2024 का लोकसभा चुनाव अप्रैल से ले कर जून माह तक चलेगा. इन चुनावों की घोषणा 16 मार्च को मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने की. इस समय उन के साथ दो नए आयुक्त ज्ञानेश कुमार और सुखवीर सिंह संधु भी मौजूद थे. यह दोनों चुनाव आयुक्त अरूण गोयल के इस्तीफा देने और अनूप चन्द्र पांडेय के रिटायर होने के बाद नियुक्त किए गए थे. इस की अधिसूचना भी मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार के हस्ताक्षर से जारी हुई. भारत निर्वाचन आयोग की अधिसूचना संख्या 464/आईएनएसटी/ईपीएस/2024 के तहत 16 मार्च से लगी अधिसूचना 4 जून को मतगणना के बाद खत्म होगी.

मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने बताया कि यह चुनाव 7 चरणों में होंगे. चुनाव की प्रक्रिया 81 दिन में पूरी होगी. पहले चरण का मतदान 19 अप्रैल और अंतिम चरण का 1 जून को होगा. वर्ष 1951-52 के बाद यह सब से लंबे समय तक चलने वाला चुनावी कार्यक्रम है. उस समय पूरी चुनावी प्रक्रिया 4 महीने तक चली थी. 2019 का लोकसभा चुनाव 73 दिनों में सम्पन्न हुआ था.

वैसे पहले चुनाव से इस चुनाव की तुलना किसी भी तरह से जायज नहीं है. उस समय देश आजाद हुआ था. देश का हर ढांचा नया बन रहा था. चुनाव के बारे में किसी को कुछ पता नहीं था. आज देश हर तरह से सम्पन्न है. तमाम चुनाव हो चुके हैं. ऐसे में कुछ नया नहीं है. अच्छी सड़कें, आवागमन के अच्छे साधन, शासन प्रशासन का अनुभव है. ईवीएम के होने से सुविधाएं हैं. ऐसे में चुनाव के इतना लंबा होने का कोई मतलब नहीं है.

2019 के लोकसभा चुनाव में 67.4 फीसदी मतदाताओं ने वोट डाले थे. 2014 में 66.44 फीसदी मतदान हुआ था. 2009 में यह केवल 58.21 फीसदी ही था. पिछले 2 चुनाव में मतदान बढ़ा था. इस चुनाव में मतदाता उदासीन सा दिख रहा है. जिस से मतदान को बढ़ाना सरल काम नहीं होगा. इस बार 5 करोड़ मतदाता बढ़े हैं. इन की वजह से भले ही मतदान बढ़ जाए. इस बार महिला मतदाताओं की संख्या 47.1 करोड़ या 48.61 फीसदी है. इस बार मतदाताओं के लिए 10,48,202 पोलिंग बूथ बनाए जाएंगे. यह संख्या भी पिछले चुनाव के मुकाबले 1.19 फीसदी अधिक है. इस चुनाव में वोट डालने के लिए 50.5 लाख ईवीएम का इस्तेमाल किया जाएगा.

लंबे चुनावी कार्यक्रम से मिलेगा भाजपा को लाभ

चुनाव में पैसा और प्रबंधन सब से खास होता है. इस वजह से लंबे चुनावी कार्यक्रम से सत्ता पक्ष को लाभ होता है. विपक्ष जल्दी थक और बिखर जाता है. जिस का प्रचार पर असर पड़ता है. लंबे चुनाव कार्यक्रम से मौजूदा सरकार को सत्ता बरकरार रखने में फायदा होता है. नरेंद्र मोदी के आने के बाद चुनाव दर चुनाव यह कार्यक्रम लंबा होता गया है. लंबा चुनाव कार्यक्रम सत्ता बनाए रखने में मददगार होता है.

पहला आम चुनाव 25 अक्टूबर, 1951 और 21 फरवरी, 1952 के बीच 4 महीने तक चला. वह एक अपवाद था. 1957 में आम चुनाव 24 फरवरी से 9 जून के बीच हुए. 1962 का चुनाव में 19 से 25 फरवरी के बीच हुआ जो केवल 7 दिनों तक चला.

