जितिन प्रसाद, अमरिंदर सिंह, परनीत कौर, नवीन जिंदल, सावित्री जिंदल, सुरेस पचोरी, हेमंत बिस्वा शर्मा, आलोक चंसोरिया, शैलेंद्र रावत, मनीष खंडूड़ी, महेश शर्मा, अशोक चव्हाण, वसव राज पाटिल, नारायण राठवा, कृष्णमूर्ति हुड्डा, हार्दिक पटेल, सुनील जाखड़, अल्पेश ठाकोर, ज्योतिरादित्य सिंधिया, ललितेश त्रिपाठी, मिलिद देवड़ा, रीता बहुगुणा जोशी, शेखर तिवारी, अरुणोदय चौबे, संजय शुक्ला, शशांक भार्गव और हिमांशु व्यास वगैरहवगैरह

अब नजर मध्य प्रदेश पर डालें तो पहेली एक हद तक सुलझती हुई नजर आती है कि कांग्रेसी सवर्ण और ब्राह्मण इसलिए कांग्रेस छोड़ कर भाजपा ज्वाइन नहीं कर रहे हैं कि कांग्रेसी कढ़ाहे में सत्ता की मलाई खत्म हो चली है या कथित तौर पर कांग्रेस में ब्राह्मणों का पहले सा आदर सम्मान नहीं रहा और उन की अनदेखी की जा रही है. बल्कि सच सनातन और शाश्वत है कि डाक्टर राजेंद्र प्रसाद, गोखले, तिलक और बनर्जी, चटर्जी, आगरकर और मुखर्जी की इन ब्राह्मण और सवर्ण संतानों को मंदिर चाहिए, वर्ण व्यवस्था चाहिए, धर्म का राज चाहिए, मूर्तियां चाहिए और दक्षिणा चाहिए जिस की गारंटी आज की तारीख में सिर्फ भाजपा दे रही है.

इसे ही समझने वाले मोदी की गारंटी समझते हैं. बाकी सब तो मिथ्या है और सार्वजनिक मंच से दिए जाने वाले राजनीतिक भाषण हैं जो दलित, पिछड़ों और आदिवासियों के कानों को प्रिय लगने वाले होते हैं.

ऊपर जो जानेअनजाने मुट्ठीभर नाम बताए गए हैं उन में से सभी ने कांग्रेस के सुनहरे दिनों में सत्ता सुख भोगा है और इस के लिए सोनिया राहुल गांधी के तलवे चाटने से भी गुरेजपरहेज नहीं किया है. इन में से ही कईयों के बापदादा भी कांग्रेसी थे जो पंडित जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का थूका अपनी हथेली पर लेने से वे भी परहेज गुरेज नहीं करते थे, बल्कि गर्व महसूस करते थे क्योंकि इसी परिवार की कृपा से उन्हें विधायकी सांसदी और मिनिस्ट्री मिलती रही थी.

अब इन्हें लग रहा है कि यहां कुछ नहीं मिलने वाला तो ये भाजपा की तरफ भाग रहे हैं लेकिन यह वजह बहुत वजनदार नहीं है और सभी पर लागू नहीं होती. आम लोग बड़ी दिलचस्पी से रोजरोज का यह ड्रामा देखते हैं तो राय यही बनाते हैं कि भाजपा दिनों दिन मजबूत हो रही है और कांग्रेस कमजोर होती जा रही है. क्योंकि उस के छोटेबड़े नेता भाजपा ज्वाइन कर रहे हैं लेकिन जो नेता जा रहे हैं उन में से 99 फीसदी जमीनी नहीं हैं.

मसलन मध्य प्रदेश के सुरेश पचोरी जो लड़े तो 2 बार लेकिन कभी चुनाव जीते ही नहीं. उलट इस के कांग्रेस के जो नेता कोई भी चुनाव जीते तो वह नेहरु गांधी परिवार के दम पर जीते मसलन जितिन प्रसाद. यह हकीकत इन्हें भी मालूम है और भाजपा को भी जो रोज नए आने वालों की गिनती कर कुल टोटल बढ़ा देती है.

