अंबेडकर जयंती के अवसर पर 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता को संबोधित करते हुए कहा- कांग्रेस ने हमेशा डा.. बाबासाहेब अंबेडकर का अपमान किया, हम ने उन का सम्मान किया है. डा. बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा दिए गए संविधान के कारण ही आज एक आदिवासी महिला भारत की राष्ट्रपति बन सकी. जहां तक संविधान का सवाल है, आज बाबासाहेब अंबेडकर खुद भी आ जाएं तो वे भी संविधान खत्म नहीं कर सकते हैं. संविधान हमारी सरकार के लिए गीता, रामायण, बाइबिल और कुरान है.

लोकसभा चुनाव के दौरान पूरा विपक्ष संविधान को ले कर भाजपा पर हमलावर है. हिंदू राष्ट्र का राग अलापने वाली भाजपा के पास धर्म और राम मंदिर के अलावा कोई मुद्दा नहीं है. हिंदू धर्म संकट में है. राम मंदिर बनने और प्राणप्रतिष्ठा के बाद अब उस के नेता रामराज लाने का विलाप करते नज़र आ रहे हैं. महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार को ले कर मोदी-शाह सहित उन के किसी नेता की जबान से एक शब्द नहीं फूट रहा है. मुद्दे की बातें सिर्फ विपक्ष, ख़ासकर इंडिया गठबंधन, कर रहा है.

इलैक्टोरल बौंड को ले कर भाजपा की काफी फजीहत हो चुकी है. इस मामले में वह बैकफुट पर है. सफाई देतेदेते हालत पस्त है. भाजपा नेता चाहे टीवी चैनलों की डिबेट में बैठे हों या मंच से पब्लिक को संबोधित कर रहे हों, इलैक्टोरल बौंड के बारे में सिर्फ एक बात कहते दिख रहे हैं कि चंदा तो दूसरी पार्टियों ने भी लिया है. दरअसल, भाजपा नेता जनता को मूर्ख समझते हैं. क्या जनता नहीं समझ रही कि वास्तविक चंदा तो सचमुच अन्य पार्टियों को ही मिला है जो सत्ता में नहीं हैं और जो चंदे की एवज में देने वाले को कोई फायदा नहीं पहुंचा सकतीं, भाजपा ने तो बड़ीबड़ी कंपनियों से खुली धनउगाही की है, ईडी, सीबीआई और आयकर के छापे का डर पैदा कर के. कंपनियों ने उन को चंदा नहीं, रिश्वत दी है वह भी 6 हज़ार करोड़ रुपए से ऊपर.

ईवीएम से वोटिंग के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हालत पतली कर दी है. इलैक्ट्रौनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम के वोटों और वोटर वैरिफिएबल पेपर औडिट ट्रेल (VVPAT) परचियों की 100 फीसदी क्रौसचैकिंग की मांग को ले कर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई है और फैसला सुरक्षित रखा गया है. निष्पक्ष चुनाव हो, इस के लिए कोर्ट का वीवीपैट पर पूरा जोर है. इस को ले कर भी अब भाजपा खेमे की धुकधुकी बढ़ गई है.

अब तक होने वाले चुनावों में भाजपा सांप्रदायिकता पर खुल कर खेलती रही. ध्रुवीकरण के जरिए हिंदूमुसलिम कर के वह हिंदू वोटबैंक को अपने काबू में किए रही. मगर इस बार ध्रुवीकरण की नीति फेल हो गई. कोशिश तो बहुत हुई कि धार्मिक उन्माद पैदा किया जा सके मगर मुसलमानों की खामोशी ने देश में दंगे नहीं भड़कने दिए. मुसलमानों को भाजपा से जोड़ने की कोशिश भी नाकाम ही रही. उधर देशभर का किसान कमर कस कर बैठा है सबक सिखाने को. कई जगहों पर तो भाजपा नेताओं को गांवोंकसबों में लोग प्रचार के लिए घुसने ही नहीं दे रहे.

