पुरोहिताई पुस्तकों में एकादशी व्रत का बहुत महत्त्व बताया गया है. इस व्रत का पुण्य ट्रांसफरेबल है, जिस के बल पर पीढि़यों से नरक में पड़े हुए व्रती के पुरखे स्वर्ग पहुंच जाते हैं. मध्य व उत्तर भारत के गांवों में पुरोहित लोग प्रति एकादशी को भिक्षा लेने घरघर जाते हैं.
भाल पर तिलक लगाए और दोनों कंधों पर खोली ( झोली) लटकाए पंडितजी ‘आज ग्यारस हो गई भाई’ कहते हुए दालान या आंगन के चबूतरे पर बैठ जाते हैं. गृहिणी सब काम छोड़ कर थाली में आटादाल, नमकमिर्च आदि रख कर पंडितजी को देती हैं व पैर पड़ती हैं. पंडितजी दिया हुआ सामान खोली में भर कर दूसरे घर पहुंच जाते हैं. आजकल मोबाइल से बुकिंग भी होने लगी है.
एकादशी व्रत उद्यापन पूजा के लिए ब्राह्मण की औनलाइन बुकिंग कराई जा सकती है. इस की कीमत 6,000 रुपए से 10,000 रुपए तक है. बेंगलुरु में मिलने वाली यह सेवा फलफूल के साथ 8,300 रुपए एडवांस में देने पर मिलती है.
2 पंडित आते हैं, सारा सामान लाते हैं. दिल्ली में 11,000 रुपए में एक पंडित यह सेवा दे रहा है, सामग्री सहित 21,000 रुपए लेता है.
ग्यारस से कैसे पाप मुक्त
आप ने अकसर किसी पार्टी या पंगत में स्त्री व पुरुषों को कहते सुना होगा कि ‘आज मेरी ग्यारस है.’ इस का अर्थ यह हुआ आज मैं अन्न ग्रहण नहीं करूंगा.
इस व्रत को विधवाएं अधिक करती हैं. इस का कारण यह है कि मृतक (पति) के दशाकर्म (मृत्यु के 10 दिनों बाद) परिवार की ‘शुद्धि’ के नाम पर पंडित से कराई जाने वाली लूट की धार्मिक रस्म की पूजा के बाद चढ़ावे का सामान समेटते हुए विधवा से पंडितजी कहते हैं, ‘भगवान की इच्छा को कोई रोक नहीं सकता, अब बहन तुम को प्रत्येक ग्यारस का व्रत रखना है ताकि तुम्हारे पुण्य के प्रताप से पति की भटकती हुई आत्मा का उद्धार (स्वर्ग जाना) हो जाए.’
विधवा जानकार की भी यह कहानी ही है, दूसरों से कहने पर व्रत रख कर अपने पुण्य के बल (पुण्य ट्रांसफर कर) पर पति को स्वर्ग भेजेगी.
वर्ष में 12 माह (किसी वर्ष अधिक लौंद मास) होते हैं. प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष व शुक्ल पक्ष को मिला कर 24 ग्यारसें होती हैं. अधिक मास होने पर 26 होती हैं. अंधविश्वासी हिंदू सभी ग्यारसों का व्रत रखते हैं.
‘एकादशी व्रत कथा’ नामक पुस्तक में पंडितों ने 26 एकादशियों की कथाएं लिखी हैं और उन के अलगअलग नाम दिए हैं. अधिकांश कथाओं का महत्त्व कृष्ण (विष्णु भगवान) से कहलवाया है. कुछ कथाएं ब्रह्मा, नारद, अंगिरा व वशिष्ठ आदि ऋषिमुनियों से भी कहलवाई हैं. जब भगवान, ब्रह्मा और ऋषिमुनि कहेंगे तो विश्वास करना ही पड़ेगा.
प्रत्येक कथा में व्रत रखने के साथ व्रती को विष्णु भगवान (कृष्ण) की पूजा और रात्रि जागरण बताया है. इस व्रत के पुण्य से व्रती के पितरों का उद्धार होता है, सौभाग्य (स्त्रियों के लिए) धन संपत्ति, पुत्र की प्राप्ति होती है. सुखशांति और प्रत्येक काम में सफलता मिलती है. अंत समय में व्रती विष्णु भगवान के विमान या गरुड़ पर सवार हो कर स्वर्ग जाता है, जहां इंद्रादि देवता उस का स्वागत करते हैं.
