दिल्ली शराब घोटाले में 6 महीने से जेल में बंद आम आदमी पार्टी नेता, राज्यसभा सांसद संजय सिंह को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल गई है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जमानत पर छूटने के बाद संजय सिंह राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा ले सकते हैं लेकिन वे इस मामले के संबंध में कोई बयान नहीं देंगे. कोर्ट ने कहा कि संजय की जमानत के आदेश को नजीर नहीं माना जाएगा. इस से यह अर्थ निकलता है कि इसी मसले में जेल में बंद मनीष सिसोदिया और अरविंद केजरीवाल को जेल में रहना होगा, उन को जमानत नहीं मिलेगी.

संजय सिंह 4 अक्टूबर, 2023 से जेल में थे. करीबकरीब 6 माह या 180 दिन वे जेल में रहे. अगर इस मसले में आगे बहस के दौरान संजय सिंह बरी हो जाते हैं तो इन 180 दिनों का हिसाब कौन देगा ? क्या इस की क्षतिपूर्ति ईडी दे सकती है ? बात केवल संजय सिंह की नहीं है. छोटेमोटे घरेलू अपराध होने के बाद पुलिस आम आदमी को जेल में डाल देती है. जहां दहेज उत्पीड़न, नारकोटिक्स, आतंकवाद और राष्ट्रद्रोह जैसे बहुत सारे ऐसे मसले होते हैं जिन में सालोंसाल लोगों को जेल में डाल कर रखा जा सकता है. अगर वे सजा से बरी भी हो जाएं तो जेल में रह तो लिए ही हैं. यह मानवाधिकार के खिलाफ है.

संजय सिंह के मामले में जमानत देते समय कोर्ट ने कई बातें कहीं, जैसे वे केस की मेरिट पर कुछ भी व्यक्त नहीं कर सकते है. इस आदेश को मिसाल नहीं माना जाएगा. जमानत पर रिहा होने के बाद संजय सिंह शराब नीति घोटाला मामले में कोई बयान नहीं देंगे. इन बातों से यह लग रहा कि जमानत देते समय कोर्ट को सफाई जैसी देनी पड़ रही है. असल में जमानत देने में कोर्ट को खुले दिल से काम लेना चाहिए. जमानत आरोपित किए गए व्यक्ति का अधिकार होना चाहिए.

किसी मामले में कोई आरोपी जब सजा पा जाता है तो उस की सजा से वे दिन कम कर दिए जाते हैं जितने दिन वह विचाराधीन कैदी के रूप मे जेल में रहा है. जैसे किसी को 2 साल की सजा मिली, वह पहले ही 6 माह जेल में रह चुका है तो उस को सजा मिलने के बाद केवल 1 साल 6 माह ही जेल में रहना होगा.
इस का अर्थ यह है कि विचाराधीन कैदी के रूप में आरोपी ने जितने दिन जेल में गुजारे उस को क्षतिपूर्ति के रूप में सजा में से कम कर दिया गया. यह नियम उस मामले में भी लागू होना चाहिए जिस में आरोपी को सजा नहीं मिलती है. जिस में अदालत उस को बाइज्जत बरी कर देती है. जितने दिन जेल में गुजारे उस की क्षतिपूर्ति मिलनी चाहिए क्योंकि उसे जमानत न दे कर उस के मानवाधिकारों का हनन किया गया है.

