हाल ही में संयुक्त राष्ट्र पौपुलेशन फंड ( UNFPA ) ने यह पता लगाने की कोशिश की कि महिलाओं के खुद के शरीर के बारे में फैसले लेने की क्षमता कितनी है. रिपोर्ट के मुताबिक 57 विकासशील देशों में रहने वाली करीब 50 परसेंट महिलाओं के पास अपने शरीर को ले कर लिए जाने वाले फैसले ( जैसे गर्भनिरोधक, स्वास्थ्य सुविधा आदि ) लेने का कोई अधिकार नहीं होता. केवल 55 फीसद महिलाएं ही अपने स्वास्थ्य देखभाल, गर्भनिरोधक और सैक्स के दौरान हां या न कहने के लिए सशक्त हैं.
भारत के संदर्भ में UNFPA की रिपोर्ट बताती है कि केवल 12% शादीशुदा महिलाएं जिन की उम्र 15 से 49 के बीच है वे स्वतंत्र रूप से अपनी स्वास्थ्य सेवा के बारे में निर्णय लेती हैं जबकि 63% अपने जीवनसाथी से परामर्श ले कर ये फैसले करती हैं. हर 10 में से एक महिला का पति ही गर्भनिरोधक के बारे में फैसला लेता है. वहीं महिलाओं को गर्भनिरोधक के बारे में दी जाने वाली जानकारी भी सीमित होती है. सिर्फ 47 फीसद महिलाएं ही जो गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करती हैं उस के साइड इफैक्ट्स के बारे में जानती हैं.
महिलाओं के लिए ही समाज ये तय करता है कि उन्हें किस तरह बोलना है, कब कितनी जबान खोलनी है, किस तरह के कपड़े पहनने से वे संस्कारी कहलाएंगी और उन के अपने शरीर से जुड़े फैसले भी यह समाज ही लेता है. ये वो तमाम बातें हैं जिस बारे में महिलाएं एक इंसान होने के नाते खुद ही निर्णय ले सकती हैं मगर समाज ने इन की भी परमिशन नहीं दी है.
समाज और कानून पुरजोर कोशिश में लगा रहता है कि महिलाओं, उन के विचारों और उन के शरीर को चारदीवारी में कैद कैसे किया जाए. इस पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं ऐसी बंधुआ मजदूर हैं जो सब की खुशी के लिए सब कुछ करती हैं मगर अपनी खुशी के लिए कुछ नहीं कर सकती.
रिप्रोडक्टिव कोअर्शन : स्त्री के हक पर शिकंजा
बहुत सी लड़कियां जो अभी मां बनने के लिए तैयार नहीं और अबौर्शन कराना चाहती है मगर घरवालों के दवाब में आ कर वह ऐसा नहीं कर पाती. इसी तरह कोई लड़की जो बच्चे को जन्म देना चाहती है उसे ससुरालवालों के कहने पर अबौर्शन कराना पड़ता है क्योंकि उस के गर्भ में लड़की है और घरवाले लड़की नहीं लड़का चाहते हैं. ऐसी बातें अकसर सुनने को मिलती हैं. जो दुल्हन दोतीन साल प्रैग्नैंट होना नहीं चाहती, उसे जबरदस्ती उस की ड्यूटी याद दिलाते हुए ऐसा करने को बाध्य किया जाता है.
गर्भधारण करना है, नहीं करना है, अबौर्शन करवाना है, कब मां बनना है जैसे फैसलों में औरतों की मर्जी की अहमियत नहीं होती है. यह फैसले या तो पति को करता है या ससुराल के अन्य सदस्य. जबकि कोख लड़की का है, बच्चे को उसे अपने शरीर में बड़ा करना है, बच्चा पैदा करने और पालने की तकलीफ उसे सहनी है मगर इन सब से जुड़े फैसले कोई और करता है. इस तरह गर्भधारण से जुड़े फैसलों को प्रभावित करना और इस के लिए जबरदस्ती करना रिप्रोडक्टिव कोअर्शन यानी प्रजनन संबंधी हिंसा की श्रेणी में आता है.