लेकिन मृत्यु के समय विष्णु का विमान या गरुड़ तभी आएगा जब पुराहितों व ब्राह्मणों को दान देंगे व मालपुआ खिलाएंगे. हर एकादशी की कथा में ब्रह्मभोज कराने का उल्लेख है. समग्र रूप से व्रती घर, स्वर्ण आभूषण, चांदीपीतल के बरतन, हाल ही ब्याही हुई बछड़ा सहित कपिला गाय, पंडित व पंडितानी को कपड़े, शृंगार-सामान, सात प्रकार का अनाज, बिस्तर सहित शैया, दूधदही, घी, शहद, जूते आदि पंडितों को दान करे व शक्ति अनुसार दक्षिणा दे. पुरोहित व ब्राह्मणी की पूजा कर उन का चरणामृत (पैरों का धोवन) पान कर विदा करे.
अब पंडित लोग कैश ही चाहते हैं. सभी एकादशियों की कथा छोटे से लेख में न संभव है और न उचित. कुछ एकादशियों की कथा अति संक्षेप में प्रस्तुत है ताकि धर्मभीरु लोगों को मालूम हो कि धर्म के धंधेबाज बेसिरपैर की काल्पनिक कथाओं को गढ़ कर किस प्रकार उन को लूट रहे हैं. इसी धंधे को चलाने के लिए हिंदूहिंदू के नारे लगवाए जाते हैं.
दैत्य आतंक व दुर्दशा
‘एकादशी महात्म्य’ पुस्तक में सब से पहले मार्ग (अगहन) माह कृष्ण पक्ष की एकादशी की कथा दी गई है. पंडितजी (पुस्तक लेखक) ने इस का नाम ‘उत्पन्ना’ दिया है. यह कथा भगवान कृष्ण ने अर्जुन को सुनाई है. कथा इस प्रकार है-
सतयुग में नाड़ीजंग नामक एक दैत्यराज था. उस की राजधानी चंद्रवती नामक नगरी थी. नाड़ीजंग का पुत्र मुरे दैत्य बहुत प्रतापी था. कथा कहती है कि उस ने पूरे विश्व को जीत कर इंद्र आदि सब देवताओं को देवलोक से निकाल दिया. देवता अपनी रक्षा के लिए शिवजी के पास जाते हैं पर शिवजी उन को विष्णु के पास भेज देते हैं.
देवताओं ने विष्णु के पास जा कर मुरे दैत्य का आतंक और अपनी दुर्गति सुनाई. उन्होंने विष्णु से कहा कि वह (मुरे) इंद्र, अग्नि, यम, वरुण, चंद्र व सूर्य बन कर पूरी पृथ्वी को तपा रहा है. मेघ बन कर जल वर्षा रहा है. सो, आप उसे मार कर हमारी रक्षा कीजिए.
इंद्र व देवताओं की प्रार्थना पर विष्णु अपना सुदर्शन चक्र ले कर मुरे दैत्य को मारने के लिए चल देते हैं. मुरे दैत्य से लड़तेलड़ते विष्णु थक जाते हैं. अपनी थकावट दूर करने के लिए वे बद्रिका आश्रम की एक गुफा में विश्राम करते हैं. इधर, विष्णु से लड़ने के लिए मुरे दैत्य भी पहुंच जाता है. शयन करते हुए विष्णु के शरीर में से एक कन्या प्रगट होती है. वह मुरे से लड़ती है और उसे मार डालती है.
जब विष्णु जागे तो उन्होंने मुरे दैत्य को मरा पाया. वे सोच में पड़ गए कि इसे किस ने मारा. इतने में कन्या हाथ जोड़ कर कहती है, ‘हे भगवन, यह दैत्य आप को मारने को तैयार था, तब मैं ने आप के शरीर से उत्पन्न हो कर इस का वध कर दिया.’ तब विष्णु भगवान प्रसन्न हो कर उस से वर मांगने को कहते हैं. इस पर कन्या कहती है, ‘हे भगवन, मु झे यह वर दीजिए कि जो मेरा व्रत करे उस के समस्त पाप नष्ट हो जाएं.’
कन्या के वर मांगने पर विष्णु बोले, ‘हे कन्या, तेरा नाम ‘एकादशी’ होगा. जो मनुष्य तेरा व्रत करेंगे उन के समस्त पाप नष्ट हो जाएंगे और अंत में स्वर्ग जाएंगे.’ कथा के अनुसार, एकादशी को उत्पन्न कर विष्णु भगवान अंतर्धान हो गए.
