केरल के वोटर को न हिंदू राष्ट्र से कोई सरोकार है और न ही राम, कृष्ण या काशी और मथुरा वगैरह से लोगों को कोई लेनादेना है. इस खूबसूरत राज्य की 20 लोकसभा सीटों पर इस बार भी लड़ाई दो फ्रंटों की आड़ में कांग्रेस और माकपा के बीच है, ठीक वैसे ही जैसे कभी पश्चिम बंगाल में हुआ करती थी. भाजपा मुद्दत से केरल में सेंधमारी की कोशिश कर रही है लेकिन उस का हिंदुत्व और मंदिर कार्ड यहां परवान नहीं चढ़ पा रहा.

लाख कोशिशों के बाद भी भाजपा केरल में क्यों पांव नहीं जमा पा रही, इस सवाल के 2 संभावित जवाब हैं, पहला तो यह कि वहां शिक्षितों और जागरूकों की संख्या ज्यादा है जो धर्म की राजनीति के सामाजिक खतरे समझते उस से परहेज करते हैं. दूसरा यह है कि केरल देश का इकलौता राज्य बचा है जिस में मार्क्सवाद और कम्युनिज्म जिंदा है. 20 लोकसभा सीटों वाले केरल में 2019 के चुनाव के दौरान उस वक्त खासी हलचल मच गई थी जब राहुल गांधी के वायनाड सीट से लड़ने की घोषणा हुई थी. अमेठी की संभावित हार के मद्देनजर कांग्रेस के रणनीतिकारों का यह फैसला सटीक और कारगर भी रहा था.

राहुल गांधी ने सीपीआई के पी पी सुनीर को 4 लाख 31 हजार से भी ज्यादा वोटों से हरा कर 2,461 किलोमीटर दूर दिल्ली जा पहुंचे थे. उन के वायनाड से लड़ने का दोहरा फायदा कांग्रेस और उस के सहयोगी यूडीएफ यानी यूनाइटेड डैमोक्रेटिक फ्रंट को मिला था. ये दोनों 20 में से 19 सीट ले गए थे. माकपा और एलडीएफ यानी लैफ्ट डैमोक्रेटिक फ्रंट के खाते में महज एक सीट आई थी. भाजपा और एनडीए को कोई सीट नहीं मिली थी. 47.48 फीसदी वोट ले जाने वाले यूडीएफ में कांग्रेस को 37.46 फीसदी वोट शेयर के साथ 15 सीटें मिली थीं. मुसलिम लीग को 5.48 फीसदी वोटों के साथ 2 और केरल कांग्रेस व रिवोल्यूशनरी पार्टी के हिस्से में एकएक सीट आई थी. इन दोनों का वोट शेयर 4 फीसदी के लगभग था.

एलडीएफ का वोट शेयर 36.29 फीसदी था जिस में बड़ा हिस्सा इकलौती सीट अलपुझा जीतने वाली सीपीआईएम का 25.97 फीसदी था. एनडीए के सब से बड़े दल भाजपा को कुल 13 फीसदी वोट मिले थे. जाहिर है, सीधा मुकाबला यूडीएफ और एलडीएफ के बीच था. चुनाव में होने भर की रस्म अदा कर रहा एनडीए उम्मीदवार सिर्फ तिरुवनंतपुरम सीट पर दूसरे नंबर पर था जहां से कांग्रेसी दिग्गज शशि थरूर एक लाख से कुछ ही कम वोटों से जीते थे. 140 विधानसभा क्षेत्रों में से यूडीएफ 123 पर आगे रही थी जबकि एलडीएफ को महज 16 सीटों पर ही बढ़त हासिल हुई थी. एनडीए एक ही विधानसभा सीट पर लीड ले पाया था.

लोकसभा और विधानसभा चुनावों के मुद्दे और वोटर का मूड कितना अलग होता है, यह 2 साल बाद ही हुए विधानसभा चुनाव से समझ आया था जब लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप करने वाला यूडीएफ महज 41 सीटों पर जीत दर्ज कर पाया था. उलट इस के, एलडीएफ ने 99 सीटें जीत ली थीं और पी विजयन मुख्यमंत्री बने थे. विधानसभा चुनाव में भी एनडीए खाता खोलने को तरस गया था खासतौर से भाजपा, जो एक विधानसभा सीट पर भी अपनी बढ़त कायम नहीं रख पाई थी.

साफ दिख रहा है कि पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को राहुल गांधी की वायनाड से उम्मीदवारी का फायदा मिला था. वरना तो 2014 के लोकसभा चुनाव में उसे केरल में केवल 8 सीटें 31.10 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. यूडीएफ को 12 सीटें 41.98 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. एलडीएफ को सीटें 40.12 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. एनडीए को तब 10.82 फीसदी वोट मिले थे और वह खाता तब भी नहीं खोल पाया था.

इस बार कुछ चमत्कार होगा, ऐसा लग नहीं रहा क्योंकि सीधा मुकाबला दोनों फ्रंटों के बीच ही है. राहुल गांधी दोबारा वायनाड से मैदान में हैं जिस का कितना फायदा कांग्रेस और यूडीएफ को मिलता है, यह 4 जून को ही पता चलेगा. लेकिन यह साफ दिख रहा है कि भाजपा अभी भी हवा में हाथपांव मार रही है. बीती 16 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पथनमपिट्टा की सार्वजनिक सभा एक फ्लौप शो ही साबित हुई थी जिस में उन्होंने एलडीएफ और यूडीएफ दोनों को बराबरी से कोसा. यहां उन्होंने राममंदिर और धर्म का जिक्र नहीं किया क्योंकि उन्हें बेहतर मालूम है कि केरल में यह टोटका नहीं चलने वाला. केरल ही नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण भारत में वे इन मुद्दों से बचते दिखाई देते हैं जिस की वजह साफ है कि वहां का हिंदुत्व हिंदीभाषी राज्यों के उन के हिंदुत्व से अलग है.

