पृथक तेलंगाना का चुनावी इतिहास और आंकड़े बताते हैं कि यहां सीधा मुकाबला कांग्रेस और बीआरएस के बीच है. 2019 के लोकसभा चुनाव में जरूर भाजपा ने 17 में 4 सीटें जीत कर हर किसी को चौंका दिया था तब उसे 19.65 फीसदी वोट मिले थे. बीआरएस को 9 सीटें 34.54 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. कांग्रेस का प्रदर्शन दयनीय था उसे 3 सीटें 29.79 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं.
एआईएमआईएम को एक सीट 2.80 फीसदी वोटों के साथ मिली थी. यह सीट हैदरावाद थी जिस पर 2004 से ही असद्दुदीन ओवेसी जीत दर्ज करते आ रहे हैं. इस के पहले मुसलिमबाहुल्य हैदराबाद सीट 1984 से उन के पिता सुल्तान सलाउद्दीन जीतते रहे थे.
इस से पहले 2018 के विधानसभा चुनाव में बीआरएस 119 में से (तब टीआरएस) को 88 सीटें 46.87 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. कांग्रेस 19 सीटें 28.43 फीसदी वोटों के साथ ले गई थी. भाजपा को तब एक सीट 6.98 फीसदी वोटों के साथ मिलीं थीं. एआईएमआईएम को 7 सीटें 2.71 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं.
लेकिन 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने वापसी करते बीआरएस को सत्ता से बेदखल कर दिया था. उस ने 64 सीटें 39.40 फीसदी वोटों के साथ हासिल की थी जबकि बीआरएस 39 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. उसे 37.35 फीसदी वोट मिले थे. भाजपा ने 8 सीटें 13.90 फीसदी वोटों के साथ जीती थीं. एआईएमआईएम 7 सीटें 2.7 फीसदी वोटों के साथ ले गई थी. हमेशा की तरह भाजपा और एआईएमआईएम का प्रभाव क्षेत्र हैदराबाद के इर्दगिर्द ही रहा था जहां वोटों का ध्रुवीकरण हिंदूमुसलिम बिना पर होने लगा है.
केसीआर का ग्राफ बेवजह नहीं गिर रहा है जिस का जातियों और धर्म की राजनीति से गहरा ताल्लुक है. पिछले विधानसभा चुनाव में दलित, आदिवासी, मुसलिम और पिछड़े तबके के वोट भी कांग्रेस को बेवजह नहीं गए थे. अपने सियासी कैरियर की शुरुआत कांग्रेस से करने वाले केसीआर 1985 में टीडीपी से जुड़ गए थे.
2001 में उन्होंने तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी बना ली थी जिस का इकलौता मकसद पृथक तेलंगाना की मांग था जिस के लिए उन्होंने लंबी लड़ाई भी लड़ी. इस का इनाम भी उन्हें 2 बार मुख्यमंत्री बना कर जनता ने दिया. पृथक तेलांगना आंदोलन में उन के साथ सभी वर्गों और समुदायों के लोग थे जो उन के मुख्यमंत्री बनने के बाद छंटते गए.
इस के जिम्मेदार भी केसीआर खुद थे जो तेलंगाना बनने के बाद कोई नए मकसद नहीं गढ़ पाए और धरमकरम की राजनीति में उलझ कर रह गए. वह भी कुछ इस तरह कि दलित, आदिवासी, मुसलमान और पिछड़े खुद को ठगा महसूस करने लगे जो राज्य की आबादी का 80 फीसदी हिस्सा होते हैं. तेलांगना आंदोलन में इन्हीं तबकों की भागीदारी अहम थी जिस के चलते केसीआर ने वादा किया था कि राज्य का पहला मुख्यमंत्री दलित समुदाय का ही बनाया जाएगा और हरेक दलित परिवार को खेती के लिए मुफ्त जमीन व एक परिवार से एक सदस्य को सरकारी नौकरी भी दी जाएगी. इन और ऐसे कई वादों के चलते दलितों ने उन्हें 2 मौके दिए लेकिन नाउम्मीदी हाथ लगी तो यह तबका कांग्रेस के साथ हो लिया.
इन तबकों का माथा उस वक्त ठनका जब केसीआर ने साल 2017 में बालाजी मंदिर में सरकारी खजाने से कोई साढ़े 5 करोड़ का सोना दान में दे दिया. यह सोना गहनों की शक्ल में था. ये गहने पंडेपुजारियों द्वारा किए गए पूजापाठ के साथ समारोहपूर्वक चढ़ाए गए थे. केसीआर का परिवार और भारीभरकम लावलश्कर 2 हवाई जहाजों से तिरुपति मंदिर पहुंचा था. इस के कुछ महीने पहले ही उन्होंने साढ़े 3 करोड़ रुपए की कीमत का मुकुट वारंगल के देवी भद्रकाली मंदिर को तोहफे में दिया था. बकौल केसीआर, उन्होंने मन्नत मांगी थी कि तेलंगाना बना तो वे इन मंदिरों में दानदक्षिणा देंगे.
जाहिर है, वे भाजपा की तर्ज पर चलने लगे थे और सार्वजनिक सभाओं में खुद को सच्चा हिंदू भी घोषित करने लगे थे जिस से इस शुष्क खेती वाले राज्य के लोगों को कोई सरोकार न तब था न आज है.
