न्याय व्यवस्था में आमूलचूल सुधार की जरूरत है. संविधान ने कई मसलों पर स्पष्ट राय नहीं रखी पर जरूरत के हिसाब से संविधान संशोधन कर उन को अपनाया गया है. मुकदमों की बढ़ती संख्या और ऊपरी अदालतों के बढ़ते बोझ का कम करने के लिए ट्रायल कोर्ट और विवेचकों को जवाबदेय बनाना चाहिए. नेता जब कुरसी पर रहते हैं तो ऐसे कानून बनाते हैं जो राहत की जगह दंड देने वाले हों. ऐेसे में उम्मीद की आखिरी किरण न्याय पालिका ही है. उस के पास लोकसभा से अधिक ताकत दी है.
संविधान ने न्याय पालिका, कार्यपालिका और विधायिका को लोकतंत्र की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपी थी. संविधान के यह तीनों ही स्तंभ अपनी जिम्मेदारी निभाने के बजाए जनता से ही उम्मीद करते हैं वह इन की कमियों को दूर करने के लिए आवाज उठाएं. जनता की आवाज के रूप में लोकतंत्र के जिस चौथे स्तंभ मीडिया की बात कही गई उस को संविधान ने न कोई ताकत दी न ही उस का आधारभूत ढांचा तैयार किया. जो आधीअधूरी ताकते हैं वह न्याय पालिका, कार्यपालिका और विधायिका के रहमोकरम पर है. संविधान केवल 3 स्तंभों पर ही टिकी है. चौथा स्तंभ 3 स्तंभों की कृपा पर निर्भर है. ऐसे में कृपा करने वाले के हिसाब से काम करना होता है.
संविधान से सब से अधिक महत्व न्याय पालिका को दिया है. कलीजिमय सिस्टम लागू होने के बाद न्याय पालिका लोकसभा और राष्ट्रपति से भी उपर हो गई है. करीब 40 साल इस व्यवस्था को लागू हुए हो गया है न्याय पालिका खुद में सुधार नहीं कर पाई है. सुप्रीम कोर्ट के जज पद से रिटायरमेंट लेने के बाद ही वह अपने हित के लिए राजनीतिक दलों से लाभ लेने लगता है. 2 साल का कूलिंग पीरियड रखने की बात कही गई थी पर वह भी नहीं हो पाया. 5 करोड़ से अधिक मुकदमे विचाराधीन हैं.
ट्रायल कोर्ट में हो जरूरी सुधार
न्यायिक व्यवस्था में पीड़ित सब से पहले ट्रायल कोर्ट जिन का निचली अदालते कहते हैं वहां न्याय की उम्मीद ले कर जाता है. वहां न्याय न मिलने पर पीडित हाईकोर्ट जाता है. इस के बाद सुप्रीम कोर्ट तक जाता है. देश में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित है. ऐसे में न्याय व्यवस्था में सुधार की आमूलचूल बदलाव करने होगे. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की पीठ ने अजय सिंह उर्फ गोलू की ओर से दाखिल एक याचिका को निस्तारित करते कहा कि ‘सभी विचारण न्यायलय और अपीलीय न्यायालय अपने आदेश को और्डर शीट पर स्पष्ट तरीके से लिखे. संक्षिप्त शब्दों का प्रयोग करने से बचें.’
न्याय व्यवस्था में छोटेबड़े हर तरह के सुधार की जरूरत है. हमारा कानून डायनेमिक है, जो समय के हिसाब से बदलते रहता है. उस की अलगअलग तरीके परिस्थिति के हिसाब से उस की व्याख्या की जाती है. कानून में बदलाव सामाजिक सच्चाई के हिसाब से होता है. अगर सामाजिक सचाई बदल गई है तो फिर कानून की सचाई को भी बदलना होगा. 21वीं सदी में परिस्थितियां बदल गई हैं तो बदली हुई परिस्थितियों के हिसाब से कानून में भी बदलाव होना चाहिए. इस से न्यायपालिका की स्वीकार्यता और भी मजबूत होगी और लोगों का भरोसा और बढ़ेगा.