केरल में शैव भी हैं और वैष्णव भी हैं लेकिन वे खुद को मलयाली हिंदू कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं बजाय सनातनी हिंदू के, उन के धार्मिक संस्कार और रीतियां भी उत्तर भारत के हिंदुओं से अलग हैं. जिन आदि शंकराचार्य की देशभर में मूर्तियां भाजपा गढ़ रही है वे केरल के ही थे लेकिन वे चूंकि नंबूधिरी या नम्बूदरी थे, इसलिए भी भाजपा उन की जाति या समुदाय का जिक्र करने से बचती है.

नंबूधिरी पौराणिक कथाओं में कावेरी और कृष्णा नदी का तो जिक्र आता है लेकिन गंगा और नर्मदा वगैरह का नहीं, जिस से लगता है कि न केवल केरल बल्कि पूरे दक्षिण भारत का हिंदुत्व एक भिन्न चीज है जिस में न रामचरित मानस है, न गीता है और न ही विष्णु के अवतार आराध्य आदर्श या नायक हैं. जबकि जातपांत और छुआछूत या शूद्र प्रताड़ना के मामले में केरल किसी से उन्नीस नहीं.

 

यूसीसी बना बड़ा चुनावी मुद्दा

चर्च के पादरी भी हिंसा के शिकार हो रहे हैं, यह कहते नरेंद्र मोदी ने 19 फीसदी ईसाईयों को लुभाने की असफल कोशिश की, असफल इसलिए कि अकसर हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं की झड़प ईसाईयों से ही होती है (इस लिहाज से उनका यह कहना गलत नहीं था) झड़प का हिंसक या अहिंसक होना, न होना वक्त की बात है. लंबे वक्त से भगवा गैंग केरल में ईसाईयों को घेरने के जतन में लगा है लेकिन उन के प्रति अपनी नफरत न छोड़ पाने से कामयाब नहीं हो पा रहा.

केरल में नरेंद्र मोदी सीएए पर भी नजरें चुराते नजर आए, जिस का विरोध बड़ा चुनावी मुद्दा बन चुका है. दोनों फ्रंट सीएए को ले कर भाजपा पर हमलावर हैं जिस का फायदा भी उन्हें मिलना तय है. लेकिन किस को कितना फायदा मिला, यह नतीजे बताएंगे. केरल में हिंदुओं की अबादी 54.73 फीसदी है जिसे यूसीसी से कोई खास लेनादेना नहीं. लेकिन 26.56 फीसदी मुसलिमों में इसे ले कर ख़ासा गुस्सा और दहशत है. एलडीएफ और यूडीएफ दोनों ही सीएए के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. मुख्यमंत्री पिनराई विजयन इसे विभाजनकारी बताते इसे राज्य में लागू न करने का भरोसा दिला रहे हैं. उन के मुताबिक नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक मानता है.

एलडीएफ के संयोजक ई पी जयराजन इसे आरएसएस का हिंदू राष्ट्र बनाने का एजेंडा भी करार दे चुके हैं लेकिन यूडीएफ भाजपा के साथसाथ पिनराई सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहा है कि वह इस मुद्दे पर ईमानदारी नहीं बरत रही है. विधानसभा में विपक्ष के नेता वी डी सतीशन कहते हैं कि साल 2019 में राज्य में सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन से ताल्लुक रखते 835 मामले दर्ज हुए थे जिन्हें सरकार वापस नहीं ले रही जबकि मुख्यमंत्री विजयन ने घोषणा की थी कि इन में से गैरआक्रामक मामले वापस लिए जाएंगे. सरकार की मंशा इसे ले कर ठीक नहीं.

केरल के चौपालों और कौफीहाउसों तक में सीएए पर गर्मागर्म बहस और चर्चा है पर इसे ले कर मुसलिम समुदाय किस के साथ जाएगा, यह साफ नहीं हो पा रहा है लेकिन कांग्रेस का पलड़ा भारी दिख रहा है जिसे इंडियन यूनियन मुसलिम लीग का साथ मिला हुआ है. पिछले 2 लोकसभा चुनावों में मुसलिम लीग 2 लोकसभा सीट जीतती रही है लेकिन 2021 के विधानसभा चुनाव में उसे 15 सीटें मिलना बताता है कि मुसलिम समुदाय में उस की पकड़ बेहद पुख्ता है जिस का फायदा यूडीएफ को मिलेगा. दूसरे, वोटर यह भी सोच सकता है कि विजयन सरकार अगर वाकई इस मुद्दे पर गंभीर है तो उसे परखने के लिए अभी 2 साल का वक्त और है.

स्थानीय कांग्रेसी नेताओं में शशि थरूर एक लोकप्रिय नेता हैं और राहुल गांधी को भी केरल के लोग पसंद करते हैं जबकि नरेंद्र मोदी अधिकतर लोगों के लिए एक प्रधानमंत्री भर हैं. उन की रैलियों में मोदीमोदी के नारे भी घुटीघुटी सी आवाज में लगते दिखाई और सुनाई देते हैं. केरल में इस बार भी मुकाबला एलडीएफ और यूडीएफ के बीच ही है जिस में भाजपा की मौजूदगी खाने की थाली में अचार सरीखी भी नहीं है. बहुत मुमकिन है कि केरल का वोटर कांग्रेस को भी ताकत दे और मार्क्सवाद को भी जिंदा रखे यानी 2014 जैसा नतीजा दे और न दे तो कम्युनिस्टों को यहां से भी सामान समेटना शुरू कर देना चाहिए.

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