अब की बार 400 पार का नारा दे कर सत्ता पाने का बीजेपी का सपना चूर हो गया. भारत में तानाशाही का सपना पालने वाले लोकसभा चुनाव में अपने दम पर 272 के आंकड़े को भी नहीं छू पाए. पुतिन और नेतन्याहू बनने की चाह थी, तालिबान के शरिया राज की तरह हिंदू राज बनाने की चाह थी, लेकिन अब गठबंधन में शामिल दलों की बैसाखियों के सहारे किसी तरह सरकार बनाने की जुगत करते नज़र आ रहे हैं. जनता ने साफ संदेश दे दिया कि लोकतंत्र में मनमानी और हिंसा नफरत की राजनीति लंबे समय तक नहीं चलेगी.

भारत दुनिया में सब से ज्यादा आबादी वाला देश है और सियासी निगाह से दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र. लोकतंत्र यानी लोगों का तंत्र, लोगों की मर्जी, उन की पसंद, उन के प्रतिनिधि, उन की समस्याएं और उन की चुनी हुई सरकार से उन समस्याओं का निदान. जनता की समस्या भूख, गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई थी, लेकिन मोदी सरकार जनता की समस्याओं को ताक पर रख कर मंदिरमंदिर, मुसलिममुसलिम खेलती रही. मोदी के शासन में भारत का लोकतंत्र निरंकुशता में तब्दील हो गया. बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट दिया गया. यह सब इसलिए संभव हो सका क्योंकि विपक्ष कमजोर था.

विपक्ष या विपक्षी पार्टियां जब मजबूत नहीं होती हैं तो सत्ताधारी पार्टी को मनमानी करने की गुंजाइश मिलती है. इस से लोकतंत्र के बाकी तीनों धड़े – विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया कमजोर पड़ जाते हैं. ऐसे हालात में मीडिया फायदे के लिए या दबाव में एकतरफा हो जाता है और उस में काम करने वाले लोगों को स्वतंत्रता और निष्पक्षता से काम करने में अड़चन आती है. जो कि मोदी सरकार में साफ देखा गया.

सब से मोटी बात तो यह है कि कोई सरकार चाहे दक्षिणपंथी हो, समाजवादी हो या फिर साम्यवादी. गलतियां सभी करती हैं और करेंगी भी. पर उन गलतियों पर किसी की नजर होनी बहुत जरूरी है. मीडिया या न्यायालय यह काम अकेले नहीं कर सकते, इसलिए संसद में सत्ताधारी पार्टी के सामने एक मजबूत विपक्ष आवश्यक होता है. लोकसभा चुनाव-2024 के नतीजों ने साफ कर दिया है कि जनता को केवल बहुमत की सरकार ही नहीं, देश में एक मजबूत विपक्ष भी चाहिए. कांग्रेस के नेतृत्व वाले ‘इंडिया’ गठबंधन को लोकसभा में मिली बड़ी कामयाबी इस बात का प्रमाण है.

चुनाव नतीजों में कांग्रेस ने जैसी वापसी की है, उस में सत्ता से वह भले दूर रह गई हो मगर यह तय हो गया है कि 18वीं लोकसभा में आधिकारिक रूप से नेता विपक्ष होगा. भाजपा-राजग गठबंधन की सरकार तीसरी बार कमान संभालती है तो उसे संसद में अब तक के सबसे ताकतवर विपक्ष से रूबरू होना पड़ेगा.

विपक्ष के मजबूत होने से संसद में आम सहमति के राजनीतिक दौर की वापसी का रास्ता बनेगा क्योंकि भाजपा-राजग सरकार को तीसरी पारी में संसद में अपने नीतिगत फैसलों से ले कर हर अहम विधायी कार्य के लिए विपक्ष के सहयोग की जरूरत पड़ेगी. इस बार के जनादेश की खूबसूरती यही है कि जनता ने सरकार और विपक्ष से देश के व्यापक हित से जुड़े सवालों पर एकदूसरे से संवाद करने और जहां जरूरत हो, सहयोग भी करने की अपेक्षा की है.

इस से पहले अटल बिहारी वाजपेयी की 1998 में बनी भाजपा-राजग की सरकार के समय विपक्ष काफी मजबूत था और यही वजह रही कि 1999 में जब अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था तब वाजपेयी सरकार एक वोट से हार गई थी. 2004 में जब कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग की सरकार बनी थी तो भाजपा 137 सीटों के साथ दमदार विपक्ष के रूप में थी मगर तब भी विपक्षी दलों की संयुक्त ताकत इतनी नहीं थी जितनी 2024 में चुनी गई लोकसभा में है.