1967 में 17 से 21 फरवरी के बीच हुए चौथा आम चुनाव केवल 5 दिन में खत्म हो गया. 1971 में चुनाव 1 से 10 मार्च तक 10 दिन में हो गए. 1977 में 16 से 20 मार्च के बीच 5 दिनों तक चले. 1980 में 3 से 6 जनवरी के बीच 7वें आम चुनाव केवल 4 दिन तक चले. 1984 आठवां आम चुनाव 5 दिनों तक चले.

1989 में 22 से 26 नवंबर के बीच हुए आम चुनाव 15 दिन चले. 1991 में 20 मई से 15 जून के बीच हुए दसवें आम चुनाव 27 दिनों तक चले. 1996 में 27 अप्रैल से 7 मई के बीच हुए ग्यारहवें आम चुनाव 11 दिनों तक चले.

1998 में 16 से 28 फरवरी के बीच आयोजित बारहवें आम चुनाव 12 दिनों तक चले. 5 सितंबर से 3 अक्टूबर 1999 के बीच हुए तेरहवें आम चुनाव 29 दिनों तक चले. 2004 के चौदहवें आम चुनाव 21 दिन तक चले. 2009 के चुनाव 28 दिन तक चले. 2014 में आम चुनाव 36 दिन और 2019 के चुनाव 39 दिनों तक चले.

कब से शुरू हुई चुनाव आचार संहिता

आदर्श आचार संहिता की शुरुआत 1960 के केरल विधानसभा चुनाव से हुई. इस को राजनीतिक दलों से बातचीत और सहमति के बाद तैयार किया गया. इस में पार्टियों और उम्मीदवारों ने तय किया कि वो किनकिन नियमों का पालन करेंगे. 1962 के आम चुनाव के बाद 1967 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भी आचार संहिता का पालन हुआ. बाद में उस में और नियम जुड़ते चले गए. चुनाव आयोग ने सितंबर 1979 में राजनीतिक दलों की बैठक बुला कर आचार संहिता में संशोधन किया. इसे अक्तूबर 1979 में हुए आम चुनाव में लागू किया गया.

साल 1991 का आम चुनाव आचार संहिता के विकास में सब से अहम था. इस में आचार संहिता का विस्तार किया गया. चुनाव आयोग भी इस के पालन के लिए सक्रिय हुआ. उसी साल यह विचार आया कि आचार संहिता उसी दिन से लागू हो जिस दिन तारीखों की घोषणा हो. लेकिन केंद्र सरकार इसे उस दिन से लागू करना चाहती थी जिस दिन अधिसूचना जारी हो. हाई कोर्ट ने मई 1997 में चुनाव की तारीखों की घोषणा से आचार संहिता लागू करने के चुनाव आयोग के कदम को सही ठहराया.

16 अप्रैल 2001 को हुई चुनाव आयोग और केंद्र सरकार की बैठक में सहमति बनी कि आचार संहिता उसी दिन से लागू होगी जिस दिन चुनाव का कार्यक्रम जारी होगा. इस में यह शर्त भी जोड़ी गई कि चुनाव की तारीखों की घोषणा अधिसूचना जारी होने से 3 हफ्ते से ज्यादा पहले नहीं की जाएगी. नौवें चुनाव आयुक्त टीएन शेशन ने चुनाव आयोग की शक्तियों का एहसास दिलाया. उन्होंने बताया कि चुनाव आयोग सरकार के अधीन काम करने वाला निकाय नहीं है. उन्होंने आयोग की स्वतंत्रता को सर्वोपरी रखा. इस के लिए वो प्रधानमंत्री के साथ भिड़ने से भी नहीं हिचकिचाए.

