी है. यह फैसला न्यायमूर्ति सिद्धार्थ वर्मा, न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर की खंडपीठ ने राजेश, ओमवीर और एक नाबालिग आरोपी की ओर से सजा के खिलाफ 40 साल पहले दाखिल अपील का निस्तारण करते हुए सुनाया है.
मामला मुजफ्फरनगर थाना सिविल लाइन के केशवपुरी महल्ले का है. अभियोजन की कहानी के मुताबिक छात्र अजय 6 जनवरी को अपने ताऊ रघुनाथ के कहने पर अपने दोस्त राजेश के पास डीजल के पैसे वापस लेने गया था. लेकिन वह घर नहीं लौटा. रघुनाथ ने 8 जनवरी को भतीजे की गुमशुदगी पुलिस में दर्ज करवाई. राजेश की तलाश शुरू हुई. फिर उसे पुलिस ने मीनाक्षी सिनेमाघर के पास से गिरफ्तार किया. राजेश की निशानदेही पर अजय का शव केशवपुरी मोहल्ले के सुखवीर के किराए के घर में बरामद हुआ. इस कमरे में ओमवीर रहता था. पुलिस ने राजेश, ओमवीर और एक नाबालिग के खिलाफ कोर्ट में आरोप पत्र दाखिल किया.
अभियोजन की ओर से अदालत में 13 गवाह पेश किए गए. इस के बाद मुजफ्फरनगर के अपर जिला व सत्र न्यायालय ने 30 जून 1982 को राजेश समेत तीनों अभियुक्तों को हत्या और सबूत मिटाने का दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई. सजा के खिलाफ तीनों ने 1982 में हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. अपील करने वालों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता बृजेश सहाय और सुनील वशिष्ठ ने दलील पेश की. हाई कोर्ट ने कहा कि मामले में पेश अभियोजन के गवाहों की ओर से मृतक के अंतिम दृश्य के संबंध में दिए बयानों में विरोधाभास और शव की बरामदगी संदेहास्पद है.
मामले में 44 साल पहले फंसे राजेश और ओमवीर की उम्र अब 60 साल के पार है. जबकि सजा पाने के बाद नाबालिग घोषित आरोपी भी अब 59 के करीब है. करीब 4 दशक तक चली मुकदमेबाजी के बाद बेगुनाह साबित हुए तीनों आरोपियों की पूरी जवानी मुकदमा लड़ने में ख़ाक हो गई.
सवाल यह भी कि 3 निर्दोष जिंदगियों को रौंदने वालों पर क्या अब कोई कार्रवाई होगी? क्या उन पुलिस वालों को दोषी बनाया जाएगा जिन्होंने हत्या के केस में 3 निर्दोष लोगों को फंसाया? क्या कोर्ट उन गवाहों पर कोई कार्रवाई करेगा जिन्होंने धर्म की किताब पर हाथ रख कर निर्दोष लोगों को फंसाने के लिए अदालत में झूठी गवाही दी? अदालत को एक फैसला लेने में 44 साल क्यों लग गए क्या इस का जवाब न्यायपालिका देगी? क्या सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस की कुर्सी पर बैठे जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ न्याय प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए कोई दिशानिर्देश देंगे? क्या देश की सरकारें ध्यान देंगी कि उसकी जेलों में ऐसे कितने गरीब और अनपढ़ लोग सालों से बंद हैं, जिन के मामले कोर्ट की पटल पर भी नहीं पहुंच पाए हैं?
इन तमाम सवालों का जवाब न तो न्यायपालिका देगी और न सरकार. इस देश में न्यायपालिका की लचर व्यवस्था ने आम लोगों का जीवन नरक किया हुआ है. जबकि अमीर आदमी अपने मनमुताबिक फैसलों की खरीदफरोख्त कर सकता है. यहां संभ्रांत दोषियों की सुनवाई आधी रात और छुट्टियों के दिन भी हो जाती है मगर गरीब आदमी 44 साल तक इन्साफ का इंतजार करता है.