भाजपा ने सभी राज्यों में ज्वाइनिंग कमेटियां बना रखी हैं जिन का काम ही इन भगोड़ों को समारोह पूर्वक पार्टी में शामिल करना है. खुले तौर पर वह कहती भी है कि उस का मकदस खुद को मजबूत और कांग्रेस को कमजोर करना है, जिस से मोदी के अब की बार 370 के आंकड़े को छुआ जा सके. लेकिन क्या सिर्फ सवर्ण नेताओं की भर्ती से यह मुमकिन है.

इस सवाल का जवाब न में ही मिलता है क्योंकि सवर्ण कांग्रेसी तो हमेशा से प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष उस का साथ देते रहे हैं लेकिन जा इसलिए नहीं रहे थे कि उन्हें बैठेबिठाए बिना कुछ किए कुर्सी मिल रही थी. दूसरे भाजपा का हिंदुत्व का एजेंडा भी परवान चढ़ रहा था. दलित, आदिवासी न के बराबर भाजपा में जा रहे हैं क्योंकि वे भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे और मंदिर नीति से सहमत नहीं हैं. मुसलमान का उस से परहेज किसी सबूत का मोहताज कभी नहीं रहा जो हिंदुत्व और अयोध्या के बाद मथुरा काशी के होहल्ले से दहशत में है.

यानी भाजपा कांग्रेसी नेताओं को नहीं बल्कि कुछ हजार वोटों की भर्ती घोषित तौर पर कर रही है जो उसे पहले से ही मिलते ही रहे थे. अब तो यह जताने की कोशिश की जा रही है कि उस का कुनबा यानी मोदी का परिवार कांग्रेसियों के आने से बढ़ रहा है. इन भगोड़ों को भगवा शाल पहनाया जाता है तो लगता ऐसा है कि कट्टर हिंदूवादी नेता या संत घर वापसी मुहिम को अंजाम दे रहा है. फर्क इतना भर होता है कि घर वापस आने वाले इसाई या मुसलमान नहीं होते बल्कि सवर्ण ही होते हैं जिन्हें कांग्रेस में कुछ खास वजहों से घुटन होने लगी थी.

जैसे ही राहुल गांधी ने पिछड़ों की हिमायत करते जातिगत जनगणना की बात कही और कांग्रेस आलाकमान ने दलित समुदाय के कद्दावर वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया तो सवर्ण कांग्रेसी बिदक उठे क्योंकि कांग्रेस उन के हाथ से फिसल रही थी. जिस से बचने खुद इन्होने ही फिसलने का फैसला ले लिया. ये नेताओं की उस जमात के वंशज हैं जो दलित आदिवासी, पिछड़ों और मुसलमानों के वोटों पर विधायक सांसद से ले कर सरपंच तक बनते रहे थे.

सवर्ण वोट तो आजादी के बाद से ही रामराज्य परिषद, हिंदू महासभा, जनसंघ और फिर भाजपा को जा रहा था जिस में इत्तफाक से 2014 में अन्ना हजारे के आंदोलन की बदौलत छोटी जाति वालों के वोट भी शामिल हो गए तो भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ दिल्ली की कुरसी पर काबिज हो गई. प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने भगवा जाल बिछाना शुरू किया तो इस में कोई शक नहीं कि कई दलित पिछड़े और आदिवासी भी फड़फडा रहे हैं.

मोदी ने सवर्णों की राम मंदिर बनाने की जिद और मंशा पूरी की लेकिन साथ ही छोटी जाति वालों को उन के देवीदेवताओं के मंदिर पकड़ाना शुरू कर दिए जिस से वे भी पूजापाठ में उलझ कर ऊंची जाति वालों के मंदिर में न जाएं और भाजपा को वोट भी देते रहें.

