Sarita-Election-2024-01 (1)

Loksabha Election 2024: विचारधारा का संकट आदिवासी बाहुल्य राज्य झारखंड में भी दस्तक दे चुका है. सियासी तौर पर देखा जाए तो 49 वर्षीया सीता सोरेन के झारखंड मुक्ति मोरचा छोड कर भाजपा जौइन कर लेने से कोई हाहाकार नहीं मच गया है लेकिन सामाजिक तौर पर इस घटना के अपने अलग माने हैं जो आदिवासी समुदाय की अपनी पहचान को ले कर उलझन को बयां करते हुए हैं. आजादी के बाद इस राज्य का इतना ही विकास हुआ है कि लोग राम और रामायण को जानने लगे हैं. इस का यह मतलब भी नहीं कि घरघर में रामायण या रामचरितमानस पढ़ी जाने लगी हो बल्कि यह है कि आदिवासियों, जो खुद को मूल निवासी कहते हैं, ने हिम्मत हारते एक समझौता सा कर लिया है कि अब राम ही उन की नैया पार लगाएगा. धर्म के इस प्रपंच से हमेशा ही आदिवासी समुदाय जिल्लत की जिंदगी जीता रहा है.

यह राम है कौन और कहां रहता है, यह इन्हें भाजपाई बता रहे हैं कि जल, जंगल और जमीन की लड़ाई मिथ्या है, तुम लोग नाहक ही भटक रहे हो और इस भटकाव से मुक्ति चाहते हो तो राम की शरण में आ जाओ जिस ने शबरी के झूठे बेर खा कर ही उस का उद्धार कर दिया था. सीता सोरेन के भगवा गैंग में चले जाने की दास्तां भी कुछकुछ ऐसी ही है कि वे सियासी मोक्ष की चाहत में रामदरबार की सब से पिछली कतार में कतारबद्ध हो कर जा बैठी हैं. अपने ससुर, देवर और परिवार से बगावत करने के एवज में उन्हें भाजपा से दुमका सीट से टिकट मिला है.

झारखंड की रामायण के इस यानी ‘सोरेन काण्ड’ को समझने के लिए सीता के बारे में यह जान लेना जरूरी है कि वे गुरुजी के नाम से मशहूर शिबू सोरेन की पुत्रवधू हैं. राजनीति में आने से पहले सरकारी अधिकारी रह चुके 80 वर्षीय शिबू सोरेन एक पके हुए राजनेता हैं. वे 3 बार झारखंड के मुख्यमत्री रह चुके हैं और गठबंधन के तहत केंद्रीय मंत्री भी रहे हैं. 70 के दशक में बिहार में पृथक झारखंड की मांग के लिए झारखंड मुक्ति मोरचा का गठन करने वालों में शिबू सोरेन प्रमुख चेहरा थे.

धीरेधीरे शिबू सोरेन की पकड़ झारखंड में मजबूत होती गई लेकिन इस दौरान उन की न केवल राजनीतिक बल्कि पारिवारिक जिंदगी भी उथलपुथल से भरी रही. जब वे स्कूली छात्र थे तभी उन के पिता की हत्या हो गई थी. इस के बाद 21 मई, 2009 को उन के बड़े बेटे दुर्गा सोरेन की बोकारो स्थित अपने घर में ही रहस्यमय मौत हो गई थी. तब मौत की वजह मस्तिष्क से नींद में ही खून का बह जाना सामने आई थी. लेकिन इस के बाद इस मौत को ले कर तरहतरह की बातें झारखंड में होती रहीं जिन में से एक यह भी थी कि दुर्गा सोरेन बेतहाशा शराब पीने लगे थे जिस से उन्हें कई बीमारियों ने घेर लिया था और उन की किडनियां फेल हो गई थीं.