इस से पहले भी तेलंगाना के लोगों को उन की निष्ठा और नियत पर तब शक हुआ था जब उन्होंने हैदराबाद के बीचोंबीच बेगमपेट इलाके में भव्य 50 करोड़ रुपए की लागत से सीएम हाउस बनवाया था. बुलेट प्रूफ इस आवास के होम थिएटर में ही 250 लोगों के बैठने की व्यवस्था की गई थी. अपना अतीत और इरादे भूल चुके केसीआर जब सामंतों और राजाओं की तरह महल में शाही ठाटबाट से मंदिरों में सोना दान करने लगे तो हिंदुत्व की उग्र और कट्टर राजनीति से डरा मुसलिम समुदाय भी उन से कट गया. उस के लिए भी इकलौता मुफीद और महफूज ठिकाना कांग्रेस ही बचा था. हालांकि हैदराबाद के मुसलमान ओवैसी पर भरोसा जताते रहे. लेकिन बाकी जगहों पर उन्होंने कांग्रेस पर भरोसा जताया.
तेलंगाना के 13 फीसदी मुसलमान 45 विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं. लेकिन उस ने बाकी इलाकों में बीआरएस और एआईएमआईएम गठबंधन को नकारना शुरू कर दिया है तो चिंता अब ओवैसी को करना चाहिए कि जरूरी नहीं कि हैदराबाद के मुसलमान भी उन्हें वोट करते रहेंगे जिन के दिलोदिमाग में यह बात घर कर गई है कि बीएसआर भाजपा के इशारे पर नाचते उस के हिंदूवादी एजेंडे पर चलने लगे हैं. उस के संगठन पर भी वेलम्माओं का कब्जा कुछ इस तरह है कि वह वेलम्मा राष्ट्रीय समिति ज्यादा लगती है.
ठीक यही डर 18 फीसदी दलितों और 12 फीसदी आबादी वाले आदिवासियों सहित 50 फीसदी पिछड़ों के मन में भी बैठ गया है जिन्होंने 2 बार बीआरएस को वोट दे कर केसीआर को मुख्यमंत्री बनाया. लेकिन वे हिंदुत्व और पंडेपुजारियों के जाल में ऐसे उलझे कि उस से निकल ही नहीं पा रहे.
दरअसल एनटीआर के चेले रहे केसीआर यह मान बैठे थे कि ये वर्ग तो उन का साथ देते ही रहेंगे और इन्हीं के कंधों पर चढ़ कर दिल्ली भी सब से बड़ी कुरसी तक पहुंचा जा सकता है. पिछले विधानसभा चुनाव में उन की यह गलतफहमी किस हद तक दूर हुई, यह तो उन का व्यंकटेश जाने लेकिन यह प्रचार भी तेजी से तेलंगाना के चौपालों पर होने लगा है कि केसीआर रसूख वाली वेलम्मा जाति के हैं जिन का बड़ा मकसद 5 फीसदी वेलम्माओं की तरह ही रसूख वाली जाति रेड्डी की राजनीति खत्म करना है. यही सपना कभी एनटीआर ने भी देखा और दिखाया था.
लेकिन आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में रेड्डी रहित राजनीति की कल्पना करना ठीक वैसी ही बात है जैसी उत्तरप्रदेश और बिहार में बगैर यादवों के राजनीति की बात सोचना जो सत्ता में रहें न रहें समाज और राजनीति की धुरी बने ही रहते हैं. और जब इन्हें मुसलमानों व दलितों का साथ मिल जाता है तो ये सत्ता झटक ले जाते हैं.
कांग्रेस ने तेलंगाना में रेवंत रेड्डी को मुख्यमंत्री तो बनाया लेकिन अपने तजरबों से सबक लेते सभी तबकों का ध्यान वह रख रही है और इसी दम पर इस लोकसभा चुनाव में ताल ठोक रही है कि इस बार बीआरएस का बचाखुचा वोट भी समेट ले जाएगी. भाजपा ने यहां दलित समुदाय पर डोरे डालने की कम कोशिशें नहीं कीं लेकिन दलितों ने उस पर भरोसा नहीं किया. नतीजतन, वह 3 फीसदी ब्राह्मण सहित दूसरे सवर्णों के सहारे चुनाव लड़ रही है.
केसीआर को अब एहसास हो रहा है कि अगर इस बार पिछला सा प्रदर्शन नहीं दोहरा पाए तो फिर मौका मिलना मुश्किल हो जाएगा, इसलिए उन्होंने पूरी ताकत झोंक रखी है. भाजपा भले ही अब की बार 400 पार का नारा तेलांगना में लगाते 10 सीटों का टारगेट ले कर चल रही हो पर मालूम उसे भी है कि यहां भी उस का धर्म और हिंदुत्व का एजेंडा नहीं चलने वाला. इसलिए उस का फोकस पिछली जीती सीटों पर है. दूसरे, उस के पास असरदार प्रादेशिक नेतृत्व का भी अभाव है. कभी वेकैंया नायडू और बंगारू लक्ष्मण जैसे कद्दावर राष्ट्रीय नेता उस की ताकत हुआ करते थे. रेवंत रेड्डी के साथसाथ तेलंगाना में कांग्रेस को बड़ा फायदा राहुल गांधी की लोकप्रियता का यहां से मिलना तय है जिन की भारत जोड़ो यात्रा ने विधानसभा की जीत में अहम रोल निभाया था.