क्या है रिप्रोडक्टिव कोअर्शन
महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़े फैसलों में हस्तक्षेप करना रिप्रोडक्टिव कोअर्शन कहलाता है. यह कई प्रकार का होता है. मान लीजिए किसी महिला को गर्भधारण करने के लिए बाध्य किया गया हो तो इसे प्रैगनैंसी कोअर्शन कहते हैं. प्रैगनैंसी कोअर्शन में जबरन गर्भवती करना या किसी को गर्भधारण न करने देना दोनों ही तरह के मामले शामिल होते हैं. कई बार ऐसे मामले सामने आते हैं जिन में अनचाही प्रैगनैंसी को थोपा जाता है. गर्भनिरोधक के तरीकों के साथ औरत की जानकारी के बिना छेड़छाड़ करना भी रिप्रोडक्टिव कोअर्शन ही होता है. इस के तहत अकसर गर्भनिरोधक गोलियों को किसी सामान्य गोली से बदल दिया जाता है. संबंध के दौरान कंडोम पहनने से मना करना, महिला को फिजिकल होने के लिए विवश करना रिप्रोडक्टिव कोअर्शन के ही रूप हैं.
वहीं कई मामलों में इस का उल्टा भी होता है. महिला से बिना पूछे बगैर या धोखे से उसे गर्भनिरोधक गोलियां खिला कर या औपरेशन कर जबरन अबौर्शन कराया जाता है. अगर परिवार नियोजन करना भी है को इस का पूरा भार हमारे देश में महिलाओं पर ही थोप दिया जाता है. पुरुषों में आज भी नसबंदी को ले कर यह मिथ्या बेहद प्रचलित है कि नसबंदी से वह नपुंसकता का शिकार हो सकते हैं.
दुनिया की आधी आबादी यानी कि औरतों के साथ होने वाली हिंसा का इतिहास बहुत पुराना है. सदियों से औरतों को पुरुषों के मुकाबले कमतर आंका जाता रहा है. उन्हें अपने शरीर से जुड़े फैसले लेने तक के अधिकारों से वंचित रखा जाता रहा है. उस के साथ हिंसा और अत्याचार किया जाता रहा है. आज रिप्रोडक्टिव कोअर्शन औरतों के साथ की जाने वाली हिंसा का ही एक रूप है जहां उसे अपने बदन के अधिकार से ही वंचित किया जाता है.
जब औरतें पार्टनर या घरवालों द्वारा जबरन थोपे जा रहे प्रैगनैंसी से जुड़े फैसलों को मानने से इनकार करती हैं तो उन के साथ मारपीट की जाती है. उन्हें तलाक देने, रिश्ता खत्म करने या घर से निकालने तक की धमकी दी जाती है. रिश्ता टूटने के डर से वह बात मानने को मजबूर होती है.
साल 2019 में उत्तर प्रदेश के 49 जिलों में की गई एक रिसर्च की मानें तो इस में शामिल लगभग 12% औरतों ने रिप्रोडक्टिव कोअर्शन झेला था. इन में से 42% औरतें ऐसी थीं जिन के साथ रिप्रोडक्टिव कोअर्शन उन के पति ने किया है. वहीं 48% महिलाओं के साथ ससुरालवालों ने ऐसा किया.
हमारे देश में बेटे की चाहत रिप्रोडक्टिव कोअर्शन की एक मुख्य वजह है. कई औरतों को जब तक वे बेटे को जन्म नहीं देती तब तक उन्हें बारबार गर्भवती होने के लिए मजबूर किया जाता है. बारबार प्रैगनैंसी औरतों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है. कई मामलों में अगर उन के गर्भ में पल रहा भ्रूण लड़की होती है तो महिलाओं को जबरन अबौर्शन से भी गुजरना पड़ता है.