मानवाधिकार आयोग एक मरी हुई संस्था है और सरकार में मौजूद नेतागण अपनी तिजोरियां भरने और अपने परिवार को सेटल करने में व्यस्त हैं. उन्हें आम आदमी से कोई मतलब नहीं. आम आदमी झूठे केस में बंद हो, पुलिस के डंडे खा कर चौकी पर ही मर जाए या निर्दोष होते हुए भी पूरी जिंदगी जेल में बिता दे, उन्हें इन बातों से कोई लेनादेना नहीं है. पुलिस, जेल अधिकारी या न्यायपालिका स्वयं जेल में बंद कैदियों की कभी कोई समीक्षा नहीं करती. भारतीय जेलों में ऐसे कैदी हजारों की संख्या में हैं जिन्होंने अपनी सजा की अधिकतम अवधि बिना मुकदमा चलाए ही काट ली है, लेकिन सरकार की निष्क्रियता के कारण वे अभी भी जेलों में बंद हैं. इस सब का कारण लचर न्याय व्यवस्था ही है जिस में टाइम बाउंड निर्णय दिए जाने का कोई प्रावधान कभी नहीं किया गया.
2021 में एक डाटा जारी हुआ था जिस के अनुसार देश के कुल 1283 जेलों में लगभग 5,54,000 लोग बंद हैं. इन में 4,27,000 बंदी हैं जिन का अभी ट्रायल चल रहा है. बाकी 1,27,000 सजायाफ्ता अर्थात कैदी हैं. 3 सालों में यह आंकड़ा और बढ़ा होगा.
कोर्ट-कचहरी का चक्कर क्या होता है? कानूनी लड़ाइयों में कैसे पीढ़ियां खप जाती हैं? तारीख पर तारीख के चक्कर में घनचक्कर बने लोगों की कैसे पिस जाती है जिंदगी? ये समझना हो तो जयपुर की एक प्रौपर्टी से जुड़े केस पर नजर डालते हैं. एक शख्स प्राइम लोकेशन पर प्रौपर्टी खरीदता है. उस प्रौपर्टी पर पहले से काबिज किरायेदार अड़ जाता है कि वह प्रौपर्टी खाली नहीं करेगा. मामला अदालत में जाता है. अंतिम फैसला आने यानी शीर्ष अदालत से मामले के निपटारे में 38 साल लग जाते हैं. कल्पना कीजिए, आपने जवानी में प्रौपर्टी खरीदी और उस पर कब्जा मिलतेमिलते बुढ़ापा आ गया ! क्या करेंगे आप ऐसी प्रौपर्टी का? आप के जीवन भर की कमाई भी गई और जीवन का सुख चैन अदालतों के चक्कर काटने में लुट गया.
30 जनवरी 1985 को रवि खंडेलवाल नाम के शख्स ने जयपुर में प्राइम लोकेशन पर एक प्रौपर्टी खरीदी थी. प्रौपर्टी जयपुर मेटल इलैक्ट्रिक कंपनी से खरीदी गई थी. उस समय उस पर तुलिका स्टोर्स का बतौर किराएदार कब्जा था. प्रौपर्टी खरीदने के बाद खंडेलवाल ने तुलिका स्टोर्स से जगह खाली करने को कहा लेकिन उस ने इनकार कर दिया. दलील दी कि कानूनन किसी किरायेदार को 5 साल से पहले खाली नहीं कराया जा सकता अगर वह खुद की मर्जी से नहीं जा रहा है. तब राजस्थान के कानून में ये प्रावधान था. हालांकि, बाद में कानून में बदलाव हुआ और अनिवार्य टेनेंसी का प्रावधान खत्म कर दिया गया. खैर, मामला अदालत में पहुंचा.
निचली अदालत में 17 साल तक मुकदमा चला. ट्रायल कोर्ट ने इस आधार पर लैंड लौर्ड को कब्जा देने से इनकार कर दिया कि प्रौपर्टी 1982 में किराए पर दी गई थी और जब उन्हें खाली करने के लिए कहा गया तब 5 साल की अवधि पूरी नहीं हुई थी. इस के बाद डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में केस गया. डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने खंडेलवाल के पक्ष में फैसला दिया और तुलिका स्टोर्स को प्रौपर्टी खाली करने का आदेश दिया. वर्ष 2004 में तुलिका स्टोर्स ने इस फैसले को राजस्थान हाई कोर्ट में चुनौती दी. हाई कोर्ट को इस पर फैसला सुनाने में 16 वर्ष लग गए. फैसला लैंडलौर्ड के खिलाफ आया. खंडेलवाल ने 2020 में हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी.