‘कूलिंग पीरियड’ से परहेज क्यों ?
न्याय व्यवस्था दबाव मुक्त रहे इस के लिए एक बात बारबार उठ रही है कि रिटायर होने के 2 साल के अंदर जज कोई सरकारी पद न ले. बौम्बे लौयर्स एसोसिएशन ने एक जनहित याचिका याचिका दायर कर के मांग की थी कि सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के किसी भी रिटायर्ड जज की राजनीतिक नियुक्ति को स्वीकार करने से पहले 2 साल की ‘कूलिंग औफ’ अवधि तय की जाए. अगर इस में हर तरह के जज शामिल हो तो और भी ठीक रहेगा.
इस मसले पर संविधान ने कोई राय नहीं दी है. शायद संविधान ने इस बारे में सोचा ही नहीं होगा. संविधान ने कलीजिएम को चर्चा के बाद खारिज किया था लेकिन बाद में इस को न्याय व्यवस्था का हिस्सा बना लिया गया. इसी तरह से कूलिंग पीरियड की बात को यह कह कर टाला जाना ठीक नहीं है कि इस बारे में संविधान ने कुछ नहीं कहा है. न्याय व्यवस्था सब से ऊपर है तो उस की जिम्मेदारी बनती है कि खुद में सुधार के लिए पीआईएल का इंतजार न करें. कानून में बदलाव सामाजिक सचाई के हिसाब से होता है. अगर सामाजिक सचाई बदल गई है तो फिर कानून की सचाई को भी बदलना होगा.
‘कूलिंग पीरियड’ की मांग जज की स्वतंत्रता को मजबूत करने के लिए जरूरी है. होना तो यह चाहिए कि यह कदम खुद जजों की तरफ से उठनी चाहिए. इस से उन के प्रति और अधिक सम्मान होगा. रिटायरमेंट के बाद, दो, तीन या चार साल जो भी उचित हो, उस का कूलिंग पीरियड होना चाहिए. जब कोई सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट का जज अपने पद पर होते हैं तो वे सरकार के खिलाफ और पक्ष में भी निर्णय देते हैं.
कायदे से कूलिंग पीरियड 5 साल होना चाहिए. क्योंकि 5 साल में सरकार बदल जाती है. अगर लोगों के बीच यह धारणा है कि कोई जजमेंट किसी खास सरकार के वक्त में उन के पक्ष में आया है तो सरकार फैसले देने वाले जज को रिटायरमेंट के बाद उस के एवज में कुछ देती है. इसलिए जरूरी है कि रिटायरमेंट के बाद कूलिंग औफ पीरियड जरूर होना चाहिए ताकि बीच में एक गैप आ जाए और जिस की वजह से न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहे. ऐसा होने पर अगर किसी जज ने सरकार के पक्ष में कोई जजमेंट दिया तब ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि रिटायरमेंट के बाद जो पद मिला है, उस फैसले के एवज में मिला है.
लोगों का लगता है कि कोई फैसला अगर सरकार के पक्ष में आता है तो पोस्ट रिटायरमेंट कोई जौब या राजनीतिक नियुक्ति इस वजह से तो नहीं दी गई है. इस में बहुत सारे ट्रिब्यूनल हैं, कमीशन हैं. इन का पोस्ट रिटायरमेंट के बाद जजों को मिल जाता है तो लोगों को लगता है कि उसी वजह से मिला है. सचाई क्या है कोई नहीं जानता पर जो राय बनती है उस का समाधान होना चाहिए.
न्यायपालिका चुने हुए लोगों पर आधारित नहीं होती है. न्यायपालिका की जवाबदेही सीधे पब्लिक को ले कर नहीं होती है. यही कारण है कि न्यायपालिका स्वतंत्र है. जबकि कार्यपालिका यानी सरकार इसलिए स्वतंत्र नहीं होती है क्योंकि उन की जवाबदेही सीधे पब्लिक की होती है. न्यायपालिका का निर्णय कानून के आधार पर होता है. पब्लिक के मूड से न्यायपालिका के किसी फैसले का कोई संबंध या प्रभाव नहीं होता है. यह माग लंबे समय से चल रही है.