पितृसत्तात्मक परवरिश का नतीजा है कि लड़कियों को हमेशा यही बताया गया कि उन का अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं, सैक्स के दौरान उन की सहमति आवश्यक नहीं क्योंकि पति को ‘खुश करना’ स्त्री धर्म है.
अमेरिका जैसे विकसित देश में भी महिलाओं से जुड़े इस कानून को ले कर गफलत है. हाल ही में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार को 50 साल पुराने रो बनाम वेड मामले में आए फैसले को पलट दिया जिस के जरिए गर्भपात कराने को कानूनी करार दिया गया था और कहा गया था कि संविधान गर्भवती महिला को गर्भपात से जुड़ा फैसला लेने का हक देता है. यानी अब अमेरिका में भी मान लिया गया कि औरतों को अपनी कोख पर संवैधानिक हक नहीं.
भारत में अबौर्शन से संबंधित कानून
कुछ समय पहले भारतीय संसद में मेडिकल टर्मिनेशन औफ प्रैगनैंसी (अमेंडमेंट) एक्ट 2020 को मंजूरी दी गई. इस एक्ट के आने के बाद देश में अबौर्शन की समय सीमा को बढ़ा कर 24 हफ्ते किया गया. हालांकि इस पर फैसला लेने की जिम्मेदारी मैडिकल बोर्ड पर होगी. यह एक्ट कुछ शर्तों के आधार पर अबौर्शन की अनुमति देता है. गर्भावस्था में अगर गर्भवती महिला के जीवन को खतरा है, यदि गर्भावस्था बलात्कार का परिणाम है, यदि यह संभावना है कि जन्म के बाद बच्चे को गंभीर शारीरिक व मानसिक परेशानियों का सामना करना होगा या गर्भनिरोधक विफल रहा है.
भारत में मातृत्व मृत्यु का तीसरा बड़ा कारण असुरक्षित अबौर्शन है. गटमैचर इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के मुताबिक युवा महिलाओं के 78 फीसद अनचाहे गर्भ के लिए असुरक्षित अबौर्शन का इस्तेमाल किया जाता है. यदि भारत में सुरक्षित अबौर्शन किया जाए और उस के बाद सही देखभाल की जाए तो इस से संबधित मृत्यु में 97 फीसद की गिरावट देखी जा सकती है.
बच्चा पैदा करने और न करने का निर्णय केवल एक महिला का होना चाहिए. इन मामलों में कोई भी हस्तक्षेप न केवल समानता के विरूद्ध है बल्कि उन की निजता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन भी है.
14 अक्टूबर 2022 को बौम्बे हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा कि पतिपत्नी को बच्चे को जन्म देने के लिए मजबूर नहीं कर सकता. जस्टिस अतुल चंदुरकर और उर्मिला जोशी-फाल्के की बेंच ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान यह फैसला दिया और कहा कि यह अच्छी तरह से स्थापित है कि एक महिला का प्रजनन करने का अधिकार उस की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक अविभाज्य हिस्सा है. उसे बच्चे को जन्म देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है.
इस मामले में पति ने आरोप लगाया कि पहले बेटे के बाद दूसरी बार गर्भवती होने पर पत्नी ने पति की सहमति के बिना अपनी उसे समाप्त कर दिया. याचिका में पति ने पत्नी द्वारा उस की सहमति के बिना गर्भावस्था को समाप्त करने को उसके खिलाफ क्रूरता बताया. उस ने इसी आधार पर न्यायालय में तलाक की भी अर्जी दी.
इस के विपरीत पत्नी ने अपने वकील के माध्यम से तर्क दिया कि उस ने एक बच्चे को जन्म दिया है. दूसरी गर्भावस्था को उस ने बीमारी के कारण समाप्त कर दिया था. एक अजन्मे भ्रूण को एक जीवित महिला के अधिकारों से अधिक ऊंचे स्थान पर नहीं रखा जा सकता है. दोनों पक्षों को सुनने के बाद बौम्बे हाई कोर्ट ने इसे महिला के व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक हिस्सा माना.