लेकिन इस रहस्मय मौत का एक पहलू यह भी है कि दुर्गा सोरेन के सिर के पीछे चोटों के निशान होने की बात बोकारो के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक लक्ष्मण प्रसाद सिंह ने कही थी. उन्होंने यह भी कहा था कि दुर्गा सोरेन के बिस्तर पर खून के छींटे पाए गए थे. मौत के दिन हेमंत सोरेन यूपीए की एक मीटिंग में हिस्सा लेने दिल्ली गए हुए थे. दुर्गा सोरेन जामा विधानसभा से चुने गए थे जिन्हें शिबू सोरेन के सियासी वारिस के तौर पर भी स्वाभाविक रूप से देखा जाने लगा था.

दुर्गा सोरेन की मौत के बाद सीता राजनीति में सक्रिय हो गईं और जामा सीट से विधायक चुनी गईं. यहीं से उन की अपने ससुराल वालों से खटपट शुरू हुई. पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस-झामुमो के हक में आए तो शिबू सोरेन के मंझले बेटे हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री बनाया गया. सीता इस फैसले से नाखुश थीं, जो जल्द ही नाराजगी में भी तबदील हो गई. अपने बड़े भाई दुर्गा सोरेन की मौत के बाद हेमंत ने मोरचा संभाला और देखते ही देखते पार्टी पर अपनी पकड़ बना ली. प्रतिस्पर्धा में देवर से पिछड़ रहीं सीता को यह लगता रहा कि ससुर ने उन के साथ ज्यादती की है, दुर्गा सोरेन की पत्नी होने के नाते मुख्यमंत्री उन्हें बनाया जाना चाहिए था.

विरासत की इस लड़ाई में सीता पिछड़ी तो फिर पिछड़ती ही रहीं. उन की किरकिरी 2012 में जम कर हुई थी जब उन पर राज्यसभा चुनाव में पैसे ले कर वोटिंग का आरोप लगा था. और इस सिलसिले में वे 7 महीने जेल में भी रही थीं. उन पर जालसाजी सहित अपहरण का भी आरोप है. जैसे भी हो, हेमंत के झारखंड का मुख्यमंत्री बन जाने के बाद वे सीधेतौर पर ससुर और देवर से नहीं उलझना चाहतीं थीं, इसलिए उन्होंने हेमंत सोरेन सरकार पर 1932 खातियांन मुद्दे पर घेरना शुरू कर दिया. खातियांन 1932 हमेशा से झारखंड की राजनीति में संवेदनशील मुद्दा रहा है जिस का संक्षेप में सीधा सा मतलब यह है कि 1932 के वशंज ही झारखंड के असली निवासी माने जाएंगे. यानी, 1932 के सर्वे में जिस का नाम खातियांन में है, खतियान उसी के नाम माना जाएगा. अब हर कोई जानतासमझता है कि बहैसियत मुख्यमंत्री, हेमंत सोरेन के लिए यह मांग पूरी कर पाना आसान काम नहीं. खतियान 1932 आदिवासियों के लिए एक जज्बाती मुद्दा है, इसलिए सीता इसे उठाती रहीं.

हेमंत के लिए दिक्कत तो उस वक्त भी शुरू हो गईं जब दुर्गा और सीता सोरेन की बेटी जयश्री सोरेन भी उन्हें घेरने लगीं. बकौल जयश्री, अबुआ राज् (बिरसा मुंडा द्वारा दिया नारा) का सपना अभी भी अधूरा है. झारखंड के गरीब, आदिवासी और दलित अभी भी दबेकुचले हुए ही हैं. जिस मकसद से झारखंड की स्थापना की गई थी वह पीछे छूट गया है. जयश्री अपने मुख्यमंत्री चाचा को निशाने पर हर कभी लेती रही थी लेकिन मां की तरह उस के पास भी समर्थन का अभाव था. उस के सक्रिय होने से यह तो साफ़ हो गया कि अब शिबू सोरेन की तीसरी पीढ़ी भी राजनीति के मैदान में कूद चुकी है लेकिन अब उसूल गायब हैं. कभी वामपंथ की तरफ झुकाव रखने वाले झामुमो पर दक्षिणपंथ का असर दिखने लगा है. हालांकि यह अभी बहुत मामूली है लेकिन है तो.