इस कथा पर कई प्रश्न उठते हैं. देवता तो करामाती और पावरफुल हैं. वे विमानों में यात्रा करते हैं, अनेक रूप बदल लेते हैं और अदृश्य हो जाते हैं. फिर एक अदना से दैत्य से क्योंकर हारे? मुरे दैत्य सूर्य, अग्नि, चंद्र, मेघ आदि कैसे बन जाता था? विष्णु ईश्वर हैं, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान हैं, फिर मुरे दैत्य को क्यों नहीं मार सके? उन को यह भी पता नहीं पड़ा कि मुरे कैसे मरा? कन्या विष्णु के शरीर में से कैसे निकली? वह ‘एकादशी’ कैसे बनी? पंडितजी यदि महीनों, दिनों व अन्य तिथियों की उत्पत्ति भी बता देते तो पुरोहितों के धंधे (धर्म के) में और इजाफा हो जाता.
माघ शुक्ल पक्ष (जया) एकादशी की कथा
इस कथा में कृष्ण से कहलाया गया है कि एक समय इंद्र ने अप्सराओं के साथ रमण किया. थक जाने के बाद वह उन को नचाने लगा. नाचगाने में पुष्पवती नामक अप्सरा और माल्यवान नामक गंधर्व भी थे. नाचते समय वे दोनों कामातुर हो जाते हैं जिस से दोनों का मन नाचगाने में नहीं लगा. इसे इंद्र ताड़ गए और उन्होंने अपना अपमान सम झ कर दोनों को श्राप दिया कि मृत्युलोक में जा कर पिशाच बनो.
श्राप के प्रभाव से दोनों पिशाच योनि को प्राप्त हुए. एक दिन उन को कुछ भी खाने को नहीं मिला. उस दिन माघ शुक्ल पक्ष की एकादशी थी. ठंड के दिन थे. दोनों ने परस्पर चिपक कर एक पेड़ के नीचे रात्रि व्यतीत की. द्वादशी के दिन सुबह दोनों अलग हुए तो पुष्पवती सुंदर अप्सरा और माल्यवान गंधर्व के रूप में दिखे.
कथा के अनुसार, यह एकादशी का प्रभाव था क्योंकि अन्नाभाव के कारण उस दिन दोनों को भूखा रहना पड़ा था. सुंदर वस्त्र पहन कर दोनों स्वर्ग पहुंचे तो इंद्र ने उन का स्वागत किया और कहा कि यह एकादशी का प्रभाव है.
हिंदू संस्कृति के रक्षक सिनेमा के भद्दे पोस्टर देख कर पूरे देश में हुल्लड़ मचाते हैं. लेकिन इस कथा में कितना नंगापन है जिसे पंडेपुरोहित नयन नचा कर और हाथ मटका कर महिलाओं के बीच में पढ़ते हैं. इसे कमाल ही कहा जाएगा कि (जया) एकादशी के दिन कुछ खाना न मिला तो उसे व्रत मान लिया गया और उस का तत्काल सुफल भी मिल गया. जबकि, भूखे व्यक्तियों को यह पता ही नहीं है कि आज एकादशी है.
चैत्र कृष्ण पक्ष (पाप मोचनी) एकादशी की कथा
इस एकादशी की कथा कृष्ण ने लोमस ऋषि से सुनी है. कथा के अनुसार प्राचीन काल में चेत्ररथ नामक वन में अप्सराएं रहती थीं. उसी वन में च्यवन ऋषि के पुत्र मेधावी ऋषि भी तपस्या करते थे. मंजुघोषा नामक अप्सरा मेधावी ऋषि पर मोहित हो जाती है. मेधावी ऋषि को कामातुर करने के लिए उस ने अपनी, ‘भौंहों को धनुष बनाया, कटाक्ष (चितवन) को डोरी, नेत्रों को संकेत (तीर का फल) और कुचों को लक्ष्य (निशान) बना कर मेधावी ऋषि को कामातुर कर दिया. काम के वशीभूत हो कर ऋषि उस के साथ रमण करने लगे.’
मेधावी ऋषि 57 वर्ष 7 माह 3 दिन तक रमण करते रहे. समय का ज्ञान होने पर वे अप्सरा को श्राप देते हुए कहते हैं, ‘रे दुष्टे, तू ने मेरे तप को नष्ट कर दिया, इसलिए तू पिशाचनी बन जा.’
मंजुघोषा पिशाचनी हो कर मुनि से पूछती है, ‘आप मु झे श्रापमुक्ति का उपाय बताइए.’