चुनाव आचार संहिता से प्रभावित होता है जनजीवन

वैसे तो चुनाव आचार संहिता नेताओं के लिए होती है, लेकिन इस से आम जन जीवन प्रभावित होता है. उत्तर प्रदेश में 13 लाख 29 हजार 584 लाइसेंसधारी है. इस का मतलब यह है कि चुनाव के दौरान यह असलहे थाने में जमा करने पड़ते हैं. यह एक परेशानी भरा काम होता है. लंबे समय तक अपने हथियार थाने में जमा रखने से सुरक्षा का खतरा रहता है. इस के खिलाफ रविशंकर तिवारी और अन्य 4 लोगों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक रिट संख्या (सी) संख्या 2844/2024 दायर की. इस में कोर्ट ने कहा कि सभी को अपने हथियार जमा करने की जरूरत नहीं है. जिन हथियार धारकों से चुनाव में शांति व्यवस्था को खतरा है उन के हथियार ही जमा कराए जाएं.

22 मार्च को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के आदेश के बाद पुलिस ने दागियों की सूची तैयार की है. इन को अपने असलहे 7 दिन के भीतर जमा करवाने होंगे. हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि प्रदेश में लाइसेंसी हथियार रखने वाले सभी लोगों को असलहे नहीं जमा करवाने होंगे.

कोर्ट ने कहा था कि जिस किसी से भी कानून व्यवस्था खराब होने का खतरा होगा उस के लिए स्क्रीनिंग कमेटी बना कर और संबंधित को कारण बता कर असलहा जमा कराने को कहा जा सकता है. अब पुलिस इस काम को कर रही है. जिस से जनता को परेशानी हो रही है.

चुनाव आचार संहिता के दौरान 50 हजार से अधिक का नकद पैसा ले कर चलना मुसीबत को मोल लेने वाला होता है. इस का पूरा हिसाब न दे पाने पर इस को जब्त किया जा सकता है. पुलिस को गाड़ी चेक करने का अधिकार मिल जाता है. इस दौरान पुलिस चुनाव आयोग के आदेश से काम कर सकती है. अगर कोई दोस्त या रिश्तेदार चुनाव लड़ रहा है तो उस के अपने निजी कार्यक्रम में बुलाने से पहले चुनाव आयोग की अनुमति लेनी पड़ती है. इस में यह घोषणा पत्र देना पड़ता है कि चुनाव से संबंधित कोई बात नहीं होगी.

सरकार का निक्कमापन

पहले चुनाव कम समय तक चलते थे तो दिक्कतें कम होती थीं. अब 16 मार्च से 4 जून तक 81 दिन यानि करीब करीब 3 माह का समय चुनाव आचार संहिता में बीतना है. ऐसे में जनता उदासीन हो रही है. जैसेजैसे विज्ञान और टैक्नलौजी का प्रयोग बढ़ रहा है वैसेवैसे चुनाव में समय कम लगना चाहिए. लेकिन भारत में इस का उल्टा हो रहा है. 2014 के बाद से हर चुनाव समय बढ़ता जा रहा है. सरकार का कहना है कि सुरक्षा कारणों से यह समय अधिक लग रहा है.

जनता के चुनाव में पुलिस का काम होना ही नहीं चाहिए. पुलिस एक बहाना है. लंबे चुनाव कार्यक्रम का एक बड़ा कारण यह है कि अब पार्टियों में असरदार नेता कम है. चुनाव प्रचार में उन की प्रमुख भूमिका होती है. नेताओं ने पार्टी तंत्र इसलिए विकसित कर लिया है कि उन का ही प्रभाव रहे दूसरे नेता की पूछ कम हो. लंबे चुनाव प्रचार में वह हर प्रदेश में जा पाएगा.

जो मतदान 1 जून को है उस की मतगणना भी 4 जून को होगी और 19 अप्रैल वाले चुनाव की मतगणना भी 4 जून को होगी. इस से यह साफ है कि चुनाव कम समय में कराए जा सकते हैं. सरकार अपने निक्कमेपन को छिपाने के लिए चुनाव कार्यक्रम को लंबे समय तक कराने के पक्ष में रहती है.
इस चुनाव में गर्मी भी उदासीनता का बड़ा कारण है. आम जनता को यह लग रहा है कि वह वोट किसी को दे सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. अभी चुनाव का पहला चरण भी दूर है चुनावी उदासीनता हावी है. चुनावी बातें केवल मीडिया और नेताओं तक सीमित रह जा रही हैं.

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