जेलों में सजा पाए से ज्यादा हैं कैदी विचाराधीन

कई मामलों में विचाराधीन कैदी सजा से अधिक का समय जेल में गुजार चुके होते हैं. अगर किसी को 2 साल की मिलनी हो, सजा से पहले ही वह 3 साल जेल में गुजार चुका है तो उस की क्षतिपूर्ति क्यों नहीं होनी चाहिए? देश की जेलों में बंद विचाराधीन कैदी इस का बड़ा उदाहरण हैं. भारत की जेलों में सिर्फ 22 प्रतिशत कैदी ही ऐसे हैं जिन्हें किसी अपराध में दोषी करार दिया गया है. इस के मुकाबले 77 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं. 2022 की इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के मुताबिक विचाराधीन कैदियों की संख्या 2010 के बाद सब से ज्यादा बढ़ी है. 2010 में यह तादाद 2.4 लाख थी जो 2021 में करीब दोगुनी हो कर 4.3 लाख हो गई. इस में 78 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है.
देशभर में 11,490 कैदियों को 5 साल से ज्यादा समय तक कैद में रखा गया था. जबकि यह आंकड़ा 2020 में 7,128 और 2019 में 5,011 था. इस दौरान रिहा किए गए कुल विचाराधीन कैदियों में से 96.7 प्रतिशत कैदी एक साल के भीतर जमानत पर छूट गए. 16 राज्य और 3 केंद्रशासित प्रदेशों में क्षमता से ज्यादा कैदियों को रखा गया था. टेंपरेरी बेल या इमरजैंसी पैरोल पर रिहाई आसानी से नहीं मिलती है. अदालतें अर्जेंट बेल को छोड़ कर किसी और मामले की सुनवाई जल्दी नहीं करती हैं.
नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की जेलों की स्थिति पर ताजा रिपोर्ट में कहा गया कि 31 दिसंबर, 2021 तक देश की कुल 1,319 जेलों में औसतन हर 100 कैदियों की निर्धारित जगह में 130 कैदी रह रहे थे. उत्तर प्रदेश की जिला जेलों में हर 100 कैदियों के लिए उपलब्ध जगह में 208 कैदी और उत्तराखंड की उपजेलों में हर 100 कैदियों के लिए जगह में करीब 300 कैदी रह रहे थे.
बड़ी संख्या में लोगों को लंबे समय तक कैद में रखने पर ध्यान देने की जरूरत है. उन प्रक्रियाओं पर सवाल उठाया जाना चाहिए जिन की वजह से ऐसे हालात बनते हैं. जेलों में भीड़ की बड़ी वजह यही है कि अंडरट्रायल कैदियों के मामले लंबे समय तक चलते रहते हैं. उन को जमानत नहीं दी जाती है. अंडरट्रायल कैदी के तौर पर जेल में 3 महीने से 2 साल तक का समय बिता चुके कैदियों की संख्या 2.13 लाख है जिन में 8,822 महिलाएं शामिल हैं.

मनावाधिकार का हनन है जेलों में रखना

देशभर की निचली अदालतों में मामले सालोंसाल चलते रहते हैं और इन मामलों में आरोपी के तौर पर गिरफ्तार किए गए लोग अंडरट्रायल के तौर पर जेलों में बंद रहते हैं. अंडरट्रायल कैदियों के बारे में एक और महत्त्वपूर्ण आंकड़ा यह है कि तकरीबन 48 फीसदी अंडरट्रायल कैदी 18 से 30 साल की उम्र के हैं. इस से यह समझना मुश्किल नहीं है कि अपने जीवन के एक महत्त्वपूर्ण समय के कई कीमती महीने और साल ये अंडरट्रायल कैदी जेल में इस इंतजार में बिता देते हैं कि उन के मामले का फैसला हो जाए. इन में से 25 प्रतिशत अनपढ़ हैं.

हकीकत में तो किसी भी आरोपी को जेल जाना ही नहीं चाहिए. सचाई इस से उलट है. किसी ने किसी को थप्पड़ मार दिया तो भी जेल, किसी ने जेब काट ली तो भी उसे जेल भेजा जा रहा है. जेलों में जो 70 साल से ज्यादा उम्र के कैदी हैं, जो बीमार हैं, बूढ़े हैं या विकलांग हैं और जो अपनी सजा का एक बड़ा हिस्सा काट चुके हैं वे भी सजा काट रहे हैं.

कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों जिम्मेदार

ट्रायल कोर्ट छोटे से छोटे मामले में जमानत देने से बचने लगी है. इस से हाईकोर्ट पर जमानत देने का दबाव बढ़ गया है. इस वजह से आरोपी को जमानत लेने पर होने वाला खर्च बढ़ जाता है. विचाराधीन कैदियों के रूप में देश के सामान्य लोग ही सब से ज्यादा हैं. नेताओं के मामले उंगली पर गिने जाने भर के ही हैं. इस के बाद भी सब का फोकस नेताओं के ऊपर होता है. उन की ही चर्चा मीडिया करता है. नेता जब सत्ता में रहते हैं, कानून को कड़े से कड़ा बनाने का काम करते हैं. उदाहरण के लिए ईडी और एमपीएमएलए कानून में कई प्रावधान उस समय जोड़े गए जब कांग्रेस सत्ता में थी. आज वही कांग्रेस भाजपा पर सत्ता के दुरुपयोग का आरोप लगा रही है.
आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल जब सत्ता में नहीं थे, दिल्ली में कांग्रेस सरकार, मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और सोनिया गांधी का नाम ले कर कहते थे- ‘सोनियां गांधी को जेल भेजो, सारा सच सामने आ जाएगा’. आज जब वे दिल्ली शराब घोटाले में जेल में हैं तो उन का कहना है- ‘जेल क्यों भेजा गया उन को?’
हमारे देश में जब भी कानून बनता है तो उस को इस तरह का बनाया जाता है कि अधिकतम और कड़ी से कड़ी सजा कैसे दी जाए? कांग्रेस के कार्यकाल में ही दिल्ली के निर्भया कांड के बाद महिला कानून बना. उस में महिलाओं के खिलाफ छोटेछोटे मामलों में बड़ीबड़ी सजा के प्रावधान कर दिए गए. महिलाओं को देखना (घूरना) और छूना तक अपराध की श्रेणी में आ गया. ऐसे में अब इन का दुरुपयोग होने लगा है.

नेताओं से अधिक परेशान है देश की जनता

दहेज कानून उन पर भी बन जाता है जिन के यहां शादी प्रेमविवाह में हो. महिला आत्महत्या कर ले तो पूरे परिवार को जेल जाने से कोई बचा नहीं सकता. कांग्रेस आज टैक्स कानून को आंतक बता रही है. 60 साल सत्ता में रहने के दौरान कितने टैक्स जनता पर लगाए, इस का कोई हिसाब उस के पास नहीं है. कितनों को कर चोरी में जेल भेजा, कोई हिसाबकिताब नहीं है. नेता सत्ता में रहते समय कानूनों में बदलाव नहीं करना चाहते. जब सत्ता में नहीं होते तो कानून के आंतक का रोना रोते हैं.
बात टैक्स कानून की हो या विचाराधीन कैदियों की या बात करें जमानत मिलने की, देश की जनता सब से अधिक परेशान है. घर, परिवार और महिलाएं परेशान हैं. घर का कोई एक आदमी भी जेल में हो तो पूरे घर का आर्थिक ढांचा टूट जाता है. परिवार बिखर जाता है. 8 हजार महिलाएं विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में हैं. ये सजा से बरी भी हो जाएं तो समाज में इन की क्या जगह बन पाएगी? अदालतों और विवेचकों को यह लगता है कि जमानत दया है. असल में सविधान कहता है, जमानत हर आरोपी का अधिकार है.

संजय सिंह 180 दिन जेल में रहे तो क्या इतने दिन उन से केवल पूछताछ की गई होगी? विवेचक का काम पूछताछ करना होता है. क्या जेल से बाहर रख कर पूछताछ नहीं हो सकती? अगर ऐसा हो तो जेलों पर बोझ नहीं बढ़ेगा. किसी का दोष साबित होने से पहले सजा के तौर पर जेल में रहना नहीं पड़ेगा. सरकार को विचाराधीन कैदियों पर खर्च नहीं करना पड़ेगा. न्यायपालिका को जमानत देने में अपनी सोच बदलनी होगी. जमानत दया नहीं, अधिकार है.

 

 

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