इस पर मुनि ने कहा, ‘तू चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की (पाप मोचनी) एकादशी का व्रत कर. इस से तेरे सब पाप नष्ट हो जाएंगे और तू सुंदर स्त्री बन जाएगी.’ उस ने पाप मोचनी एकादशी का व्रत किया. व्रत के प्रभाव से उस के सब पाप नष्ट हो गए और वह सुंदर स्त्री बन गई. च्यवन ऋषि के कहने से मेधावी ने भी इस एकादशी का व्रत किया और पापमुक्त हो गए.
अश्लीलताभरी कथाएं
बताइए, कथा कितनी अश्लील है. ऋषि 57 वर्ष 7 माह 3 दिन तक लगातार कैसे रमण करते रहे? क्या दोनों को भूखप्यास नहीं लगी होगी? समय की गणना कैसे की होगी? फिर तो लोग परस्त्री और परपुरुष गमन करें तथा इस एकादशी का व्रत रख, पाप से छुटकारा पाएं. कुकर्म दूर करने का इस से सस्ता नुस्खा क्या हो सकता है. वहीं यदि कालेज के लड़केलड़कियां नयन लड़ाएं तो हम पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव बता कर उन को बदनाम करते हैं. धन्य है कथा लेखक और कथावाचक, वे भी धन्य हैं जो ऐसी अश्लील कथाओं पर विश्वास कर व्रत रखती हैं.
यह बात दूसरी है कि राष्ट्रपति को सरकारी संसद और सरकारी मंदिर में भी प्रवेश के समय नहीं बुलाया जाता क्योंकि ये सारी पूजाएं असल में द्विजों के लिए ही होती हैं, हालांकि अब दूसरे भी करने लगे हैं. इस में पैसा बनता है और वोट भी मिलते हैं, इसलिए कोई सवाल नहीं उठाता.
हमारे देश की राष्ट्रपति एक महिला हैं. 10 वर्षों से देश की जनता को मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है. महंगाई आसमान छू रही है. अगर कोई पंडित, राष्ट्रपति से देवशयनी एकादशी का व्रत रखने को कह देता तो जनता को ये दुर्दिन न देखने पड़ते.
इन सब कथाओं में बराबर कहा जाता है कि केवल व्रत व पूजा से स्वर्ग नहीं मिलने वाला. व्रती को पंडित के लिए भूमि, स्वर्ण, हाल की ब्याही हुई बछड़ा सहित गाय, शैया, घी आदि दान देने से ही स्वर्ग की गारंटी है.
दुकान चलाते पंडे
सभी कथाओं का सार यह निकला कि एकादशी का व्रत रखने से व्यक्ति भिखारी से धनी बन जाता है, स्त्रियों का सौभग्य अमर रहता है, पुत्र की प्राप्ति होती है, बीमारियां दूर होती हैं और समस्त पाप नष्ट हो कर अंत में स्वर्ग मिलता है.
अगर ये कथाएं सही होतीं तो आज एक भी हिंदू गरीब न होता और न पुत्रहीन, अंधा, बहरा, विकलांग व बीमार भी कोई नहीं दिखता. सौभाग्य का जहां तक प्रश्न है, समाज में विधवाएं ही अधिक मिलेंगी और विधुर कम. जबकि, स्त्रियां ही अधिक व्रत रखती हैं.
साधुसंत व पंडेपुरोहित प्रत्येक एकादशी का व्रत रखते हैं. पर इन की मृत्यु के बाद विष्णु का विमान या गरुड़ को आते किसी ने नहीं देखा. वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष का कोनाकोना छान मारा पर स्वर्ग कहीं भी नहीं दिखा.
प्रत्येक एकादशी व्रत में पंडोंपुरोहितों को भोजन कराने व दानदक्षिणा देने से ही मरने के बाद स्वर्ग मिलना बताया जाता है. इस का अर्थ यह हुआ कि भोलेभाले और धर्मभीरु हिंदुओं को और उन के वोट पाने के लिए ही ये व्रतकथाएं आज भी कराई जाती हैं. जब एकादशी के व्रत रखने से समस्त कुकर्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं तो व्यक्ति कुकर्म करने से क्यों डरेगा. सो, क्या ये व्रतकथाएं पापों को बढ़ावा नहीं देती हैं?
सम झ में नहीं आता है कि लोग सदियों से इन अश्लील, बेसिरपैर और तर्कहीन कथाओं पर कैसे विश्वास करते आ रहे हैं? समस्या यह है कि विदेशों में बसे भारतीय मूल के हिंदू वहीं भी ये सब करतेकरवाते हैं और वहां भी पंडित मजे से दुकानें चला रहे हैं.