भोपाल का यह हादसा दुखद है लेकिन इस का दोहराव किसी और के साथ न हो इसलिए दिखने वाली बहुत सी बातों के अलावा उन कुछ बातों पर भी गौर करना जरूरी है जिन्हें आमतौर पर नजरअंदाज कर दिया जाता है.
बीती 5 मई को भोपाल के साकेत नगर में रहने वाले गौरव राजपूत अपनी पत्नी अर्चना और दोनों बेटों 9 वर्षीय आरुष और 2 वर्षीय आरव सहित सीहोर के नजदीक क्रीसेंट वाटर पार्क में गए थे. साथ में, उन की भाभी भी थीं. मकसद था, इतवार की छुट्टी का सही इस्तेमाल करते परिवार के साथ क्वालिटी टाइम बिताना, जो आजकल बहुत आम चलन है. पेशे से पेपर ट्रेडर गौरव को रत्तीभर भी अंदाजा या एहसास नहीं था कि एक ऐसा हादसा क्रीसेंट में उन का इंतजार कर रहा है जो जिंदगीभर उन्हें सालता रहेगा.
स्विमिंग पूल पर पहुंचते ही सभी ने तैराकी का लुत्फ उठाना शुरू कर दिया और उस में मशगूल हो गए. इसी दौरान आरुष कब पानी में डूब गया, इस की भनक किसी को नहीं लगी. कुछ देर बाद अर्चना का ध्यान उस पर गया. उन्होंने बेटे को पानी से निकालते पति को आवाज दी, फिर तो वाटर पार्क में हल्ला मच गया. बेहोश आरुष को ले कर गौरव और अर्चना नजदीकी अस्पताल पहुंचे जहां डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया. इस के बाद शुरू हुआ आरोपप्रत्यारोपों का सिलसिला.
अर्चना और गौरव का कहना था कि क्रीसेंट की तरफ से कोई मदद नहीं मिली, न उन्होंने फर्स्टएड बौक्स दिया और न ही उन के पास स्ट्रेचर था. और तो और, मौके यानी पूल पर कोई इंचार्ज और कोई गार्ड नहीं था. उलट इस के, प्रबंधन का कहना था कि लापरवाही के ये आरोप झूठे हैं. मौके पर लाइफगार्ड मौजूद थे और उन्होंने ही बच्चे को अस्पताल पहुंचाया था. हमारे पास खुद की एम्बुलैंस है.
पुलिस ने जांच शुरू कर दी. अब मामला अदालत में जाएगा लेकिन इस से आरुष वापस नहीं आने वाला. हां, दोषी अगर कोई पाया जाता है तो उसे जरूर सजा मिलनी चाहिए. आइंदा कोई आरुष ऐसे हादसे का शिकार न हो, इस के लिए जरूरी है कि पेरैंट्स अपने बच्चों की परवरिश के मौजूदा तौरतरीकों पर गौर करें और जहां कमियां या खामियां दिखें, उन्हें सुधारें क्योंकि बच्चों से ताल्लुक रखते ऐसे हादसे अब आएदिन की बात हो चले हैं.
आरुष की मौत के कुछ दिनों पहले ही भोपाल के ही एक मैरिज गार्डन के स्विमिंग पूल में एक और बच्चे की मौत हो गई थी और एक बच्ची को बेहोशी की हालत में अस्पताल में भरती कराना पड़ा था. ऐसा हर कभी हर कहीं हो रहा होता है कि कोई बच्चा बहुत मामूली लापरवाही के चलते मौत का शिकार बन रहा होता है और मांबाप सहित पूरा परिवार सदमे में डूब जाता है. और तो और, ऐसी खबर पढ़ने वालों को भी दुख होता है जो बेहद स्वाभाविक बात है.