इस के अलावा भी मजिस्ट्रेट स्तर से ले कर बड़ी अदालतों तक में बहुत सुधार की जरूरत है. इस के कारण न्याय देर से मिल रहे और उस के लिए सभी अदालतों के चक्कर काटने पड़ते है. देश में रहने वाले बड़े वर्ग के पास न तो इतना पैसा होता है और न जानकारी ऐसे में कई बार गलत लोग इस का लाभ उठा लेते हैं.
राजनीतिक दलों पर जब शिकंजा कसता है तब उन को न्याय और कानून में खामी नजर आती है वैसे वह न्याय में सुधार पर आंख बंद कर काम करते हैं. अदालतों का सम्मान करते हैं. राहुल गांधी हो या अरविंद केजरीवाल खुद ही ऐसे कानून बनाते हैं जिन में जनता पिसती है. आयकर की नोटिस से जब जनता परेशान होती है तो इन की कानों पर जूं नहीं रेंगती. जब आयकर ने कांग्रेस के बैंक खाते फ्रीज किए तब उनका ‘विधवा विलाप’ शुरू हो गया. राजनीतिक दलों को कानून सविधा के अनुसार बनाना चाहिए दंड देने के हिसाब से नहीं.
कूलिंग पीरियड के पीछे की वजहें
कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय ने इस्तीफा दे कर पद छोड़ा और भाजपा में शामिल हो गए. यह कोई पहला मामला नहीं है, जब किसी न्यायाधीश ने सियासी राह चुनी हो. उन से पहले पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई, जस्टिस हिदायतुल्ला, जस्टिस रंगनाथ मिश्रा भी सियासी दलों से जुड़ चुके हैं. कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय ने पहले पद से इस्तीफा दिया. फिर 7 मार्च 2024 को भाजपा में शामिल हो गए.
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ने उन के भाजपा में शामिल होने को ले कर निशाना साधना शुरू कर दिया है. दोनों ही दलों का कहना है कि उन के इस कदम से उन के अब तक फैसलों पर सवाल उठना लाजिमी है. पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई 17 नवंबर 2019 को अपना कार्यकाल पूरा होने के बाद 19 मार्च 2020 को ही राज्यसभा सांसद बन गए थे. उन के राज्यसभा सांसद बनने पर भी काफी हल्ला मचा था.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस बहरुल इस्लाम आजादी के बाद से कांग्रेस नेता रहे. असम के बहरुल इस्लाम दो बार 1962 और 1968 में कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा सदस्य बने. उन्होंने बतौर राज्यसभा सदस्य दूसरा कार्यकाल पूरा होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया और गुवाहाटी हाईकोर्ट में जस्टिस बन गए. फिर 1 मार्च 1980 को सेवानिवृत्त होने के बाद 4 दिसंबर 1980 को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट में जज बना दिया.
सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने 1982 में बिहार के अर्बन को-औपरेटिव घोटाले में कांग्रेस नेता जगन्नाथ मिश्रा को आरोपों से बरी कर दिया. इस पीठ में बहरुल इस्लाम भी थे. सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा देने के बाद 1983 में तीसरी बार राज्यसभा सांसद बनाए गए.
सिख दंगों में कांग्रेस को क्लीन चिट देने वाले पूर्व सीजेआई रंगनाथ मिश्र सेवानिवृत्ति के बाद कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा सदस्य बने. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस मिश्र की नियुक्ति 1983 में हुई और वह 1990 में मुख्य न्यायाधीश बने. पूर्व पीएम इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में सिख दंगे भड़के. दंगों की जांच के लिए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने रंगनाथ मिश्र आयोग बनाया. आयोग ने 1986 में अपनी रिपोर्ट पेश की. इस में कांग्रेस को क्लीन चिट दी गई थी. बाद में कांगेस नेता सज्जन कुमार समेत कई नेताओं को दंगे भड़काने का दोषी मानते हुए सजा सुनाई गई थी. सेवानिवृत्ति के बाद रंगनाथ मिश्र कांग्रेस में शामिल हो गए और 1998 से 2004 तक राज्यसभा सदस्य रहे.