2009 में भी कमोबेश स्थिति ऐसी ही थी मगर 2014 तथा 2019 में कांग्रेस के कमजोर संख्या बल के कारण पार्टी को विपक्ष का आधिकारिक दर्जा नहीं मिल पाया था. लोकसभा में विपक्ष के कमजोर होने से मोदी सरकार निरंकुश हो गई थी. तमाम राष्ट्रीय जांच एजेंसियों और मीडिया हाउसेस को अपने काबू में कर के विरोधियों के उत्पीड़न और दमन में लगी थी.

देश में पहली बार ऐसा हुआ कि चुनाव से कुछ महीनों पहले विपक्ष के प्रमुख नेता राहुल गांधी संसद से निलंबित कर दिए गए. यहां तक कि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस और विपक्ष के कई नेताओं के बैंक खाते फ्रीज कर दिए गए. पहली बार ऐसा हुआ कि विपक्ष को दबाने के लिए जांच एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल किया गया और दो मौजूदा मुख्यमंत्री चुनाव से ऐन पहले जेल भेज दिए गए. दिल्ली सरकार के तो मुख्यमंत्री सहित पहली पंक्ति के सारे मंत्री ही जेल में ठूंस दिए गए.

19वीं सदी में मशहूर इतिहासकार लौर्ड एक्टन ने एक पादरी को खत में लिखा था, ‘पावर टेंड्स टू करप्ट, एब्सोल्यूट पावर टेंड्स टू करप्ट एब्सोल्यूटली’. हिंदी में इस अर्थ है कि सत्ता-मोह आप को भ्रष्ट बना देता है और सत्ता पूरी तरह आप के हाथ में होना आप को पूरी तरह भ्रष्ट बना देता है. यह कहावत आज भी उतनी ही पुख्ता है, जितनी 19वीं सदी में रही होगी.

मोदी के 10 साल के शासन के दौरान, भारत बहुसंख्यकवाद की ओर बढ़ने लगा था. यह स्थिति न सिर्फ लोकतंत्र को कमजोर कर रही थी बल्कि अल्पसंख्यकों के लिए गंभीर असुरक्षा पैदा हो गई थी. मोदी की विभाजनकारी राजनीतिक बयानबाजी लगातार मुसलमानों को निशाना बना रही थी. हिंदू राष्ट्र बनाने की धुन में सांप्रदायिक हिंसा एक गंभीर मुद्दा बन गई थी. धार्मिक आधार पर सामाजिक ध्रुवीकरण तेज हो गया था. मोदी के शासन में घृणा अपराध और धार्मिक रूप से प्रेरित हिंसा – जिस में लिंचिंग भी शामिल है – में काफी वृद्धि हुई.

मोदी सरकार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट दिया था, खासकर उन लोगों के लिए जो सरकार या उस की नीतियों की आलोचना करते थे. भारत में न्यायपालिका, चुनाव आयोग और कानून प्रवर्तन एजेंसियां जैसी लोकतांत्रिक संस्थाएं राजनीतिक हस्तक्षेप और सत्तारूढ़ दल के दबाव के कारण कमजोर हो गईं और न्याय और समानता के सिद्धांतों को कायम रखने में बुरी तरह विफल होने लगीं.

इन तमाम संवैधानिक सुरक्षा उपायों और संस्थाओं के लड़खड़ाने के साथ, अगर मोदी नीत एनडीए पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पर विराजती तो इस में कोई संदेह नहीं था कि भारत के 20 करोड़ मुसलमानों को दूसरे दर्जे की नागरिकता दे दी जाती या उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया जाता. वहीं दलितों और ओबीसी के लिए आरक्षण भी समाप्त कर उन को पुनः सवर्ण जातियों का दास बना दिया जाता. इस में कोई शक नहीं कि तानाशाह जब अपनी पर आता तो आने वाले वर्षों में भारत अपने धर्मनिरपेक्ष चरित्र को त्याग कर संवैधानिक रूप से एक हिंदू देश बन जाता.

मगर इस बार के जनादेश ने एनडीए का आंकड़ा 300 तक भी नहीं पहुंचने दिया. जनता ने लोकतंत्र को तानाशाही में तब्दील होने से रोक लिया. जनादेश में एनडीए को जीत भले दिलवाई मगर कई सबक भी सीखा दिए. इंडिया गठबंधन को भले सत्ता नहीं दी मगर इतनी मजबूती दे दी कि अब विपक्ष की आवाज दबने वाली नहीं है. सही मायनों में मजबूत विपक्ष सत्ता के सामने सीना तान कर खड़ा है, यही लोकतंत्र की बुनियाद है.

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