आयुष की मौत के दूसरे ही दिन राजस्थान के बाड़मेर में पानी की डिग्गी में नहाने उतरे 2 मासूमों की मौत हो गई थी. इस हादसे में 15 वर्षीय रमेश और 16 वर्षीय गोसाईं डिग्गी में नहा रहे थे कि तभी काई पर फिसलने से दोनों डूब कर मर गए. डिग्गी वह छोटी सी जगह होती है जहां खेत में सिंचाई का पानी स्टोर किया जाता है. इसी दिन राजस्थान के ही डूंगरपुर में 12 वर्षीय देवास मीणा की मौत भी भीखाभाई केनाल में बह जाने से हो गई थी.
इन और ऐसे तमाम हादसों से यह एक बात साफ तौर पर जाहिर होती है कि जरूरत के वक्त बच्चों के पास मदद उपलब्ध नहीं होती. कोई और इन की सहायता करने पहुंच पाता, उस के पहले ही ये मौत के मुंह में पहुंच गए. जाहिर यह भी होता है कि इन बच्चों की उम्र इतनी तो थी कि वे खुद की मदद कर सकते थे लेकिन इस के लिए उन्हें ट्रेंड नहीं किया गया था जो कि मौजूदा दौर के पेरैंट्स की एक बड़ी गलती और खामी है.
इन दिनों बच्चे बड़ी नजाकत से पाले जा रहे हैं. इतनी नजाकत से कि वे सामान्य सर्दी और गरमी भी बरदाश्त नहीं कर पाते. पेरैंट्स सर्दीजुकाम हो जाने के डर से उन्हें बारिश का लुत्फ भी नहीं उठाने देते. बच्चों को एलर्जी या इन्फैक्शन न हो जाए, इस के लिए उन्हें धूप और धूल में खेलने नहीं दिया जाता. चोट लगने के डर से उन्हें मैदानी खेलों में हिस्सा लेने से रोका जाता है. ऐसी कई गैरजरूरी सावधानियां खासतौर से 6 से 14 साल तक के बच्चों को मानसिक और शारीरिक तौर पर अपाहिज सा बनाए दे रही हैं. यह, दरअसल, न केवल बचपन बल्कि उन की आजादी छीनने जैसी भी बात है.
परवरिश के नाम पर उन्हें आजादी भी इस बात की पेरैंट्स देने की गलती कर रहे हैं कि वे जब चाहें स्वीगी या जोमैटो से कोई फास्ट और जंकफूड मंगा कर खा लें. बाहर जा कर जोखिमभरे खेल खेलें नहीं, इस के लिए उन के हाथ में मोबाइल पकड़ा दिया जाता है. घुमाने के नाम पर उन्हें गांवदेहातों की जिंदगी दिखाने से पेरैंट्स डरते हैं. हां, उस की फरमाइश या जिद पर मौल ले जाने के लिए एकपैर पर तैयार रहते हैं. ऐसे कई काम हैं जो, दरअसल, पेरैंट्स करते तो खुद की इच्छा से हैं लेकिन जिद बच्चों की मानते और बताते हैं.
कई बार तो लगता है कि वे अपने बच्चे नहीं, बल्कि गुलाम पाल रहे हैं. बच्चा बच्चा नहीं, बल्कि एक प्रोडक्ट हुआ जा रहा है जिसे बड़ा पेड़ बनने देने से पेरैंट्स ही रोक रहे हैं. एक पूरी पीढ़ी गमले में उगे नाजुक पौधों की तरह होती जा रही है जिसे दुनियादारी और व्यावहारिकता वक्त रहते नहीं सिखाई जा रही. नतीजतन, उन्हें एहसास और अंदाजा भी नहीं हो पाता कि नदी, नहर या स्विमिंग पूल में पानी कितना गहरा है और फिसल जाएं तो मदद कैसे मांगनी है और न मिले तो खुद खुद की मदद कैसे करनी है.