हिंदी भाषी राज्यों में ऐसा हो भी रहा है और उसी के दम पर भाजपा 400 पार का नारा लगा रही है लेकिन दक्षिण भारत में उस का यह टोटका नहीं चल रहा. कर्नाटक उस के हाथ से छिन गया और तेलांगना में उस ने मुंह की खाई. तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल में तो पिछले लोकसभा चुनाव में उस का खाता भी नहीं खुला था.

हिंदी पट्टी के सवर्ण कांग्रेसियों को यह ज्ञान प्राप्त हो गया है कि हिंदू राष्ट्र जितना बन सकता था बन चुका है इसलिए अब यहां से फूट लो. इन कांग्रेसियों खासतौर से ब्राह्मणों का एक बड़ा दर्द यह भी है कि आलाकमान ने 22 जनवरी को अयोध्या के जलसे में शामिल होने से साफ मना कर दिया क्योंकि यह भगवा गैंग का सियासी इवेंट था.

सुरेश पचोरी जैसे नेताओं ने तो स्पष्ट कहा कि वे कांग्रेस इसलिए छोड़ रहे हैं कि उस ने राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का न्यौता ठुकरा दिया था. यह किसी कांग्रेसी नेता का नहीं बल्कि एक पूजापाठी ब्राह्मण का दर्द है जो अपनों यानी ऊंची जाति वालों की पार्टी में जाने का बहाना ढूंढ रहा था. बिना कोई चुनाव जीते जिस नेता को कांग्रेस ने 24 साल संसद पहुंचाया, केंद्र में मंत्री बनाया उस ने रत्तीभर भी लिहाज इस बात का नहीं किया और न ही यह सोच पाया कि देश और समाज धर्म से ऊपर हैं.

यही दर्द उन तमाम नेताओं का है जो भाजपा की तरफ भाग रहे हैं. यह तो खुद मध्य प्रदेश के एक मंत्री भूपेंद्र सिंह पब्लिक मीटिंग में कह चुके हैं कि जब सालों से भाजपा के लिए काम कर रहे नेताओं को ही कुछ नहीं मिला तो इन भगोड़ों को क्या मिलेगा. यानी ये लोग फर्श और दरिया बिछाने का काम करेंगे, मोदी शाह योगी और मोहन यादव की जयजयकार करेंगे. दोचार को विधायकी और सांसदी मिल भी जाएगी लेकिन इस के लिए जरुरी है कि वह ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा हो जो 20-22 विधायकों को साथ लाने की हैसियत रखता हो और अपनी रीढ़ की हड्डी भाजपाई और संघ की चौखट के बाहर रख कर आए.

इस पूरे ड्रामे में इकलौती अच्छी बात यह हो रही है कि कांग्रेस का शुद्धिकरण हो रहा है. जिस से आने वाले वक्त में वह मजबूत हो कर उभरेगी. कांग्रेस का समर्पित सवर्ण तो इस कचरे के छंटने से खुश हैं ही, साथ ही दलित पिछड़े आदिवासी भी राहत की सांस ले रहे हैं कि चलो अच्छा हुआ जो सामंती मानसिकता वाले ये पूजापाठी अपनों के पास चले गए.

अब कांग्रेस पर लोगों का भरोसा और बढ़ेगा जो इन सनातनियों के चलते डगमगा रहा था कि जब पूजापाठ और धार्मिक ढोंग पाखंड वालों को ही वोट देना है तो फिर भाजपा क्या बुरी है. इस में कोई शक नहीं कि कांग्रेस को अपने मूल स्वरूप में आने में अभी वक्त लगेगा क्योंकि हिंदी भाषी राज्यों के माहौल में पिछले 10 सालों में यज्ञ हवनों का इतना धुआ फैल चुका है कि सियासी तस्वीर साफ नहीं दिख रही.

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