ऐसे में अंबेडकर जयंती के बहाने संविधान को गीता, कुरआन, बाइबिल से ऊपर बता कर प्रधानमंत्री ने न सिर्फ दलित को लुभाने की कोशिश की है बल्कि यह कह कर कि अंबेडकर के संविधान की बदौलत ही एक आदिवासी महिला को देश के सर्वोच्च पद पर बैठने का गौरव हासिल हुआ, उन्होंने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भी अपने चुनावी हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है. संघ और भाजपा की विचारधारा, जो मनु की वर्णव्यवस्था पर आधारित है, संविधान की सोच के बिलकुल विपरीत है. ऐसे में मोदी द्वारा संविधान का महिमामंडन क्या मनु की वर्णव्यवस्था को ख़त्म करने की दिशा में उठाया जाने वाला कदम नहीं है. और यदि सचमुच ऐसा है तो यह देशहित में उठाया गया बड़ा कदम है. क्या मोदी संघ के खिलाफ हुए जा रहे हैं? या ये बड़ीबड़ी बातें सिर्फ दलितों को लुभाने मात्र के लिए हैं?

तो कुल जमा यह कि भाजपा इस वक्त आक्रामक नहीं बल्कि रक्षात्मक मोड में है. ‘अब की बार चार सौ पार’ का नारा कमजोर पड़ता नज़र आ रहा है. लिहाजा, अब दलितों का सहारा तलाशा जा रहा है.

विपक्षी पार्टियों का मानना है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में अगर भाजपा को जीत हासिल होती है तो सब से पहले संविधान को ख़त्म किया जाएगा और देश तानाशाही के अधीन होगा. विपक्ष के इसी हमले का ही जवाब था 14 अप्रैल को मोदी का वह भाषण. अंबेडकर जयंती पर प्रधानमंत्री का दीक्षा भूमि, नागपुर जाने का कार्यक्रम भी था, जो अंतिम समय में स्थगित हो गया.

भारतीय जनता पार्टी का संकल्प पत्र और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संबोधन, वह भी अंबेडकर जयंती पर, इसे राजनीतिक नज़रिए से देखना तब महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब विपक्ष का सब से बड़ा आरोप यही है कि अगर प्रधानमंत्री को 400 सांसदों का समर्थन हासिल हो गया तो वे अंबेडकर के बनाए संविधान को बदल देंगे.

हालांकि, इन आरोपों का खंडन भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सरकार की ओर से कई बार किया जा चुका है. मोदी कह चुके हैं, “संविधान हमारे लिए गीता, बाइबिल, कुरान और सबकुछ है. संविधान को कोई नहीं बदल सकता. बाबासाहेब आ भी जाएं तो अब संविधान नहीं बदला जा सकता.”

संविधान में अपनी अटूट आस्था दिखाने के लिए ही प्रधानमंत्री मोदी ने डा. अंबेडकर के नाम का जिक्र किया.

गौरतलब है कि कभी भाजपा सरकार में मंत्री रहे अरुण शौरी ने ‘वर्शिपिंग फौल्स गौड्स’ नाम की किताब लिख कर बाबासाहेब की काफी आलोचना की थी. उस समय पार्टी ने उन के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की थी. संघ और भाजपा के तमाम बड़े नाम अंबेडकर और संविधान को गालियां देते रहे हैं. आज उसी पार्टी के नेता बाबासाहेब का नाम लेते नज़र आ रहे हैं. यह अंतर मुख्य रूप से पिछले कुछ सालों की राजनीति में देखने को मिल रहा है.

नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी से पहले लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे जिसे भारतीय जनता पार्टी अपना मूल संगठन मानती है. राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों के विद्वानों के मुताबिक मोदी की विचारधारा और डा.
अंबेडकर की विचारधारा को एकसाथ नहीं रखा जा सकता. दोनों एकदूसरे के बिलकुल विपरीत हैं. मगर 2024 की चुनावी वैतरणी पार करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अंबेडकर के विचारों को ‘समायोजित’ करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है. मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत अकसर अंबेडकर की प्रशंसा करते दिख रहे हैं, कहते सुने जा रहे हैं कि संघ के विचार अंबेडकर के विचारों के समान ही हैं. क्या सचमुच?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और डा. अंबेडकर के विचारों को ले कर जब भी बहस होती है कि ये एकजैसे हैं या नहीं हैं, तो सब से पहले जो शब्द दिमाग़ में आते हैं, वो हैं- ‘समता’ और ‘समरसता’.