हमेशा से एक महिला द्वारा गर्भावस्था को चुनने के विकल्प पर सवाल उठते रहे हैं. शादी के बाद पति और उस के घर वाले महिला द्वारा गर्भधारण करने को अपना हक / अधिकार समझते हैं. गर्भावस्था एक महिला के शरीर के भीतर होती है और उस के स्वास्थ्य, मानसिक स्थिति और जीवन को गहराई से प्रभावित करती है. एक पुराने शोध से पता चलता है कि एक महिला को उस की इच्छा के विरुद्ध गर्भावस्था के लिए मजबूर करने से उसके अवसाद का खतरा 20% तक बढ़ जाता है.
महिलाएं पुरुषों के हाथ की कठपुतली नहीं हैं
सवाल यह उठता है कि सारे बंधन और कानून महिलाओं पर ही क्यों लागू होते हैं. महिलाएं पुरुषों के हाथ की कठपुतली बन कर क्यों रह जाती हैं. उन का अलग वजूद है, अपनी इच्छाएं और प्राथमिकताएं हैं. अपना शरीर है और अपने शरीर पर तो उस का अपना हक़ होना चाहिए या वहां भी उसे पुरुषों की, धर्म की, कानून और सरकार की कठपुतली बनने को मजबूर रहना होगा. सारे कानून और रीति रिवाज स्त्रियों पर ही शिकंजे जकड़ने के लिए बने होते हैं. पुरुषों पर वे ही बंधन क्यों नहीं जड़े जाते. अगर स्त्री को शादीशुदा दिखने के लिए सिन्दूर लगाने की पाबंदी है तो वही पाबंदी पुरुषों पर क्यों नहीं है? उन्हें सिन्दूर जैसी चीज को नहीं लगानी पड़ती.
अगर अबौर्शन के लिए एक स्त्री की बाध्य किया जा सकता है, उसे बताया जाता है कि वह कब मां बने और कब, कितने महीने में अबोर्ट कराए या न कराए तो इस का मतलब तो यह है कि कल को कानून हमें बताएगा कि हमें कब सांस लेना है, कब खाना है और कब नहाना है. कितनी बार बाहर निकलना है कब घर के अंदर घुसना है. आखिर कानून और धर्म हर जगह क्यों घुसते हैं? अगर वे कोख में घुस रहे हैं घर में घुस रहे हैं रिश्तों में घुस रहे हैं तो कल को बैडरूम और टौयलेट में भी घुसेंगे. इस तरह तो इंसान की कोई व्यक्तिगत स्वतंत्रता ही नहीं रह जाएगी.
पीरियड्स को ले कर अटपटी गाथा
धर्म और पुरुषवादी सोच कहां तक पहुंच सकती है उस का एक नमूना महिलाओं के पीरियड्स से जुड़ी कहानी में है. हम सभी जानते हैं कि महिलाओं को पीरियड्स यानी मासिक धर्म होते हैं. प्रत्येक मासिक धर्म चक्र के दौरान 1 अंडा विकसित होता है और बाहर निकलता है. गर्भावस्था तब होती है जब पुरुष के शुक्राणु अंडे से मिलते हैं और उसे निषेचित करते हैं. और तभी वह मां बन पाती है. भारत में पीरियड्स को अशुद्ध माना जाता है और एक रजस्वला स्त्री को अलग जमीन पर अछूतों की तरह बिठा दिया जाता है. लेकिन दुनिया के कई कल्चर ऐसे हैं जहां इसे फीमेल पावर का एक तरीका समझा जाता है.