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल और अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की बेंच ने लैंडलौर्ड के पक्ष में फैसला सुनाया. शीर्ष अदालत ने इस बात पर हैरानी भी जताई कि खरीदी हुई प्रौपर्टी पर कब्जे का ये विवाद 38 साल तक चला. जस्टिस कौल ने अपने फैसले में लिखा भी कि पहले ही इस मामले में इतना वक्त लग चुका है और अगर ये केस फिर अपील में जाता है तो ये इंसाफ का मजाक होगा. सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के आर्टिकल 142 के तहत मिले असाधारण अधिकार का इस्तेमाल करते हुए इस विवाद का पटाक्षेप किया.
भारतीय कानून व्यवस्था में फैसला सुनाने में लगने वाले लंबे समय को ले कर दुनियाभर में आलोचना होती है. सालोंसाल मुकदमा लड़ने के बाद जब कोई कोर्ट यह कहे कि अभियोजन पक्ष दोष सिद्ध नहीं कर सका और आरोपी बरी किया जाता है, तो पीड़ित की मनोदशा अपराध के वक्त उस की मनोदशा से भी अधिक कष्टकारी होती है. वहीं जब कोई निर्दोष पुलिस द्वारा आरोपी बना कर जेल भेजा जाता है और सालों वह जेल की सलाखों में बंद रहता है, खुद को निर्दोष साबित करने के लिए लाखों रूपए वकीलों पर खर्च करता है तो ऐसे व्यक्ति और उस के परिवार वालों की जिंदगी कितनी दुख भरी होती है इस की कल्पना भी नहीं की जा सकती है.
महाराष्ट्र के एक शख्स ऐसे हैं, जिन्होंने खुद को बेगुनाह साबित करने के लिए आधी से ज्यादा उम्र अदालतों के चक्कर काटने में बिता दी. उन के केस की 35 साल तक सुनवाई चली. बाद में बंबई हाई कोर्ट ने उन्हें निर्दोष करार दे दिया.
वकोली के वेस्टर्न कोल लिमिटेड के पूर्व मुख्य प्रबंध निदेशक और ठेकेदार कंपनी के मालिक रामधिराज राय पर 35 साल पहले भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे. उस के बाद शुरू हुई कानूनी लड़ाई सालों तक चलती रही. दरअसल, 1987 में कामठी क्षेत्र में 25 बिस्तरों वाले अस्पताल के निर्माण के लिए वकोली द्वारा एक निविदा प्रक्रिया शुरू की गई थी. ठेका एक निजी कंपनी को मिला, लेकिन तभी अचानक ठेकेदार बदल गया तो ठेका इंडस इंजीनियरिंग कंपनी को दिया गया था.
भ्रष्टाचार के इस मामले में वकोली के तत्कालीन मुख्य वित्त एवं लेखा अधिकारी डी जनार्दन राव ने गवाही दी थी. तत्कालीन प्रबंध निदेशक रामधिराज राय का दावा था कि जनार्दन राव ने इंडस इंजीनियरिंग कंपनी पर दबाव डाला था, इसलिए उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे. 76 साल के रामधिराज राय की आधी उम्र कोर्ट में पेश होतेहोते समाप्त हो गई. हालांकि, अंत में दोष साबित नहीं होने पर कोर्ट ने 35 साल की अदालती कार्यवाही के बाद उन्हें बरी कर दिया.
बहरहाल, बौम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने भले ही 35 साल के बाद रामधिराज राय को बरी कर दिया, लेकिन रामधिराज के बीते हुए वर्षों की कोई भरपाई नहीं हुई. वैसे भी कानून की दुनिया से जुड़ा सब से आम कथन है कि जस्टिस डीलेड इज जस्टिस डिनायड, यानी देर से मिलने वाला इंसाफ नाइंसाफी के समान ही है. हर जज इस वाक्य को कभी न कभी बोलता ही है मगर देश में लाखों लोगों के साथ लगातार नाइंसाफी ही हो रही है. हमारे कोर्ट एक जजमेंट को लेने में इतना समय निकाल देते हैं कि पीड़ित हैं और पीड़ित के परिजन न्याय की आस छोड़ देते हैं. हजारों केसों में देखने को मिला है जहां पर पीड़ित और उस के परिजनों ने पता नहीं कितने साल सही फैसले का इंतजार किया है. कुछ घटनाएं जो मीडिया की निगाह में आ जाती हैं वे तो बड़ी बन जाती हैं और उन पर फैसला जल्दी आ जाता है, परंतु जो केस नीचे दबे रह जाते हैं उन पर निर्णय लेने में कई साल लग जाते हैं.