इन दोनों अवधारणाओं के अर्थ में बारीक़ अंतर है. इंग्लिश में समता का अर्थ है इक्विलिटी यानी समानता जबकि समरसता का इंग्लिश में अर्थ है हारमनी. यही सूक्ष्म अंतर अंबेडकर और संघ के विचारों में भी दिखता है. बाबासाहेब हमेशा समानता पर ज़ोर देते हैं, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजकल सद्भाव पर ज़ोर दे रहा है. संघ वर्चस्व के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमेशा ही सद्भाव की अवधारणा का उपयोग करता रहा है, जबकि बाबासाहेब समानता की अवधारणा का उपयोग आज़ादी के लिए करते रहे हैं.

डा. भीमराव अंबेडकर के राजनीतिक जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था महाड़ सत्याग्रह. 20 मार्च,1927 को अंबेडकर और उन के अनुयायियों ने महाराष्ट्र के कोलाबा ज़िले के महाड़ में स्थित चावदार तालाब तक एक जुलूस निकाला था. वो लोग छुआछूत के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे.

हज़ारों की संख्या में अछूत कहे जाने वाले लोगों ने अंबेडकर की अगुआई में चावदार के एक सार्वजनिक तालाब से पानी पिया. सब से पहले डाक्टर अंबेडकर ने चुल्लू से पानी पिया और फिर उन का अनुकरण करते हुए उन के हज़ारों अनुयायियों ने पानी पिया.

उस समय अंबेडकर ने वहां मौजूद लोगों को संबोधित करते हुए कहा था, ‘क्या हम इसलिए यहां आए हैं कि हमें पीने के लिए पानी नहीं मिलता है? क्या हम यहां इसलिए आए हैं कि यहां के ज़ायक़ेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं? बिलकुल नहीं. हम यहां इसलिए आए हैं कि हम इंसान होने का अपना हक़ जता सकें.’

यह एक प्रतीकात्मक विरोध था जिस के ज़रिए हज़ारों साल पुरानी सवर्ण और सामंती सत्ता को चुनौती दी गई थी जो सामाजिक पायदान के सब से निचले स्तर के लोगों को वो हक़ भी देने के लिए तैयार नहीं थी जो जानवरों तक को हासिल था.

हाल में प्रकाशित अंबेडकर की जीवनी ‘अ पार्ट अपार्ट द लाइफ़ एंड थौट्स औफ़ बी आर अंबेडकर’ में अशोक गोपाल लिखते हैं, “महाड़ सत्याग्रह के समय सवर्ण हिंदुओं ने दलित बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को बुरी तरह से पीटा. यही नहीं, अंबेडकर के इस विरोध के एक दिन बाद 21 मार्च, 1927 को सनातनी हिंदुओं ने चावदार तालाब के पानी का ‘शुद्धीकरण’ किया था.”

मनु की वर्णव्यवस्था को निरंतर पुख्ता करने वाला संघ यही चाहता है कि दलितों और सवर्णो में जो अंतर है, वह बना रहे मगर सद्भावना के जरिए उन्हें अपने साथ मिलाए रखो. उन से दरियां तो बिछवाओ मगर कभी कुरसी मत दो.

इतिहास के शोधकर्ता और विचारक डा. उमेश बागड़े भी मानते हैं कि समानता और सद्भाव की 2 अवधारणाओं के बीच अंतर है, इसलिए डा. बाबासाहेब अंबेडकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिकाएं अलगअलग हैं.

वे कहते हैं, “बाबासाहेब ने 3 क्षेत्रों में असमानता देखी, जन्म से असमानता (जाति, धर्म आदि), विरासत से असमानता (धन, ज्ञान आदि) और उपलब्धि से असमानता. उन का स्पष्ट मत था कि उपलब्धि के कारण होने वाली असमानता के बजाय पहली 2 असमानताएं, यानी कि जन्म और विरासत की असमानताएं समाप्त होनी चाहिए. ऐसा लगता है कि उन की सारी कोशिशें इसी बात के लिए हैं. वहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख रहे माधव सदाशिव गोलवलकर पहली 2 असमानताओं को ‘प्राकृतिक’ बताते थे.”

जब बाबासाहेब ने ‘समता’ के मूल्य या अवधारणा को इस स्तर पर देखा, तो वे इस असमानता को सुलझाने के लिए कैसे तैयार हो सकते थे? इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता कि बाबासाहेब और संघ का समानता और सद्भाव का लक्ष्य एक ही था. दोनों विपरीत ध्रुव हैं. मोदी खेमे की चुनावी मजबूरी अगर दोनों को साथ लाने की कोशिश कर रही है, तो दलितों को इस धोखे में आने से बचना होगा.

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