पीरियड्स की शुरुआत कैसे हुई? हो सकता है कि आप को यह बचकाना सवाल लगे क्योंकि इस का एक महत्वपूर्ण साइंटिफिक रीजन है और इस की वजह से ही महिलाएं मां बन पाती हैं. मगर हमारे देश में इस की भी एक धार्मिक कहानी है और धर्मग्रंथों की मानें तो यह दरअसल महिलाओं को मिले हुए श्राप के कारण होता है. इस से हास्यास्पद कुछ हो सकता है? मगर हमारे धर्म ग्रंथ जिन्हें पुरुषों ने लिखा है इस की एक अलग ही वजह सुनाते हैं.
इंद्र का श्राप बना पीरियड्स का कारण
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार इंद्र के श्राप के कारण महिलाओं को पीरियड्स होते हैं. एक कहानी के अनुसार इंद्र ने एक ब्राह्मण की हत्या की थी. स्वर्ग पर असुरों ने विजय प्राप्त कर ली थी और उस वक्त इंद्र मदद के लिए ब्रह्मा के पास गए. ब्रह्मा ने उन्हें एक अन्य ब्राह्मण के पास जाने का मार्ग दिखाया. उस ब्राह्मण की पत्नी राक्षसी थी और उस ने इंद्र की तपस्या सफल ना होने दी. इस से क्रोधित हो कर इंद्र ने ब्राह्मण और उस की पत्नी दोनों को मार दिया.
मारने के बाद इंद्र को यह अहसास हुआ कि उन्होंने एक ब्राह्मण की हत्या की है जिस से उन्हें पाप लगा है. इस का उपाय जानने के लिए जब वो ब्रह्मा के पास गए तब उन्होंने कहा कि इंद्र को अपने पाप को कई हिस्सों में बांटना होगा जिस से उन का पाप कम हो जाए. ऐसे में धरती, पेड़, जल और महिला को उन्होंने पाप का भागीदार बनाया. धर्म में यही कारण दिया जाता है कि महिलाओं को पीरियड्स होने लगे.
इस अजीबोगरीब कारण की कल्पना पुरुष सत्तावादी समाज ही कर सकता है जो हर हालत में स्त्रियों को कमजोर, पापी और तुच्छ साबित करने में लगा रहता है. स्त्री का मानो अपना कोई वजूद नहीं. जैसा धर्मगुरुओं और पुरुषों ने चाहा वैसा उसे बना दिया गया. अपने स्वार्थ के लिए जैसे चाहा उस के शरीर का उपयोग किया और फिर उसे कोई सम्मान कोई अधिकार भी नहीं दिया. इस तरह का व्यवहार अब स्त्रियां नहीं सह सकतीं. क्योंकि अब वह किसी पर आश्रित नहीं. वह खुद बच्चा पैदा कर उसे पाल सकती है. अपने बल पर जी सकती है. क्योंकि आज उस के पास शिक्षा का हथियार है. वह खुद को साबित कर सकती है.
शादी के बाद काम करना या न करना या बच्चे पैदा करना या न करना एक महिला की पूरी तरह से निजी पसंद है. एक महिला के लिए अपनी शादी के बाद भी अपने कैरियर के बारे में सोचना उस का हक है क्योंकि यह उसे अपने सपनों और आकांक्षाओं को जीने की अनुमति देता है और साथ ही साथ उस की वित्तीय स्वतंत्रता के लिए रास्ता बनाता है. अगर इस दौरान वह कुछ साल मां बनना न चाहे तो इस में किसी को समस्या नहीं होनी चाहिए. बच्चा एक स्त्री के शरीर में है तो उस से जुड़े फैसले लेने को वह स्वतंत्र क्यों नहीं.
आज 21वीं सदी में स्त्रियों को पुरुषों के रहमोकरम पर जीने की जरूरत नहीं. वह अपना और अपने कोख के बच्चे का ख्याल रख सकती है इसलिए उस की कोख से जुड़े फैसले करने का हक़ किसी को नहीं मिलना चाहिए. न धर्म को, न समाज को, न परिवार को और न पति को. यह हक सिर्फ और सिर्फ उस का है.