सीता सोरेन, दरअसल, दक्षिणपंथी नहीं हैं लेकिन सत्ता के लालच में विभीषण बनते भाजपा में चली गईं तो बात कतई हैरानी की नहीं क्योंकि ऐसा देशभर में हो रहा है. दुर्गा सोरेन को अब झारखंड के लोग भूलने लगे हैं पर सीता उन की मौत को मुद्दा बनाने की कोशिश करते ससुराल वालों को शक के दायरे में खड़ा करने की कोशिश कर रही हैं और इस पर भाजपा खुल कर उन का साथ दे रही है. भाजपा में जाने की भूमिका तैयार करते उन्होंने रांची में मीडिया के सामने कहा था कि दुर्गा सोरेन की मौत की हाई लैवल जांच होनी चाहिए.

यह खालिस बहाना है, लड़ाई असल में कुरसी की है. दुर्गा ने अपनी देवरानी यानी हेमंत की पत्नी कल्पना सोरेन पर अपने अपमान का आरोप इसी प्रैस कौन्फ्रैंस में लगाया था. यह वह वक्त था जब झारखंड में सियासी उथलपुथल फिर शबाब पर थी क्योंकि हेमंत सोरेन जेल भेजे जा चुके थे और चम्पई सोरेन नए मुख्यमंत्री चुने गए थे. इधर भाव न मिलते देख सीता झामुमो पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते नरेंद्र मोदी के नाम की माला जपते बीती 19 मार्च को भगवा गैंग में शामिल हो गईं तो लोकसभा चुनाव थोड़ा दिलचस्प तो राज्य में हुआ है.

2019 के लोकसभा चुनाव में दुमका से शिबू सोरेन की अप्रत्याशित हार हुई थी जिन्हें भाजपा के सुनील सोरेन ने 47 हजार के लगभग वोटों से हरा कर 2014 की अपनी हार का बदला ले लिया था. भाजपा ने इस बार सुनील सोरेन का टिकट काट कर सीता सोरेन को दल और विचारधारा बदलने का इनाम दिया है. इंडिया गठबंधन की तरफ से झामुमो के नलिन सोरेन मैदान में हैं. मुकाबला कांटे का भी और दिलचस्प भी है क्योंकि दुमका की कोई 93 फीसदी आबादी ग्रामीण है. शिबू सोरेन यहां से 3 बार सांसद चुने जा चुके हैं लेकिन पिछले चुनाव में भाजपा की जीत से साबित यह हुआ था कि अकेले दुमका में ही नहीं, बल्कि झारखंड की पूरी 14 सीटों पर भगवा लहर चली थी. भाजपा गठबंधन ने 50 फीसदी वोटों के साथ 12 सीटें झटक ली थीं. लेकिन इसी साल हुए विधानसभा चुनाव में बाजी पलट गई थी. झामुमो-कांग्रेस गठबंधन ने विधानसभा की 81 में से 46 सीटें ले जा कर भाजपा के मंसूबों पर पानी फेर दिया था जो 25 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी से उपजी सहानुभूति का फायदा अगर झामुमो को मिल पाया तो भाजपा की राह आसान नहीं रह जाएगी.

बात जहां तक सीता सोरेन की है तो उन का पाला बदलना उन्हें महंगा भी पड़ सकता है. 2 महीने पहले तक वे शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन की तारीफों में कसीदे गढ़ते भाजपा और राम को कोसते थकती नहीं थीं लेकिन अब भाजपा उन्हें विकास करने वाली पार्टी और राम आराध्य लगने लगे हैं. सो, लगता नहीं कि दुमका के 30 फीसदी आदिवासियों सहित 55 फीसदी दलित, पिछड़े और मुसलमान उन से इत्तफाक रखेंगे.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...