पेरैंट्स का डर अपनी जगह जायज नहीं कहा जा सकता. दरअसल, वे बच्चे को ले कर कम, खुद को ले कर ज्यादा डरे हुए होते हैं और ज्यादा से ज्यादा वक्त उसे अपनी पीठ पर लादे रखना चाहते हैं. एक दौर था जब दादादादी, नानानानी पांवपांव चलना सीख रहे बच्चे को गिरते देख ठहाका लगा कर हंसते थे जिस के पीछे उन का मकसद बच्चे को प्रोत्साहन देना और ज्यादा चलने देने का होता था. और आज के मांबाप हैं कि बच्चा जरा सा लड़खड़ाता है तो तुरंत उसे गोद में उठा लेते हैं. वे उसे अपनी उम्र के मुताबिक खतरों से जूझने देना और रिस्क नहीं उठाने देते जिस से बच्चा जवान हो जाने तक कई मानों में बच्चा ही रह जाता है.
भोपाल के पीयूष का एडमिशन 2 साल पहले जब बेंगलुरु के एक नामी कालेज में हुआ तो पेरैंट्स उसे वहां छोड़ने गए थे. यहां तक बात हर्ज की नहीं थी लेकिन पीयूष को परेशानी उस वक्त होना शुरू हुई जब हर बार मम्मीपापा उसे लेने और छोड़ने आनेजाने लगे. 2 साल बाद उसे अकेले आनेजाने का मौका या इजाजत कुछ भी कह लें मिले तो उसे लगा कि अब कहीं 20 का होने के बाद वह बड़ा हो पाया है. नहीं तो उस के अधिकतर दोस्त पहले ही सैमेस्टर से अकेले आनेजाने लगे थे. और सफर के किस्से बड़े मजे ले कर सुनाते थे जिस से पीयूष को लगता था कि वह अकेले सफर करने काबिल ही नहीं है. अच्छा तो यह हुआ कि पढ़ाकू होने के चलते इस गिल्ट और कम आत्मविश्वास का उस के कैरियर पर कोई असर नहीं पड़ा.
पीयूष जैसे बच्चों का बचपन और टीनएज कैसे गुजरता होगा, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. पलंग से नीचे उतरने के पहले ही उन्हें टूथपेस्ट लगा ब्रश तैयार मिल जाता है तो और क्याक्या नहीं होता होगा, इस का अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं.
शुक्र तो इस बात का है कि पेरैंट्स उन्हें खाना खुद चबा कर नहीं देते, अपने मुंह और दांतों से चबाने देते हैं. मुमकिन है, यह तुलना अतिशयोक्ति लगे लेकिन पेरैंटिंग का आज का सच इस के इर्दगिर्द ही है जिस के चलते बच्चे नाजुक और खूबसूरत तो दिखते हैं लेकिन उन में हिम्मत न के बराबर होती है. वे मेले में झूला झूलने से भी डरते हैं.
भोपाल के एक नामी स्कूल की स्पोर्ट्स टीचर की मानें तो 70 फीसदी पेरैंट्स उन से आग्रह करते हैं कि उन के लाड़ले या लाड़ली को बजाय हौकी, क्रिकेट या फुटबौल के, बैडमिन्टन, टेबिल टैनिस या शतरंज, कैरम जैसा इनडोर गेम खिलाएं जिस में चोट लगने का डर नहीं रहता. इन बड़े स्कूलों के बच्चे, कबड्डी क्या होती है, यह जानते ही नहीं.
ऐसा क्यों, यह तो खुद डरे हुए और बच्चों को भी डरपोक बनाते पेरैंट्स ही बेहतर बता सकते हैं जिन का तथाकथित पारिवारिक या सामाजिक वजहों से उतना लेनादेना होता नहीं जितना कि वे समझते हैं. बच्चे की हिफाजत किया जाना हर्ज की बात नहीं लेकिन इस आड़ में कहीं उन्हें खुद अपनी हिफाजत करना न सीखने देना हादसों की वजह अकसर भले ही न बने लेकिन उन के व्यक्तित्व पर असर तो डालता ही है.