पूर्व सीजीआई रंजन गोगोई सुप्रीम कोर्ट से रिटायरमेंट के 6 महीने गुजरने से पहले ही राज्यसभा के सदस्य बन गए थे. इस पर विपक्षी दलों ने काफी हंगामा किया था. वहीं, उच्च सदन में दिए गए उन के भाषण पर भी काफी हल्ला हुआ था. दिल्ली सर्विस बिल पर दिए भाषण में उन्होंने कहा कि अगर पसंद का कानून न हो तो ये मनमाना नहीं माना जा सकता है. ऐसा कह कर उन्होंने बिल का विरोध कर रहे विपक्षी दलों के तर्क को खारिज कर दिया था. इस पर कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने कहा था कि क्या देश के संविधान को पूरी तरह से खत्म करने के लिए यह भाजपा की साजिश थी. संविधान पर हमला करने के लिए वो एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश का सहारा ले रहे हैं.
पूर्व जस्टिस केएस हेगड़े का सार्वजनिक जीवन काफी दिलचस्प रहा है. वह 1947 से 1957 तक लोक अभियोजक रहे. इस के बाद वह कांग्रेस में शामिल हो गए. कांग्रेस ने 1952 में उन्हें राज्यसभा सदस्य बना दिया. राज्यसभा सदस्य रहते हुए ही उन्हें मैसूर हाईकोर्ट में जस्टिस नियुक्त किया गया. फिर उन्हें दिल्ली और हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश भी बनाया गया. उन्होंने 30 अप्रैल 1973 को पद से इस्तीफा दे दिया. वह फिर राजनीति में आए और जनता पार्टी के टिकट पर दक्षिण बेंगलुरु सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीता. वह 20 जुलाई 1977 तक सांसद रहे ओर 21 जुलाई 1997 को उन्हें लोकसभा अध्यक्ष चुना गया.
मोदी सरकार ने पूर्व सीजेआई पी. सदाशिवम को 2014 में केरल का राज्यपाल नियुक्त किया. इन के अलावा सुप्रीम कोर्ट में पहली महिला जज रहीं जस्टिस एम. फातिमा बीबी को रिटायरमेंट के बाद कांग्रेस सरकार ने तमिलनाडु का राज्यपाल नियुक्त किया था. वह तमिलनाडु की पूर्व सीएम जयललिता को भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे होने के बाद भी मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने के कारण विवादों में घिर गई थीं.
यह तो कही हुई कहानियां हैं. बहुत सारी ऐसी कहानियां है जिन को कहना सरल नहीं है. राजनीतिक में जाने के अलावा तमाम तरह की सुविधाएं लेने के लिए अलगअलग नियुक्त्यिां होती हैं. ऐसे में न्याय व्यवस्था में सुधार की जरूरत है. केवल किसी मामले की सुनवाई करते समय सुधार की बात कहने से जनता का भला नहीं होगा.
न्यायपालिका को इतने अधिकार संविधान ने दिए हैं कि अगर उस के अंदर इच्छा शक्ति हो तो वह खुद में सुधार कर सकती है. यह पूरी दुनिया के सामने एक नजीर होगी. बात ट्रायल कोर्ट की ही नहीं विवेचना करने वाली पुलिस पर की भी जवाबदेही तय की जाए. अगर कोई फैसला उपरी अदालतों में जा कर पलट जाता है इन की जिम्मेदारी तय हो कि ऐसा क्यों हुआ ? जब तक जवाबदेही तय नहीं होगी सुधार संभव नहीं है.